________________
दो पोलक आगे की सीट पर बैठकर कार में चले जा रहे थे। जब वे एक मोड़ के पास पहुंचे, तो जो कार चला रहा था उसने अपने मित्र से कहा, "बाहर देखकर बताओगे इंडिकेटर काम कर रहा है या नहीं ?" उसने झट से सिर बाहर निकाला और इंडिकेटर लाइट को देखकर अपने मित्र से बोला, “हां कर रहा है— नहीं, नहीं कर रहा;
हां कर रहा है— नहीं, नहीं कर रहा; हां, कर रहा है— नहीं, नहीं कर रहा।" भगवान, यदि मुझसे कोई पूछे कि मेरा साक्षित्व हो रहा है कि नहीं, तो मेरा उत्तर भी यही होगा : हां, हो रहा है; नहीं, नहीं हो रहा; हां, हो रहा है; नहीं, नहीं हो रहा। क्या परम घर तक की परी यात्रा ऐसी ही है?
ओशो से प्रश्नोत्तर
द्वंद्वों का निर्द्वद्व साक्षी
दे सको: “हां, मैं साक्षीभाव में हूं; नहीं, साक्षीभाव में नहीं हूं; हां, साक्षीभाव में हूं: नहीं, साक्षीभाव में नहीं हूं,” तो तुम्हें स्मरण रखना होगा कि साक्षीभाव के इन क्षणों के पीछे भी कुछ है जो इस पूरी प्रक्रिया को देख रहा है। इसका साक्षी कौन हो रहा है— कि कभी तुम साक्षीभाव में हो और कभी साक्षीभाव में नहीं हो ? कुछ है जो अचल है।
नहीं, ऐसी नहीं है, क्योंकि जहां तक
तुम्हारे साक्षित्व का संबंध है, वह आता-जाता रह सकता है, और तुम्हारा उत्तर बिलकुल उस पोलक की तरह हो सकता है जो बोला, “इंडिकेटर काम कर रहा है, नहीं कर रहा है।" फिर बोला, "कर रहा है।"
इंडिकेटर का तो यही काम है— होना, पोलक पर मत हंसो। जहां तक उसके होश न होना; होना, न होना। लेकिन बेचारे का सवाल है वह पूरी तरह से होश में है। जब भी इंडिकेटर काम करता है तो वह कहता है "हां"; जब काम नहीं करता तो वह “नहीं” कहता है। इंडिकेटर के प्रति उसका होश सतत चल रहा है। इंडिकेटर बदलता रहता है लेकिन पोलक को पूरा होश है कि कब वह काम कर रहा है, कब नहीं कर रहा है; कब वह चालू है, कब बंद है। उसका होश सतत चल रहा है।
यदि तुम साक्षित्व के विषय में यही उत्तर
तुम्हारा साक्षीभाव तो बस एक इंडिकेटर बन गया है; उसकी परवाह मत करो। तुम्हारा जोर होना चाहिए सनातन पर, शाश्वत पर, अहर्निश पर — और वह मौजूद है। और वह सबके भीतर है, हम बस उसको भूल गए हैं।
लेकिन जिस समय हम उसे भूल भी जाते हैं, तब भी वह अपनी परम संपूर्णता में मौजूद रहता है। वह एक दर्पण की भांति है जो सब कुछ प्रतिबिंबित कर सकता है, अभी ही सब कुछ प्रतिबिंबित कर रहा है,
256