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लेकिन तुम दर्पण की ओर पीठ किए हुए खड़े हो । बेचारा दर्पण तुम्हारी पीठ को प्रतिबिंबित कर रहा है।
पीछे मुड़ो, और वह तुम्हारे चेहरे को प्रतिबिंबित करेगा। अपना हृदय खोलो, वह तुम्हारे हृदय को प्रतिबिंबित कर देगा।
सब कुछ मेज पर बिछा दो, एक पत्ता भी मत छिपाओ और वह तुम्हारी पूरी वास्तविकता को प्रतिबिंबित कर देगा ।
लेकिन तुम यदि दर्पण की ओर पीठ किए खड़े रहो और संसार में चारों ओर देख देख कर लोगों से पूछते रहो, “मैं कौन हूं?” तो यह तुम्हारे ऊपर है। क्योंकि ऐसे मूढ़ हैं जो आकर तुम्हें सिखाने लगेंगे कि "यह उपाय है। यह करो और तुम्हें पता लग जाएगा कि तुम कौन हो। "
किसी विधि की जरूरत नहीं है, बस 180 डिग्री के कोण पर पीछे मुड़ना है — और वह कोई विधि नहीं है।
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ओशो से प्रश्नोत्तर
और दर्पण तुम्हारी अंतस - सत्ता है। शायद इस मजाक को तुमने इस कोण से न देखा हो। तुम किसी को यह मजाक सुनाओ तो वह हंसेगा कि पोलक कितना मूर्ख है, क्योंकि इंडिकेटर का तो काम ही यही है — जलना, बुझना, जलना, बुझना। लेकिन तुम मेरे पास यह चुटकुला ले आए हो - मैं बस इस पर हंस कर नहीं रह सकता क्योंकि मैं इसमें कुछ और भी देखता हूं जो शायद कोई और न देखे ।
पोलक निरंतर सजग है। वह एक भी बात, एक भी क्षण चूकता नहीं ।
और जब भी तुम कहते हो “साक्षीभाव, हां" और फिर वह अदृश्य हो जाता है तो तुम कहते हो, “नहीं” – फिर वह दोबारा प्रकट होता है, तुम कहते हो, “हां”... । इससे पता चलता है कि साक्षीभाव के होने और न होने के इन सारे क्षणों के पीछे कुछ
है— असली साक्षी, जो उस पूरी प्रक्रिया को प्रतिबिंबित कर रहा है जिसे तुम मानते हो कि साक्षीभाव है। यह असली साक्षी नहीं है, यह तो बस इंडिकेटर है।
इंडिकेटर को भूल जाओ।
प्रतिबिंबित करने की सतत प्रक्रिया को याद रखो जो चौबीस घंटे तुम्हारे भीतर चल रही है, चुपचाप सब कुछ देखती हुई । धीरे-धीरे उसे साफ करो—उस पर बहुत-सी धूल जम गई है, सदियों की धूल
गई है। धूल को पोंछो।
और एक दिन, जब दर्पण पूरी तरह साफ हो जाएगा, तो साक्षी की उपस्थिति और अनुपस्थिति के वे क्षण समाप्त हो जाएंगे; तुम बस एक साक्षी रह जाओगे ।
और जब तक तुम साक्षी की शाश्वतता को न जान लो, तब तक बाकी सब साक्षी मन के ही हिस्से हैं। उनका कोई मूल्य नहीं । 5