SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ओशो से प्रश्नोत्तर - मन को भटकने दोः • तुम बस देखो ध्यान करते समय भी मेरा मन पांच सौ मील प्रति घंटा की रफ्तार से दौडता रहता है। अनुभव नहीं होता, और जो भी साक्षीभाव घटता वह एक चौंध के जैसा क्षणिक होता है। क्या मैं अपना समय व्यर्थ कर रहा हूं? - म्हारा मन तो बहुत मंद-गति है। ओर दौड़ता हुआ देखते रहो। इसका आनंद पांच सौ मील प्रति घंटा, बस? लो! मन के इस खेल का आनंद लो। और इसे तुम रफ्तार मानते हो? तुम इसके लिए संस्कृत में हमारे पास एक तो बहुत ही मंदगति हो। मन तो इतनी तेज विशेष शब्द है; इसे हम कहते हैं दौड़ता है कि कोई गति नहीं जानता। वह चिद्विलास-चेतना का खेल। इसका तो प्रकाश से भी तेज है। प्रकाश एक आनंद लो!-सितारों की ओर दौडते. सैकेंड में एक लाख छियासी हजार मील तेजी से इधर-उधर डोलते और अस्तित्व की दूरी तय कर लेता है। मन उससे भी भर में कूदते-फांदते मन के इस खेल का तेज है। लेकिन चिंता करने की कोई बात आनंद लो। इसमें गलत क्या है? इसे एक नहीं है-यही तो मन का सौंदर्य है, एक सुंदर नृत्य बन जाने दो। इसे स्वीकार करो। महान गुण है! इसे नकारात्मक रूप से मुझे लगता है कि तुम इसे रोकने की लेने, या इससे लड़ने की अपेक्षा मन से चेष्टा कर रहे हो–यह तुम नहीं कर मित्रता बनाओ। सकते। मन को कोई नहीं रोक सकता! हां, तुम कहते होः “ध्यान करते समय भी मन एक दिन रुक जाता है, लेकिन उसे मेरा मन पांच सौ मील प्रति घंटा की रफ्तार कोई रोक नहीं सकता। हां, मन एक दिन से दौड़ता रहता है!"-उसे दौड़ने दो। और रुक जाता है, लेकिन वह तुम्हारे प्रयास से भी तेज दौड़ने दो। तुम द्रष्टा बने रहो। तुम नहीं होता। मन तुम्हारी समझ से ही रुक मन को इतनी तेजी से, इतनी गति से चारों जाता है।
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy