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तुम बस देखते रहो और यह देखने की चेष्टा करो कि क्या हो रहा है, यह मन क्यों दौड़ रहा है। यह बिना किसी कारण के नहीं दौड़ रहा है। यह देखने की चेष्टा करो कि यह मन क्यों दौड़ रहा है, किस ओर दौड़ रहा है— जरूर तुम महत्वाकांक्षी होओगे । यदि यह धन के विषय में सोचता है, तो समझने की कोशिश करो। सवाल मन का नहीं है। तुम धन का सपना लेने लगते हो, कि तुम्हारी कोई लाटरी निकल गई है या 'यह' हो गया और 'वह' हो गया, और फिर तुम योजना भी बनाने लगते हो कि उसे खर्च कैसे करना, क्या खरीदना है और क्या नहीं खरीदना । या, मन सोचने लगता है कि तुम कहीं के राष्ट्रपति बन गए, प्रधानमंत्री बन गए, और फिर तुम सोचने लगते हो कि अब क्या करना है, देश को या संसार को कैसे चलाना है। मन को बस देखो ! — कि किस ओर जा रहा है।
तुममें जरूर कोई बहुत गहरा बीज होगा। जब तक वह बीज न मिट जाए तब तक तुम मन को नहीं रोक सकते। मन तो बस तुम्हारे अंतर्तम बीज के आदेश का अनुसरण कर रहा है। कोई सेक्स के, काम के विषय में सोच रहा है; तो जरूर कहीं दमित कामुकता होगी। देखो कि मन किस ओर दौड़ रहा है। अपने भीतर गहरे झांको और खोजो कि बीज कहां हैं।
मैंने सुना है: एक पादरी बड़ा घबड़ाया हुआ था । "सुनो,” उसने अपने चर्च के चौकीदार से कहा, “किसी ने मेरी साइकिल चुरा ली है।"
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ओशो से प्रश्नोत्तर
"आप उस पर बैठ कर कहां-कहां गए तुम मंद हो जाओगे। इससे कोई सतोरी थे?" चौकीदार ने पूछा। नहीं होगी।
“बस गांव में लोगों के यहां पूजा इत्यादि करवाने गया था। "
चौकीदार ने सलाह दी कि सबसे अच्छा उपाय यह होगा कि रविवार को पादरी टेन कमांडमेंट्स पर उपदेश दे। “जब आप 'चोरी नहीं करनी चाहिए' पर पहुंचेंगे तो हम दोनों मिल कर लोगों के चेहरों को देखेंगे — और जल्दी ही हमें पता चल जाएगा।"
रविवार आया, पादरी बड़े जोर-शोर से कमांडमेंट्स पर उपदेश देने लगा, और फिर बोलते-बोलते बीच में ही अटक गया और अपनी बात बदल ली।
चौकीदार बोला, “श्रीमान, मैं सोचता था आप 'वह' बात भी करेंगे...।”
“अरे, जानता हूं; जानता हूं। लेकिन देखो जब मैं, 'व्यभिचार नहीं करना चाहिए' पर पहुंचा तो मुझे याद आ गया कि मैंने अपनी साइकिल कहां छोड़ी है।"
बस इतना ही देख लो कि तुम अपनी 'साइकिल' कहां छोड़ आए हो। मन कुछ विशेष कारणों से दौड़ रहा है।
मन को समझ की, होश की जरूरत है। उसे रोकने की कोशिश मत करो। यदि तुम उसे रोकने की कोशिश करते हो, तो पहली बात तो तुम सफल हो ही नहीं सकते; दूसरी बात, यदि तुम सफल हो सके- यदि वर्षों तक कोई कठोर और सतत प्रयास करता रहे तो सफल हो भी सकता है – यदि तुम सफल हो गए, तो
पहली बात, तुम सफल नहीं हो सकते; और यह अच्छा ही है कि तुम इसमें सफल नहीं हो सकते। यदि तुम सफल हो सकते, यदि तुम किसी तरह सफल हो जाते, तो बड़े दुर्भाग्य की बात होती - तुम मंद हो जाते, प्रतिभा खो देते। उस रफ्तार के कारण ही प्रतिभा है, उस रफ्तार के कारण ही विचार, तर्क और प्रतिभा की तलवार पर सतत धार पड़ रही है। कृपया उसको रोकने की कोशिश मत करो। मैं मंदबुद्धियों के पक्ष में नहीं हूं, और न ही मैं यहां किसी को मूढ़ बनने में सहयोग देने के लिए हूं।
धर्म के नाम पर बहुत से लोग मूढ़ हो गए हैं, वे बिलकुल जड़बुद्धि ही हो गए हैं— बिना इस बात को समझे कि मन इतनी तेज क्यों दौड़ रहा है, वे उसे रोकने के प्रयास में लगे हुए हैं। मन बिना किसी कारण के तो नहीं दौड़ सकता। उसके कारण में, उसकी तह में, अचेतन की गहरी तहों में जाए बिना ही वे मन को रोकने की कोशिश करते हैं। रोक तो वे सकते हैं, लेकिन उन्हें एक मूल्य चुकाना होगा, और मूल्य यह होगा कि उनकी प्रतिभा खो जाएगी।
भारत में चारों और घूमो, तुम्हें हजारों संन्यासी और महात्मा मिलेंगे; उनकी आंखों में झांको— हां, वे अच्छे लोग हैं, भले हैं, लेकिन मूढ़ हैं। यदि तुम उनकी आंखों में झांको तो वहां कोई प्रतिभा नजर नहीं आएगी, कोई चमक नजर नहीं