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तात्पर्य है?"
और यही तो ध्यान का सारा उद्देश्य है— अ-यंत्रवत होना । मैंने कहा, “तुम एक काम करो: छोड़ने की बात भूल जाओ। उसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है । तीस वर्ष तक तुमने धूम्रपान किया और तुम उसे जी लिए; निश्चित ही तुम्हें उसमें कष्ट तो हुआ परंतु तुम उसके भी आदी हो गए हो। और इससे क्या फर्क पड़ता है यदि तुम उससे कुछ घंटे पहले मर जाओ जब तुम धूम्रपान न करने पर मरते ? यहां तुम करोगे क्या ? तुमने क्या कर लिया है? तो सार ही क्या है— तुम सोमवार को मरो या मंगल को मरो या रविवार को, इस वर्ष मरो कि उस वर्ष – इससे फर्क ही क्या पड़ता है ?"
उसने कहा, “हां, यह सच है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।” तो मैंने कहा, “भूल जाओ इस बारे में। हम छोड़ने वाले नहीं हैं; बल्कि हम तो इसे समझेंगे। तो अगली बार, तुम इसे एक ध्यान बना लो। "
वह बोला, “ धूम्रपान का ध्यान ?”
मैंने कहा, “हां। जब झेन साधक चाय पीने को ध्यान बना सकते हैं और उसका उत्सव मना सकते हैं, तो क्यों नहीं धूम्रपान भी उतना ही सुंदर ध्यान हो सकता है।"
वह तो रोमांचित नजर आने लगा। वह बोला, “आप क्या कह रहे हैं ?"
वह तो जैसे जी उठा । बोला, “ध्यान ? मुझे बताएं- मैं प्रतीक्षा नहीं कर सकता! "
मैंने उसे ध्यान बताया। मैंने कहा, “एक काम करो। जब तुम सिगरेट का पैकेट
ध्यान की विधियां
अपनी जेब से निकालो, तो धीरे-धीरे निकालो । उसका आनंद लो, कोई जल्दी नहीं है। सचेत, सजग, जागरूक रहो। उसे पूरे होश के साथ धीरे-धीरे निकालो। फिर पैकेट में से सिगरेट निकालो तो पूरे होश के साथ धीरे-धीरे— पहले की तरह जल्दबाजी से, बेहोशी में, यंत्रवत होकर नहीं। फिर सिगरेट को पैकेट पर ठोंको— लेकिन बड़े होश के साथ। उसकी आवाज को सुनो, जैसे झेन साधक सुनते हैं जब समोवार गीत गाने लगता है और चाय उबलने लगती है... और उसकी सुवास ! फिर सिगरेट को सूंघो और उसके सौंदर्य को...।”
वह बोला, “आप क्या कह रहे हैं? सौंदर्य ?"
“हां, उसमें सौंदर्य है। तंबाकू भी उतना ही दिव्य है जितनी कोई अन्य चीज। उसे सूंघो; वह परमात्मा की सुगंध है।"
वह थोड़ा हैरान हुआ। वह बोला, "क्या ! आप मजाक कर रहे हैं?"
"नहीं, मैं मजाक नहीं कर रहा । जब मैं मजाक भी करता हूं तो मजाक नहीं करता। मैं गंभीर हूं।
" फिर पूरे होश के साथ उसे अपने मुंह में रखो, पूरे होश के साथ उसे जलाओ। हर कृत्य का, हर छोटे-छोटे कृत्य का आनंद लो, और उसे जितने छोटे खंडों में हो सके बांट लो, ताकि तुम और-और सको ।
सजग
" फिर पहला कश लोः जैसे धुएं के रूप में परमात्मा हो । हिंदू कहते हैं, 'अन्नं ब्रह्म' - 'अन्न ब्रह्म है'। तो फिर धुआं क्यों
नहीं ? सभी कुछ परमात्मा है। अपने फेफड़ों को पूरी तरह से भर लो - यह एक प्राणायाम है। मैं तुम्हें नए युग के लिए नया योग दे रहा हूं ! फिर धुएं को छोड़ो, विश्राम करो, फिर दूसरा कश — और बहुत धीरे-धीरे पीओ ।
यदि तुम ऐसा कर पाओ तो तुम चकित होओगे; शीघ्र ही तुम्हें इसकी सारी मूढ़ता नजर आ जाएगी— इसलिए नहीं कि दूसरों ने इसे मूढ़तापूर्ण कहा है, इसलिए नहीं कि दूसरों ने इसे बुरा कहा है। तुम्हें इसका दर्शन होगा। और यह दर्शन मात्र बौद्धिक ही नहीं होगा। यह तुम्हारे पूरे प्राणों से आएगा, यह तुम्हारी समग्रता का बोध होगा । और फिर किसी दिन धूम्रपान छूट जाए, तो छूट जाए; और चलता रहे, तो चलता रहे। तुम्हें उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। "
तीन महीने बाद वह आया और बोला, “लेकिन मेरी सिगरेट तो छूट गई।" “अब,” मैंने कहा, "इसे दूसरी चीजों के साथ करके भी देखो। "
यही राज है : अयंत्रवत हो जाना। चलते हुए, धीरे-धीरे, होशपूर्वक चलो। देखते हुए, होशपूर्वक देखो, और तुम पाओगे कि वृक्ष इतने ज्यादा हरे हो गए जितने हरे वे कभी न थे। और गुलाब इतने ज्यादा गुलाबी हो गए, जितने कि वे कभी न थे। सुनो! कोई बात कर रहा है, गपशप कर रहा है: सुनो, सजग होकर सुनो। जब तुम बोल रहे हो, तो सजग होकर बोलो। जाग्रत अवस्था के अपने सभी कृत्यों को अयंत्रवत हो जाने दो। 6
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