SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यान की विधियां करके देखा। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहूंगा होगी और ध्यान तुम्हारे जीवन को निपट पाश्चात्य मनुष्य का यही दुख है। कि 'मेडिसिन' शब्द उसी मूल से आता है आनंद बना देगा। पश्चिम का मनुष्य जीवन की खिलावट को जिससे 'मेडिटेशन'। औषधि तुम्हारे शरीर संभाव्य रूप से हम आनंदित होने में चूक रहा है क्योंकि वह ध्यान के विषय में का उपचार करती है; ध्यान तुम्हारी आत्मा सक्षम हैं, लेकिन कैसे होना-इसका हमें कुछ भी नहीं जानता। और पूरब का मनुष्य का उपचार करता है। औषधि तुम्हारे बोध नहीं है। अकेले हम अधिक से चूक रहा है क्योंकि वह प्रेम के विषय में भौतिक अंश को आरोग्य देती है; ध्यान अधिक दुखी ही होते हैं। एक-साथ तो कुछ नहीं जानता। तुम्हारे आत्मिक अंश को आरोग्य देता है। नरक ही हो जाता है। और मेरे लिए तो जैसे पुरुष और स्त्री लोग इकट्ठे जी रहे हैं और उनकी यहां तक कि ज्यां पाल सात्र जैसे बड़े एक-दूसरे के परिपूरक हैं, वैसे ही प्रेम आत्माएं घावों से भरी हुई हैं, इसलिए प्रतिभाशाली व्यक्ति को भी कहना पड़ता और ध्यान भी परिपूरक हैं। ध्यान पुरुष है; छोटी-छोटी चीजें भी उन्हें बहुत चोट है कि दूसरा व्यक्ति नरक है, कि अकेला प्रेम स्त्री है। ध्यान और प्रेम के मिलन में पहुंचा जाती हैं। लोग बिना किसी समझ के होना बेहतर है कि दूसरे का साथ तुम निभा पुरुष और स्त्री का मिलन है। और उस जी रहे हैं। इसलिए, वे जो भी करेंगे उसका नहीं सकते। वह इतना निराश हो गया कि मिलन में हम अतिमानव का निर्माण कर अंत विपदा के रूप में ही होगा। यदि तुम उसने कहा कि दूसरे का साथ निभाना लेते हैं जो न पुरुष है, न स्त्री। जब तक किसी पुरुष से प्रेम करो तो ध्यान श्रेष्ठतम असंभव ही है, दूसरा व्यक्ति नरक है। हम पृथ्वी पर अतिमानव का निर्माण नहीं भेंट होगी जो तुम उसे दे सको। यदि तुम साधारण रूप से वह सही है। ध्यान के कर लेते, तब तक कोई बहुत आशा नहीं किसी स्त्री से प्रेम करते हो तो संसार का साथ दूसरा तुम्हारा स्वर्ग बन जाता है। है। लेकिन मझे लगता है कि मेरे संन्यासी सबसे बड़ा हीरा, कोहेनूर, भी कुछ नहीं लेकिन ज्या पाल सार्च को ध्यान का कोई वह कर पाने में सक्षम हैं जो देखने में है; ध्यान कहीं ज्यादा मूल्यवान भेंट पता नहीं था। असंभव लगता है।। 214
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy