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________________ किसी सृजनात्मकता के जीते हैं। और सृजनात्मकता महानतम आनंददायी अनुभवों में से एक है। लेकिन लोगों के मन थक चुके हैं। वे ऊर्जा के अतिरेक की दशा में नहीं हैं। अ-मन को प्राप्त हुआ व्यक्ति मन को विश्राम में रखता है, ऊर्जा से परिपूर्ण और अति संवेदनशील रखता है, उसको तैयार रखता है कि जिस क्षण भी आदेश दे वह सक्रिय हो जाए । यह कोई संयोग नहीं है कि जिन लोगों को अ-मन का अनुभव हुआ है, उनके शब्दों में अपना एक जादू आने लगता है। जब वे अपने मन का उपयोग करते हैं तो उसमें एक करिश्मा होता हैं, एक चुंबकत्व होता है। उसमें अत्यंत सहजता होती है और सूर्योदय से पूर्व भोर के ओस-क्षणों की सी ताजगी होती है। और मन अभिव्यक्ति तथा सृजनात्मकता के लिए प्रकृति का सबसे विकसित माध्यम है। ओशो से प्रश्नोत्तर और यदि तुम ग्रहण करने और सुनने को तैयार होओ तो इस स्व-प्रमाणित सत्य को अपने हृदय में अनुभव करोगे । तुम कहते हो, "जब मैं आपको यह कहते सुनता हूं कि 'साक्षी होना ही ध्यान है' तो मुझे लगता है: बात मेरी समझ में पड़ती है। लेकिन जब 'अ-मन' की बात करते हैं तो वह मुझे बिलकुल समझ नहीं आती।” कैसे समझ पड़ सकती है? वह तुम्हारे भविष्य की संभावना है। ध्यान तुमने शुरू कर दिया है, वह चाहे अभी प्रारंभिक स्थिति में हो, लेकिन तुम्हें उसका कुछ अनुभव हुआ है जो तुम्हें मुझे समझने में सक्षम बनाता है। लेकिन यदि तुम ध्यान को समझ सकते हो, तो फिर बिलकुल भी चिंता मत करो। ध्यान निश्चित ही अ-मन तक ले जाता है, जैसे हर नदी बिना किसी नक्शे और बिना किसी मार्गदर्शन के सागर की ओर बढ़ती जाती है। हर नदी बिना किसी अपवाद के अंततः सागर पर पहुंच जाती है। हर ध्यान, बिना किसी अपवाद के, अंततः अ-मन की दशा तक पहुंच जाता है। लेकिन स्वभावतः गंगा जब हिमालय के पहाड़ों और घाटियों में भटक रही होती है, तो उसे कुछ पता नहीं होता कि सागर क्या है, वह सागर के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकती, लेकिन सागर की ओर बढ़ती चली जाती हैं क्योंकि पानी में सदा निम्नतम स्थान खोज लेने की एक अंतर्भूत क्षमता होती है, और सागर निम्नतम हैं। तो तो ध्यानी व्यक्ति, या दूसरे शब्दों में अ-मनी व्यक्ति अपने गद्य को भी पद्य में बदल लेता है। बिना किसी प्रयास के उसके शब्द इतने अधिकार से भर जाते हैं। कि उनके लिए किसी तर्क की जरूरत नहीं रहती, वे स्वयं अपने तर्क बन जाते हैं। उनमें जो शक्ति होती है वह स्व-प्रमाणित सत्य बन जाती है। तर्क या शास्त्रों से किसी और समर्थन की जरूरत नहीं रहती । अ-मन को प्राप्त हुए व्यक्ति के शब्दों में अपनी एक अंतर्भूत निश्चितता होती है। नदियां हिमालय के शिखरों पर जन्मती हैं। और तत्क्षण निम्नतर क्षेत्रों की ओर बहने लगती हैं और अंततः वे सागर को खोज ही लेंगी। ध्यान की प्रक्रिया इससे बिलकुल उलटी है वह उच्चतर शिखरों की ओर ऊपर उठता है । और अ-मन परम शिखर है। अ-मन एक सीधा-सरल शब्द है, लेकिन इसका अर्थ होता है : संबोधि, मुक्ति, हर बंधन से स्वतंत्रता, मृत्यु - अतीत और अमृत का अनुभव ये बड़े शब्द हैं और मैं यह नहीं चाहता कि तुम इनसे भयभीत होओ। तो मैं एक सीधे से शब्द का उपयोग करता हूं: अ- मन । मन को तुम जानते हो । उस अवस्था की तुम कल्पना कर सकते हो जब मन अक्रिया में हो जाएगा। एक बार यह मन निष्क्रिय हो जाए, तो तुम ब्रह्मांडीय मन के, जागतिक मन के हिस्से हो जाते हो। जब तुम जागतिक मन के हिस्से होते हो तो तुम्हारा व्यक्तिगत मन एक सुंदर अनुचर बन जाता है। उसने मालिक को पहचान लिया। और वह जागतिक मन से उन लोगों के लिए खबर लाता है जो अभी भी व्यक्तिगत मन से बंधे हुए हैं। जब मैं तुमसे बोल रहा हूं तो वास्तव में ब्रह्मांड मेरा उपयोग कर रहा है। मेरे शब्द मेरे शब्द नहीं हैं। ये जागतिक सत्य के शब्द हैं। वही इनकी शक्ति है, वही इनका करिश्मा है, वही इनका जादू है । 278
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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