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________________ मन में कैद हो, जबकि वास्तव में तुम मन में कैद हो नहीं। वह शिष्य दौड़ता हुआ सद्गुरु के पास आता है - यह कहने के लिए कि हंस बाहर आ गया है। और सद्गुरु कहते हैं : " तुमने बात समझ ली है। अब हंस को बाहर ही रखो। वह कभी बोतल में बंद रहा ही नहीं है। " यदि तुम हंस और बोतल से संघर्ष करते ही रहे, तो तुम्हारे लिए इस पहेली को हल करने की कोई संभावना नहीं है। यह एक अंतर्बोध है कि "हंस और बोतल किसी दूसरी बात के प्रतीक होने चाहिए अन्यथा सद्गुरु मुझे यह पहेली न देते। और ये प्रतीक क्या हैं? " क्योंकि सद्गुरु और शिष्य के बीच की सारी प्रक्रिया, सारा व्यवहार मन और सजगता के संबंध में ही है। सजगता है वह हंस जो मन की बोतल में बंद नहीं है। लेकिन तुम सोच रहे हो कि हंस बोतल में बंद है और हर किसी से पूछ रहे हो कि उसे कैसे बाहर निकाला जाए। और ऐसे मूढ़ मौजूद हैं जो तुम्हें विधियों से सहायता करने को तैयार हैं- कि तुम कैसे बाहर निकलो। मैं उन्हें मूढ़ कहता हूं क्योंकि वे इस बात को बिलकुल ही नहीं समझते। हंस मुक्त ही है और कभी भी बोतल के भीतर नहीं रहा, इसलिए उसे बाहर लाने का प्रश्न ही नहीं उठता। मन विचारों का एक काफिला भर है जो मस्तिष्क के परदे पर तुम्हारे सामने से ता है। तुम एक द्रष्टा हो । लेकिन तुम सुंदर बातों से तादात्म्य बनाने लगते ओशो से प्रश्नोत्तर हो — वे घूंस की तरह हैं। एक बार तुम सुंदर चीजों द्वारा पकड़ लिए गए, तो फिर तुम कुरूप चीजों से भी पकड़ लिए जाओगे, क्योंकि बिना द्वैत के मन जी ही नहीं सकता है । द्वैत में सजगता जी नहीं सकती और मन नहीं जी सकता द्वैत के बिना । "लेकिन, ” मैंने कहा, “वहां तो केवल एक परदा है और कुछ भी नहीं । कोई भी मारा नहीं गया; कोई दुखद घटना नहीं घट रही है—बस एक फिल्म का प्रक्षेपण है। बस कुछ चित्र परदे पर गुजर रहे हैं- और लोग हंसते हैं, लोग रोते हैं और तीन घंटों के लिए वे करीब-करीब खो जाते हैं। वे सजगता है अद्वंद्वात्मक, और मन है चलचित्र के ही हिस्से ही हो जाते हैं; वे द्वंद्व । इसलिए बस देखो। किसी अभिनेता से तादात्म्य कर लेते हैं। " मैं तुम्हें "कोई हल नहीं सिखाता। मैं मेरे पिताजी ने मुझसे कहा, “यदि तुम तुम्हें “एक मात्र हल" सिखाता हूं। बस लोगों की प्रतिक्रियाओं पर प्रश्न उठाते थोड़ा पीछे हट जाओ और देखो। अपने रहोगे, तो तुम चलचित्र का आनंद ही नहीं मन और स्वयं के बीच एक दूरी निर्मित उठा सकते।" करो। चाहे वह अच्छा हो - सुंदर हो, सुस्वादु हो, ऐसा कुछ हो जिसका तुम गहराई से मजा लेना चाहते हो— या वह कुरूप हो तुम हमेशा मन से जितने दूर रह सको, रहो। उन्हें उसी तरह देखो जैसे तुम एक चलचित्र देखते हो। लेकिन लोग तो चलचित्रों में भी तादात्म्य कर लेते हैं! मैंने देखा है, जब मैं युवा था – पिछले बहुत समय से मैंने कोई चलचित्र नहीं देखा है— लेकिन मैंने देखा है लोगों को रोते हुए... आंसू बह रहा है...। यह अच्छा है कि सिनेमागृहों में अंधेरा होता है; यह उन्हें सहायक होता है ताकि वे कोई उलझन अनुभव न करें—और यथार्थ में कुछ भी नहीं घट रहा है ! मैं अपने पिताजी से पूछता था, “क्या आपने देखा? वह व्यक्ति जो आपके बाजू में बैठा था, वह रो रहा था!” वे बोले, “पूरा हॉल रो रहा था । दृश्य ही कुछ ऐसा था । " मैंने कहा, "मैं फिल्म का आनंद ले सकता हूं, लेकिन मैं रोना नहीं चाहता। मैं उसमें कोई हर्ष नहीं देखता । मैं इसे एक फिल्म की तरह देख सकता हूं, लेकिन मैं उसका एक अंग नहीं बन सकता। ये सब लोग तो चलचित्र के अंग ही बने जा रहे हैं । " तुम किसी भी बात से तादात्म्य बना लेते हो। लोग दूसरे व्यक्तियों से तादात्म्य बना लेते हैं फिर वे स्वयं के लिए दुख निर्मित कर लेते हैं। वे चीजों से तादात्म्य कर लेते हैं, फिर यदि वह वस्तु खो जाए तो वे दुखी हो जाते हैं। तुम्हारे दुख का मूल कारण तादात्म्य है। और प्रत्येक तादात्म्य मन से तादात्म्य है। मन से किनारे हट जाओ; मन को गुजर जाने दो। फिर शीघ्र ही तुम देख पाओगे कि कोई समस्या ही नहीं है— हंस मुक्त ही है। तुम्हें बोतल तोड़नी नहीं है और न ही तुम्हें हंस को मार डालना है। 2 248
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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