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ओशो से प्रश्नोत्तर
शिखर पर खड़ा
द्रष्टा
लगता है कि
ता होना चाहिए। किए चले जाते : हो जा
लगता है कि वो ठीक वही स्थान है, जहां तुम्हें द्रष्टा बन जाते हो। नरक में भी, यदि तुम मैं न तो बिलकुल पूरी तरह सा होना चाहिए। . उसको स्वीकार कर लो, तो नरक समाप्त संसार में हं. और न ही तुम समस्याएं ही खड़ी किए चले जाते हो जाता है। क्योंकि नरक केवल तुम्हारी
पर्वत शिखर पर हो। जहां भी तुम हो, वहीं रहो। शिखर पर अस्वीकृति में ही बना रह सकता है। नरक द्रष्टा की तरह खड़ा हूं।
द्रष्टा बन कर खड़े होने की कोई जरूरत विलीन हो जाता है और स्वर्ग प्रकट होता
नहीं है। कोई 'चाहिए' नहीं होना चाहिए। है। जो कुछ भी तुम स्वीकार कर लेते हो एक ही जगह
. एक बार 'चाहिए' जीवन में प्रवेश कर गया वह स्वार्गिक हो जाता है, और जो कुछ भी किस प्रकार हुआ जाए?
तो तुम विषाक्त हो ही गए। कोई लक्ष्य तुम अस्वीकृत कर देते हो वह नरक बन मुझे लगता है
नहीं होना चाहिए। कोई सही-गलत नहीं जाता है। मैं जो कुछ भी करता हूं होना चाहिए। यही एक पाप है: विभाजन ऐसा कहा जाता है कि किसी संत को उसके बीच मझधार में ही होता हूं।
की, मूल्यों की, निंदा और प्रशंसा की नरक में नहीं डाला जा सकता क्योंकि वह भाषा में सोचना।
उसे रूपांतरित कर लेने की कीमिया जानता जहां भी तुम हो...शिखर पर खड़े द्रष्टा है। तुमने सुना है कि पापी नरक जाते हैं और सांसारिक मनुष्य के बीच की दशा में और संत स्वर्ग जाते हैं लेकिन तुमने कोई गलत बात नहीं है। ठीक वहीं तुम्हें गलत सुना है। बात इससे ठीक उलटी है: होना चाहिए। और मैं कहता हूं : तुम जहां पापी जहां भी जाते हैं वहां नरक बना लेते भी हो, यदि उसको स्वीकार कर सको, तो हैं, और संत जहां भी जाते हैं वहां स्वर्ग तभी और वहीं तत्क्षण तुम शिखर पर खड़े बना लेते हैं। संतों को स्वर्ग भेजा नहीं
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