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तृतीय नेत्र से देखना
पर होश को भ्रूमध्य पर केंद्रित करो जब उन्हें हिलाना कठिन हो जाए तो जानना दौड़ रहे हों, अथवा सड़क पर लोग चल तो तुम्हारी दोनों आंखें तृतीय नेत्र से कि तुमने ठीक बिंदु को पकड़ लिया। रहे हों। सम्मोहित हो जाती हैं। वे जड़ हो जाती "होश को दोनों भौंहों के मध्य में लाओ साक्षी होने का प्रयास करो। जो भी हो हैं, हिल भी नहीं सकतीं। यदि तुम शरीर और मन को विचार के समक्ष आने रहा हो, साक्षी होने का प्रयास करो। तुम के किसी अन्य अंग के प्रति सचेत होने दो।"... यदि यह होश लग जाए तो बीमार हो, तुम्हारा शरीर दुख रहा है और का प्रयास कर रहे हो, तो यह कठिन है। पहली बार तुम्हें एक अद्भुत अनुभव पीड़ित है, तुम दुखी और पीड़ित हो, जो यह तीसरी आंख होश को पकड़ लेती होगा। पहली बार तुम विचारों को अपने भी होः उसके साक्षी हो जाओ। जो भी हो है, होश को खींचती है। वह होश के सामने दौड़ता हुआ अनुभव करोगे; तुम रहा है, स्वयं का उससे तादात्म्य मत करो। लिए चुम्बकीय है। तो संसार भर की साक्षी हो जाओगे। यह बिलकुल फिल्म के साक्षी बने रहो-द्रष्टा बने रहो। फिर यदि सभी पद्धतियों ने इसका उपयोग किया परदे जैसा होता है : विचार दौड़ रहे हैं और साक्षित्व संभव हो जाए तो तुम तृतीय नेत्र है। होश को साधने का यह सरलतम तुम एक साक्षी हो। एक बार तुम्हारा होश में केंद्रित हो जाओगे। उपाय है क्योंकि तुम ही होश को केंद्रित तृतीय नेत्र पर केंद्रित हो जाए, तो तुम दूसरा, इससे उलटा भी हो सकता है। करने का प्रयास नहीं कर रहे हो; स्वयं वह तत्क्षण विचारों के साक्षी हो जाते हो। यदि तुम तृतीय नेत्र में केंद्रित हो तो तुम ग्रंथि भी तुम्हारी मदद करती है; वह सामान्यतया तुम साक्षी नहीं होतेः तुम साक्षी बन जाओगे। ये दोनों चीजें एक ही चुम्बकीय है। तुम्हारा होश बलपूर्वक विचारों के साथ एकात्म हो। यदि क्रोध प्रक्रिया के हिस्से हैं। तो पहली बात : उसकी ओर खींच लिया जाता है। वह आता है तो तुम क्रोध ही हो जाते हो। कोई तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से साक्षी का आत्मसात हो जाता है।
विचार उठता है तो तुम साक्षी नहीं प्रादुर्भाव होगा। अब तुम अपने विचारों से तंत्र के प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि होते-तुम विचार के साथ एक हो जाते साक्षात्कार कर सकते हो। यह पहली बात होश तीसरी आंख का भोजन है। वह हो, एकात्म हो जाते हो; और उसके साथ होगी। और दूसरी बात यह होगी कि अब
आंख भूखी है; जन्मों-जन्मों से भूखी है। ही चलने लगते हो। तुम विचार बन जाते तुम श्वास के सूक्ष्म और कोमल स्पंदन को यदि तुम उस पर होश को लगाओ, तो वह हो; तुम विचार का रूप ले लेते हो। जब अनुभव कर सकोगे। अब तुम श्वास के जीवंत हो जाती है। उसे भोजन मिल गया। काम उठता है तो तुम काम बन जाते हो; प्रारूप को, श्वास के सारतत्व को अनुभव और एक बार तुम जान जाओ कि होश ही जब क्रोध उठता है तो तुम क्रोध बन जाते कर सकते हो। भोजन है, एक बार तुम्हें लग जाए कि हो; जब लोभ आता है तो तुम लोभ बन पहले यह समझने का प्रयास करो कि तुम्हारा होश स्वयं ग्रंथि द्वारा ही चुम्बकीय जाते हो। कोई भी चलता हुआ विचार और 'प्रारूप' का, 'श्वास के सारतत्व' का ढंग से खिंचता है, आकर्षित होता है, तो उनसे तुम्हारा तादात्म्य हो जाता है। विचार क्या अर्थ है। श्वास लेते समय तुम केवल फिर होश को साधना कोई कठिन बात नहीं और तुम्हारे बीच में कोई अंतराल नहीं हवा मात्र भीतर नहीं ले रहे हो। विज्ञान है। व्यक्ति को बस ठीक बिंदु जान लेना होता।
कहता है कि तुम केवल वायु भीतर लेते होता है। तो बस अपनी आंखें बंद करो, लेकिन तृतीय नेत्र पर केंद्रित होकर तुम हो-बस ऑक्सीजन, हाइड्रोजन व दोनों आंखों को भ्रूमध्य की ओर चले जाने अचानक एक साक्षी बन जाते हो। तृतीय अन्य गैसों का मिश्रण। वे कहते हैं दो, और उस बिंदु को अनुभव करो। जब नेत्र के माध्यम से तुम साक्षी हो जाते हो। कि तुम "वायु" भीतर ले रहे हो! तुम उस बिंदु के समीप आओगे तो तृतीय नेत्र के द्वारा तुम विचारों को ऐसे ही लेकिन तंत्र कहता है कि वायु बस एक अचानक तुम्हारी आंखें जड़ हो जाएंगी। देख सकते हो जैसे कि आकाश में बादल वाहन है, वास्तविक चीज नहीं है। तुम
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