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ओशो से प्रश्नोत्तर
स्वीकार और साक्षी से
मन का अतिक्रमण
जब कभी मेरे मन का स मझने के लिए आधारभूत बात यह का अर्थ है : स्वयं के लिए मुसीबतें निर्मित अंधेरा हिस्सा ऊपर आता है. है कि तुम मन नहीं हो-न तो करना।
तो वह मझे बहत डरा देता है। उजले हिस्से और न अंधरे हिस्से। यदि तुम चुनावरहित होने का अर्थ है: तम्हारे मेरे लिए यह स्वीकार करना बहुत
मन के सुंदर हिस्से से तादात्म्य कर लेते पास मन है और उसका एक हिस्सा कठिन है कि यह मेरे मन के
हो, तो फिर मन के कुरूप हिस्से से अपना अंधकारपूर्ण है और दूसरा हिस्सा उज्ज्वल उजले हिस्से का एक दूसरा ध्रुव
तादात्म्य तोड़ लेना तुम्हारे लिए असंभव है-ऐसा है-इसमें समस्या क्या है?
है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम इसका तुमसे क्या लेना-देना है? इसके मात्र है। मैं अपने आपको गंदा
पूरा सिक्का फेंक सकते हो या पूरा सिक्का लिए तुम्हें क्यों चिंतित होना चाहिए? और अपराधी अनुभव करता हूँ रख सकते हो. लेकिन तम उसे दो हिस्सों जिस क्षण तुम चुनाव नहीं कर रहे होते, और आपकी निर्मल और पावन र पावन में विभाजित नहीं कर सकते।
सब चिंताएं विलीन हो जाती हैं; एक गहन उपस्थिति में आपके निकट बैठने
और मनुष्य की सारी चिंता यह है कि स्वीकारभाव का उदय होता है कि मन का के लिए मैं स्वयं को सुपात्र नहीं वह उन सब बातों को चुन लेना चाहता है ऐसा स्वभाव ही है कि मन को ऐसा ही
लगता। मैं अपने मन के जो सुंदर और उजली लगती हैं। वह काले होना है। और वास्तव में यह तुम्हारी सभी पहलुओं का साक्षात्कार बादलों को छोड़कर सभी चमकीली समस्या नहीं है क्योंकि तुम मन नहीं हो।
करना चाहता हूं क्योंकि रेखाओं को चुन लेना चाहता है। लेकिन यदि तुम मन मात्र ही होते तो भी कोई मैं आपको बहुधा यह कहते हए वह नहीं जानता कि काले बादलों के बिना समस्या न हुई होती, क्योंकि तब कौन सनता है कि मन का अतिक्रमण चमकीली रेखाओं का अस्तित्व ही नहीं हो चुनता और अतिक्रमण के लिए कौन करने का सत्र है। उसका स्वीकार सकता। काले बादल तो पृष्ठभूमि निर्मित अभीप्सा करता? फिर कौन स्वीकार करने करना। कृपया क्या आप
करते हैं और वे अनिवार्यरूपेण जरूरी हैं का या स्वीकार को समझने का प्रयास स्वीकारभाव पर बोलेंगे?
ताकि चमकीली रेखा दिखाई पड़ सके। करता?
चुनाव करना ही चिंता है। चुनाव करने तुम भिन्न हो, बिलकुल भिन्न हो। तुम
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