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________________ 'मौलिक मन' उद्विग्न नहीं हो सकता; वह कभी उद्विग्न नहीं होता। लेकिन तुमने कभी उसकी ओर देखा ही नहीं। जब क्रोध होता है तब तुम क्रोध से तादात्म्य बना लेते हो । तुम भूल जाते हो कि क्रोध तुमसे अन्यथा है। तुम उसके साथ एक हो जाते हो, और तुम उससे ही नियंत्रित होने लगते हो, करा ही कुछ करने लगते हो। दो काम किए जा सकते हैं। क्रोध में तुम किसी के प्रति, अपने क्रोध के विषय के प्रति हिंसात्मक हो जाओगे, तब तुम दूसरे की ओर गति कर गए। क्रोध ने तुम्हारे और दूसरे के बीच जगह ले ली। यहां मैं हूं, फिर क्रोध है, और फिर तुम हो मेरे क्रोध विषय । क्रोध से मैं दो आयामों में यात्रा कर सकता हूं। या तो मैं तुम्हारी ओर जा सकता हूं : तब तुम मेरी चेतना के केंद्र बन जाते हो, मेरे क्रोध के विषय बन जाते हो । तब मेरा मन केंद्रित हो गया तुम पर – जिसने मेरा अपमान किया। यह एक ढंग हुआ क्रोध से यात्रा करने का। फिर एक और ढंग है: तुम अपनी ओर यात्रा कर सकते हो। तुम उस व्यक्ति की ओर नहीं जाते जिसने क्रोध दिलाया है, तुम उस व्यक्ति की ओर जाते हो जो क्रोधित हुआ; तुम विषय-वस्तु की ओर न जाकर स्वयं की ओर गति कर जाते हो । साधारणतः हम विषय की ओर गति करते रहते हैं । यदि तुम विषय की ओर गति करो, तो मन का धूल-भरा हिस्सा उद्विग्न हो जाता है, और तुम्हें लगेगा, “मैं उद्विग्न हो गया ।" यदि तुम अपनी अंतस - सत्ता के केंद्र में चले जाओ तो तुम ध्यान की विधियां मन के धूल भरे हिस्से के साक्षी हो सकोगे तुम देख सकोगे कि मन का धूल-भरा हिस्सा तो उद्विग्न है, परंतु "मैं उद्विग्न नहीं हूं"। और इस प्रयोग को तुम किसी भी कामना, किसी भी उद्वेग के साथ कर सकते हो । तुम्हारे मन में कामवासना जागती है; तुम्हारा पूरा शरीर उसकी पकड़ में आ जाता है: तुम यौन के विषय की ओर, कामना के विषय की ओर जा सकते हो। विषय वहां हो भी सकता है, और नहीं भी हो सकता । तुम कल्पना में भी विषय की ओर जा सकते हो, लेकिन तब तुम और भी उद्विग्न हो जाओगे। जितने तुम अपने केंद्र से दूर जाओगे, उतने ही ज्यादा उद्विग्न हो जाओगे । वास्तव में, दूरी और उद्वेग सदा ही समानुपात में रहते हैं । जितने तुम केंद्र से दूर होते हो उतने ही उद्विग्न होते हो; और केंद्र के जितने करीब होते हो उतने ही कम उद्विग्न होते हो। और यदि तुम केंद्र पर ही हो, तो कोई उद्वेग नहीं होता। झंझावात में एक केंद्र होता है जो अकंप रहता है— क्रोध के झंझावात में, काम-वासना के झंझावात में, कामना के झंझावात में ठीक केंद्र पर कोई झंझावात नहीं होता, और एक शांत केंद्र के बिना झंझावात भी नहीं हो सकता। क्रोध भी तुम्हारे भीतर किसी ऐसी चीज के बिना नहीं बना रह सकता जो क्रोध के पार हो । इसे स्मरण रखो : अपने विपरीत के बिना कुछ भी अस्तित्व में नहीं रह सकता। विपरीत अनिवार्य है। उसके बिना किसी चीज के होने की संभावना नहीं है। यदि तुम्हारे भीतर ऐसा कोई केंद्र न होता जो अविचल बना रहे, तो किसी गति की संभावना न रहती। यदि तुम्हारे भीतर ऐसा कोई केंद्र न होता जो अनुद्विग्न बना रहे, तो तुम्हें कोई उद्वेग नहीं घट सकता था । इसका विश्लेषण करो और इसे देखो । यदि तुम्हारे भीतर कोई नितांत अनुद्विग्न केंद्र न होता तो तुम कैसे यह महसूस कर सकते थे कि तुम उद्विग्न हो? तुम्हें कोई तुलना तो चाहिए न ! तुम्हें तुलना के लिए दो बिंदु चाहिए। मानो कोई व्यक्ति बीमार है : उसे बीमारी महसूस ही इसलिए होती है कि उसके भीतर पूर्ण स्वास्थ्य का एक केंद्र विराजमान है। इसीलिए वह तुलना कर सकता है। तुम कहते हो कि तुम्हारा सिर दुख रहा है: तुम इस पीड़ा, इस सिरदर्द को किस प्रकार जान लेते हो? यदि तुम ही सिरदर्द होते तो उसको न जान पाते । तुम जरूर कोई और हो, कुछ और हो - द्रष्टा, साक्षी, जो कह सकता है, “मेरा सिर दुख रहा है।" यह सूत्र कहता है, “तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रहो।" तुम क्या कर सकते हो? यह विधि दमन की नहीं है । यह विधि यह नहीं कह रही कि जब क्रोध उठे तो उसे दबा लो और शांत बने रहो- नहीं ! यदि तुम दमन करोगे तो और उद्वेग पैदा कर लोगे । यदि क्रोध उठे और उसे दबाने का कोई प्रयास हो तो अशांति दुगुनी हो जाएगी! जब क्रोध उठे, तो अपने द्वार बंद कर लो, क्रोध पर ध्यान करो, क्रोध को उठने दो। तुम शांत रहो, और 106
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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