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________________ सारी ऊर्जा काम-केंद्र में ही है। जब रीढ़ सीधी खड़ी होती है तो काम केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्ध हो जाती है। यह बेहतर है कि दोनों आयामों से तृतीय नेत्र पर चोट की जाए, दोनों दिशाओं से तृतीय नेत्र में प्रवेश करने की चेष्टा की जाए। “व्यक्ति सीधा होकर और आरामदेह मुद्रा में बैठता है।” सदगुरु चीजों को अत्यंत स्पष्ट कर रहे हैं। सीधे होकर, निश्चित ही, लेकिन इसे कष्टप्रद मत बनाओ वरन फिर तुम अपने कष्ट से विचलित हो जाओगे। योगासन का यही अर्थ है । संस्कृत शब्द 'आसन' का अर्थ है: एक आरामदेह मुद्रा । आराम उसका मूल गुण है। यदि वह आरामदेह न हो तो तुम्हारा मन कष्ट से विचलित हो जाएगा। मुद्रा आरामदेह ही हो ।... “और इसका अर्थ अनिवार्य रूप से सिर के मध्य में होना नहीं है।” और केंद्रित होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम्हें सिर के मध्य में केंद्रित होना है। “केंद्र सर्वव्यापी है; सब कुछ उसमें समाहित है; वह सृष्टि की समस्त प्रक्रिया के निस्तार से जुड़ा हुआ है। " और जब तुम तृतीय नेत्र के केंद्र पर पहुंच कर वहां केंद्रित हो जाते हो और प्रकाश बाढ़ की भांति भीतर आने लगता है, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए, जहां से पूरी सृष्टि उदित हुई है। तुम निराकार और अप्रकट पर पहुंच गए। चाहो तो उसे परमात्मा कह लो । यही वह बिंदु है, यही वह आकाश है जहां से सब जन्मा है । यही समस्त अस्तित्व का बीज है। यह ध्यान की विधियां सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापी है, शाश्वत है।... “ध्यान की साधना अपरिहार्य है।” ध्यान क्या है? – निर्विचार का एक क्षण । निर्विचार की एक दशा, एक अंतराल । और यह सदा ही घट रहा है, लेकिन तुम इसके प्रति सजग नहीं हो; वरना तो इसमें कोई समस्या नहीं है। एक विचार आता है, फिर दूसरा आता है, और उन दो विचारों के बीच में सदा एक छोटा-सा अंतराल होता है। और वह अंतराल ही दिव्य का द्वार है, वह अंतराल ही ध्यान है। यदि तुम उस अंतराल में गहरे देखो, तो वह बड़ा होने लगता है। मन ट्रैफिक से भरी हुई एक सड़क की तरह है; एक कार गुजरती है फिर दूसरी कार गुजरती है, और तुम कारों से इतने ज्यादा ग्रसित हो कि तुम्हें वह अंतराल तो दिखाई ही नहीं पड़ता जो दो कारों के बीच सदा मौजूद है। वरना तो कारें आपस में टकरा जाएंगी। वे टकराती नहीं; उनके बीच में कुछ है जो उन्हें अलग रखता है। तुम्हारे विचार आपस में नहीं टकराते, एक-दूसरे पर नहीं चढ़ते, एक-दूसरे में नहीं मिल जाते। वे किसी भी तरह एक-दूसरे पर नहीं चढ़ते। हर विचार की अपनी सीमा होती है, हर विचार परिभाष्य होता है, लेकिन विचारों का जुलूस इतना तेज होता है, इतना तीव्र होता है कि अंतराल को तुम तब तक नहीं देख सकते, जब तक कि तुम उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहे हो, उसकी खोज नहीं कर रहे हो । ध्यान का अर्थ है गेस्टाल्ट को बदल डालना। साधारणतः हम विचारों को देखते हैं: एक विचार, दूसरा विचार, फिर कोई और विचार | जब तुम गेस्टाल्ट को बदल देते हो तो तुम एक अंतराल को देखते हो, फिर दूसरे अंतराल को देखते हो। तुम्हारा आग्रह विचार पर नहीं रहता, अंतराल पर आ जाता है।... “यदि संसारिक विचार उठें तो व्यक्ति जड़ न बैठा रहे, वरन निरीक्षण करे कि विचार कहां से शुरू हुआ, और कहां विलीन होता है। " यह पहले ही प्रयास में नहीं होने वाला है। तुम नासाग्र पर देख रहे होओगे और विचार आ जाएंगे। वे इतने जन्मों से आते रहे हैं कि इतनी सरलता से तुम्हें नहीं छोड़ सकते। वे तुम्हारा हिस्सा बन गए हैं, वे तुम्हारे आंतरिक ढांचे ही हो गए हैं। तुम करीब-करीब एक पूर्वनिर्धारित जीवन जी रहे हो । ऐसा होता है : जब लोग ध्यान में शांत होकर बैठते हैं, तो सामान्यतः जितने विचार आते हैं, तब उससे अधिक विचार आते हैं— असामान्य विस्फोट होते हैं। लाखों विचार दौड़े चले आते हैं, क्योंकि उनका अपना स्वार्थ है तुममें, और तुम उनकी ताकत से बाहर निकलने की चेष्टा कर रहे हो ? वे तुम्हारा जम कर विरोध करेंगे। तो विचार तो आएंगे ही। विचारों के साथ तुम क्या करोगे ? तुम शांत होकर बैठे नहीं रह सकते, तुम्हें कुछ करना पड़ेगा । संघर्ष से तो कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि तुम यदि संघर्ष करने लगे तो तुम नासाग्र पर देखना भूल जाओगे, तृतीय नेत्र का, 200
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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