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________________ तृतीय नेत्र से देखना एक बार वह सक्रिय हो जाए और उपयोग लगते हो; तुम स्त्रैण ऊर्जा-यिन-बन भीतर धकेलने की जरूरत नहीं है, भीतर में आने लगे, तो उसके चारों ओर जमी हुई जाते हो। दोनों से बचने के लिए नासाग्र घसीटने की जरूरत नहीं है। और तुम धूल झड़ जाए, और यंत्र ठीक से चलने पर देखो-सरल-सी विधि है, लेकिन प्रकाश को भीतर कैसे घसीट सकते हो? लगे, तब तुम नासाग्र पर केंद्रित भी हो परिणाम लगभग जादुई है। प्रकाश को तुम भीतर कैसे धकेल सकते जाओ तो भी भीतर खींच लिए जाआगे। और ऐसा केवल ताओ को मानने वालों हो? इतना ही चाहिए कि तुम उसके प्रति लेकिन शुरू-शुरू में नहीं। तुम्हें बहुत ही के साथ ही नहीं है। बौद्ध भी इस बात को खुले और संवेदनशील रहो।... हलका होना होगा, बोझ नहीं-बिना जानते हैं, हिंदू भी जानते हैं। ध्यानी साधक "दोनों आंखों से नासाग्र को देखता किसी खींच-तान के। तुम्हें एक समर्पण सदियों से किसी न किसी तरह इस निष्कर्ष है।" की दशा में बस वहीं मौजूद रहना पर पहुंचते रहे हैं कि आंखें यदि आधी ही स्मरण रखो, तुम्हें दोनों आंखों से होगा।... बंद हों तो अत्यंत चमत्कारिक ढंग से तुम नासाग्र को देखना है ताकि नासाग्र पर दोनों ___ “यदि व्यक्ति नाक का अनुसरण नहीं दोनों गड्डों से बच जाते हो। पहली विधि में आंखें अपने द्वैत को खो दें। तो, जो प्रकाश करता तो या तो वह आंखें खोलकर दूर साधक बाह्य जगत से विचलित हो रहा है तुम्हारी आंखों से बाहर बह रहा है वह देखता है जिससे कि नाक दिखाई न पड़े, और दूसरी विधि में भीतर के स्वप्न जगत नासाग्र पर एक हो जाता है; वह एक केंद्र अथवा वह पलकों को इतनी जोर से बंद से विचलित हो रहा है। तुम ठीक भीतर पर आ जाता है। जहां तुम्हारी दोनों आंखें कर लेता है कि नाक फिर दिखाई नहीं और बाहर की सीमा पर बने रहते हो और मिलती हैं, वही स्थान है जहां खिड़की पड़ती।" यही सूत्र है : भीतर और बाहर की सीमा खुलती है। और फिर सब शुभ है। फिर नासाग्र को बहुत सौम्यता से देखने का पर होने का अर्थ है उस क्षण में तुम न पुरुष इस घटना को होने दो, फिर तो बस आनंद एक अन्य प्रयोजन यह भी है कि इससे हो न स्त्री हो। तुम्हारी दृष्टि द्वैत से मुक्त मनाओ, उत्सव मनाओ, हर्षित होओ, तुम्हारी आंखें फैल कर नहीं खुल सकतीं। है; तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे भीतर के विभाजन प्रफुल्लित होओ। फिर कुछ भी नहीं करना यदि तुम अपनी आंखें फैला कर खोल लो का अतिक्रमण कर गई। जब तुम अपने . है। तो पूरा संसार उपलब्ध हो जाता है जहां भीतर के विभाजन से पार हो जाते हो, तभी दोनों आंखों से नासाग्र को देखता हजारों व्यवधान हैं। कोई सुंदर स्त्री गुजर तुम तृतीय नेत्र के चुम्बकीय क्षेत्र की रेखा है, सीधा होकर बैठता है।"... जाती है और तुम पीछा करने लगते में आते हो।... सीधा होकर बैठना सहायक है। जब हो–कम से कम मन में। या कोई लड़ "मुख्य बात है पलकों को ठीक ढंग तुम्हारी रीढ़ सीधी होती है, तुम्हारे रहा है; तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है, से झुकाना और तब प्रकाश को स्वयं ही काम-केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को लेकिन तुम सोचने लगते हो कि “क्या होने भीतर बहने देना।" उपलब्ध हो जाती है। सीधी-सादी विधियां वाला है.?" या कोई रो रहा है और तुम इसे स्मरण रखना बहुत महत्वपूर्ण है: हैं, कोई जटिलता इनमें नहीं है...बस जिज्ञासा से भर जाते हो। हजारों चीजें तुम्हें प्रकाश को भीतर नहीं खींचना है, इतना ही है कि जब दोनों आंखें नासाग्र पर सतत तुम्हारे चारों ओर चल रही हैं। यदि प्रकाश को बलपूर्वक भीतर नहीं लाना है। मिलती हैं, तो तुम तृतीय नेत्र को उपलब्ध आंखें फैल कर खुली हुई हैं तो तुम पुरुष यदि खिड़की खुली हो तो प्रकाश स्वयं ही हो जाते हो। अपनी काम-ऊर्जा को भी ऊर्जा-यांग-बन जाते हो। भीतर आ जाता है। यदि द्वार खुला हो, तो तृतीय नेत्र के लिए उपलब्ध कर दो। फिर यदि आंखें बिलकुल बंद हों तो तुम एक भीतर प्रकाश की बाढ़ आ जाती है। तुम्हें प्रभाव दुगुना हो जाएगा, प्रभाव प्रकार की तंद्रा में आ जाते हो, स्वप्न लेने उसे भीतर लाने की जरूरत नहीं है, उसे शक्तिशाली हो जाएगा, क्योंकि तुम्हारी 199
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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