SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय नेत्र से देखना प्रकाश के प्रवाह का बोध खो जाएगा; तुम "प्रतिबिंब को आगे सरकाने से कुछ चला जाए, तो फिर से ध्यान के अभ्यास सब भूल कर विचारों के जंगल में खो भी प्राप्त नहीं होता।" पर वापस लौट आओ। जाओगे। यदि तुम विचारों का पीछा करने यही फ्रायडियन मनोविश्लेषण भी है: “जब विचारों की उड़ान आगे बढ़ती लगे तो तुम खो गए, उनका अनुसरण विचारों की मुक्त साहचर्य शृंखला। एक जाए, जो व्यक्ति को रुक कर विचारों का करने लगे तो खो गए, उनके साथ तुम विचार आता है, और फिर तुम दूसरे निरीक्षण करना चाहिए। इस प्रकार वह संघर्ष करने लगे तो भी तुम खो गए। तो विचार की प्रतीक्षा करते हो, और फिर ध्यान भी करे और तब फिर से निरीक्षण फिर क्या करना है? तीसरे की, और यह पूरी शृंखला है।... शुरू करे।" और यही राज है। बुद्ध भी इसी राज को हर मनोविश्लेषण यही करता है-तुम तो जब भी विचार आता है, तब उपयोग में लाए। वास्तव में सभी राज तो अतीत में पीछे जाने लगते हो। एक विचार निरीक्षण करो। जब भी विचार जाता है तब लगभग एक से ही हैं क्योंकि मनुष्य वही दूसरे से जुड़ा होता है, और यह शृंखला ध्यान करो। है-ताला वही है, तो कुंजी भी वही होनी अनंत तक चलती है। उसका कोई अंत “यह संबोधि को तीव्रता से लाने का चाहिए। यही राज है : बुद्ध इसे सम्मासती, नहीं है। यदि तुम उसके भीतर जाने लगो दोहरा उपाय है। संबोधि का अर्थ है सम्यक स्मृति कहते हैं। इतना स्मरण तो तुम एक अनंत यात्रा पर निकल प्रकाश का वृत्ताकार प्रवाह। प्रवाह है रखोः यह विचार आया है, बिना किसी जाओगे, और यह बिलकुल अपव्यय निरीक्षण और प्रकाश है ध्यान।" विरोध, बिना किसी दलील, बिना किसी होगा। मन ऐसा कर सकता है। तो इसके जब भी तुम ध्यान करोगे तो प्रकाश को निंदा के देखो कि वह है कहां, एक प्रति सजग रहो।... भीतर प्रवेश करता पाओगे, और जब भी वैज्ञानिक की भांति निरीक्षक हो रहो। देखो मन के द्वारा तुम मन के पार नहीं जा तुम एकाग्र होकर देखोगे तो प्रवाह को कि वह कहां है, कहां से आ रहा है, कहां सकते, इसलिए व्यर्थ में अनावश्यक चेष्टा निर्मित करोगे, प्रवाह को संभव बनाओगे। जा रहा है। उसके आने को देखो, उसके मत करो; वरना एक बात तुम्हें दूसरी में ले दोनों की ही जरूरत है। रुकने को देखो, उसके जाने को देखो। जाएगी और ऐसा आगे से आगे चलता “प्रकाश ध्यान है। ध्यान के बिना और विचार बहुत गत्यात्मक हैं; वे देर तक रहेगा, और तुम बिलकुल भूल ही जाओगे निरीक्षण का अर्थ है प्रकाश के बिना नहीं रुकते। तुम्हें तो बस विचार के उठने, कि तुम क्या करने का प्रयास कर रहे थे। प्रवाह।" उसके रुकने, उसके जाने को देखना भर नासाग्र गायब हो जाएगा, तृतीय नेत्र भूल यही हुआ है। हठयोग के साथ यही होता है। न संघर्ष करने की चेष्टा करो, न जाएगा, और प्रकाश का प्रवाह तो तुमसे दुर्घटना घटी है। वे निरीक्षण तो करते हैं, अनुसरण करने की, बस एक मौन मीलों दूर चला जाएगा। तो ये दो बातें चित्त को एकाग्र तो करते हैं, लेकिन निरीक्षक बने रहो। और तुम्हें हैरानी होगीः स्मरण रखने की हैं, ये दो पंख हैं। एकः प्रकाश को वे भूल गए हैं। अतिथि के निरीक्षण जितना थिर हो जाता है, विचार जब अंतराल आ जाए, कोई विचार न विषय में वे बिलकुल भूल गए हैं। वे बस उतने ही कम आएंगे। जब निरीक्षण चलता हो, तो ध्यान करो। जब कोई घर को तैयार किए चले जाते हैं; वे घर को बिलकुल पूर्ण हो जाता है तो विचार विचार आए तो बस इन तीन बातों को तैयार करने में इतने उलझ गए हैं कि वे उस समाप्त हो जाते हैं। बस एक अंतराल, देखोः विचार कहां है, वह कहां से आया प्रयोजन को ही भूल गए हैं जिसके लिए एक मध्यांतर ही बचता है। है और कहां जा रहा है। एक क्षण के लिए घर की तैयारी है। हठयोगी सतत अपने लेकिन एक बात और याद रखनाः मन अंतराल को देखना छोड़ दो और विचार शरीर को तैयार करता है, शरीर को शुद्ध फिर से एक चाल चल सकता है। को देखो, उसे अलविदा करो। जब वह करता है, योगासन, प्राणायाम करता है, 201
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy