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________________ अंतस आकाश को खोज लेना जैसे ही तुम्हारी सजगता बदलती है, शरीर ही तुममें समाविष्ट हो जाएगा। क्योंकि वृक्ष और तुम दोनों ही पृथ्वी से का आकार बदल जाता है। यदि तुम सब मूल सूत्र है सर्व समावेश को स्मरण संबद्ध हो। तुम दोनों की जड़ें एक ही पृथ्वी समाविष्ट कर लेते हो, तो शरीर बड़ा हो रखना। छोड़ो मत। यह इस सूत्र के लिए में हैं और अंततः एक ही अस्तित्व में हैं। जाएगा; यदि तुम निषेध करते हो— “यह कुंजी है–समावेश; समाविष्ट करो। तो जब तुम्हें लगता है कि वृक्ष तुम्हारे मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं"-तब वह बहुत समाविष्ट करो और बढ़ो। समाविष्ट करो भीतर है तो वृक्ष तुम्हारे भीतर ही है-यह सूक्ष्म, बहुत छोटा-सा, आणविक हो और फैलो। इसे अपने शरीर के साथ कल्पना नहीं है और अचानक तुम जाएगा। करके देखो, और फिर बाह्य जगत के साथ उसके प्रभाव को महसूस करोगे। वृक्ष की अपनी अंतस-सत्ता में सब समाविष्ट भी करके देखो। जीवंतता, हरियाली, ताजगी, उसमें से कर लो और कुछ भी मत छोड़ो। मत किसी वृक्ष के नीचे बैठकर, वृक्ष की होकर गुजरती हवा, सबकी तुम्हारे हृदय में कहो, “यह मैं नहीं हूं।" कहो, "मैं हूं," ओर देखो, फिर अपनी आंखें बंद कर लो अनुभूति होगी। अधिकाधिक अस्तित्व को और उसमें सब समाविष्ट कर लो। यदि और वृक्ष को अपने भीतर देखो। आकाश समाविष्ट करो और छोड़ो मत। तुम बैठे हुए यह कर सको तो अद्भुत और की ओर देखो, फिर अपनी आंखें बंद कर तो यह स्मरण रखोः समाविष्ट करने बिलकुल नई घटनाएं तुम्हें घटेंगी। तुम्हें लो और अनुभव करो कि आकाश तुम्हारे को जीवन की एक शैली ही बना लो। न लगेगा कि तुम्हारा कोई केंद्र नहीं है। तुम्हारे भीतर ही है। उगते हुए सूर्य को देखो, फिर केवल ध्यान, वरन एक जीवन-शैली, एक भीतर कोई केंद्र नहीं है। और केंद्र के जाते अपनी आंखें बंद कर लो और अनुभव जीने का ढंग ही बना लो। और-और ही न कोई स्व रहता है, न कोई अहंकार करो कि सूर्य तुम्हारे भीतर उग रहा है। समाविष्ट करने का प्रयास करो। जितना रहता है; केवल चेतना बच रहती स्वयं को अधिक समाविष्ट करता अनुभव तुम समाविष्ट करते हो, उतने ही तुम है-आकाश की भांति चेतना-हर चीज करो। फैलते हो, उतनी ही तुम्हारी सीमाएं को ढंके हुए! और जैसे-जैसे यह विकसित तुम्हें एक अपूर्व अनुभव होगा। जब अस्तित्व के दिगांतरों तक फैलती जाती हैं। होता है, न केवल तुम्हारी श्वास ही तुम्हें लगेगा कि वृक्ष तुम्हारे भीतर है, तो एक दिन केवल तुम्हीं होते हो; पूरा समाविष्ट होगी, न केवल तुम्हारी अपनी तत्क्षण तुम अधिक युवा, अधिक ताजे अस्तित्व समाहित हो गया। यह सारे देहाकृति समाविष्ट होगी, अंततः पूरा जगत अनुभव करोगे। और यह कल्पना नहीं है, धार्मिक अनुभव की परम स्थिति है। 3 173
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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