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तुम पूर्णतः आरक्षित हो और सुरक्षा की छायातले जी रहे हो। मैं तुम्हारी पूरी देखभाल रखता हूं। मेरे साथ तुम सक्षम और कुशल बनते हो। जिस क्षण तुम मुझे छोड़ते हो, तुम्हें अपनी समस्त जानकारियां छोड़नी पड़ेंगी, अपनी सभी सुरक्षाएं खोनी होंगी। तुम्हें अपने सुरक्षा कवच छोड़ देने होंगे और तुम अज्ञात में प्रवेश कर रहे होओगे । बिना किसी भी कारण के अनावश्यक ही तुम खतरा मोल ले रहे हो ।”
मन सुंदर-सुंदर तर्काभास देने की कोशिश करेगा। यह प्रश्न भी मन द्वारा दिए गए तर्काभासों में से एक है।
यह तुम नहीं हो - यह, जो प्रश्न पूछ रहा है; यह तुम्हारा मन है— तुम्हारा दुश्मन – जो तुम्हारे माध्यम से प्रश्न पैदा कर रहा है। अब यह मन ही है जो पूछ रहा है: “भगवान, आप हमें सतत समझाते हैं कि 'होशपूर्ण होओ,' कि 'साक्षी बनो' लेकिन साक्षी चेतना क्या वास्तव में गीत गा सकती है, नृत्य कर सकती है और जीवन का स्वाद ले सकती है ?"
हां! वास्तव में, केवल साक्षी चेतना ही गीत गा सकती है, नृत्य कर सकती है और जीवन का स्वाद ले सकती है। यह विरोधाभासी प्रतीत होगा - यह है ! — लेकिन वह सब जो सत्य है वह हमेशा विरोधाभासी है। स्मरण रखो : यदि सत्य विरोधाभासी नहीं है तो वह बिलकुल ही सत्य नहीं है, तब वह कुछ और ही है।
विरोधाभास सत्य का एक आधारभूत और अंतरस्थ गुण है। इस बात को अपने
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ओशो से प्रश्नोत्तर
हृदय में हमेशा के लिए उतर जाने दो कि सत्य मात्र ही विरोधाभासी है। यद्यपि सभी विरोधाभास सत्य नहीं हैं, लेकिन सभी सत्य विरोधाभास हैं। सत्य को एक विरोधाभास होना ही है क्योंकि उसे निगेटिव और पाजिटिव दोनों ध्रुव एक साथ होना है- फिर भी वह एक अतिक्रमण है। सत्य को जीवन भी होना है और मृत्यु भी और भी कुछ अधिक — 'प्लस' । 'कुछ और अधिक' – 'प्लस' से मेरा अर्थ है: दोनों का अतिक्रमण – दोनों, और दोनों नहीं। यह है परम विरोधाभास ।
जब तुम मन से ग्रसित हो, तब तुम कैसे गीत गा सकते हो ? मन दुख निर्मित करता है, और दुख से गीत नहीं उठ सकते। जब तुम मन से बंधे हो, तब तुम कैसे नृत्य कर सकते हो ? हां, तुम कुछ खाली खाली मुद्राओं से गुजर कर उसे नृत्य कह सकते हो, लेकिन वह वास्तविक नृत्य नहीं है।
केवल मीरा जानती है कि वास्तविक नृत्य क्या है— या कृष्ण, या चैतन्य; ये हैं वे लोग जो जानते हैं वास्तविक नृत्य । अन्य दूसरे तो नृत्य की टेकनीक मात्र ही जानते हैं, लेकिन उनमें कुछ भी अतिरेक से नहीं बहता; उनकी ऊर्जाएं अप्रवाहित डबरा बन गई हैं। जो लोग मन में जीते हैं. वे अहंकार में जी रहे हैं, और अहंकार नृत्य नहीं कर सकता। वह एक प्रदर्शन या दिखावा कर सकता है, लेकिन नृत्य नहीं ।
वास्तविक नृत्य तो केवल तभी घटता है जब तुम साक्षी बन जाते हो। तब तुम इतने आनंदित हो उठते हो कि स्वयं आनंद ही
तुमसे अतिरेक में बहने लगता है—यही नृत्य है। यह आनंद ही गीत गा उठता है; अपने आप ही एक गीत का आविर्भाव होता है। और जब तुम साक्षी होते हो तभी तुम जीवन का स्वाद ले सकते हो ।
मैं तुम्हारे प्रश्न को समझ सकता हूं। तुम चिंतत हो कि एक साक्षी बन कर तुम शायद जीवन के एक तमाशबीन, एक दर्शक मात्र बन जाओगे। नहीं, तमाशबीन होना एक बात है और साक्षी होना बिलकुल ही अलग बात है, वह गुणात्मक रूप से भिन्न है । तमाशबीन व्यक्ति तटस्थ और निष्क्रिय होता है; वह ढीला होता है, वह एक प्रकार की नींद में है। वह जीवन में भागीदार नहीं होता। वह भयभीत है; वह एक कायर है। वह किनारे पर खड़ा रहता है और दूसरों को जीवन जीते हुए देखता रहता है। यही तो तुम पूरे जीवन कर रहे हो - चलचित्र में दूसरा अभिनय करता है और तुम देखते हो। तुम एक तमाशबीन भर हो !
लोग लगातार घंटों तक टेलीविजन के सामने चिपके हुए हैं - तमाशबीन ! कोई दूसरा व्यक्ति गा रहा है - तुम सुन रहे हो। कोई दूसरा व्यक्ति नृत्य कर रहा है - तुम मात्र एक दर्शक हो। कोई दूसरा प्रेम कर रहा है - और तुम बस देख रहे हो; तुम भागीदार नहीं हो। तुम्हें जो स्वयं करना चाहिए था उसे व्यवसायी लोग कर रहे हैं। एक साक्षी हुआ व्यक्ति तमाशबीन नहीं
है।
तब साक्षी क्या है? वह व्यक्ति साक्षी है, जो भागीदार होता है, लेकिन फिर भी