SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यान की विधियां अभिव्यक्त हो जाती हैं। वे कारण नहीं हैं; क्रोध को उसकी पूर्णता में अनुभव करो; जाओगे। यदि आनंद होगा तो तुम आनंद वे तुम्हारे भीतर कुछ उत्पन्न नहीं कर रहे। भीतर उसे उठने दो। उसकी व्याख्या मत ही बन जाओगे। यदि क्रोध होगा, तो क्रोध जो भी हो रहा है, तुम्हें ही हो रहा है। वह तो करो; मत कहो कि उस व्यक्ति ने क्रोध तिरोहित हो जाएगा। सदा से ही भीतर मौजूद रहा है; बस इतना दिलाया है। उस व्यक्ति की निंदा मत नकारात्मक तथा विधायक भावदशाओं ही हुआ है कि उस मित्र का मिलना एक करो। वह तो केवल परिस्थिति बन गया में यही भेद है : यदि तुम किसी भावदशा परिस्थिति बन गया जिसमें छिपा हुआ जो है। और उसके प्रति अनुगृहीत होओ कि के प्रति सजग हो जाओ और तुम्हारे सजग था, वह खुले में आ गया-छिपे हुए स्रोत उसने छिपी हुई चीज को खुले में लाने में होने से वह तिरोहित हो जाए, तो वह से बाहर निकल आया-वह प्रकट हो तुम्हारी मदद की। उसने कहीं तुम पर चोट नकारात्मक है। यदि किसी भावदशा के गया, व्यक्त हो गया। की, और एक घाव वहां छिपा था। अब प्रति तुम्हारे सजग होने से तुम वह जब भी ऐसा हो आंतरिक अनुभूति में तुम उसे जानते हो, इसलिए घाव ही बन भावदशा ही बन जाओ, यदि फिर वह केंद्रित बने रहो, और तब जीवन में हर जाओ। भावदशा फैल जाए और तुम्हारी चीज के प्रति तुम्हारा भिन्न ही दृष्टिकोण नकारात्मक या विधायक, किसी भी अंतस-सत्ता ही बन जाए, तो वह होगा। भावदशा में, यह प्रयोग करो और तुममें विधायक है। सजगता दोनों में भिन्न रूप से नकारात्मक भावदशाओं के साथ भी अपूर्व परिवर्तन होगा। यदि भावदशा कार्य करती है। यदि भावदशा विषाक्त हो ऐसा ही करो। जब क्रोध उठे तो उस : नकारात्मक होगी तो इस बोध के कारण तो सजगता के द्वारा तुम उससे मुक्त हो व्यक्ति पर केंद्रित मत हो जाना जिसने कि वह तुम्हारे भीतर ही है, तुम उससे जाते हो। यदि वह शुभ हो, आनंदमय हो, क्रोध को जगाया है। उसे परिधि पर मुक्त हो जाओगे। यदि भावदशा विधायक आह्लादपूर्ण हो, तो तुम वही बन जाते हो। ही बना रहने दो। तुम क्रोध ही बन जाओ। होगी तो तुम स्वयं भावदशा ही बन सजगता उसे गहन कर देती है। 3. 104
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy