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________________ आंतरिक केंद्रीकरण व ने कहा: बहुत समय के । बाद किसी मित्र को मिलने पर जो हर्ष होता है उस हर्ष में लीन होओ। जब तुम किसी मित्र से मिलो और अचानक तुम्हारे हृदय में हर्ष उठे तो उस हर्ष पर अपने को एकाग्र करो। उस हर्ष को महसूस करो और हर्ष ही हो जाओ। वास्तविक स्रोत की खोज और तब हर्ष से भर कर बोधपूर्ण रहते हुए डालोगे, तब वह भाव फैलने लगेगा। वह कि सुख तुम्हारे मित्र से आ रहा है, उसे अपने मित्र को मिलो। मित्र को बस परिधि तुम्हारा पूरा शरीर, पूरा अस्तित्व ही बन देखने के कारण आ रहा है। यह वास्तविक पर रहने दो और तुम अपने सुखभाव में जाएगा। और बस उसे देखने वाले ही मत तथ्य नहीं है। सुख सदा तुम्हारे भीतर है। केंद्रित रहो। बने रहो; उसमें विलीन हो जाओ। कछ मित्र तो केवल परिस्थिति बन गया है। मित्र अन्य कई स्थितियों में भी यह किया जा क्षण होते हैं जब तुम हर्ष, सुख और आनंद ने हर्ष को बाहर आने में सहयोग दिया, सकता है। सूरज उग रहा है, और का अनुभव करते हो, लेकिन तुम उन्हें तुम्हें हर्ष को देखने में सहयोग दिया। और अचानक तुम अपने भीतर भी कुछ उगते चूकते रहते हो क्योंकि तम विषय-केंद्रित ऐसा हर्ष के साथ ही नहीं, वरन हर चीज के हुए अनुभव करते हो। तब सूरज को भूल हो जाते हो। साथ है: क्रोध के साथ, उदासी के साथ, जाओ, उसे परिधि पर ही रहने दो। तुम जब भी प्रसन्नता आती है, तुम समझते दुख के साथ, सुख के साथ, हर चीज के उठती हुई ऊर्जा के अपने भाव में केंद्रित हो हो कि वह बाहर से आ रही है। तुम किसी साथ ऐसा ही है। दूसरे तो केवल परिस्थिति जाओ। जब तुम उस पर अपना बोध मित्र से मिले-स्वभावतः, ऐसा लगता है हैं जिनमें तुम्हारे भीतर छिपी चीजें 103
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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