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________________ ओशो से प्रश्नोत्तर सकते। दूसरा क्षण भी उसी संभावना और क्योंकि तुम क्रोध के साथ तादात्म्य कर रहे तुम उनके द्रष्टा नहीं हो सकते, तब तुम उसी क्षमता को लिए हुए अकेला ही हो। अपने विचारों से प्रभावित हो जाते हो और आएगा। लेकिन जब तुम कहते हो, "मैं अपने उन्हीं में रंग जाते हो। क्रोध तुम्हें क्रोधित यदि तुम राज जान जाओ, तो तुम्हारे भीतर मन के परदे पर से क्रोध को गुजरता कर देता है, लोभ तुम्हें लोभी कर देता है, हाथ कुंजी लग गई जो हर क्षण को अ-मन देख रहा हूँ," तो तुम क्रोध को अब कोई वासना तुम्हें वासना से भर देती है, क्योंकि की झलक के लिए खोल दे सकती है। जीवन, कोई रस, कोई ऊर्जा नहीं दे रहे बीच में बिलकुल भी दूरी नहीं है। वे इतने अ-मन अंतिम अवस्था है, जब मन हो। तुम उसे देख पाओगे क्योंकि तुमने करीब हैं कि तुम यह सोचने को बाध्य ही सदा-सदा के लिए विलीन हो जाता है, उससे तादात्म्य नहीं किया है। क्रोध हो कि तुम और तुम्हारे विचार एक हैं। और निर्विचार अंतराल तुम्हारी अंतर्निहित बिलकुल नपुंसक है, उसका तुम पर कोई द्रष्टत्व इस ऐक्य को तोड़कर एक वास्तविकता बन जाता है। यदि ये प्रभाव नहीं है, वह तुम्हें बदलता नहीं, विभाजन पैदा कर देता है। जितना तुम थोड़ी-सी झलकें आ रही हैं तो इनसे पता प्रभावित नहीं करता। वह बिलकुल अवलोकन करते हो, दूरी उतनी बड़ी हो चलता है कि तुम सही मार्ग पर हो और खोखला और मुरदा है। वह गुजर जाएगा जाती है; जितनी बड़ी दूरी होती है, उतनी सही विधियों का उपयोग कर रहे हो। और आकाश को स्वच्छ और मन के परदे ही कम ऊर्जा तुम्हारे विचार तुमसे ग्रहण लेकिन अधीर मत होओ। अस्तित्व को खाली छोड़ जाएगा। करते हैं, और अन्य तो कोई स्रोत उनके बड़ा धैर्य चाहता है। परम रहस्य उन्हीं के धीरे-धीरे तुम अपने विचारों से बाहर पास है ही नहीं। लिए खलते हैं जिनमें अथाह धैर्य होता है। निकलने लगते हो। साक्षी और द्रष्टा की शीघ्र ही वे मरने लगते हैं, मिटने लगते एक बार कोई व्यक्ति अ-मन की दशा में पूरी प्रक्रिया ही यही है। दूसरे शब्दों में, हैं। मिटने के इन क्षणों में तुम्हें अ-मन की आ जाए तो कुछ भी उसे उसकी जार्ज गुरजिएफ इसे 'अतादात्म्य' कहा पहली झलक मिलेगी-जैसा कि तुम अंतस-सत्ता से विचलित नहीं कर सकता। करते थे। अब तुम अपने विचारों के साथ अनुभव कर रहे हो। तुम कहते हो, “मैं अ-मन की शक्ति से बड़ी कोई शक्ति नहीं तादात्म्य नहीं बना रहे। तुम हट कर अकेले अपने शरीर, अपने विचारों और भावों को है। ऐसे व्यक्ति को कोई नुकसान नहीं खड़े हुए हो-तटस्थ, जैसे कि वे किसी देख पाने में सक्षम होता जा रहा हूं, और पहुंचाया जा सकता। कोई मोह, कोई और के विचार हों। तुमने उनसे अपने यह अच्छा लगता है।" यह तो केवल बस लोभ, कोई ईर्ष्या, कोई क्रोध, कुछ भी संबंध तोड़ लिए। तभी तुम उन्हें देख सकते शुरुआत है। शुरुआत भी अपूर्व रूप से उसमें उठ नहीं सकता। अ-मन एक हो। सुंदर है। बस ठीक मार्ग पर आ जाना बिलकुल विशुद्ध आकाश है जिसमें कोई द्रष्टा होने के लिए एक निश्चित दूरी की ही-चाहे तुम एक भी कदम न बादल नहीं। जरूरत है। यदि तुम उनके साथ तादात्म्य बढ़ाओ-तुम्हें अकारण ही अपूर्व आनंद तुम कहते हो, “साक्षित्व किस प्रकार बनाए हुए हो, तो कोई दूरी नहीं हुई, वे से भर देगा। अ-मन तक ले जाता है?" एक अंतर्भूत बहुत करीब हैं। यह ऐसे ही है जैसे तुम और एक बार तुम ठीक मार्ग पर चलने नियम है: विचारों का अपना कोई जीवन दर्पण को अपनी आंख के बहुत करीब लगो तो तुम्हारा आनंद, तुम्हारे सुंदर नहीं है। वे परजीवी हैं। वे तुम्हारे तादात्म्य लगा लो-तब तुम अपना चेहरा नहीं देख अनुभव और-और गहराएंगे, नए रंगों, पर जीते हैं जो तुमने उनके साथ बना लिया पाओगे। एक निश्चित दूरी चाहिए, तभी नए फूलों और नई सुगंधों के साथ है। जब तुम कहते हो, "मैं क्रोधित हूं" तो तुम दर्पण में अपना चेहरा देख सकते हो। और-और फैलेंगे। तुम क्रोध में जीवन ऊर्जा डाल रहे हो, यदि विचार तुम्हारे बहुत करीब हों, तो तुम कहते हो, “लेकिन निर्विचार के 276
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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