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ध्यान की विधियां
गए हो, फिर तुम आंखों की उस पाषाणवत किसी भी अंग में समग्रता से प्रवाहित हो करो तो तुम मन से भी अलग हो सकते दशा में बने रहो। कुछ भी मत करो; बस सकते हैं, तब वह अंग जीवंत हो उठता हो। फिर तुम जानोगे कि मन भी एक रुके रहो। अचानक एक दिन तुम्हें बोध है-इतना ज्यादा जीवंत हो उठता है कि विषयवस्तु है जिसे तुम देख सकते हो और होगा कि तुम स्वयं के भीतर देख रहे हो। तुम अभी कल्पना नहीं कर सकते कि उस यह कि वह जो मन को देख रहा है, वह
तुमने अपने शरीर को केवल बाहर से अंग को क्या हो जाता है। तब तुम आंखों मन से भिन्न और अलग है। मन में प्रवेश देखा है। तुमने अपने शरीर को एक दर्पण में समग्रता से गति कर सकते हो। यदि तुम करने का वही अर्थ है जो अर्थ 'अंतरंग को में प्रतिफलित होते देखा है, या तुमने हाथों अपनी आंखों में समग्रता से गति कर विस्तार से देखने' का है। शरीर और मन को बाहर से देखा है। तुम नहीं जानते कि सकते हो और फिर किसी व्यक्ति की दोनों में प्रवेश करना है और उन्हें भीतर से तुम्हारे शरीर का भीतरी रूप क्या है। तुमने आंखों में झांको, तो तुम उसे आर-पार भेद देखना है। फिर तुम बस एक साक्षी हो कभी अपने भीतर प्रवेश नहीं किया है। तुम डालोगे; तुम उसकी अंतरंग गहराइयों में , और यह साक्षी और आगे विभक्त नहीं हो कभी अपनी अंतस-सत्ता में और अपने प्रवेश कर जाओगे।
सकता। शरीर के भीतर नहीं हुए हो ताकि तुम वहां आंखें बंद कर लो; अपने अंतरंग को इसीलिए तो यह साक्षी तुम्हारा अंतरतम से चारों ओर देख सको कि वह भीतर से विस्तार से देखो। इस विधि का प्रथम और मर्म है: साक्षी ही तुम हो। जो विभक्त कैसा दिखता है।
बाहरी हिस्सा है कि तुम अपने शरीर को किया जा सके, जो दृश्य बन सके-वह __ अपनी आंखें बंद कर लो, अपने भीतर के केंद्र से देखो। भीतर मध्य में खड़े तुम नहीं हो। जब तुम उस बिंदु पर आ गए अंतर्जगत को सविस्तार से देखो और रह कर चारों ओर देखो। तुम शरीर से जिसे विभक्त नहीं किया जा सकता, भीतर से प्रत्येक अंग पर गति करो। अलग हो जाओगे क्योंकि देखने वाला जिसमें तुम और आगे गति नहीं कर
पैर के अंगूठे पर भीतर से दृष्टि ले कभी भी देखी गई वस्तु नहीं रह जाता। सकते, जिसका अवलोकन नहीं किया जा जाओ। पूरे शरीर को भूल जाओ; अंगूठे अवलोकन-कर्ता अवलोकित-वस्तु से सकता, केवल तभी तुम स्व-सत्ता पर पर जाओ। वहां ठहरो और देखो। फिर पैरों अलग है।
पहुंचे। स्मरण रखो कि तुम साक्षी के स्रोत में गति करो, ऊपर की ओर चलो; पैरों के यदि तुम भीतर से अपने शरीर को पूरी के साक्षी नहीं हो सकते; यह बेतुका होगा। प्रत्येक हिस्से से गुजरो। तब बहुत-सी तरह से देख सको, फिर तुम कभी भी इस यदि कोई कहता हो कि “मैंने अपने चीजें घटित होती हैं।
भ्रांति में नहीं पड़ सकते कि तुम शरीर हो। साक्षी का अवलोकन किया है"-तो यह फिर तुम्हारा शरीर इतना ज्यादा तब तुम भिन्न बने रहोगे, पूर्णतः अनर्गल कथन होगा। यह अनर्गल क्यों संवेदनशील संयंत्र हो जाता है जिसकी तुम भिन्न-शरीर के भीतर, लेकिन शरीर है? इसलिए कि यदि तुमने अपने कल्पना भी नहीं कर सकते। फिर यदि तुम नहीं। यह इस विधि का पहला हिस्सा है। साक्षी-स्व का अवलोकन किया है, तो किसी को छुओ, तो तुम अपने हाथों में पूरी तब तुम गति कर सकते हो, तब तुम गति फिर वह विषय बन जाने के कारण ही परम तरह से प्रवाहित हो सकते हो और फिर करने के लिए मुक्त हुए। एक बार शरीर से चैतन्य न रह गया। फिर देखने वाला स्वयं वह स्पर्श रूपांतरणकारी हो जायेगा। यही मुक्त हो कर, तादात्म्य से मुक्त हो कर तुम परम चैतन्य हो गया। जिसका भी तुम अर्थ है सद्गुरु द्वारा छुए जाने काः वे गति करने के लिए मुक्त हुए। अब तुम अवलोकन कर सकते हो, तुम वह नहीं अपने किसी भी अंग में पूर्णतः प्रवाहित हो अपने मन में गहरे में गति कर सकते हो। हो; जिसे भी तुम देख सकते हो, तुम वह सकते हैं और फिर वे वहां पूरी तरह से यह मन की अंतर्गुफा है।
नहीं हो; जो भी तुम्हारे बोध का विषय बन सघन हो उठते हैं। वे तुम्हारे शरीर के यदि तुम मन की इस अंतर्गुफा में प्रवेश जाता है, तुम वह नहीं हो। 2
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