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आंतरिक केंद्रीकरण
कृतसंकल्प होकर इस पर लगे ही रहो तो जाएगी एक झलक जो कोई एल एस डी लगेगा कि स्मरण आया और अगले ही यह घटित होता है। टहलते हुए, स्मरण तुम्हें नहीं दे सकती, एक झलक जो क्षण तुम भटक जाओगे। कोई विचार रखो कि तुम हो, और अपने होने को ही वास्तविक की है। एक क्षण के लिए तुम प्रवेश कर जाएगा, कोई प्रतिबिंब तुम पर महसूस करो, किसी विचार या प्रत्यय को अपनी अंतस-सत्ता के केंद्र पर फेंक दिए झलक जाएगा, और तुम प्रतिबिंब में उलझ नहीं। बस अनुभव करो। मैं तुम्हारे हाथ जाते हो। तब तुम दर्पण के पीछे हो, तुम जाओगे। लेकिन न दुखी होओ और न ही को छुऊ, या अपना हाथ तुम्हारे सिर पर प्रतिबिंबों के जगत के पार चले गए; तुम हताश होओ। ऐसा इसलिए होता है रखू: उसे शब्द मत दो। बस स्पर्श को अस्तित्वगत हो गए। और यह तुम किसी क्योंकि जन्मों से हम प्रतिबिंबों में उलझे रहे अनुभव करो, और उस अनुभव करने में भी समय कर सकते हो। इसके लिए किसी हैं। यह एक यंत्रवत प्रक्रिया बन गई है। स्पर्श को ही नहीं, उसको भी अनुभव करो विशेष स्थान और विशेष समय की जरूरत तत्क्षण, स्वतः ही हम प्रतिबिंबों की ओर जिसे स्पर्श किया गया है। फिर तुम्हारी। नहीं है। और तुम यह नहीं कह सकते कि, वापस लौटा दिए जाते हैं। लेकिन एक चेतना के दो फलक हो जाएंगे।
"मेरे पास समय नहीं है।" इसे तुम खाते क्षण को भी तुम्हें झलक मिल जाए, तो तुम वृक्षों के नीचे टहल रहे होः वृक्ष हैं, समय कर सकते हो, नहाते समय कर शुरू करने के लिए पर्याप्त है। और वह हवा है, सूरज उग रहा है। यह तुम्हारे चारों सकते हो, चलते हुए या बैठे हुए कर पर्याप्त क्यों है ? क्योंकि तुम्हें कभी भी दो
ओर का संसार है; तुम उसके प्रति सजग सकते हो—किसी भी समय। इससे कोई क्षण एक साथ नहीं मिलेंगे। तुम्हारे साथ हो। एक क्षण को खड़े रहो, और फिर फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या कर रहे हो, तो हमेशा केवल एक क्षण ही होता है। अचानक स्मरण करो कि 'तुम हो', लेकिन तुम अचानक अपना स्मरण कर सकते हो, और यदि तुम्हें एक क्षण के लिए भी झलक उसको शब्द मत दो। बस अनुभव करो कि और फिर अपनी अंतस-सत्ता की उस मिल सके, तो तुम उसमें रह सकते हो। तुम हो। यह निशब्द अनुभूति, एक क्षण के झलक को जारी रखने की चेष्टा करो। केवल प्रयास की आवश्यकता है-एक लिए ही सही, तुम्हें एक झलक दे यह कठिन होगा। एक क्षण को तुम्हें सतत प्रयास की आवश्यकता है।