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ध्यान की विधियां
ग व ने कहाः तारवाले वाद्यों
। की ध्वनि सुनते हुए उसकी संयुक्त केंद्रीय ध्वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्यापकता को उपलब्ध होओ।
तुम किसी वाद्य को सुन रहे हो, सितार या किसी वाद्य को। उसमें कई स्वर हैं। सजग हो कर उसके केंद्रीय स्वर को सुनो-उस स्वर को जो उसका मेरुदंड हो. और जिसके चारों ओर और सभी स्वर
संगीत ः एक ध्यान
घूमते हों; उसकी गहनतम धारा को सुनो उसके प्रति जागरूक होओ।
हो सकता है। यदि उसका नृत्य या संगीत जो अन्य सभी स्वरों को सम्हाले हुए हो। बुनियादी रूप में, मूलतः संगीत का में ध्यान नहीं है तो वह टेक्नीशियन ही जैसे तुम्हारे पूरे शरीर को उसका मेरुदंड, उपयोग ध्यान के लिए किया जाता था। है। वह बड़ा टेक्नीशियन हो सकता है; उसकी रीढ़ सम्हाले हुई है, वैसे ही संगीत भारतीय संगीत का विकास तो विशेष रूप लेकिन तब उसके संगीत में आत्मा नहीं की भी रीढ़ होती है।
से ध्यान की विधि के रूप में ही हुआ। वैसे है, शरीर भर है। आत्मा तो तब होती है संगीत को सुनते हुए सजग हो कर ही भारतीय नृत्य का विकास भी जब संगीतज्ञ गहरा ध्यानी भी हो। उसमें प्रवेश करो और उसके मेरुदंड को ध्यान-विधि की तरह हुआ। संगीतज्ञ या संगीत तो बाहरी चीज है। लेकिन खोजो–उस केंद्रीय स्वर को खोजो जो पूरे नतर्क के लिए ही नहीं, श्रोता या दर्शक के सितार बजाते हुए वादक केवल सितार ही संगीत को सम्हाले हुए रहता है। स्वर तो लिए भी वे गहरे ध्यान के उपाय थे। नहीं बजाता है, वह भीतर अपने बोध को आते-जाते और विलीन होते रहते हैं, नर्तक या संगीतज्ञ मात्र एक भी जगा रहा है। बाहर सितार बजता है लेकिन केंद्रीय तत्व प्रवाहमान रहता है। यंत्रविशेषज्ञ, एक टेक्नीशियन भी और उसका सघन होश भीतर गति करता
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