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________________ आंतरिक केंद्रीकरण - नहीं पहुंचा सकती। अब तुम्हारे लिए कोई तो पहली बार तुम अपने मालिक हो जाते यदि यह स्थिति है तो तुम्हारे सभी कर्म पीड़ा नहीं बचती, और एक बार तुम यह हो। वरना तो दूसरे तुम्हारे मालिक होते हैं। प्रतिक्रियाएं हैं, क्रियाएं नहीं। जान जाओ तो तुम एक दूसरा काम कर तुम तो बस एक गुलाम हो। तुम्हारी पत्नी केंद्र का यह बोध और केंद्र में यह सकते हो। जानती है, तुम्हारा बेटा जानता है, तुम्हारे थिरता तुम्हें एक मालिक बना देती है। एक बार तुम अपने केंद्र को परिधि से पिता जानते हैं, तुम्हारे मित्र जानते हैं कि वरना तो तुम एक गुलाम हो, और इतनों के अलग कर सको, तो एक दूसरा काम कर तुम्हें खींचा और धकेला जा सकता है। गुलाम हो-एक ही मालिक के नहीं, सकते हो। एक बार केंद्र बिलकुल अलग तुम्हें उद्विग्न किया जा सकता है, तुम्हें वरन कई-कई मालिकों के। हर चीज हो जाए, यदि तुम क्रोध में, कामना में सुखी और दुखी किया जा सकता है। यदि मालिक है और तुम पूरे जगत के गुलाम अनुद्विग्न रह सको तो तुम कामनाओं के कोई अन्य तुम्हें सुखी और दुखी कर हो। स्वभावतः तुम झंझट में पड़ोगे ही। साथ, क्रोध के साथ, उद्वेगों के साथ खेल सकता है तो तुम मालिक नहीं हुए। दूसरे इतने मालिक तुम्हें इतनी दिशाओं और सकते हो। का आधिपत्य हो गया। एक इशारे से वह आयामों में खींच रहे हैं कि तुम कभी एक यह विधि तुम्हारे भीतर दो अतियों का तुम्हें दुखी कर सकता है; एक छोटी-सी नहीं हो पाते, तुम एक इकाई नहीं हो। और एक भाव पैदा करने के लिए है। वे मौजूद मुस्कान से वह तुम्हें सुखी कर सकता है। इतनी दिशाओं में खींचे जाने से, तुम संताप तो हैं ही: दो विरोधी ध्रुव मौजूद हैं। एक तो तुम किसी और की दया पर हो; दूसरा में हो। जो अपना मालिक हो केवल वही बार तुम्हें इस ध्रुवीयता का बोध हो जाए, तुम्हारे साथ कुछ भी कर सकता है। और संताप का अतिक्रमण कर सकता है। 4 109
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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