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________________ ध्यान का विज्ञान अभी भी अस्त-व्यस्त और प्रदूषित न हुई मजबूती मिलती है। लेकिन जब वृक्ष छोटा शुरू ऐसी जगह से करो जहां से शुरू हो। ऐसा कोई स्थान न खोज पाओ तो द्वार होता है, कोमल होता है, तो एक छोटा करना सरल हो। वरना तो व्यर्थ ही तुम्हें बंद करके अपने ही कमरे में बैठ जाओ। बच्चा भी काफी खतरनाक होगा, या पास बहुत ही कुछ लगने लगेगा-जो वास्तव संभव हो तो ध्यान के लिए अपने घर में से गुजरती एक गाय भी उसे नष्ट करने के में है नहीं। एक विशेष कक्ष बना लो। एक छोटा-सा लिए पर्याप्त होगी। ।। ____ यदि तुम सीधे बैठने से शुरू करते हो, कोना भी काम देगा, लेकिन वह विशेषतः तो भीतर बड़ी बेचैनी अनुभव करोगे। ध्यान के लिए ही हो। विशेषतः ध्यान के जितना तुम बैठने का प्रयास करोगे, उतनी लिए ही क्यों? क्योंकि हर प्रकार का सुखपूर्वक होओ ही अशांति अनुभव होगी। तुम्हें बस अपने कृत्य अपनी तरंगें पैदा करता है। यदि उस विक्षिप्त मन का ही पता चलेगा किसी और स्थान पर तुम केवल ध्यान ही करो, तो वह रीर की मुद्रा ऐसी हो कि तुम अपने चीज का नहीं। इससे विषाद पैदा होगा; स्थान ध्यानमय हो जाता है। हर रोज तुम । शरीर को भूल सको। आरामपूर्ण तम हताश हो जाओगे, आनंदित अनुभव ध्यान करते हो-जब भी तुम ध्यान में होते होना क्या है? जब तुम अपने शरीर को नहीं करोगे। बल्कि, तुम्हें लगने लगेगा कि हो तो वह स्थान तुम्हारी तरंगों को पी लेता भूल जाते हो, तब तुम आराम में होते हो। तुम विक्षिप्त हो गए। और कई बार तुम है। अगले दिन जब तुम आते हो, तो वे जब तुम्हें शरीर का सतत स्मरण बना रहता वास्तव में विक्षिप्त भी हो सकते हो। तरंगें तुम्हीं पर वापस लौटने लगती हैं। वे है, तो तुम कष्ट में होते हो। तो चाहे कुर्सी यदि तुम ईमानदारी से 'मात्र बैठने का सहयोग देती हैं, प्रत्युत्तर देती हैं, पर बैठो कि भूमि पर बैठो, यह प्रश्न नहीं प्रयास करो तो विक्षिप्त भी हो सकते हो। प्रतिसंवेदित होती हैं। जब कोई व्यक्ति है। सुखपूर्वक हो रहो, क्योंकि तुम्हारा लोग क्योंकि ईमानदरी से प्रयास नहीं वास्तव में ध्यानी हो जाता है, तो वह शरीर ही यदि सुखपूर्वक नहीं होगा तो तुम , करते, इसीलिए अधिक विक्षिप्तता नहीं सिनेमाघर के सामने बैठ कर भी ध्यान कर उन आशीषों की अभीप्सा नहीं कर सकते घटती। थिर बैठने की मुद्रा में तुम्हें भीतर सकता है. रेलवे प्लेटफार्म पर बैठकर भी जिनका संबंध गहरे तलों से है: पहले तल की इतनी विक्षिप्तता का पता लगना शरू ध्यान कर सकता है। पर ही चूक जाओ, तो बाकी सब तल बंद हो जाता है कि यदि तुम इसे निष्ठापूर्वक पंद्रह वर्ष तक लगातार मैं देशभर में हो जाते हैं। यदि तुम वास्तव में सुखी, जारी रखो तो सच में विक्षिप्त हो सकते घमता ही रहा, घमता ही रहा–दिन आए आनंदित होना चाहते हो तो आरंभ से ही हो। ऐसा पहले बहन ना और गए, वर्ष आए और गए लगातार आनंदित होना शुरू करो। जो लोग भी कभी भी किसी ऐसी चीज की सलाह नहीं कभी रेलगाड़ी में, कभी हवाई जहाज में, आंतरिक आनंद तक पहुंचने का प्रयास कर देता जो निराशा, विषाद या उदासी पैदा कभी कार में। इससे कोई अंतर नहीं रहे हैं, शरीर की सुविधा उनके लिए कर सके. जो तम्हें अपनी विक्षिप्तता के पड़ता। एक बार तुम वास्तव ही अपने स्व अनिवार्य आवश्यकता है। 12 प्रति बहुत ज्यादा सचेत कर दे। हो सकता में स्थिर हो जाओ, तो फिर कोई अंतर नहीं है कि अपने भीतर की पूरी विक्षिप्तता के पड़ता। लेकिन नये साधक के लिए ऐसा प्रति जाग पाने की तुम्हारी तैयारी न हो।। नहीं है। रेचन से प्रारंभ करो कुछ बातें तुम्हें धीरे-धीरे पता लगने जब वृक्ष अपनी जड़ें जमा लेता है, तो देनी चाहिए। ज्ञान सदा शुभ नहीं होता। भले ही हवाएं आएं और वर्षा आए और लोगों को कभी भी सीधे बैठने भर जैसे-जैसे उसे पचाने की तुम्हारी क्षमता बादल गरजें, सब ठीक है। इससे वृक्ष को से ही शरू करने को नहीं कहता। बढ़ती जाए, उसे वैसे ही धीरे-धीरे खलना
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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