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________________ परिधि पर ही मिल सकते हो, और परिधि अशांत ही होगी। कभी-कभार ही — बिना संघर्ष के जब तुम दोनों गहन प्रेम में होओगे - तो कभी-कभार ही तुम विश्रांत होओगे और हृदय शांति से दीप्तिमान होगा। तो प्रेम तुम्हें शांति की कुछ झलकें ही दे सकता है लेकिन शांति में स्थापित नहीं कर सकता, जड़ें नहीं दे सकता। उससे कोई शाश्वत शांति संभव नहीं है, झलकें ही संभव हैं। और शांति की दो झलकों के बीच संघर्ष, हिंसा, घृणा और क्रोध की गहरी खाइयां होंगी। दूसरा उपाय है प्रेम के माध्यम से शांति को खोजने की अपेक्षा शांति को सीधे ही खोजना। यदि तुम शांति को सीधे ही खोज सको — और उसी के लिए यह विधि है - तो तुम्हारा जीवन प्रेम से भर जाएगा। लेकिन अब प्रेम की गुणवत्ता भिन्न होगी। वह कब्जा नहीं जमाएगा; वह किसी एक व्यक्ति पर केंद्रित नहीं होगा । वह किसी पर आश्रित नहीं होगा, और न ही किसी को स्वयं पर आश्रित करेगा। तुम्हारा प्रेम बस एक प्रेमभाव, एक करुणा, एक गहन समानुभूति बन जाएगा। और अब कोई भी, कोई प्रेमी भी तुम्हें अशांत नहीं कर सकता, क्योंकि तुम्हारी शांति जड़ें ले चुकी है और तुम्हारा प्रेम तुम्हारी अंतस शांति की छाया की भांति आएगा। पूरी बात उलट गई : बुद्ध भी प्रेम करते हैं लेकिन उनका प्रेम कोई व्यथा नहीं है। तुम यदि प्रेम करो तो दुख झेलोगे, प्रेम न करो तो दुख झेलोगे। तुम प्रेम न करो तो ध्यान की विधियां उसकी अनुपस्थिति से पीड़ित होओगे; और प्रेम करो तो प्रेम की उपस्थिति से पीड़ित होओगे। तुम परिधि पर जी रहे हो और जो भी करोगे वह तुम्हें क्षणिक संतुष्टि ही दे सकता है, फिर अंधेरी खाइयां आ जाएंगी। हृदय स्वाभाविक रूप से शांति का स्रोत है, तो वहां तुम कुछ निर्मित नहीं कर रहे हो। तुम तो ऐसे स्रोत पर पहुंच रहे हो जो सदा से ही मौजूद है। और यह कल्पना तुम्हारा यह बोध जगाने में ही सहायक होगी कि हृदय शांति से भरा हुआ है, ऐसा नहीं कि यह कल्पना ही शांति पैदा करेगी। तंत्र और पाश्चात्य सम्मोहन के दृष्टिकोण में यही भेद है : सम्मोहनविद सोचता है कि कल्पना से तुम कुछ पैदा कर रहे हो; तंत्र का मानना है कि तुम कुछ पैदा नहीं कर रहे हो— कल्पना के द्वारा तुम बस उससे जुड़ रहे हो जो पहले से ही मौजूद है। कल्पना से तुम जो भी पैदा कर सको वह स्थायी नहीं हो सकता। यदि वह वास्तविकता नहीं है तो झूठा हुआ, अवास्तविक हुआ— और तुम एक भ्रम पैदा कर रहे हो । इसे करके देखो: जब भी तुम दोनों कांखों के बीच अपने हृदय केंद्र में शांति को परिव्याप्त होता महसूस कर पाओगे, तो संसार तुम्हें माया लगेगा। जब संसार माया लगे, तो यह संकेत है कि तुम ध्यान में प्रवेश कर गए। ऐसा सोचो मत कि जगत माया है; सोचने की कोई जरूरत नहीं है— तुम अनुभव करोगे। अचानक तुम्हारे मन में यह भाव उठेगा कि “संसार को हो क्या गया है?" संसार अचानक स्वप्निल, स्वप्नवत हो गया। संसार है तो अभी भी, परंतु, बिना किसी सारतत्व के—जैसे परदे पर फिल्म चलती है। वह कितना वास्तविक लगता है! वह त्रि-आयामी भी हो सकता है— परंतु दिखता ऐसे है जैसे प्रक्षेपित हो । ऐसा नहीं कि जगत कोई प्रक्षेपित वस्तु है, ऐसा नहीं कि संसार अवास्तविक है— नहीं । संसार वास्तविक है परंतु तुम दूरी कर लेते हो, और दूरी बड़ी से बड़ी होती जाती है। और दूरी बढ़ रही है या नहीं, यह तुम इससे जान सकते हो कि जगत के प्रति अब तुम कैसा अनुभव करते हो। यही कसौटी है । यह सत्य नहीं है कि संसार अवास्तविक है- यह तो ध्यान की कसौटी है । यदि संसार अवास्तविक हो गया, तो तुम स्वसत्ता में केंद्रित हो गए हो। अब परिधि और तुम इतनी दूर-दूर हो गए हो कि तुम परिधि की ओर इस प्रकार देख सकते हो जैसे वह कोई भिन्न विषय हो, तुमसे अन्यथा हो। तुम उससे एकरूप नहीं हो। यह विधि बहुत सरल है और तुम इसका अभ्यास करो तो बहुत समय नहीं लेगी। इस विधि के साथ तो कई बार ऐसा भी होता है कि पहले ही प्रयास में तुम्हें इसके सौंदर्य और चमत्कार की अनुभूति होगी । तो इसे करके देखो। लेकिन पहले ही प्रयास में यदि तुम कुछ अनुभव नहीं कर पा रहे तो हताश मत होओ। प्रतीक्षा करो, और प्रयोग जारी रखो। और यह उतना सरल है कि तुम किसी भी समय कर सकते हो। रात बिस्तर में लेटे-लेटे ही तुम 92
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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