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मृत्यु में प्रवेश
ग व ने कहाः अपने शरीर में
- पंजों से ऊपर उठती हुई अग्नि पर अपने होश को केंद्रित करो जब तक कि शरीर जल कर राख न हो जाए, लेकिन तुम नहीं।
बुद्ध को यह विधि बहुत प्रीतिकर थी; उन्होंने अपने शिष्यों को इस विधि में दीक्षित किया।
जब भी कोई व्यक्ति बुद्ध द्वारा दीक्षित होता, तो पहली बात यही होती थी : वे उसे कहते कि श्मशान जाकर किसी जलते हुए
मृत्यु में प्रवेश
शरीर को, जलती हुई लाश को देखो। तीन था। देर-सबेर उसे अपना ही शरीर चिता स्मरण रखो, तुम भयभीत हो कि नहीं, महीने तक उसे कुछ भी नहीं करना होता, पर दिखाई देने लगता। वह स्वयं को ही मृत्यु ही एकमात्र निश्चित घटना है। जीवन बस वहां बैठना और देखना होता। जलता हुआ देखने लगता।
में मृत्यु के सिवाय और कुछ भी निश्चित बुद्ध कहते, “उसके विषय में विचार यदि तुम मृत्यु से बहुत भयभीत हो तो नहीं है। सब कुछ अनिश्चित है; केवल मत करना, उसे बस देखना।" और यह इस विधि को तुम नहीं कर सकते, क्योंकि मृत्यु ही एक निश्चितता है। बाकी सब कठिन है कि मन में यह विचार न उठे कि भय ही तुम्हारा बचाव करेगा। तुम उसमें कुछ सांयोगिक है-हो भी सकता है, नहीं देर-सबेर तुम्हारा शरीर भी जला दिया प्रवेश नहीं कर सकते। या, तुम सतह पर भी हो सकता-केवल मृत्यु ही सांयोगिक जाएगा। तीन महीना एक लंबा समय है, ही उसकी कल्पना कर सकते हो, लेकिन नहीं है। और मानवीय मन की ओर देखो।
और साधक को रात-दिन निरंतर जब भी तुम्हारे गहन प्राण उसमें नहीं होंगे। फिर हम मृत्यु के सबंध में सदा ऐसे ही बात कोई चिता जलती, उस पर ध्यान करना तुम्हें कुछ भी नहीं घटेगा।
करते हैं जैसे वह कोई दुर्घटना हो। जब भी
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