Book Title: Chandrasagar Smruti Granth
Author(s): Suparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
Publisher: Mishrimal Bakliwal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रसागर स्मृति ग्रंथ प्रधान सम्पादिका पूज्य आर्यिका श्री १०५ सुपार्श्वमती माताजी Cardina प्रबन्ध सम्पादक जिनेन्द्र प्रकाश जैन सम्पादक - 'करुणादीप' एटा भेंटकर्ता मिश्रीलाल बाकलीवाल फर्म- मिश्रीलाल निर्मलकुमार फैसी बाजार, गौहाटी - ७८१-००१ वोर नि.सं०] .... -मुद्रक- मूल्य २५०२ । करुणा प्रिंटिंग प्रेस, एटा - २०७००१ । स्वाध्याय Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 066666666666666666666660 ( श्री चन्द्रसागर स्मृति ग्रन्थ ar परम पूज्य चारिन चक्रवर्ती - आचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी महाराज . EPISOSOROSCORETORESOSORRESTED) ---- - - -- - - - -- जन्म: आपाठ कृष्णा विनम म० १९२६ समाधि : द्वितीय भाद्रपद शुक्ला २ विक्रम स० २०१२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAMAMMAAMAMAMANAMAMAMAAVAVAAAAMANAMAMMAMMAMATRANS श्री चन्द्रसागर स्मृति ग्रन्थ - . :NE P ........ WAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA WAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA . 23 __- - - - - पूज्य आचार्यकल्प श्री १०८ चन्द्रसागर जी महाराज (ध्यानावस्था में) NAAMMAMMAMAYAMAAVAVAAMANAVAMANNAMAVAAAAMANAMAVAAMAAYE Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रसागर स्मृति ग्रन्थ र __ परम पूज्य आचार्य कल्प श्री १०८ चन्द्रसागर जी महाराज - Com - - - - . १y pal जन्म २ माघ कृष्णा त्रयोदशी वि०म० १९४० समाधि फाल्गुन शुक्ला पूणिमा वि० म० २००१ Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्री चन्द्रसागर स्मृति ग्रन्थ - - - PR rent पूज्य आचार्य कल्प श्री १०८ चन्द्रसागर जी महाराज (चर्या करते हुये ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रसागर स्मृति ग्रन्थ SIN NA Visic SSC M पूज्य आयिका-रत्न श्री १०५ इन्दुमती माताजी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 ? ? ???in ܊ cc ? ?- :???sz : :; ;; ; * *** T *?'? ? T?T' T ? ? T * - ܀ * ܙ ܀ 25 मिनी नाम माविका श्री १०५. नुपाज्यमनी मानाजी ܦܙ in al,-iir mfa gr .'- ܫܥ ܫܳܢܝܺ ܚܰܥܝܺܝܰ ܝܺܝ ܝܰܝܺܝܺ ܚܳ - ܝܺܫ L L - ; &£ - - 2ܝ ܫ ܝܦܝܠܢ ܥ ; ; Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्री चन्द्रसागर स्मृति ग्रन्थ - .... F A F .. 4. सेठ मिश्रीलाल जी बाकलीवाल, गौहाटी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DVAVIMANAMVAYA AYAYAMAN MAAYAAN AWAMVAYA YRITY श्री चन्द्रसागर स्मृति ग्रन्थ र . AAAAMAVAMMAR/.M/ASARAAAAAA/ANI/AAAAAAAAYASAVASYAYVAYAVAI/AAS/RAS BYWANNAMAANAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA . ..... m/p/ AA// A श्रीमती अमराव देवो वाकलीवाल धर्मपत्नी श्री मिश्रीलाल जी वाकलीवाल ___ गौहाटी WWWWWWWWWWWWWWW Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PANCEMEANI AAR श्री चन्द्रसागर स्मृति ग्रन्थ - A MediaNP www A nnound- mahim S N प्रस्तुत ग्रन्थ प्रकाशन के प्रेरणा मूत्र श्री शिवकरण जी, लाडनू वर्तमान मे- पूज्य छुल्लक श्री १०५ सिद्धसागर जी महाराज छुल्लक दीक्षा : बसन्त पंचमी . ५ फरवरी १९७६ a.om.com.. m. ARCHAMPORN kamukke":KKKSE N DHin Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन प्रस्तुत "श्री चन्द्रसागर स्मति ग्रन्थ" मात्र स्मृति ग्रन्थ ही नहीं प्रत्युत साधु तथा त्यागी वर्ग के लिये विशेष रूप से उपयोगी ग्रन्थ है, जिसका प्रकाशन कराके सेठ मिश्रीलाल जी वाकलीवाल गौहाटी ने भव्य जीवों के कल्याण का एक अवलम्बन जुटा दिया है और अपनी चचला लक्ष्मी का सद्उपयोग करके एक अनुकरणीय कार्य किया है। ___इस ग्रन्थ मे तीन खण्ड है । प्रथम खण्ड मे आचार्य कल्प श्री १०८ चन्द्रसागर जी महाराज के प्रति समर्पित श्रद्धा सुमन संकलित किये गये है । द्वितीय खण्ड मे कुछ सैद्धान्तिक लेख प्रस्तुत किये गये है और तीसरे खण्ड में वह नित्य पाठ संग्रह' प्रकाशित किया है जो कि स्वर्गीय श्री १०८ आचार्य कल्प चन्द्रसागर जी महाराज ने अपने स्वय के पढ़ने के लिये सकलित करके अपनी सुन्दर लिखावट में लिपिबद्ध किया था। यह 'नित्य पाठ संग्रह' गुटका व्र० श्री शिवकरण जी लाडनू निवासी को पूज्य आचार्य श्री १०८ महावीर कीर्ति जी महाराज के संघ से प्राप्त हुआ था। तभी से मान्य ब्रह्मचारी जी के यह भाव थे कि यह ग्रन्थ छपकर साधु संघ एवं धर्म प्रेमियो के हाथो में पहुंचे। उन्होने बड़ी श्रद्धा और भक्ति से वह नित्य पाठ सग्रह' पूज्य आर्यिका श्री १०५ इन्दुमती माता जी की परम शिष्या विदुषी रत्न आयिका श्री १.५ सुपार्श्वमती माता जी को संशोधनार्थ भेट किया । पूज्य माता जी ने बड़ी लगन और शोधपूर्ण दृष्टि से ग्रन्थ का अवलोकन किया और जहां कही अशुद्धि समझी वहा संशोधन किया। शुभ कर्मोदय से गत वर्ष हम पूज्य आर्यिका संघ के दर्शनार्थ गौहाटी पहुंचे। वहां मान्य ब्र० श्री शिवकरण जी भी पूज्य माता जी के दर्शनार्थ पधारे हुये थे। तभी इस ग्रन्थ की १००० प्रतियों के प्रकाशन की रूप रेखा बनी जिसमे से ५०० प्रतियों का प्रकाशन गौहाटी निवासी स्वनाम धन्य सेठ मिश्रीलाल जी वाकलीवाल ने अपनी ओर से कराने का विचार प्रगट किया जिससे सभी को प्रसन्नता हुई । परिणाम स्वरूप ग्रन्य को यह प्रति आपके कर कमलों मे शोभित हो रही है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक का संक्षिप्त परिचय ___ श्री मिश्रीलाल जी सादगी पसन्द, निरभिमानी, सरल स्वभावी, धार्मिक कार्यों में अग्रणी, परम गुरुभक्त तथा उदार चित्त से पूर्ण गौहाटी जैन समाज रूपी सुरभित उद्यान के एक आकर्षक पुष्प हैं । ____ आपका जन्म राजस्थान के चुरू जिले में स्थित लालगढ़ नाम के कस्बे में वि० संवत् १६८१ में स्वर्गीय श्री जेठमल जी वाकलीवाल के घर हुआ था। • आपके पिता श्री जेठमल जी बड़े धर्म परायण व्यक्ति थे । धार्मिक कार्यों में सदैव रुचि लेते थे। समाज सेवा में सदैव अग्रणी रहते थे । तीर्थ यात्रा, दान, साधु सत्कार के प्रसगों में सदा आगे बढ़कर कार्य करते थे। योग्य पिता के योग्य पुत्र श्री मिश्रीलाल जी भी अपने पिता के पद चिह्नों पर चलकर आज समाज की सेवा में तत्पर हैं। आपके जीवन की एक उल्लेखनीय एवं चिरस्मरणीय बात यह है कि किशनगंज (बिहार) से पूज्य आयिका श्री १०५ इन्दुमति जी, आर्यिका श्री १०५ सुपार्श्वमती जी, आर्यिका श्री १०५ विद्यामती जी, एवं आर्यिका श्री १०५ सुप्रभामती जी के आयिका संघ को जगह जगह बिहार, बंगाल, और आसाम में पद विहार कराते हुये अद्वितीय धर्म प्रभावना के साथ आप और आपकी दानशीला धर्मपत्नी श्रीमती अमरावदेवी वाकलीवाल ने संघ के दुर्लभ दर्शनों का आसाम वासियों को सुयोग प्रदान किया है । इस गुरुतर कार्य की सफलता के उपलक्ष मे आपने इस ग्रन्थ का प्रकाशन कराया है। आपका यह कार्य इतना अनुपम एव अनुकरणीय रहा है जो कि जैन इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। संघ की गुरूभक्ति से उल्लसित होकर तथा अपनी चंचला लक्ष्मी का सद्उपयोग करते हुये, भव्य जीवों को जैन धर्म के पवित्र मार्ग का अनुसरण करने में सहायक यह ग्रन्थ स्वाध्याय हेतु भेंट करके आपने अपनी धार्मिक भावना का परिचय दिया है। । __आपकी धर्म पत्नी श्रीमती अमरावदेवी वाकलीलाल को वैयावृत्ति पूर्ण भावनाओं का जितना उल्लेख किया जाय उतना थोड़ा है। आपने शीत उष्ण तथा मार्ग की असुविधाओं और कष्टों की कोई परवाह न करते हुये पूज्य आयिका सघ की वैयावृत्ति में जिस मनोयोग से अपने चित्त को लगाये रखा है वह सर्वथा प्रशंसनीय है। ऐसी महिला रत्नों से समाज गौरवान्वित होता है । -जिनेन्द्र प्रकाश जैन सम्पादक करुणा दीप एटा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - चन्द सागर स्मृति दिल 2, 792772 প্লিীহ জ্ব सैद्धान्तिक लेख را نفع مر * नय विवना -पूज्य आयिका सुपार्श्वमती माताजी . * अनेकान्त -धर्मालंकार पं० हेम चन्द्र जी शास्त्री 17 ...१८ निमित्त उपादान मीमांसा -विद्यावाचस्पति पं०वर्द्धमानपार्श्वनाथ शास्त्री...२२ Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कल्प दिगम्बर जैन मुनि गुरुवर्य श्री चन्द्रसागर स्तुतिः -आर्यिका श्री १०५ सुपार्श्वमती माताजी द्वारा रचितय शान्ति सागर गृरोश्चरणारविन्दे, ____जग्राह सर्व सुखदा हि जिनेन्द्र दोक्षां । राजाधिराज मुर सेवित पाद पद्म, त चन्द्र सागर गुरुं हृदि भावयामि ।।१।। गुप्तित्रय समिति युक्त महाव्रतानि, ___धृत्वा त्रयोदश विधं मुनि रूप धर्म । कर्मारि-भेदनविधी निशितं कुठार, श्री चन्द्रसागर गुरुं प्रणमामि भक्त्या ॥२॥ संसार ताप रहिता: शिवसौख्य युक्ता, भक्ता भवति तव दर्शन मात्र तस्तु । ससार तापहननाय दयादियुक्तं, श्री चन्द्रसागर गुरुं प्रणमामि भक्त्या ॥३॥ मित्थ्यांधकार कलिते मुमरुप्रदेणे, भव्यान् प्रवोध्य मदमोह कपाय युक्तान् । धर्म समादिशब्धोद्धरणाय मत्यं, श्री चन्द्रसागर गुरुं प्रणमामि भक्त्या ॥४॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार एक रंगशाला है, जिसमें प्रारणी नाना भेष धारण कर भमण करता है। यः संस्तुतस्तु न चकार कदापि तोषं, __ वा निन्दकेषु विदधे न कदापि रोषं । सर्वेषु जीवगणकेषु दयांद धानं, श्री चन्द्रसागर गुरुं प्रणमामि भक्त्या ॥५॥ मिथ्यांधकार परिमर्दन रश्मिजालं, ज्ञानाब्धि वर्धनविधौ विधु तुल्यमेव । त चन्द्रसागर गुरोश्चरणारविन्दं, ___ संपूजयामि सुमुदा महदा दरेण ॥६॥ धीरोपसर्ग विजयी खलु शास्त्रवेत्ता, ___ध्यानी व्रती गुणनिधिस्तु हितोपदेशी । दुःखान्धितस्तरति तारयती तरान्यः, तं चन्द्रसागर गुरुं प्रणमामि हर्षात् ॥७॥ ग्रन्थानधीत्य सकलान् श्रुत सार भूतान्, बोधं, विधाय शिव सौख्य करं च शुद्ध। योऽभूद् दृढस्तपसि निश्चल भावयुक्तः, तं चन्द्रसागर गुरुं प्रणता सुपार्वा ॥८॥ माता सीता सतीयस्य नथमल्लः पिता बुधः । सप्त जाम्बूनदाभतं वन्देऽहं चन्द्रसागर ॥ BPMARATHEIR Mitraa YON Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य मुनिराज श्री को अपनी कलम मे स्व-परिचय जन्म-पोप कृष्णा (राजस्थान को अपेक्षा माघ कृष्णा) १३ दिन शनिवार ४६ घडी ५ पल शक सम्बत् १८०५ वि० सम्बन् १६४० पूर्वापाढा नक्षत्र रात्रौ ।। (स्थान)-नाद गाव-(पिता का नाम) श्री नथमल जी चोथमल जो पहाडे मोलवाल जाती दिगम्बर जैन धर्म परायण की भार्या सितावाई के पुत्र तीन-नेवलनन्त, खुशालचन्द, लालचन्द (इन) मे से द्वितीय का विवाह १॥ साल के लिए हुआ । शके १८२५ ज्येष्ठ शुक्ल नवमी शील व्रत धारण करे अतिचार सहित-विद्याभ्यास मराठी छठी क्लास तक - व्यापार वश पढ़ने के साधन न होने से कुछ मामाजिक कामो में भाग विताते हुए श्री निर्वाण क्षेत्रो के दर्शन सर्वत्र होकर, मन को शातता बढ़ने पर आषाढ़ शुक्ल १० सं० २४४८ को ऐल्लक पन्नालाल जी महागज से इमरी प्रतिमा धारण की। फिर भाद्रपद शुक्ला ५ को पांचवी प्रतिमा (के) बन लिए । नतर स० २४४६ को श्री जी के सम्मुख श्रावण कृष्णा अप्टमी को मातवी ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करी । सम्वत् २४५० पोप शुक्ला ११ को नवमी प्रतिमा धारण की। माघ शुक्ला २ श्री मुनिराज शान्ति सागर जी के कुर्दुवाडी जाके दर्शन किये और माघ कृष्णा सप्तमी को दशवी प्रतिमा के व्रत लिये। नंतर कुभोज के निकट बाहुबनि डोगर पर फाल्गुन शुक्ला सप्तमी सम्वत् २४५० को मुनिराज के चरणों में क्षल्लक व्रत ग्यारहवी प्रतिमा धारण किये । चातुर्मास ममडोली मे हुआ । आश्वनी शक्ला ११ बुधवार २४५० श्रवण नक्षत्र पर आचार्य महागज १०८ श्री शान्ति मागर जी के उपदेश से केशलोच कर ऐल्लक व्रत धारण किये-नाम चन्द्रमागर। मिनी मार्गशीर्ष शुक्ल १५ सोमवार २४५६ मग नक्षत्र मकर लग्ने मोनागिरि क्षेत्र पर दिन के १० बजे चन्द्रसागर ने मुनि दीक्षा महावत धारण किये आचार्य शानि नागर जी दीक्षा गुरु के कर कमलों में। ॥ शुभ भवतु ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश पिता श्री १०८ आचार्यकल्प चन्द्रसागर जी महाराज की जीवन-झाँकी जन्म सम्वत् जन्मवार जन्म दिवस विक्रम सम्वत् १९४० शनिवार माघ कृष्णा त्रयोदशी जन्म गांव माता जाती नांद गाव महाराष्ट्र नत्यमल सीतादेवी खंडेलवाल आपका विवाह संस्कार मार्गशिर शुक्ला नवमी संवत् १९६० में हुआ और विक्रम संवत् १९६२ मे पत्नी का वियोग हुआ। विक्रम सम्वत् १९६२ ज्येष्ठ शुक्ला नवमी के दिन आपने स्वन वीतराग प्रभु के समक्ष आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। वीर मवत् २४४८ आपाढ शुक्ला दशमी के दिन ऐलक पन्नालाल जी से दूसरी तीसरी प्रतिमा ग्रहण की । वीर सवत् २४४८ भाद्रपद शुक्ला पचमी के दिन सचित्त त्याग प्रतिमा ग्रहण की। कुर्दू वाडी में आचार्य शान्ति मागर जी महाराज के चरण सान्निध्य में दशवी प्रतिमा ग्रहण की । वीर सवत् २४५० में कुभोज के निकट बावली धोत्र पर फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन आचार्य शान्तिसागर महाराज के समीप क्ष ल्लक व्रत ग्रहण किये। वीर संवत २४५० आश्विन शुक्ला एकादशी के दिन आचार्य श्री से ऐलक व्रत ग्रहण किये। वीर संवत् २४५६ मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा सोमवार मृग नक्षत्र मकर लग्न में दिन के दस बजे आचार्य श्री शान्ति सागर महाराज के चरण सान्निध्य में दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की। वीर सवत २४७१-सन् १९४५-२६ फरवरी विक्रम सक्त् २००१ फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा चन्द्रवार १२ बज कर २० मिनट पर चतुर्विध सघ के समक्ष णमोकार मन्त्र का जाप करते हुए वडवानी सिद्ध क्षेत्र पर स्वर्गवास हुआ। चन्द्र कुण्डली लग्न कुण्डली शु० ११/२.१०७. च | रा० र० १०० गु०४ मं० के. श. जन्म-राशि पूर्वाषाढ ४६ घड़ी ५ पल पौष कृष्णा १३ वि० सम्वत् १९४० शक स० १८०५ रात्री [४] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || उपसर्ग विजेता के चरणारविन्द में || नाचा. च पूज्य आचार्य श्री १०८ विमल सागर जी महाराज की -=-भक्तिपूर्ण श्रद्धाञ्जलि-= जैन साधु हो तो ऐसा हो ! परम पूज्य प्रात. स्मरणीय आचार्य कल्प श्री १०८ चन्द्रसागर जी महाराज परम तपस्वी उपसर्ग विजेता आगम वक्ता अनुशासन शोल महा पुरुष थे। महाराज उन आदर्ग तपस्वियों में थे-जिन्होने साधु पद के उच्च आदर्श को दुनिया के सामने उपस्थित किया। जैन साधू हो तो ऐसा हो इस प्रकार की ध्वनि प्रत्येक आवाल वृद्धो के मुख से सुनाई दे रही थी। आपको विदत्ता श्लाघनीय थी। किसी भी तात्विक विषय पर विचार करने बैठते अथवा अपने उपदेश में किसी तत्व का विवेचन करते तो तलस्पर्शी विषय रहता था। अनेक विरोधी दूर से गीदड के समान हू हू करते समक्ष आते ही-शात हो जाते। पत्नी का देहावसान : त्याग मार्ग प्रारम्भ आपने महाराष्ट्रीय नाद गाव मे खडेलवाल जातीय पहाडया गोत्रोत्पन्न नथमल भी की धर्म पत्नी सीता बाई की कुक्षि को अपने जन्म से पवित्र किया । २२ वर्ष की अवस्था मे पत्नी का वियोग हो जाने से विरक्त होकर उसी दिन परम पवित्र ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया । आपकी संसार से विरक्ति वढती गई। एलक पन्नालाल जी को सगति ने उस विरक्ति मे पानी सीचाजिससे आपके हृदय मे अटूट वैराग्य के अकुर फूटे । उन अकुरो को पल्लवित करने के लिये आप ने चारित्र चक्रवर्ती शाति सागर महाराज की संगति की । आपके हृदय मे उनके प्रति अपूर्व भक्ति थी। आपने चारित्र चक्रवर्ती महाराज श्री से सप्तम प्रतिमा के व्रत लिये । आपको ७० हीरालाल जी (वीरसागर जी) का सयोग मिला-दोनो ब्रह्मचारियो ने चाद मूर्य के समान महाराष्ट्र मे धर्म का झडा फहरा दिया। क्षुल्लक दीक्षा वीर निर्वाण सं० २४५० में दोनो ब्रह्मचारी जी ने क्ष ल्लक दीक्षा फागुन शुक्ला ७ को धारण की। आपका नामकरण खुशाल चन्द जी (क्ष चन्द्र सागर जी) ७० हीरा लाल जी (क्ष ० वीर सागर जी) हुआ। आ० गाति सागर जो के पास समडोली मे चातुर्मान किया वहां पर क्षचन्द्र सागर जी क्ष०पाय सानर जी ने ऐलक दीक्षा ली । क्ष वीर नागर जी ने, क्ष नेम सागर जी ने मुनि दीक्षा आश्विन शुक्ला ११ को ली। वहा मे विहार कर मघ के माय [५] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह की ज्याला ज्ञानादि गुणों को भस्म कर देती है। सम्मेद शिखर जी, चंपापुर, मंदारगिर जी, गुणावा, पावापुर, राजगिर, पटना, पारा, गया आदि स्थानों में धर्माचरण करता हुआ संघ बनारस, अयोध्या, इलाहाबाद होकर चातुर्मास कटनी में किया। मुनि दीक्षा ___ अगला चातुर्मास ललितपुर हुआ वहा से विहारकर सोनागिर जी अगहन मुदी १२ वि० सं० १९८६ में श्री १०८ आचार्य शान्ति सागर जी ने श्री १०५ ऐलक चन्द्र सागर जी पाय सागर जो ऐलक कुथ सागर जी को मुनि दीक्षा दी । अव संघ का परम गौरव बढा लश्कर, मोरेना, धौलपुर, आगरा, फिरोजाबाद, मरसलगज, वटेश्वर, कपिला, एटा, अवागढ, जलेसर, वरमाना, अलीगढ मथरा चातुर्मास वहा से अलवर, तिजारा, गुड़गावा रोहतक वगैरह विहार कर देहली चातुर्मास दरियागंज में हुआ। दिल्ली चातुर्मास : प्रतिबन्ध को हल-चल वहां पर सरकार व अन्य लोगो ने हल-चन पैदा करदी। साधुओं पर प्रतिवध लगा दिया। साधु वर्ग को १-२ माह मालूम नही होने पाया। जव. चन्द्र मागर जी को मालूम हुआ तो चर्या के लिये महाराज श्री लाल मदिर चांदनी चौक होकर पहाडी पहचे और प्रतिबंध को हलचल दूर कर दी। जव नर पुगवों काउपदेश धारावाही मना तो जनता यानी आर्य समाज की बोलती वद हो गई। और उधर से विहार कर महावीर जी जयपुर से आगे श्री १०८ आचार्य शान्ति सागर जी ने स्वतन्त्र विहार किया। उसका कारण लोहड़ साजन बड़ साजन था। मारवाड के उद्धारक तब महाराज श्री ने मारवाड़ को डूबते हुये उवारा और धारा प्रवाही सर्व जगह मालवा बड़नगर गिरनार वगैरह यात्रा उपदेश कर तमाम जैन धर्मावलम्बी बन्धुआ को शूद्र जल के त्याग के साथ २ व्रती बनाया। आपका अध्ययन बराबर चलता था। व्याकरण ज्योतिप साहित्य धर्म शास्त्र पहिले क्ष ज्ञान सागर जी (आ० सुधर्म सागर जी) वाद में व०प० गौरीलाल जी सिद्धात शास्त्री व्याकरण पढाते थे। उस समय महाराज के ओजस्वी उपदेश सुनकर विरोधी दल सामने नहीं आता था । आपने मारवाड को दि० जैन धर्म में दृढ कर स्थितिकरण अग व वान्सल्य अंग का कार्य महान किया जो साक्षात मुक्ति का कारण है। आपने अनेकों भव्यों को व्रती मुनी आर्यिका क्ष ल्लिका क्ष ल्लक ऐलक बनाकर जैन धर्म की प्रभावना की । वचन के पक्के आप वचन के बड़े ही पायवंद थे जो कह दिया सो करके दिखा दिया। आपने अपनी वचन प्रमाणिकताके कारण अपने संघ की भी परवाह नहीं की। जब आप सघ सहित मुक्तागिरजी पर थे उस समय सेठ चादमल पन्नालाल जी पाटनी ने महाराज श्री से प्रार्थना की कि बड़वानी सिद्ध क्षेत्र Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म जरा और मृत्यु रूपी त्रिपुरा को नाश करने के लिए संयम हो महादेय है। पर मान स्तम्भ तैयार है उसकी मिती फाल्गुन सुदी १२ वि०स०२००१ है । महाराज श्री की उपस्थिति में पचकल्याण प्रतिष्ठा करना है। महाराज श्री ने मजूर कर लिया। सनावद में साथगण रुग्ण हो गये । रुग्णावस्था मे सिद्धवरकूट होकर खरगौन, पावागिर ऊन पहले यहा पर श्री १०८ मुनिराज हेमसागर जी क्ष० बोध सागर जी मलेरिया बुखार से पीडित होकर गमाधि हो गई उनकी समाधी कर वडवानी के रास्ते में ही महाराज श्री भी ज्वर से पीडित हो गये किन्तु ज्वर को परवाह न कर वडवानी पहुच गये। समाधि मरण वहा पचकल्याणक मानस्तम्भ प्रतिष्ठा शान्ति रूप से निर्विघ्न हो गई । फागुन शुक्ला १२ को महाराज श्री ने अन्न जन का त्याग कर समावी ली और आप की परिचर्या व० वैद्य वासुदेव पिलुआ (एटा) निवासो व श्री १०५ क्ष ० इन्दुमती जी क्ष.० मानस्थभामती जी ने और भी भव्य श्रावको ने णमोकार मत्र द्वारा सुना कर वैयावृत्ति की और वि० स० २० १ फागुन शुक्ला १५ को इस नश्वर पार्थिव शरीर को छोडकर स्वर्गवासी हो गये। यानी समाधि हो गई । भारत में सब जगह शोक छा गया। और एक महान आत्मा का वियोग असह्य हो मया। आपके शिष्य___आचार्य महावीरकीति जी को पीसन गांव में ब्रह्मचारी सप्तम प्रतिमा के वन दिये थे। श्री १०५ क्ष० इन्दुमती जी ने श्री १०८ आचार्य वीर सागर जी से आर्यिका व्रत लेकर सर्व जगह विहार कर बड़ी प्रभावना के साथ २ कलकत्ता चातुर्मास कर इस वर्ष गोहाटी चातुर्मास किया था। आपके सघस्थ आर्यिका विदुपी रत्न सुपार्शमती जी विद्यामती जी सुप्रभामती जी है। क्ष० धर्म सागर जी, श्री आचार्य वीर सागर जी से मुनि दीक्षा लेकर आप आचार्य धर्म सागर जी के नाम से प्रख्यात है इस वर्ष चातुर्मास सहारनपुर में है। आप महा शाति स्वाभावी है। क्षु० मानस्थभामती जी ने भी आचार्य वीर सागर जी से आर्यिका दीक्षा लेकर नागौर मे समाधी की। भक्तिपूर्ण श्रद्धाञ्जलि मुझे भी शूद्र जल का त्याग जपयुर मे कराया था और भी व्रत दिये थे। उन्ही की कृपा से मैं इस पद पर पहुंचा हूं और उनके चरणारविंद मे भक्ति महित श्रद्धाजनी अर्पण करता हूं और भावना करता हूं कि उन्ही के समान व्रताचरण पालता हुआ धैर्यशाली बनू । --आ. विमल सागर Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 वर्तमान युगका एक सच्चा का आगमनिष्ठ महासाधु -श्री तेजपाल काला, संपादक 'जैनदर्शन' नांदगाँवदिगम्बर जैन साधुओ को दृष्टि से वर्तमान-युग का प्रारम्भ स्व० परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ आचार्य श्रेष्ठ शांतिसागर जी महाराज मे प्रान्भ होता है। इससे पहले लगभग तीनसौ चारसी वो तक दिगम्बर जैन साधुओ का प्राय. अभावसा था। दक्षिण में कही कही जो कुछ थोड़े से उगुलियो पर गिनने लायक साधु थे भी तो उनमे आगम के अनुकूल प्रवृत्तियों मे शिथिलता आ गई थी। वे प्रायः शहर से दूर एकान्त गुफाओं में रहकर ध्यानाध्ययन करते थे। साधारण जनता को उनको साधु चर्या और विहारादिक ने कोई धर्मलाभ नहीं हाता था। देसी स्थिति में सच्चे आगमनिष्ठ साधुओ के दर्शन दुर्लभ हो गये थे । इमीलिए इस साधु दर्शन की दुर्लभता की मनोव्यथा-महाकवि भूधरदासजी जैसे साधु भक्त विद्वान को- "कर जोर 'भूधर' बीनवे कव मिलहि वे मुनिराज । यह आम मनको कत्र फले मेरे सरे सगरे काज'। इन शब्दो में व्यक्त करनी पड़ी। किन्तु गत लगभग पचास वर्ष से मुनि दर्शन को इस दुर्लभता का, स्व० परम पूज्य १०८ आचार्य प्रवर श्री शाति सागर जी जैसे एक महा तपस्वी साधु के उदय से अन्त हो गया। अब तो सौभाग्य से भारतवर्ष में प्रायः सभी प्रदेशो में शताधिक से भी अधिक दिगम्बर जैन साधुओ का विहार निरवाध रूप से हो रहा है। जन साधारण उनके आहार, विहार चर्या और धर्मोपदेश से लाभ उठा रहा है। जैन धर्म का बड़ा भारी उद्योत हो रहा है। वास्तव में परम पूज्य आचार्य शातिसागर जी तो स्वय ही एक महान रत्नत्रय स्वरूप आदर्श निर्दोप कठोर तपस्विता को धारण करने वाले असाधारण साधु थे, किन्तु उनने जो शिष्य प्रशिष्य अपने समय में तैयार किए और उनके बाद भी उनकी पट्ट परम्परा में जो शिष्य आज भी है वे भी निश्चय ही आज गुरु की तरह ही निरपेक्ष निर्मोह वृत्तिके आदर्श साधु है । रत्नत्रय को निर्मलता के लिए जो निरपेक्षता निर्भयता, स्वाधीनता, आडम्बर हीनता, नि.सगता, वीतरागता आदि साधुजनोचित गुण आचार्य शाति सागर जी की शिष्य परम्परा में देखकर मन को सतोष होता है वह अन्यत्र नहीं होता। तयापि गत पचास वर्ष के साधु जीवन की आदर्शता का जव सूक्ष्म अवलोकन किया जाता है तो यह नि सशय कहना पड़ता है कि श्रमण सस्कृति के एक श्रेष्ठ साधक लोकोत्तर साधु तपस्वी आचार्य श्री शातिसागर जी ने जिन निर्मल रत्नत्रय के धारक महान तेजस्वी आदर्श प्रभावी शिष्य रत्नों का प्रसव किया, उनमें स्व० परम पूज्य महा विद्वान, अत्यन्त कठोर [१०] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध प्रवृत्तियो के रहते फल्याणमयो प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwram तपस्वी, आगमनिष्ठ, सच्चा महाव्रती, दृढ आत्म सयमी महा मुनिराज श्री नद्रगागर जी महाराज का नाम मुकुटिमणि के रूप मे शोभायमान होता है। 'बाप से बेटा मवाई इस लोलोनि के अनुसार अपने आदर्श महान तपस्वी गुरु आचार्य शातिसागर जी मे भी अधिक महामुनि श्री चंद्रसागर जी ने अपनेको आदर्श सवाई शिष्य के रूप में सिद्ध किया। वस्तुत बाप या गुरु के जीवन की सार्थकता भी इसी में है कि उसका पुत्र या गिण्य आदर्श परम्परा का निर्वाह करता हुआ ससार में अपने बाप या गुरु से भी अधिक गौरवता को प्राप्त करे । 'वह सच्चा वीर साधु है' ___ आचार्य शाति सागर जी अपने इस महान चारित्र निष्ठ, निष्कलक, आगमज विद्वान नि संग, निर्भय एव वीतराग असाधारण तप.पूत शिष्य को पाकर अपने मे महान गौरव अनुभव करते थे। वे हमेशा उनकी सराहना किया करते थे । सन१९४५की बात है आचार्य शातिमागरजी अपने संघ के साथ गुजरात से विहार करते हुये महाराष्ट्र प्रदेश में नासिक जिले के पास एक रोज वराना नामक ग्राम में नदी के किनारे बैठे हुए थे। पूज्य श्री १०८ मुनिराज वीरमागर जी (वाद में आचार्य) भी अपने सघ के साथ गुरु के पास बैठे हुए थे । तब मुनिराज वीर मागर जी, मुनि चन्द्रसागर जी आदि प्राय. सभी शिष्य अलग २ विहार करते थे। उस समय अन्य भी कुछ श्रावक गण बैठे हुए थे । मैं भी था। मैंने उस समय प्राचार्य महाराज के पास इन्दौर में हुए मुनि चन्द्रसागर जी के बहिष्कार की चर्चा छेडी तो उसी समय आचार्य महाराज ने कहा कि - 'चन्द्रसागर हमारा सच्चा वीर शिप्य है । वह उसकी ही हिम्मत थी कि इन्दोर जैसे स्थान में वहिष्कार किये जाने पर भी वह अत्यन्त निश्चल और निर्भय रहा। आगम मार्ग पर दृढ रहा।' इन शब्दो में आचार्य महाराज ने अपने शिष्य मुनि चन्द्रसागर जी का गौरव किया। यह सुनकर सब बोग हर्षित होकर चन्द्रसागर महाराज की 'जय' बोलने लगे। 'चंद्रसागर का बहिष्कार अन्याय और अनुचित है। इन्दौर में जब पूज्य महामुनि चन्द्रसागर जी महाराज ने इन्दौर के माध भक्त धार्मिक लोगो की प्रार्थना से ससघ चातुर्मास करने का निश्चय किया तो यह बात वहां के कुछ पथ द्वेपी पडितों को सहन नहीं हुई और उन्होंने इन्दौर के कुछ श्रीमतो को धी चद्रमागर जी महाराज के विरोध में पथ द्वेष को झूठी वात कहकर भडकाना शुरू किया । श्रीमतो ने भी आगे पीछे का योग्य विचार न कर पंथ ड्वा के भय से महाव्रती चद्रसागर जी का बहिष्कार करा दिया। उम रित वहिष्कार की केवल इन्दौर की वार्मिक गुरु भक्त ममाज में ही नही मागे वर्ष की समाज मे तीव्र प्रतिक्रिया हुई। समाज ने इस अन्याय पूर्ण बहिष्कार का नीत्र ही नहीं किया स्वयं इन्दौर में ही अप्रत्याशित रूप से आगमानुसार पद्धति का एक व्य जिन मदिर खड़ा कर वहिष्कार को अप्रभावित करा दिया । श्री चद्रमागरजी महाने ऐसे बहिष्कार के झंझावाती वातावरण में एक स्थित प्रन योगी की नन्ह अन्यन्न शान्न Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसका आचरण शुद्ध है वही व्यक्ति आदशं बनता है। और निर्भय रहे। उन्होंने कभी भी किसी को भी अपने वहिप्कार करने वालो के विरोध में जरा भी नही उकसाया। इन्दौर के चातुर्मास के बाद मुनि वहिष्कार के कारण समाज में व्याप्त तीन क्षोभ और असतोष को दूर करने को दृष्टि से जव कुछ समाज के महामान्य श्रीमंत और विद्वान नेता पावागढ मे परमपूज्यश्री१०८ आचार्य शाति सागर जी महाराज के पास बहिष्कार के संबंध में उनका आदेश लेने गये तो सभी के द्वारा प्रार्थना करने पर पूज्य आचार्य महाराज ने अत्यन्त गम्भीर होकर यह स्पष्ट आदेश दिया कि-'मुनि चद्रमागर का बहिष्कार अन्याय, अनुचित अनधिकार और शास्त्र विरुद्ध है। इस स्पष्ट आदेश गे बहिष्कार निप्प्रभ हो गया। समाज में व्याप्त क्षोभ दूर हो गया और मुनि चंद्रसागर जी का माधुत्व प्रवर अग्नि में तप्त सुवर्ग की तरह निखर उठा। अत्यन्त निष्काय निर्वैर साधु कुछ लोग मनिराज चंद्रसागर जी महागज पर अत्यन्न क्रोधी और कपायवान होने का आरोप करते थे। किन्तु उनका यह आरोप पय विद्वेप के कारण सर्वथा असत्य था। वस्तुत. श्री चन्द्रसागर जी महाराज आगम विरोधी बात को सहन न हो सकने के कारण तीन शब्दों में विरोध करते थे और लोगो को आगम मार्ग पर लगाने के लिए किसी के भी रोप तोप की पर्वाह न कर कड़ाई से उपदेश देते थे। गरज यह कि व्यक्तिने वह आगम की रक्षा को अधिक महत्व देते थे। तथापि उनके मन में अपने विरोधी के प्रति भी कोई प या बैर नहीं होता था। वस्तुतः शुभ मित्र के प्रति समवृत्ति रखने को जो क्षमता श्री चन्द्रसागर जी मे थी वह अन्यत्र बहुत कम देखने को मिलतो है नीचे की घटना से यह बात बिलबुल स्पष्ट हो जायेगी। पूज्य श्री चन्द्रसागर जी महाराज विहार करते हुए जब नासिक (महाराष्ट्र) में आये तव मैं भी उनके दर्शनार्थ नादगाव से नासिक चला गया । महाराज श्री मदिर में दोपहर के समय धर्मोपदेश दे रहे थे। तब मैं वहा पहुंच गया। धर्मोपदेश के अनन्तर महाराज श्री ने मुझे देखतेही पहला प्रश्न किया कि-'तुम वकालत कब से करने लगे ? मैं महाराज श्री के प्रश्न पर अचम्भित होकर कहने लगा कि-'महाराज जब मैं वकील नही नो वकालत कैसे कर सकता हूं।" तब महाराज ने कहा कि-तुमने हमारे वहिष्कार को लेकर सर सेठ हकमचन्द जी के विरोध में लेख क्यो दिया? क्या हमने तुमको कहा था कि तुम हमारे बहिष्कार का प्रतिकार करो'। मैने कहा 'महाराज' यद्यपि आपने नही कहा तथापि धर्मायतनो पर यदि कोई उपसर्ग करे तो उसे कोई भी धर्म भक्त व्यक्ति कैसे चुपचाप देख सकता है ? हमने तो अपना कर्तव्य पालन किया।" तब भी महाराज ने अत्यन्त गांत और गम्भीर होकर कहा कि- भाई सरसेठ हुकमनद जी ने या और किसी ने भी हमारा बहिष्कार किया है तो करने दो, हमारा चारित्र यदि निर्मल है तो हमे उसको कोई चिन्ता नही । जब तक हमारे उपसर्ग या परिषह को सहन करने में हम [१२] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म समत्व और वीतरागत्य फी भावना से प्राणी धर्म को सोतन छाया में बैठ गाना है। समय है तो तुम लोगो को हमारे बीच मे पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। मर गठ हुक्म चन्द्र जी समाज मे एक प्रभावशाली श्रीमन्त नेता है। सरकार पर उनका बडा गारो भार है। अतः उनके प्रभाव से धर्म पर आई हुई आपत्तिया सहज दूर हो सकती है। समाज में रह कर तुम लोगो को उनमे काम लेना पड़ता है । मदि तुम उनका विरोध करोगे तो फिर वे तुम्हारा साथ केसे देगे । इसलिए तुमको उन्हे नाराज नही करना चाहिए। हमारा विरोध हम सहन कर लेंगे। वह हमारा धर्म है। तुम लोगो को हमारी चिन्ता नही करनी चाहिए।' कितने स्थितप्रज्ञ वीतराग विचार है ये। जिसको अपने विरोध में भी कोई विगाद गा वैर नही । न अपने विरोधी के विरोध से कोई हपं । इससे अधिक निष्कपायता, निबेरता का और शत्र मित्रता मे समभाव का उदाहरण और क्या हो सकता है । जिमको अपने विरोध में भी विरोध नहीं दीखता, जो उस स्थिति मे भी अत्यन्त शान्त, धीर और गम्भीर रह सकता है। वास्तव मे सच्ची साधुता के दर्शन वही होते है। हम पूज्य श्री चन्द्र सागर जी को उस वोतराग साधु वृत्ति को देखकर उसी समय श्रद्धा से उनके पावन चरणो मे नत हो गये। सारा मरुस्थल धर्म स्थल में परिवर्तित हो गया जिस मरुस्थल में कुये बहुत गहरे है, पानी बहुत दूर-दूर से जूते पहने हुये मजदूरों मे मगवा कर खान-पान करना पड़ता है, फिर जो श्रीमन्त लोग भोगोपभोग में सुखासीन, सयमहीन जीवन विताते है-ऐसे असुविधाजनक स्थानो मे मरुस्थल के गाव-गाव और नगर-नगर में विहार कर बडे-बड़े श्रीमन्तो में और साधारण श्रावको मे भी अपनी अमोघ प्रभावी वाणी, मागम तल स्पर्शी जान एव निर्मल' चारित्र के प्रभाव से वास्तविक जैनत्व के भाव जागृत कर उनमे शुद्ध खान-पान की प्रवत्ति जागृत करदी-यह पूज्य श्री चन्द्र सागर जी के ही विशुद्ध तप का प्रभाव था कि उनका जनता पर जादू का सा असर पडता जाता था। जो मरुस्थल पथ की खोटी भावना से अभिभूत था उनमे आगम मार्ग की ज्योति प्रज्वलित करदी । सारा माम्बल आगम मार्गी बन कर धर्म स्थल बन गया। निरन्तर भोगो और व्यसनो में लीन रहने वाले बडे-बडे डाक्टरो; सरकारी अधिकारियों, न्यायाधीशो, उद्योगपतियो और श्रीमन्ती में जिनने प्रतिमा रूप सयम और त्याग की प्रवृत्ति पैदा करदी. यह वास्तव में मुनि चन्द्र सागर जी के द्वारा की गई धर्म को एक महान आश्चर्यकारी क्राति थी। आज भी सारा मरुस्थल उन्हें एक महान कठोर तपस्वी सच्चा महाव्रती महा साधु के रूप में श्रद्धा से याद करता है। दिगम्बरत्व का जागृत निर्भय प्रहरी भारत की राजधानी देहली में पहली बार आचार्य शान्ति मागर जी महाराज का विशाल संघ सहित चातुर्मास दिगम्बर जैन समाज ने कराया। लेकिन उस समय की अयंज सरकार ने देहली के कुछ सरकारी स्थानो मे नग्न विहार पर प्रतिबन्ध की गर्न पर दिगम्बर साधुओ को देहली में लाने की अनुमति दी थी। देहली में आने पर जब नघ को नग्न बिहार के प्रतिवन्ध की वात मालूम हुई तो सघ में सबसे पहले श्री मुनि चन्द्रमागरजी ही थे जिन्होंने स्वय इस दिगम्वरत्व पर डाले गये प्रतिवन्ध के आघात को दूर करने के लिए आगार्य महाराजगी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्माओं के मनन, स्मरण, चितवन से, शुद्धत्व की प्राप्ती होती है। अनुज्ञा से पीछी कमंडलु उठाया और विना किसी संकट को पर्वाह किए निर्भय होकर सरकारी प्रतिबन्धित स्थान में विहार किया। सरकार के बड़े अधिकारी ने आकर जव महाराज को रोकना चाहा तो वे महाराज की बातों से, तपश्चर्या से और विद्वत्ता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसी समय दिगम्बर जैन साधुओ के विहार के प्रतिवन्ध को हटा दिया और इस तरह मुनिराज श्री चन्द्र सागर जी के प्रभाव से धर्म की बड़ी भारी विजय हुई । सारे भारतवर्ष को दिगम्बर जैन समाज में इस विजय पर बड़ा भारी हर्प छा गया।। आगम चक्खु साहू मनुष्य किसी भी वस्तु को ग्रहण करते समय अपनी आंखों से देखकर उसको अपने लिए ठीक समझने पर ग्रहण करता है। किन्तु ऐसा करते समय मनुष्य अपनी आखों से घाखा भी खा सकता है। अतः दिगम्बर साधु आगम को अपनी आंख बनाकर उससे वस्तु को ग्रहण करता है। रत्नत्रय, महाव्रत और मोक्ष मार्ग की विशुद्धता के लिए आगम ही उसकी आंखे होतो है । आगम के प्रकाश में निरन्तर चलते रहने के कारण वह कभी प्रात्म वंचित नहीं होता। मुनिराज चंद्रसागर जी ऐसे ही एक महासाधु थे जो कभी लोकपणा, यशलिप्सा, आत्म प्रशंसा, परनिंदा, शरीर सुख,उपसर्ग या परीपह भय आदि के व्यामोह मे आगमाज्ञा के विरुद्ध पाव नही रखते थे। लोगों से वाहवाही लूटने के लिए या अपनी पादपूजा करने के लिए उन्होंने कभी भी किसी को खुश रखने की दुनीति का अवलवन नही लिया। आगम का उनका पाय था और उसकी रक्षा के लिए उन्होने बड़ी से बड़ी शक्ति के विरोध या असन्तोप की परवाह न कर रत्नत्रय धर्म का पालन किया । उनका सम्यक्त्व सुमेरु पर्वत की तरह अचल था। आगम जान समुद्र की तरह गंभीर, विपद और तलस्पर्शी था एवं चारित्रं स्फटिक की तरह अत्यन्त विशुद्ध और निर्मल था। उनके आगम ज्ञान के आगे बड़े २ शास्त्री न्यायतीर्य विद्वान भी निरुत्तर हो जाते थे। इन्दौर के बहिष्कार में बड़ी से बड़ी शक्ति भी उनको आगम मार्ग से विचलित नहीं कर सकी। वड़वानी प्रतिष्ठोत्सव पर भयंकर ज्वर की स्थिति में चलने की शक्ति न होने पर भी अपने दिये हुए वचन का पालन करने के लिए प्राणो का मोह न करते हुए समय पर पहुंचे। बड़वानी पहुंच कर उन्होने अत्यंत निराकुल परिणामों से सल्लेखना धारण कर समाधि मरण किया। प्राणों का मोल देकर भी सत्य महानत की रक्षा हुई इसका उनकी आत्मा में पूर्ण संतोप था। निरपेक्ष अयाचक योगी आगम का अगाध ज्ञान, प्रभावी वक्तृत्व एवं सुन्दर लेखन की शक्ति होते हुए भी अपनी प्रसिद्धि के व्यामोह में उन्होंने कभी कोई नया ग्रन्थ या साहित्य निर्माण नही किया वे कहते थे कि पूर्वाचार्यों ने ही द्वादशाग पर बड़े से बड़े विद्वतापूर्ण ग्रन्थो की और टीकाओं की इतनी रचना की है कि जिनके अध्ययन में सैकड़ों वर्ष की आयु भी पूरी नहीं पड़ सकती तब उसके बाहर और उससे अधिक सुन्दर आज का बड़े से बड़ा विद्वान भी क्या लिख सकता है। यदि लिखे भी और कहीं नासमझ, छद्मस्थता या भ्रांतिवश कुछ थोड़ा भी विपरीत लिखा गया तो [१४] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का सच्चा श्रृङ्गार त्याग है। वह स्वयं तो अनन्त संसार चक्र के गर्त में तो फसेगा हो, पर्वत की तरह अनन्त प्राणियों को भी अकल्याण का कारण बनेगा । अतः नया साहित्य लिखना यह बुद्धि का विलास और लोोगगा का व्यामोह है जिसके वश होकर साधु भी अपने महाव्रत से भ्रष्ट हो जाता है। नारिय प्रििद्ध के लिए उसे परमुखापेक्षी वनकर याचकत्व की अधम वृत्ति स्वीकार करनी पड़ती है। मुनि चद्रसागर जी सदैव निरालव और स्वाधीनता से रहते थे। अपने बिहार और चर्यादि की व्यवस्था के लिए वे कभी किसी को कहते नहीं थे। न मन से भी किसी ने शिमो व्यवस्था की अपेक्षा रखते थे। उनके साथ में कोई आडम्बर नही होता था, न पुस्तकों और शास्त्रो का अबार रखते थे एवं न अपने लिए कभी किसी प्रकार की सुविधा, वैयावृत्ति आदि के लिए कहते थे। प्रदर्शन वृत्ति से सदैव दूर रहते थे। श्री चद्रसागर जी शरीर से केवल वाह्यतः ही अपरिग्रही नही थे अतरग मे भी वे पूर्ण निर्मोही थे। तभी तो ज्वर को तीव्र वेदना के होते हुए भी उन्होने अपने सत्य महाव्रत की रक्षा के लिए बड़वानी प्रतिष्ठा पर, समय पर पहुच कर समाधि मरण पूर्वक प्राणोत्सर्ग किया। को से कडी धूप में घटो खडे रहकर ध्यान करते थे। हिंस्रश्वापदी आदि की परवाह न कर पहाडो और निर्जन वनो में जाकर निर्भयता से सामायिक करते थे । निरन्तर उपवासादिको के द्वारा शरीर कृश करते थे। अनेक रसो का त्याग करके आहार लेते थे और कडे ने कडा निगम (व्रत परिसख्यान) लेकर आहार के लिए निकलते थे। अनेक दिनो तक भी नियमानुसार आहार न मिलने पर भी कभी खेद खिन्न नहीं होते थे और न अपने ध्यानाध्ययन में कोई शिथिलता आने देते थे। एक दफा उनका नणवां (राजस्थान) में चातुर्मास योग था । एक रोज आहार में गेह की बाटी कड़ी होने से उनसे खाई नही गई और उन्होंने वह ग्रास छोडकर अन्तराय करलो। श्रावकों ने समझा कि महाराज श्री के गेहूं का त्याग होने से उन्होने अन्तराय करलो। फिर क्या था उस रोज से रोज आहार में मक्के की रोटी और मक्के का आटा बनने लगा। करीब दो माह तक यह क्रम चलते रहा । लेकिन महाराज श्री ने कभी भी अपने अन्तराय के सही कारण का गौप्यस्फोट किसी के भी पास प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी नही किया। एक रोज कर्मोदय से नांद गांव के श्रावको ने आकर चौक लगाया । गाव के लोगो ने उनको नेह का पदार्थ चौके में बनाने को मना करने पर भी उन्होने गेहूं की रोटियां बनाई । भाग्य में उस रोज आहार भी उनके यहां निरन्तराय हुआ। लोगों ने यह अपवाद लगाया कि आज महाराज ने उनके गांव के श्रावक का चौका होने में गेहूं की रोटी आहार में नेली। तब कही उम रोज महाराज श्री ने अपने धर्मोपदेश के बाद अंतराय की सही स्थिति का निर्देश कर लोगों का गम दूर किया । ऐसी थी शरीर से निर्मोह और नि:स्पृह वृत्ति श्री चन्द्रसागर जी की। नाद गांव में महाराज श्री की स्मृति में अनेक वर्ष पूर्व श्रावको ने श्री मुनि चन्द्र सागर दिगम्बर जैन धर्मार्थ औषधालय की स्थापना की थी। कर्म, धर्म, संयोग ने महाराज श्री की ठा न होते हुए भी संघ के एक साथ मुनि हेम सागर जी के प्रचानक अधिक बीमार हो जाने के कारण नांद गांव (उनकी जन्म-ममि) मे ही महाराज श्री को वर्षा योग करना पटा। बहर में Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के अंतरंग को रत्नत्रय के द्वारा ही सजाया जाता है। अनेक बडे-बड़े उदारधी श्रीमन्त लोग महाराज को भक्तिवश दर्शनार्थ गजस्थान, मालवा, बगाल आदि दूर-दूर प्रदेशो मे आते थे। महाराज श्री चाहते तो उनके नाम स्थापित ओपधालय को अपने भक्तों से प्रेरणा कर हजारों की निधि सहज में प्राप्त कर सकते थे। लेकिन पूज्य महाराज श्री ने कभी भी किसी को औपधालय के लिए प्रेरणा नहीं की। इसी प्रकार पूज्य महाराज श्री नं कभी भी कही किसी को कोई गस्था को निर्माण करने को नही कहा । वे अपनी अयाचक वृत्ति में कोई दाग लगनं नहीं देना चाहते थे। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, निरन्तर ध्यानाध्ययन और तपस्या की आत्म माधना के सिवाय किगी लोकेपणा की चाहकी दाह से वे सदैव अलिप्त रहते थे । लोकानुरजन नही आत्मानुरजन को उन्हें चाह थी। जीवन की यही एकमात्र साध थी। जिसके लिए वे ममर्षण बत्ति गे रहते थे। आत्मा के लिए जो-जो श्रेपस होता था वही उनके लिए प्रयम था। भगवान कुन्दकुन्दाचार्य के शब्दो में 'आदहिदं कादव' का पूज्य महाराज श्री के जीवन में प्रयम ग्यान था। उसके बाद वे परहित में अपना समय देते थे। रत्नत्रय की मूर्तिमंत प्रतिमा वास्तव मे मुनिराज श्री चन्द्र सागर जी को देयकर रत्नत्रय को मूनिमत प्रतिमा को देखने का हृदय को सतोप मिलता था। महाराजश्री का जीवन हिमालग की तरह उनुग सागर की तरह गभीर, चन्द्रमा की तरह शीतल, तपस्या में सूर्य की तरह प्रखर, स्फटिक को तरह अत्यन्त निर्दोप, आकाश की तरह अंतर्वाय खली किताब, महावतों के पालन में वज़ की तरह कठोर, मेरु सदृश अडिग एवं गगा की तरह अत्यंन निर्मल था। वे साधुओ मे महा साधु, तपस्वियो मे कठोर तपस्वी, योगियों में आत्मलीन योगी, महाव्रतियो मे निरपेक्ष महाव्रती और मुनियों में अत्यन्त निर्मोह मुनि थे। वास्तव में ऐसे ही निर्मल निस्पृह और स्थितिप्रज्ञ साधुओ से ही धर्म की शोभा है। विश्व के प्राणी ऐसे ही सत्साधुओं के दर्शन, समागम और सेवा से अपने जीवन को धन्य बना पाने है। पूज्य तरण-तारण महा मुनिराज श्री चन्द्र सागर जी महाराज अपने दीक्षा गुरु परमपूज्य श्री १०८ आचार्य शान्ति सागर जी की शिप्य परम्परा में और आज के साधु जीवन मे न केवल ज्येष्ठता मे थोष्ठ थे वरन थोष्ठता में भी श्रेष्ठ थे। उनके पावन पद विहार से धरा धन्य हो गई । सच्चा आध्यात्म जगमगा उठा और आत्महितपियों को आत्म पथ पर चलने के लिए प्रकाश स्तम्भ मिल गया । वास्तव में वे लोग महा भाग्यशाली है कि जिन्हे ऐसे लोकोत्तर असाधारण महा तपस्वी सच्चे आगमनिष्ठ साधु के दर्शन का सुयोग मिला हम इस स्मृतिग्रन्थ के प्रकाशन के सुअवसर पर उस महा साधु आध्यात्म योगी तपस्वी के पावन चरणो में श्रद्धावनत होकर नम्र अभिवादन कर भाव पूर्वक अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पण करते हुए अपने को पुण्यशाली अनुभव करते है। १६] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्री श्री वर्द्ध मानाय नमः ॐ ह्री श्री चंद्रसागराय नमः पूज्य आचार्य कल्प श्री चन्द्र सागर जी महाराज का जीवन परिचय - आर्यिका श्री १०५ सुपार्श्वमती माताजी - जन्म इस भरत क्षेत्र में महाराष्ट्र देश है-उसमें नादगाव नामक नगर है। उस नगर में मंत्र वाल जातीयोत्पन्न जैन धर्म परायण नथमल नामक श्रावक रहते थे-उनकी भार्या का नाम सीता था । वास्तव में वह सीता ही थी-अर्थात शीलवती और पति के आजानुसार चलने वालो थी। सेठ नथमलजी और सीता वार्ड का सम्बन्ध जयकुमार सुलोचना के समान था। शालि वाहन सम्वत् १६०५ वि०सवत् १९४०मिति माघ कृष्ण त्रयोदशी के दिन शनिवार को रात्रिको नक्षत्र पूर्वापाढा मे सीता वार्ड की पवित्र कुक्षि से पुत्र रत्न की उत्पत्ति हुई। जिसके रूप राशि ने मूर्य चन्द्रमा भी लज्जित हो गये। पुत्र का मुख देखकर माता को असीम आनन्द हुआ। घर में वादित्र वजने लगे। पिता हपित होकर कूटम्वी जनो को पारितोपिक देने लगे। जन जन के हृदय मे खुशिया थी । दसवे दिन बालक का नामकरण संस्कार किया। जन्म नक्षत्रानुसार जन्म नाम भूरामल भीमसेन आदि होना चाहिये । परन्तु पुत्रोत्पत्ति के समय माता पिता को अपूर्व आनन्द हुआ था इसलिये ही उन्होने इनका नाम बुशहाल चन्द रखा हो-ऐमा अनुमान लगाया जाता है । इनके जन्म तिथिवार नक्षत्र महीना इनके हस्तलिखिन गुटके मे पौष कृष्णा अयांदनी के दिन शनिवार पूर्वापाढा नक्षत्र रात्रिक समय लिखा है-वह महाराष्ट्र देश की अपेक्षा है क्योकि मरुस्थल में और महाराष्ट्र के कृष्ण पक्ष में एक महीने का अन्तर है-शुक्ल पक्ष दोनों के समान है इसलिए माघ कृष्ण त्रयोदशी कहो या पौष कृष्ण प्रयोदशी दोनों का एक ही अयं है। वह बालक खुशहाल चन्द्र द्विनीया के चन्द्रवत् दिन प्रतिदिन वृद्धिगन हो रहे थे। गिन कार चन्द्रमा की वृद्धि मे समुद्र वृद्धिगत होता है उसी प्रकार खुशहाल चन्द्र की वृद्धि में गुटुम्बी गो का हर्प रूपी समुद्र बढ़ रहा था। वाह : पत्नी वियोग : ब्रह्मचर्यवत अभी खुशहाल चन्द्र ८ वर्ष के पूरे नही हये थे कि पूर्वोपाजिन पाप कर्म के उदय ने पिना छत्र छाया शिर पर से उठ गई-अर्थात् पिता का स्वर्गवास हो गया। नमन पर का भार ' Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा और अपरिग्रह के आचरण में विश्ववन्धुत्व आत्मकल्याण की कामना उत्पन्न होती है। विधवा माता पर गिर गया। उस समय इनके बड़े भाई को उम्र२०वर्ष की थी छोटे भाई की चार वर्ष की थी। घर की परिस्थति नाजुक थी-ऐसी अवस्था में बच्चों के शिक्षण की व्यवस्था कैसे हो सकती है इसको भुक्त भोगी ही जानसकना है । खुशहाल चन्द्र की बुद्धि तीक्ष्ण थी परन्तु शिक्षण का साधन नही होने के कारण उनको छह क्लाग नक पढकर १४वर्ष की अवस्था मे शिक्षण छोड कर व्यापार के लिए उद्योग करना पड़ा। पढ़ने को इच्छा तीव्र होते हुये भी पढ़ना छोडना पड़ा ठीक ही है कर्म की गति विचित्र है-इस समार में किसी की इच्छा पूर्ण नही होती। जब वण हाल चन्द्र को उम्र २० वर्ष की थी, उसकी इच्छा न होते हुये भी कुटुम्बी जनों ने उसकी शादी करदी परन्तु इस शादी से आपको संतोप नही था-क्योंकि लदको रुग्ण थी। डेढ़ साल बीता होगा कि आपको पत्नी का स्वर्गवास हो गया । आपके लिये मानो खान् नो रत्नवृष्टि' आकाश स्थल से रत्नो की वर्षा ही हो गई क्योंकि आपकी रुचि भोगो में नहीं थी। उस समय आपकी उम्र २१ वर्ष की थी-अग अग में जवानी फट रही थी भाल ललाट देदीप्यमान था। तारुण्य श्री से उनका शरीर अलकृत था; और उनके कुटुम्बी जन उनको पुनः विवाह के बधन मे बाधकर संसारिक भोगों में फमाने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु खुशहाल चन्द्र की आत्मा सर्व प्रकार से समर्थ एवं एवं सांसारिक यातनाओ मे भयभीत थी इगलिये उन्होंने मकटी ने नमान अपने मुख की लार से अपना जाल बनाकर और उगी में फगकर अपना जीवन गमाने की चेष्टा न की। किन्तु अनादि कालीन विषय वासनाओं पर विजय प्राप्त कर आत्म तत्त्व को प्राप्त करने के लिये, दुर्वलताओं का वर्धक दुख और अगान्ति का कारण गृहवास को मिलाजलि देकर दिगम्बर मुद्रा को धारण कर आत्म साधना निमिन अन्तः वाद्य. गत्य, अहिंमा अनोयं ब्रह्मचर्य अपरिग्रह का प्रशस्त पथ स्वीकार कर कर आत्म कल्याण करने का विचार किया। इमलिये आपने जेष्ठ शुक्ला नवमी विक्रम संवत् १९६२ को आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया। इस तारुण्य अवस्था में आपने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर महान् वीरता का काम किया। मित्र-लाभ : आत्मिक उन्नति की ओर उस दिन से आप अपने मनो मर्कट को वश में करने के लिए स्वाध्याय में लीन हो गये। ग्रहस्थ सम्बन्धित व्यवसाय करते हुये भी जैसे जल में कमल भिन्न रहता है उमी प्रकार आप उनमें अलिप्त थे । यदि उस समय किसी त्यागी गण का सत्संग मिलता तो उस समय घर बार छोड़ देते । गृहस्थाभार सिर पर होने से व्यापार करने के लिये बम्बई आदि नगरो में भ्रमण किया। व्यापार में उन्नति की व्यापारियों के विश्वास के पात्र बने । आपकी दिन प्रतिदिन घर की उदासीनता बढ़ती ही चली गई। उनके मन में संसारिक दु.खो से ग्लानि उत्पन्न हो गई और वह किसी प्रकार शांत नहीं हुई। इस बीच में आपकी मित्रता श्री व० हीरालालजी गंगवाल से हो गई मानो सोने में सुगन्ध आगई । ब्रहीरालालजी धर्मानुरागो एव वात्सल्य भाव से ओत प्रोत थे इनकी शास्त्र स्वाध्याय में बहत प्रवृत्ति थी दिनभर शास्त्र समुद्र का मथन कर सार निका लते थे । आप दोनो की सगति आत्म साधक हई आप दोनो जब कभी परस्पर मिलते थे तो [१८] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्यच्युत प्राणी आसुरी योनि में जाने की सामग्री का संघय पाता है। "आत्मिक उन्नति कैसे होगो" इसी का विचार किया करते थे। आप दोनों ने समाज मेरा करते हुए आत्मोन्नति करने का निश्चय कर लिया। पांचवी प्रतिमा वीर सवत् २४४६ में श्री १०५ ऐलक पन्नालाल जी का चातुर्मास नादगाव मे हुआ नव आपने अपाढ शुक्ला दशमी के दिन तीसरो सामायिक प्रतिमा धारण को । श्री ऐलक मागज के चरण प्रसाद से आपकी प्रतिदिन ससार से विरक्ति वृद्धिगत होती गई। इसलिये भाद्रपद शुक्ला पंचमी को सचित्त त्याग पाचवी प्रतिमा धारण की। चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात् आपने श्री १०५ ऐलक जो महाराज के माथ नार महोना तक महाराष्ट्र के ग्राम और नगरो मे भ्रमण कर धर्म का प्रचार किया। तदनतर आपने समस्त तीर्थ क्षेत्रो की यात्रा की अपनी शक्ति अनुसार क्षेत्रों में दान भी दिया। उस समय इस भूतल पर मुनियो के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ थे महानिधि के समान दिगम्बर साधु कही कही दृष्टि गोचर होते थे। आप का हृदय मुनि दर्शन के लिए 'निरन्तर छटपटाता रहता था। उनको गृहस्थारम्भ विपके समान प्रतीत होता था निरन्तर विचार करते थे अहो वह शुभ घड़ी कब आयेगी जिस दिन में दिगम्बर होकर आत्म कल्याण के अग्रसर हाऊ । आचार्य शांतिसागर जी के दर्शन एक दिन आपने आचार्य श्री १०८ शाति सागर महाराज की ललित कीति मुनी । आपका मन उन गुरुवर के दर्शनो के लिये लालायित होने लगा। उनके दर्शन बिना आपका मन जल के विना मछलो के समान तड फने लगा । इसी समय ० हीरालाल जो गगवाल मानिनागर महाराज के दर्शन करने के लिए दक्षिण की ओर जाने लगे। यह वार्ता सुनकर मशहाल चन्द्र का मन मयूर नाचने लगा और ब्रह्मचारी जी के साथ आप ने भी आचार्य श्री के दर्शनार्थ प्रस्थान किया। आचार्य श्री उस समय ऐनापुर के आस पाम विहार कर रहे थे । आप दोनो महानुभाव उनके पास चले गये । तेजोमय मूर्ति शाति मागर महाराज के चरण कमला में अतीव भक्ति मे नमस्कार किया-आपके चक्ष पटल निनिमेप दृष्टि में उनको आर निहारनं ही रह गये। आप का मन आनद की तरगो से व्याप्त हो गया। आपने आचार्य श्री की बात मुद्रा देखकर निश्चय कर लिया कि यदि ससार में मेरे कोई गुरु हो सकते है तो यही महानुभाव हो सकते है और कोई नहीं। आप का चित्त आचार्य श्री के पादमूल में रहने के लिए ललचाने लगा। आप गोम्मट्ट स्वामी की यात्रा करके वापिस आये और उनमें मग्नम प्रतिमा के बन ग्रहण किये । कुछ दिन घर में रहकर आचार्य श्री के पास वीर निर्वाण सम्वन् २/५० फागुन शुक्ला सप्तमी के दिन क्ष ल्लक व्रत ग्रहण किये। निरन्तर महाराज के समीप स्वाध्याय पान में मग्न रहने लगे। आचार्य श्री ने समडोली मे चातुर्मान किया । आश्विन शुक्ला एवारगी वीर सं० २४५०मे ऐलक दीक्षा ग्रहण की आपका नाम चन्द्रसागर रा गया। वानव ने पार चन्द्र में Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पुरुष को विद्या प्रेम को ज्योत्सना द्वारा विश्व को सुखी जाती है। गौरवर्ण उन्नत भाल तेजस्वी ललाट चन्द्र के समान था। आप के धवल यश की किरणं चन्टमा के समान समस्त संसार में फैल गई। वीर सम्वत २४५३ में आचार्य श्री ने सम्मेद शिखरको यात्रा के लिए प्रस्थान किया । ऐलक चन्द्र सागर जी भी साथ में थ। संघ फाल्गुन में तीर्थ राज में पहंचा--तीर्थ राज की वन्दना कर अपने को कृत्य-ऋत्य समझा। तीर्थराज पर सघपति पुनम चन्द घासीलाल मे पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करवाई-जिसमें लाखो जैन नर-नारी दर्शनार्थ आये। धर्म की अपूर्व प्रभावना हुई। वहां से विहार कर कटनी ललितपुर जम्बू स्वामी सिदि क्षेत्र मथुरा में चातुर्मास करके अनेक ग्रामो में धर्मामृत कीवर्षा करते हुए सोनागिरि सिद्ध क्षेत्र पहुंचे। वहां पर आपने वी०सं २४५६ मार्गशीर्ष शुक्ला १५ मोमवार मृग नक्षत्र मकर लग्न में दिन के१० बजे आचार्य श्री शान्ति सागर महाराज के चरण मान्निध्य में दिगम्बर दीक्षा ग्रहणको । समस्त कृत्रिम वस्त्राभूपण का त्याग कर पत्र महाबन पंच ममिति तीन गुप्ति स्प आभूपण तथा २५ मूल गुण रूप वस्त्रों से अपने को मुशोभित किया। जब धर्म मार्ग अवरुद्ध हुआ, पथ भूल भटकते थे प्राणी । सद्गुरु के उपदेश विना, नहीं जान सके थे जिनवानी ॥ घर दीक्षा मुनि मार्ग बताया, स्वयं बने निश्चल ध्यानी । प्रणम श्रीगुरु चन्द्र सिन्धु को-जिनको महिमा सब जग जानी ।। दिगम्बर मुद्रा धारण करना सरल और गुलभ नहीं, अत्यन्त कठिन है। जो धीर-वीर महा पुरुष है-वही इस मुद्रा को धारण कर सकते है। कायर मानव इस मुद्रा को धारण नही कर सकते । आपने इस निर्विकार मुद्रा को धारण कर अनेक नगर और गामों में भ्रमण किया। तथा अपने धर्मोपदेश से जन जनके हृदय पटल ते मिश्याधकार को दूर किया। मुना जाना है कि आपकी वक्तृत्व शक्ति अपूर्व थी। आपका तपोवल, आचार बल, श्रत बल, वचन बल, आत्मिक बल, धैर्य बल, प्रशंसनीय था। सिह वृत्ति धारक __जिस प्रकार सिंह के समक्ष श्याल नही ठहर सकते-उमी प्रकार आपके सामने वादीगण भी नही ठहर सकते थे । श्याल अपनी मढला मे उहू-उहू कर शोर मचा सकते है परन्तु सिंह के सामने चुप रह जाते है । वैसे ही दिगम्बरत्व के विरोधी जिन शास्त्र के मर्म को नही जानने वाले अज्ञानी दूर से आपका विरोध करते थे परन्तु समक्ष आने के बाद मूक के समान चुप रह जाते थे। V सुना है कि जिस समय आचार्य श्री का सघ दिल्ली में आया उस समय सरकारी लोगों ने नियम लगा दिया कि दिगम्बर साधु नगर में विहार नही कर सकते । जव यह वार्ता निर्भीक चन्द्र सिधु के कानो पर पड़ी तो उन्होने विचार किया-अहो । ऐसे तो मुनिमार्ग ही रुक जायगा इसलिए उन्होंने आहार करने के लिए शुद्धि को, और वोतराग प्रभु के समक्ष कायोत्सर्ग करके हाथ में कमण्डलु लेकर शहर में जाने लगे, श्रावक गण चिन्तित हो गये क्या होगा[२०] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमोगुणी मानय को विद्या दृष्टि, विष सपं राज के समान उत्तम पापं शनि सनी है। परन्तु महाराज श्री के मुख मंडल पर अपूर्व तेज था-सिह के गमान निर्भय होकर जाय। जब साहब की कोठी के नीचे गये, तो साहब उनको शान्त मुद्रा बैग कर नत माता गया, भूरि-भूरि प्रशसा करने लगा। मत्य ही है --महा पुरुषो का प्रभाव अपूर्व होता है। अपवाद-उपसर्ग विजयी ___ आपको भावना थी "सर्वे मुखिन. भवतु" । महाराज श्री का निन्तर प्रयत्न गमागे जीवा को धर्माभिमख करने के लिए था। गुरुदेव को तास्या केवल आत्म कल्याण के लिए नहीं भी, अपितु इस युग को धर्म और मर्यादा का विरोध करने वाली दूपित पाप-वृत्तियों को गरने के लिए भी थी। मानवो की पाप-वृत्तियो को देख कर उनका चित्त आशक्किा था । महाराज श्री ने इनके विनाश करने में पूरे साहस और धैर्य से यल किया। मूढ धर्म भावना गन्य लोगो ने इनके पथ मे पत्थर बरसाने में कोई कमी नही रखी। परन्तु मुनि श्री ने एक परम साहलो सेनानी के समान अपनी गति नहीं बदली। यश और वैभव को ठुकराने वाले " विरोधियो की परवाह कर सकते हैं कभी नहीं । महाराज श्री हमेशा ही सत्य मिद्धान्त ओर आगम पक्ष के अनुयायी रहे । सिद्धान्त के समक्ष आप किमी को कोई मूल्य नही देते थे। यदि शास्त्र को प्रतिपालनामें प्राणो की भी आवश्यकता होती थी तो आप नि मकाच देने का तैयार रहते थे। जिन धर्म के मर्म को नही जानने वाले द्वेप की अग्नि से प्रज्वलित अनानियो ने महाराज श्री पर वर्णनातीत अत्याचार किए जो लेखनी मे लिखा नही जाता। परन्तु मुनि श्री ने तनेइतने घोरोपसर्ग आने पर भी अपने सिद्धान्त का नहीं छाडा-सत्य है "न्यायात्पर. प्रविचलन्ति पद न धीराः" घोरोपसर्ग आने पर भी धीर-वीर न्याय मार्ग में विचलित नहीं होते। यह निश्चित है कि मानव मे असाधारणता कठिन से कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही आती है। अगर वत्ती को अग्नि मे जलना मान्य नहीं हो तो उसको सुरभि दगो दिशाओ में महक नही सकती । सुवर्ण का मूल्य अग्नि मे तपाये विना आका नहीं जा माताउसी प्रकार उपसर्ग सहन किये बिना महानता आ नहीं सकती । अग्नि मे तपाने पर जो निगरता है उसे कुन्दन कहते है । आपत्ति आने पर भी विचलित नही होने उने मज्जन कहते है। ___ महा सती सीता देवी की महिमा इसलिए है कि वह अग्नि परीक्षा में उत्तीणं हुई। उसके सतीत्व की परीक्षा के लिए राम ने अग्नि कु ड बनवाया और कहा तुम्हें अपने जीन की परीक्षा देने के लिए अग्निकुन्ड में प्रवेग करना होगा। सीता मती भभरती हुई भीगा अग्नि की ज्वाला में कूद पड़ी महामाता सीता वास्तव मे निप्कनक निप्पाप पूज्य पाद महामती थी। उसका वह घोर अग्नि ज्वाला कुछ नहीं कर सकी-स्वय जलवन शात हो गई। स्वर्गस्थ देवगण ने अग्निकुण को जल कुण्ड बना दिया तथा उन पर कमल का भागन विछा दिया और देवकृत चमत्कारो ने उस आसन पर नीता बामीन हो गई । नम मल स्य. कारो की ध्वनि से व्याप्त हो गया । नीता का सुयग जग में फैल गया । आज रितने वर्ष हो गए अभी तक जन-जन के हृदय में सीता के गुणों की नुवान भरी हुं है। मत्व है-आपनियो ता सामना करने पर ही गुणो की प्रतिष्ठा होती है । गुरु देव ने घोर नापनियों का मानना पिया जिससे बाज भी उनका नाम अजर-अमर है। (१) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M A AAAA सज्जन को विद्या स्नेह को गंगा प्रवाहित करती है। एक कवि ने कहा है - लाखों सेती पूजनीय यतियों में अग्रनीय, चारित्र से शोभनीय कर्म मल धोहिंगे। द्रव्यवंत देख डर, खुशामदि होय कर, दियो न आशीर्वाद धर्म धारी मोहिंगे। रुग्ण सु अवस्था मांहि सुयात्रा करत रहे, .. समाधि मरण कर स्वर्ग गये सोहिंगे। मोह हारी, गुणधारी, उपकारी, सदाचारी, , मुनीद्र चन्द्र सिंघ से हुए है न होहिंगे। मारवाड़ के सुधारक..." आपकी गिह वृत्ति थी। जिस समय समाज का प्राणी मात्र चारित्र हीन और धर्म विहीन बनता जा रहा था- उस समय आपने जैन समाज को धर्मोपदेशकर सन्मार्ग में लगाया । अनेक ग्रामो नगरो में भ्रमण करके अपने वचनामृत के द्वारा धर्म पिपाम् भव्य प्राणियों को सतुष्ट करते हुये राजस्थान के अन्तर्गत मुजानगढ नगर में पधारे। वि० सं० १६६९ में आपने यहां चनुमसि किया। इस मारवाड देश की उपमा आचार्यों ने संमार को दी है। जहां पर अतीव उष्णता अतीव ठंडक है- गर्मी के दिनो में भीषण सूर्य की किरणो से नप्तायमान नि मे ज्वाला निकलती है। आपने जिस समय राजस्थान में पदार्पण किया उस समय लोग मुनियो की चर्या से अनभिज्ञ थे- खान पान अशुद्ध हो गया था- आपने अपने धर्मोपदेश से जनता का सम्बोधन किया- उनको श्रावकाचार ' की क्रियाओं का ज्ञान कराया । आपके सदुपदेश से कई व्रती बने। मारवाड़ प्रांत के लोगों को सुधारणा का श्रेय आपको ही है। मेरी मधुर स्मृति चतुर्मासांतर महाराज श्री लाडनू डेह लालगढ आदि नगरो में विहार कर मैनसर ग्राम में आये । मेनसर एक छोटा सा ग्राम है- जहां पर एक मन्दिर है- जिसमे कृष्ण पापण को पार्श्वनाथ की मूर्ति है- शिखरबंध मन्दिर है उस समय श्रावको के २५ घर थे वर्तमान में तो एक घर भी नही है- केवल मन्दिर है । वही पर मेरा जन्म हुआ है। वहां पर वालू रेत के धोरे है रेल गाड़ी मोटर आदि वाहन का जाना दुष्कर हे- माघ के महीने में महाराज का उस गाव में पदार्पण हुआ- जनता के हृदय सरोवर में उल्लास की नवीन उमियां लहराने लगी। इस देश में ऐसे घोर तपस्वी का आना परम आश्चर्यजनक था। जो सन्मार्ग को भूले हुये थे जिनका खान पान अशुद्ध हो गया था- उनको अपने धर्मोपदेश से सन्मार्ग दिखाया । जिस समय महाराज श्री का मेनसर गांव में पदार्पण हुआ- उस समय मेरी आयु सात वर्ष को थी । परन्तु महाराज श्री की उपदेश के समय एक हाथ में लाल रंग की पुस्तक दाहिने पैर वाये पैर के ऊपर एक हाथ की अंगुली ऊपर उठाई हुई जो मुद्रा थी वह अभी भी मेरे हृदय पटल पर अंकित है। उनकी मृदु वाणी की झंकार मेरे कानो मे गूज रही है । मेरे कसी महान पुण्य का उदय था, [२२] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य भाय पाले पापो को विद्या पूरता को यतली का। जिससे इस छोटी मी उम्र में आपके दर्शन किये । आपके दांनी म न नही भल सकती। मैं तो ऐसा मानती है कि उन्हीं के नस्कार ने आउला उत्कृष्ट धर्म प्रचारक गुरुओ की गौरव गाथा गाई नही जा सकती। आपके वननो में माता को माला हृदय में विविक्षा, मन मे मृदुता, भावना मे भव्यना, नयन में परीक्षा, बन्दि में नमोना निमें विशालना, व्यवहार में कुशलता और अन्त.करण मे कोमलता कूट कूट कर भरी भो। म लिये आपने मानव को पहिचाना-पात्र की परीक्षा कर व्रत दिये। जन जन के हटग में गागको सुवास भरी। वर्तमान चन्द्र अन्धकार को दूर करता है, परन्तु चन्द्र सागर पो नन निमन नन्न । उनको ज्ञान ज्योत्सना निर्मल थी । जो ज्ञानियों के मन-मन्दिर में ज्ञान का प्रकाश लिनी । जिन्होने धर्मोपदेश देकर जन-जन का एजान दूर किया। देश-देशान्तरों में बिहार कान्नि धर्म का प्रचार किया। उनका वह परम उपकार कल्पात काल तक स्थिर रहेगा। उनी ननो में ओज था। उपदेश की गैली अर्व थी। उनके मघर भापणों में उनके जैन मितान ने रमन पूर्व मर्मज्ञ होने की प्रखर प्रतिभा का परिचय स्वत. मिलता था। उनकी गमाम्नगर्भा गगन वाक्य रश्मियों से साक्षात शाति-सुधा, रम विकोणं होता था। जिसे पान कर भक जनम उठते और अपूर्व शाति का लाभ लेते थे। अपूर्व मनोबल उनकी वृत्ति सिंह वत्ति थी। अतएव उनके अनुशासन नया नियंत्रण में माता का ना न था। मच्चे पिता की मी परम हितैषिणी कट्टग्ना थी । जिनके लिए उन्होंने अपने जीवनागजिन यश की बलि चढाने मे जरा भी परवाह न को। अनेक देशो में विहार करते हये विक्रम नंबन २००१ फाल्गुन नदी ८ मागमान गगनगजा मे आये। उस समय आपके इस भौतिक शरीर को ज्वर के वेग ने पर लिया था। इन लिए उनका शरीर यद्यपि दुर्वल हो गया था। फिर भी मानसिक वन अपूर्व जामियानी गिद क्षेत्र में चांदमल धन्नालाल की ओर से मानस्तम्भ प्रतिष्ठा थी। मरने गण ग्वामी अपने हाथ से प्रतिष्ठा कराई। पूज्य गुरुदेव की शारीरिक स्थिति अधिकाधिक निवंग ही होती गई। तो भी गदागद श्री ने फाल्गुन मुदी १२ को फरमाया कि मुझे चूलगिरि के दगंन सगा। लोगों ने कहा- "महाराज-गरीर स्वम्य होने पर हार पर जाना गित गा। गुरुदेव ने कहा कि शरीर का भरोसा नहीं। यदि शरीर ही नही ग्हा नो हमारा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुरुषो के नेतृत्व में अहिंसा और आत्म विद्या का प्रभाव बढ़ता है। WWW जायेगे । महाराज श्री दर्शन करने के लिये पर्वत पर गये उस समय १०५ डिग्री ज्वर था। निर्बलता भी पर्याप्त थी । महाराज श्री ने बड़े उत्साह और हर्ष से दर्शन किये । सन्यास भी ग्रहण कर लिया अर्थात् अन्न का त्याग कर दिया । फाल्गुन सुदी १३ को जल मात्र लिया। अंतिम संदेश , त्रयोदशी को ही अन्न जल त्यागकर सन्यास धारण करते समय कहा था कि अण्टान्तिका की पूर्ति परसो है न ? लोगो ने कहा, हां महाराज ! "सब लोग धर्म का सेवन न भूलें । आत्मा अमर है।" फाल्गुन सुदी १४ को और भी शक्ति क्षीण हो गई। डाक्टरों ने महाराज श्री को देखकर कहा कि महाराज का हृदय वडा दृढ़ है, औपधि लेने पर तो शर्तिया स्वस्थ हो सकते हैं। परन्तु गुरुदेव कैसी औपधि लेते। उनके पास तो मुक्ति में पहुंचाने वाली परम वीतराग नामक आदर्श महौषधि थी। शरीर-त्याग __ फाल्गुन सुदी १५ के दिन बारह वज कर बीस मिनट पर गुरुदेव ने इस विनाशशील शरीर को छोड़ अमरत्व की प्राप्ति कर ली। यह सन १६४५ को २६ फरवरी का दिन था। इस दिन अष्टान्हिका को समाप्ति थी। दिन भी चन्द्रवार था। परमाराध्य गुरुदेव चन्द्र सागर ने पूर्ण चन्द्रिका-चन्द्रवार के दिन सिद्ध क्षेत्र पर होलिका की आग में अपने कर्मो को शरीर के साथ फंक दिया। समस्त भक्तजन स्वामीराज के वीतराग शरीर को ओर विलखते रह गये। सभी के नेत्र अब प्लावित हो गये। चरण-वन्दना दृढ़ तपस्वी, आर्ष मार्ग के कट्टर पोषक वीतरागी, परम विद्वान, निर्भीक, प्रसिद्ध उपदेशक, आगम मर्मस्पर्शी अनर्थ के शत्र, सत्य के पुजारी, मोक्षमार्ग के पथिक, सांसारी प्राणियों के तारक, आत्मबोषि, स्वपरोपकारी, अपरिग्रही तारण-तरण, संताप हरण, गुरुदेव के चरण कमल में शत-शत वन्दन ! शत्-शत् वन्दन । [२४] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बरी चन्द्र -ले० श्री १०५ छुल्लक सुभद्र सागर जी महाराज (धो श्रेयास सागर मुनि सघस्य : नादगाय पातुर्मास सन् १९७५) काही उच्च ध्येय, उच्च आदर्ग आपल्या नयन कमगा समोर अविरत रेन गो भारतीय जैन दिगवरी संस्कृति हिमालया सम उत्त ग तमेच क्षोर समृद्राप्रमाणे पवित-मर अमततुल्य आणि अलौकिक केली अशा नरवीराची प्रसिद्धि सर्व जगा मयं दुमद्गुन राशीको आरे असे अनेक साधुरत्ने ह्या भारतात होऊन गेली आहेत. हा वृद मालिकेत आपले परम पूज आचार्य कल्प श्री १०८ चन्द्र सागर महाराजाचे नाव आणि नावाप्रमाणे त्र जन अगे गन्ता (श्रेष्ठत्वाने) गभोर (कर्तृत्व चारित्र-दिव्य त्याग) तेने सतत जन मनावर आज ते नराता नाही डोलतो आहे आज जी आम्हाला त्याच्या स्मृतीची आठवण कराविशी वाटते त्याला जी अनेक कारणे आहेत त्यामध्ये त्यानी जो आमच्या माठो कर्तृत्वाचा तरण तारण-न्यायानं जो अमृनाचा कारा ठेवला आहे त्याचे प्राशन करता यावे त्यांचा तो स्वपर-कल्याणकारी सुखकर मार्ग आगा सही प्राप्त व्हावा, त्याची सतत स्मृतो रहावी म्हणूनच आम्ही त्याचे गिप्य-भक्त-पूजारी गाने नांवाचे स्मृति-ग्र थ, औषधालय ग्रंथालय, शिक्षण सस्यादि काढु इच्छितो. त्याचे चालने बानते प्रतीक हेच आहे. आमचा हा त्रिकालदर्शी, त्रिकाल वदनीय चद्र महाराष्टातील नासिक जिल्हयातील निमगंरग्य नादगाव च्या धर्म प्रेमी, दानगर श्री सेठ नथमल जी व त्याची धर्मपत्नी, धर्मनिष्ठ मौ० सीताबाई च्या पोटी मुखी-समृद्धि वैभव सपन्न आणि जैन धर्मात अप्रतिम ठरणार्या पारायातील खडेलवाल समाजा च्या क्षितीजावर विक्रम मवत १९४० रोजी शुभ मुह वर ज्याना आला. त्याचे शिशुपणातील व गृहस्थी अवस्थेतील नाव "पशालचन्द" होते "गुरु वीजा पोटी फले येती रसाल गोमटी" ह्या न्यायाने केवलवट जी (शत) माननद जी (मुनी चद्र सागर जी) लालबद जी (व्रतीक) आणि एकत्र भगिनी मो० नदायाः (जलगाय) अगी। चारी भावड़े धर्मप्रेमी, श्रद्धालु, दानगर, पुटारी, देशभक्त अमे होने एकदर ह्या चद्रा च्या जीवन पी कन्ना च्या अपेक्षं ने बायु वातीन दिवमानां गिनती करत अमताना चद्रापेक्षा एक जास्त म्हणजे तीन ममान पर उनगनर उन्चल यदिगर मंग वीस वर्षा चे दिसुन येतात एकदर आयुष्य एकपट व नाग. त्यामन्य रोग व पलंग शिशुकाल. एकवीसाव्या वर्षी विवाह वदना चानीमाव्या वर्षों पा गाम्यांना काम, एसो पानी नाव्या वर्षों नतरवं दीक्षासह ममाधिना काल. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौतिक पदार्थो से आकर्षित न होने वाला व्यक्ति मात्मरस का पान करता है। अशा ह्या समाधि-स्वर्गस्थ आत्म्याचा वाल्यकाल बहुतेक जन्म भूमि नांदगांव मध्ये गेला. त्यांचे शिक्षण इंग्रजी पांचवी ते सहावी पर्यन्त झाले होते. त्यांची रहाणी अत्यन्त साधी परन्त देशाला-धर्माला व व्यापारी पेशाला शोभेल डौलदार दिसेल असे खादीचे धोतर-सदरा पागोट असे असे. त्याच्या चेहर्यावर पवित्र तेचो एक अपूर्व ज्योती चमकत होती. सुसगठित ऊंच शरीर, प्रशस्त ललाट आणि दिव्य तेज व चन्द्रा ची बरोबरी करणारा गौरवर्ण ह्या मुलें पहाणा र्या वर प्रभाव पडत असे. ते स्वभाव ने बालपणा पासुन अतिशय शाव, सेवा भावी, राजकारणी समयसुची न्यायप्रिय असल्यामुले बहुसख्या चा त्याच्या वर अपार विश्वास आणि आकर्पकता असे. त्यामुले च ते-स्वराज्या च्या चलवलीत मोठ मोठो कातीकारक प्रभावी अन्दोलने घडव शकले. अशा तन्हेने अल्लड, खेलकर, विद्यार्जनाचे कालाने युक्त असे त्यांचे वय शुद्ध वीजे पासुन चन्द्राच्या कोरी प्रमाणे वाढु लागले. वयात आल्यानतर एक वोमाव्या वर्षी ह्या आमच्या चरित्र नायकाचे अर्थात वशाल चन्दजी चे (भावी चन्द्राचे) नादगांव निवासी जैन धर्म प्रेमी जिन मन्दिर उद्धारक श्री शेठ गिरधार जो विनायके यांच्या सत् गुण सम्पन्न चन्द्राच्या रोहणी प्रमाणे असलेल्या कु० चि० सोनाबाई नावाच्या कन्ये बरांवर विवाह होऊन आता दोन हाताचे चार हात झाले. पण असे म्हणतात की एक गन्द महान नथ घडवतो, एक दृष्टी ब्रम्हाड जानु शकते, एक प्रतिज्ञा (क्षण) युगायुगातील जडण घडण उखडून टाकते, अगदो असाच प्रभावो न्याय द्या खशाल चदजी च्या आनदी खेलकर सलसलगा च्या रक्ता च्या अल्लड तारुण्याच्या सर्व इन्द्रिये सर्व प्रकार चे चोचले मागरणार्या वयामध्ये झाला वरे. लग्नानंतर चा फार फार तर दीड वर्षा च्या काला चा असेल तो प्रसग . एके दिवगो उपा कालातील साफ सफाई च्या वेली त्यांचे मातोश्रीना ह्या नूतन विवाह वद्ध झालेल्या युगला च्या विछाण्या च्या खाली पेढया चा कागद सापडाला. त्यावरून मातोश्री, ह्यांना चैन चमन करायचो सुचते-आमच्या रक्ताचे पाणी होते-कठीण परस्थीला तोंड द्यावे लागते-ह्या चा ह्या पोर-- टयांना विचार कसा नाही " आदि शब्द बोलल्या. ते ह्या तरुण तुर्क रूपो खुशालचन्दजो च्या कानावर गेले आणि मगकाय ? जो व्हायचा तोच परीणाम झाला त्यांनी मातोश्रीना जाऊन नमस्कार केला. विनयाने चरण धरले वही आज पासुन माझी बहोण आहे. हे भीष्म प्रतिज्ञ पूर्वक चे क्रांतीकारक असे उत्तर एकवले. अशा तन्हेन धर्म पत्नीचे रुपांतर धर्म भगिनी मध्ये पुढे त्या सोनाताईची प्रकृती एकदम खुपच विगडली त्यावेली तिच्यांशी धर्म बहीण हया नात्याने राहुन, सबोवन पूर्वक सल्लेखने ने युक्त उत्तम सावधान तेने समाधि साधुन सोनीच्या भावी जीवनाचे सोने केले. वरील प्रमाणे ससार कार्याबरोबर राजकारण, समाजसेवा, सोबत सोवत धर्मकार्य चालले होते । रोज मन्दिरात जाणे-शास्त्र स्वाध्याय करणे, धर्म कार्यात भाग घेणे नादि [२६] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पन्जानी के मालस्य पान को उत्कृष्ट इच्छा उत्पन्न होती है। श्रावकांच्या साठी जिनागमात सांगीत लेल्या देव पूजा गुरुसास्ति आदि पढ़ क्रियाचे पालन उनम प्रकारे चालले होते. ह्याची साक्ष म्हणजे छोटयाशा क्यान्न त्यांनी प० पू० महान तपस्वी, धर्म वृद्धारक ऐलक पन्नालाल जी कडुन पाचवी प्रतिमा नैष्टीक वतिक-देशविरत धारी थावक झाले. त्यामध्ये वारावताचे पालन इतक्या प्रभावना पूर्ण आदर्श रुपाने दृढते पूर्वक सम्यक युक्त केले कि आज असे अत्यन्त दुर्मील आहे. उदा० गृहस्थी अवस्थेतील उपवासा ची व्रते अगर पर्व तिथी आदि च्या निमीत्ता ने अव्याची धारणा, चांदी च्या ताटातील भोजन शेठजी च्या घरील निमंत्रणाची मादि धारणा (नियम) पहाणारी नादगाव ची नगरी व तेथील त्यावेल चे लोक धन्य व पुण्यवान् म्हटाल्यास चुकेल काय. असे धर्म कार्यामध्ये जीवन व्यतीत करत असताना आपले तृतीय बंधु लालचन्दजो पहाडे ह्यो च्या विवाहा च्या प्रसगामुले वाल ब्रह्मचारी हीरालाल जी गगवाल उर्फ गुरुनी वीर गांव निवासी (भावी प० पू० आचार्य वीर सागर) हयांच्याशी सवन्ध आला त्यामुळे त्याना ह्या संबंधामुले स्वाध्याय आदिला खूपच चालना व सहकार्य मिलाले । जणकाही पुण्याई डवल झाली असे म्हटल्यास चूकणार नाही. परीक्षा प्रधानी उपसर्ग विजयी आधुनिक समन्तभद्र वालपणा पासुनच प० पू० श्री १०८ तरण तारण आचार्य कल चन्द्रसागर श्रीच्या अंगी परीक्षा प्रधानता होतो. दिगम्बर जैन आममामध्ये भव्य मुमुक्ष शिष्या चे दोन प्रकार मानले गेले आहेत एक अज्ञा प्रधानि (परपरेने अनेच्या अनकुल जसेच्या तसे देव-गुरु शास्त्रा च्या उपदेशा प्रमाणे मानणारे) दूसरा परीक्षा प्रधानी (आगमा प्रमाणे सम्यक्त्व भुपीत गुणाला पाहुन च उपदेशाला मानणारे) ह्या द्रप्टीने चद्रसागर महाराज हे परीक्षा प्रधानी होते। उदा० दीक्षा पूर्वीचा तो प० पू० महान गुरु चारित्र-चक्रवर्ती, उपसर्ग विजयी, महान तपस्वी आचार्य शातिसागर महाराज श्रीच्या प्रथम दर्शनाचा प्रसग व सम्वन्धित याची मुनी मार्गाविषये ची निर्भीक पूर्वक केलेलो चर्चा. दूसरा प्रसग हितमित भाषा समीतिच्या पालनाने निर्ग्रन्य दिगम्बर अवस्थेतील त्या श्री शेठ हुकुमचन्द जी च्या इन्दौर मदोरामध्ये मूर्ती अन्ध आहे हा उच्चार लेले शब्द व त्यामुले निर्माण झालेले इन्दौर काड आदि प्रसग कशाची साक्ष आहेत। योडक्यात आजच्या कालात "जैसी गद्दी वैसा सलाम" करणार्या धर्म भोलया दिगम्बर जैन भक्ता मध्ये नसणारी गोष्ट आहे. त्यांनी ती घेतल्यास वरे पड़ेल. आपल्या अंगच्या परीक्षा प्रधानतेने जेव्हा गुरु च्या गुणां विषयी यथार्थ परोक्षा सन् निश्चय, सम्यक्, श्रद्धान निर्माण झाले तेव्हा वैराग्य-भक्ती तीव्र तेने जागृत झाली त्यामुले लोकरात लौकर जीवनाची इन्द्रियाची शरीराची ऐश्वर्य भोग सपत्तीची क्षणभगुरता जाणवल्या मुले श्रवण वेलगुलच्या यात्रेच्या पूर्वीच दीक्षेचे श्रीफल उपसर्ग विजयी आचार्य शांति नागर महाराजांच्या चरण कमलावर चढवुन, मुरु अने प्रमाणे ७० हीरालाल जी गगवाल बीरगाव Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञानो को वाणी विरक्तता और वीतरागता का सिंहनाद करती है। वाला व खुशालचन्द जी पहाडे ह्या दोघांनी ही यात्र हुन परतताच १९८० मध्ये उत्तम थावका चे जे अकराच्या प्रतीमेचे क्ष ल्लक पद स्वीकार ले. व हीरालाल जी चे नाव क्ष ल्लक वीर सागर व ह्या आमच्या पहाड़े चे नांव क्ष० चन्द्रमागर ठेवण्यात आले. उभयतांचे वैराग्य युक्त तपाचार आदि पाहुन क्षल्लक दीक्ष नतर सातव्या महिन्यात क्षुल्लक वीरसागर मुनी दीक्षा झाली व त्याचवेली आपल्या ह्या उत्तम श्रावकाच्या म्हणजे क्षनक परीग्रहाच्या अव रात असलेल्या चद्राला ही पण वैगग्य झाले, त्याप्रमाणं गुरुदेवांच्या प० पू० त्रिकाल वदनीय शातिसागराच्या चरण कमलावर विनत्ती ही केली. परन्तु ह्याक्ष ल्लक परोग्राहो चद्राची योग्यता पात्रता असताना सुद्धा त्याची बुद्धि चतुरता समय मुत्र कता कतृत्व मनेजमंट चे कौशल आदि संघ सघठन नियोजनाच्या प्रभावक गुण पाहन "शिखरजीला आपण व संघ जाई पर्यंत मी तूला तुझी पात्रता असताना सुद्धा मुनी करु इच्छित नाही. कारण आपल्या मघामध्ये व्यवस्थे साठी कोणी नाही तेव्हा फार तरतु ऐनवत्व पद स्वीकार असे मागोतले" परिणामो आमच्या ह्या क्ष ल्लक परीग्रहाच्या अवंरात असलेल्या चद्राचं एक लगोटी कान मुनीचे लघुनंद पद अर्थात ऐलकत्व पद प्राप्त झाले. ह्या पदात सुमारे महा वर्ष रहावे लागले ह्या कालात विद्याव्यसनी, चारित्र सम्पन्न आचार्य शान्ति सागर महाराज श्रीच्या सानिध्यात राहुन तमाचा, ध्यानाचा खुपच स्वाध्याय केला. असे म्हणतात कि आचार्य श्री चद्रसागराना नेहमी त्रिकाल सतत शास्त्र वाचावयास लावत व अर्थ समजुन घेत असत विपयाचा अर्थ-माहीती विशद करवत असत. अनेक प्रश्नांवर समर्पक चर्चांतरे होत असत त्यामुल नोक गमतीने आचार्य श्री चे गणधर म्हणत असत पण हे चुकी चे व गमती चे नाही. अखेर दंगंवरी निग्रन्थाच्या क्षितिजावर अशा तन्हेनेहाआर्यक् अर्थात् एक लंगोटीधारी लघुनदनमुनी मर्व अंतर्गत व बाह्य परीग्रह त्याग करुन महाव्रता चा अभ्यास वाढवीत स्वैराचार विरोधीनी, अमिधाराव्रताची १९८६ मध्ये शिखरजी व बुन्देलखड चे यात्रे नतर सिद्ध क्षेत्र सोनागिरी येय नट-नटको जीवन विजयी प० पू० श्री १०८ पाय सागर महाराज, अज्ञानावर मातकरणे विद्याव्यवसनी प० पू० श्री १०८ कुन्थु सागर महाराज व सर्वांचे आवडते व लाडके, मनीपुगव म्हणण्यास व होण्यास लायक अशा प० पू० थी १०८ चद्र सागर ह्या तिवाची मनी दीक्षा प० पू० मनि मार्गप्रवर्तक आचार्य शान्ति सागर महाराज्यां च्या कर कमला द्वार झाली आपला हा चन्द्र अशा त-हेने दैगंवरी निग्रन्था च्या क्षितिजावर आलाः स्पष्ट वक्ते-पण, परीक्षा प्रधानतेची सोबत मिलालेली आप-धर्मश्रद्धेची जोड व आचार्य श्री च्या कृपा दृष्टीमुले धीमान बद्धिमान कर्तवगार, घरदर आदिमले समाजाचे दोष घालवून स्व.तासह तरण तारण न्यायाने आघाडीवर आले त्यामुले त्यांनी समताधारी, अन्यायाचे कैवारी, झांतीकारक, महान् तपस्वी, तरण तारण, निर्ग्रन्थ, उपसर्ग विजयी म्हणुन स्थान प्राप्तझाले. ह्यास एक काय अनेक उदाहरणे-स्मृति आहेत. [२८] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रज्ञ मानव होनाचरण स्पी रक्त का शोध कर विचारपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है। बाप से बेटा सवायी श्रवणबेलगुल बाहुबली क्षेत्रावर एका वृद्ध गरीब जैन दिगम्वर वाईना काही शेठीयाधनवान आदि लोक दुग्धा चा मस्तका अभिषेक करुन देत नण्हते त्यावेली हलचाल केली व त्या अन्यायाला न्यायमिलवुन दिला. १९५२ च्या सुमारास शाती सागर गुरुदेवां च्या सानिध्यात व नंतरही राजस्थान (मरुभूमी) पाण्याच्या दुष्कालात प्रवचने-प्रेरणा आणि प्रसगी ४ ते ५ दिवसा चे उपोपणानतर क्ष द्रजलत्याग दिल्यानतर आहार. तसेच अजमेर मध्ये श्रीमान् समाजभूपण धर्म धुरधर टिकमचद शेठजीना क्ष द्रजलाचा त्याग देण्यासाठी धडलेले उपवास आदि भुले जण अधुनीक पूज्यपाद अवतरले म्हटल्यास चूक म्हणालकाय ? ललितपूस्वी गोष्ट तर खरोखर च नवल च आहेकि जेव्हा तेथील गरीबी बद्दलची गोष्ट कानावर आली तेव्हा तेथे दूध सोडून बाकी सर्व रसाचात्याग व फलाना सोडुन नियम बद्ध आहार घेतला. मनुष्य हा अन्नाचा किडा म्हणवला जाणार्या ह्या पचम कालात सिंहक्रिडायणी व्रतासारखी कठीण समजले जाणारे उपवास, व्रते-धारणा नियम आदि ते करीत असत. सर्व मुनि क्रीया व मुलगुणाचे पालन करुन अत्यन्त उत्साह व शाती पूर्वक असत. ते कमी झोणधेत असत. कपडे नेसवण्याच्या, कोर्ट कचेरीच्या द्वारात गेलेले सहा वर्ष गेलेले इन्दोर काडातील दिवस-प्रासगीक धैर्य, धाडस, कर्तृत्व आणि "अहर्यावतारण असि प्रहारन में, सदा समता धरन" ह्या वाक्य खडातील गुण कोणता मुमुक्ष, वदनीय मानणार नाही. दिल्ली लाल किल्या रोड वरील सरकारी गुडानी अनलेला विहार बंदीचा हुकुम, दवाव गुरु अज ने मोडून काढ्न दिगंबर मुनीचा मुक्त विहार भक्कम केला. ज्योतिष्य आदि निमोत्त शास्त्राचे ही ज्ञान चांगले होते प्रसगानुसार प्रतिष्ठा दीक्षादि मुहूर्त हे त्याचे चालते वोलके साक्षच आहे. परंतु हयाचा कुठे अतिरेघ नाही की कोणत्याही व्रतामध्ये वाधा नाही ___आपल्या ह्या चद्रा चा परीवार अर्थात् शिष्य सम्प्रदाय जरी कमी असला तरी श्री प० पू० बाल ब्रह्मचारी आचार्य शाती सागर आचार्य पट्ट प्रणाली वरील आजचे विद्यमान् चारित्र निष्ठ, बाल ब्रह्मचारी आचार्य प० पू० धर्म सागर महाराजाचे ते क्ष ल्लक (वानुज येथे दीक्षा) अवस्थेतील गुरुदेव आहेत. आदर्शनीय चारित्र सपन्न, धर्म प्रवर्तक आर्थीका सघ प्रमुख सद्य आर्थीका प० पू० इन्दुमतो माताजी चे क्षुल्लक अवस्थेतील (कसावखेड येथे मोहनवाई चे गृहस्थी अवस्थेतुनरुपातरकरणारे) दीक्षा गुरु तसेच वत्तुवाई दिल्ली वाली चे क्ष• सिद्धमती करणारे प० पू० श्री १०८ हेम सागर (मौनी मुनी), क्ष ० गुप्ती सागर आदि त्यागी गणाचे दीक्षा गुरु आहेत. ___मनमाड स्टेशनवर सद्य विद्यमान असलले शिखरबंध मदिर सात किलो च्या चादी च्या कसावखेडे (वेझल-औरगावाद रोड वरील) मदीरे व वीतराग प्रतिमा त्या च्या स्मृतीची आठवण डौलाने व्यक्त करता आहेत: [२६] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायनिष्ठ मानव को सम्पदा कभी नष्ट नहीं होती। संवत २००१ मध्ये बडवानीच्या मानस्तंभ प्रतिष्ठेला येण्याचे अहुल येथे असताना शब्द (आश्वासन) दिले होते. ते राखण्यासाठी पंच महाव्रतातील सत्यमहाव्रताचे पालन करण्यासाठी भर भयकर उन्हालयामध्ये खूप ताप असताना विहारमध्ये (सोवतचे हेम सागर मुनि, क्षल्लक महाराजा ची समाधि झाली आदि) पुष्कल से अपशकुन-अडचणी - समस्या असताना सर्व असह्य परस्थीला तोड देत ते वडवाणीला पोहचले. ह्या विहार आदिमुले प्रकृती एकदम च खुपच बिघडली, तेव्हा डाक्टरानी तपासनी अती सागीतले को एक इंजक्सन देण्याची परवानगोदेत असाल तर पूर्णपणे वारे करण्याचे अश्वासन देतो परतु त्यावैली श्री नी यथायोग्य-मार्मिक उत्तरदिले कि जर तूमला अमरहोण्याचे इ जक्शेन देत असशील तर तुझे इ जक्शन मी धेईन बावा. अखेर ह्या चद्राच्या निर्णयाला वैद्यराज मागे सरले व मत्यु राज पुढे आले. २००१ वडवानी च्या मानस्तभ प्रतिष्ठे च्या नतर ६१ च्या वर्षी चे असताना दुपारी ७१ वाजता समाधिप्ठतेने स्वर्गाकडे हा दिगवरी चद्र गेला. प्राचार्य शांती सागर महाराज श्री ना ह्या चंद्र शिप्यावन अत्यंत आवड, प्रेम तेवढेच चारित्र-तप-सम्यक धर्म प्रभावने विपयो चा दृढ विश्वास होता (कि जो एकल विहारी-स्वच्छंद गुरु-शिष्यानमध्ये आज दुर्लभ आहे. ) सहा वर्षाचे चाललेल्या इन्दौर काडा च्या वेली श्रीमती च्या मदामध्ये येऊन शेठ हुकमचद जी जेव्हा आचार्य श्री च्या पुढे, येऊन, आम्ही तूम च्या चंद्र सागर महाराजांना कपड़े नेसवणार आहोत. तेव्हा गुरुदेव आचार्य श्री नी गर्जुन सागीतले की चद्र सागर हा माझा शिष्य आहे तो शास्वा च्या विरुद्ध कधीच सांगणार नाही-विपरीत बोलडार नाही. आपण जर चंद्रसागरला कपडे नेसवाल तर मी इन्दौर नगरीला म्लेछ नगरी जाहीर करीनः जेव्हा प० पू० श्री १०८ आचार्य कल्प चद्रसागर महाराजा चे स्वर्गवासा चे समाचार ऐकले तेव्हा प० पू० आचार्य शान्ती सागर ह्या गुम्देवां नी गद् गद् दुःखीत अंतकरनानी "माझा उजवा हात गेला". असे भावपूर्ण उद्गार काढले. इत्यादि वरील सर्व प्रसंगानुसार पितृतुल्य दीक्षा गुरु च्या पावला पाव लाने मागे असतांनाही अघाडीवर होते म्हटल्यास चुकणार नाही. म्हणनच "वाप से बेटा सवाई" ची सत्यता पटतेः त्यामुले च त्यावेलचे पुष्कल लोकानी शाती सागर श्रीमताचे (वडयाचे) वीर सागर गरीवाचे आणि आपले हे चंद्र सागर भांडणाराचे असे समीकरण बसवले होते परन्तु ते चुकीचे वाटते-तो अवर्णनाद वाट तो. त्यांचा स्वभाव करारी, आगमाचा विपर्यास कधीच सहन होत नसल्यामुले व त्यास आगमा च्या सम्यक् मयनेचो जोड-दृढता त्यामुले हे प्रगट होतेः परन्तु आहार-विहार ध्यान-धारणा तप आदि वेली अत्यन्त शात व आदर्शमय होते. सूर्याच्या भागे जसे सध्याकाली किरणे जातात त्याप्रमाणे त्याचे पाठोपाठ पाऊलावर [३०] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप वासनाओ से मलीन चित्त प्रापो दुःखमय ससार में भ्रमण करता है। पाऊल ठेवून त्याचा शिष्य सप्रदाय व गहस्थी अवस्थेतील त्याचे पुतणे प्रादि (फुलचद जो पहा: धराणे) माझे प्रेरक-दीक्षा शिक्षा गुरुदेव प० पू० श्री १०८ श्रेयास मागर महाराज जाक लागले तर ह्यात आश्चर्य ते काय? आणि ह्या चरण कमला च्या सानिध्यात मला अज क्षुल्लक पामराला अशा तपस्वी चे स्मृति प्रसगा चा मधुर सुगधा चा अस्वाद घेताना त्याना मार्गा च्या प्राप्ती चो-चारीत्रा ची कर्तृत्वा चो-तपाची श्रद्धाजली देताना दोन नयना च्या निर्मल जलाने, प्रक्षालीन हो भव्य चरणे। सत् भावाची शुभ सुमने, स्मृती ग्रन्थाने पूजनीय चरणे ।। तेजस्वी महर्षि चन्द्र सागर महाराज लेखक-विद्वत रत्न, धर्म दिवाकर सुमेरु चन्द्र दिवाकर शास्त्री B. A,LL. B. सिवनी जिन महर्षि आचार्य शिरोमणि चारित्र चक्रवर्ती १०८ श्री शाती सागर जी महाराज ने अपूर्व व्यक्तित्व, अप्रतिम श्रद्धा तथा श्रीष्ठ तपश्चर्या द्वारा इस कलि काल में दिगम्बर मुनि जीवन को जगत में लोकोत्तर प्रतिष्ठा प्रदान की तथा उस मार्ग को उद्दीपित किया, उनके उज्वल चरित्र सपन्न श्रमण शिष्यो मे महा मुनि १०८ परम पूज्य आचार्य श्री चद्र सागर नहाराज का अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान रहा है । उन्हे दिवगत हुए तीस वर्ष से अधिक समय हो गया फिर भी धार्मिक तथा सयम प्रेमी वर्ग मे उनको पावन स्मृति अभी भी ताजी है। उनकी स्मृति मे एक नथ प्रकाशन का विचार मुझे सूचित किया गया, तथा यह आग्रह किया गया कि मैं उन महर्षि के सम्बन्ध में अपने मनोभाव व्यक्त करू, अत कुछ पक्तिया लिखने के बारे मे प्रयत्न करना कर्तव्य प्रतीत हुआ। सत्पुरुषो के गौरव-सवर्धन के पावन कार्य में सम्मिलित होना मैं परम भाग्य मानता है । यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं उनके निकट सपर्क मे अधिक नहीं आ पाया, अत में विस्तृत लेख बनाने में असमर्थ है । फिर भी गजपथा सिद्ध भूमि मे उनको निकटता से देखने का मुझे सौभाग्य मिला था। यथार्थ मे वे महान उग्र तपस्वी, सत्यवादी तथा आगम प्राण साधु थे। वे आगमोक्त कथन के प्रकाश में अपने विचारों को सुधारने में सदा तत्पर रहा करते थे। जब नक कोई वात शास्त्राधार पूर्वक उनके गले नहीं उतरती थी तब तक बाह्य बल प्रयोग हो हल्ला आदि मचाने पर वे उस विचार को बदलने को तैयार नहीं होते थे । आगम उनका प्राण था। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार के भौतिक पदार्थ इन्द्रजाल के समान संसारियों को मोहित करते हैं। m पूर्व जीवन, Vव मतस्वी तथा जितेन्द्रिय थे। जब वे अपने निवास स्थान नाद गाँव (नासिक जिला) में गृहस्थावस्था में थे, तब उनका जैन, अजैन सभी पर बडा प्रभाव पडा करता था। जिस समय गांधी जी ने सन् १९२१ में अपना असहयोग आंदोलन आरम्भ किया था तव ये काग्रेस के मुख्य कार्य कर्ता थे और इनके हाथ में राष्ट्रीय तिरंगा झंडा था और ये कहा करते थे "इसकी शान न जाने पावे, चाहे जान भले ही जावे । विजयी विश्व तिरगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमाग ॥" उस समय इनका नाम था खुशाल चन्द पहाड़े। ये ७० हीरालाल जी गंगवाल के, जो आचार्य वीर सागर महाराज के रूप में महनीय साधुराज वने, घनिष्ठ मित्र थे । सत्समागम एक वार ये दोनों मित्र दक्षिण यात्रा को गये। वहां इन्होने उग्र तपस्वी, महान तेजस्वी श्री १०८ मुनि शांति सागर जी (जो अव आचार्य शांति सागर के नाम से धार्मिक जगत में सूर्य की तरह दैदीप्यमान हुए) के दर्शन किए । उस समय दिगम्बर मुनि का दर्शन दुर्लभ था। कुछ समय पूर्व इन्ही मुनि शाति सागर महाराज के शरीर पर पांच छः हाथ लम्बा सर्प लिपटा था तथा उस समय भी ये धैर्य धारी परम शात मुद्रा युक्त थे। उस तपस्या के काल में उनकी आकर्षण शक्ति अद्भुत थी। उनके दर्शन करते ही खुशाल चन्द जी तथा हीरालाल जी की यह भावना हुई कि अब अपने को सच्चे गुरु प्राप्त हो गये । इनके ही चरणो का शरण ग्रहण करना चाहिए। दीक्षा इस सत्समागम ने दोनों भव्यात्माओं के हृदय में आत्म उद्धार को सच्ची भावना जगा दी। सन् १९२७ में समडोली में शाति सागर महाराज मे ७० होरालाल जी ने मुनि दीक्षा ली। उनका नाम वीर सागर महाराज रखा गया। उनके साथ में पूज्य महाराज नेमि सागर जी की भी सुनि दीक्षा हुई थी। थी खुशाल चंद जी पहाडे को वहां क्ष ल्लक दीक्षा हुई। वे चन्द्र सागर महाराज कहे जाने लगे। चन्द्र सागर महाराज मुनि दीक्षा लेने वाले थे, किन्तु उनका विचार वदल गया , जव उन्हे यह ज्ञात हुआ कि शांति सागर महाराज ससंघ शिखर जी की वदनार्थ निकलने का निश्चय कर चुके है तथा संघ को सर्व सुव्यवस्था का वचन ववई के सेठ पूनमचन्द घासीलाल जवेरी ने दिया है तब उनका विचार बदल गया। उन्होने गम्भीरता पूर्वक विचार किया कि सैकड़ो वर्षों वाद उत्तर भारत को ओर दिगम्बर मुनि संघ का विहार होने पर सम्भव है दुष्ट जीवो के कारण कही तक उपद्रव या भारी विघ्न आ जाय, उस स्थिति मे मैं क्ष ल्लक रहते हुए, प्रतीकार हेतु हर प्रकार का उचित प्रयत्न कर सकूँगा । कदाचित मुनि पद अंगीकार कर लिया, तो मै सघ रक्षार्थ आवश्यक कार्य नही कर पाऊंगा। क्ष ल्लक रहते हुए कार्य करने की विशेष सुविधा रहेगी। [३२] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप कार्य का फल विष वृक्ष के समाम जीव का घातक है। आचार्य शान्ति सागर का असाधारण व्यक्तित्व, तपश्चर्या और अपूर्व पुण्य के कारण उनके विहार में कोई कठिनाई नही आई। जन साधारण ने अपने को भाग्यशाली माना कि ऐसी अनुपम विभूति आध्यात्मिक सत शिरोमणि के दर्शन का उन्हे सौभाग्य प्राप्त हुआ। मुनि पद ___ जब उत्सर का विहार विना विघ्न बाधा के होने लगा, तब सोनागिरि मे क्ष.ब्लक चन्द्र सागर जी को सन् १९२६ मे मुनि चन्द्र सागर जी को पदवी प्राप्त हुई। आचार्य श्री के समीप आकर अनेक व्यक्ति अद्भुत चर्चा छेडा करते थे, उस समय अनुभवी लोकविज्ञ तथा शास्त्राभ्यासी मुनि चन्द्र सायर महाराज उन सबका समाधान करते थे, जिससे उन्हें निरुत्तर हो जाना पड़ता था । आचार्य श्री को उचित अवसर पर थोडा बोलने का प्रसग आता था, उसमे श्रोताओ को अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति होती थी। सघ का जब दिल्ली में १९३१ मे चातुर्मास हुआ था, उस समय रत्नत्रय धर्म को प्रभावना कार्य में मुनि चन्द्र सागर जी विशेष प्रयत्नशील थे। सघ जव राजस्थान आया, तब चन्द्र सागर जी आदि आचार्य सघ से अलग हो गए। ऐसा भवितव्य था, अन्य या अतिम जीवन तक चन्द्र सागर महाराज ने अपने मनो मन्दिर मे शाति सागर आचार्य महाराज के चरणारविन्दो की सदा पूजा की थी। अपूर्व प्रभावना राजस्थान में चन्द्र सागर महाराज के तपो पुनीत जीवन तथा उपदेश से धर्म की महान प्रभावना हुई । बहुत से दिगम्बर जैनो पर मिथ्या साधुओ का सम्पर्क रहने से विपरीत प्रभाव पड़ा करता था, यह मलिनता दूर हो गई और उन लोगो के हृदय में सच्ची श्रद्धा धर्म तथा सच्चे गुरुओ के प्रति भक्ति की भावना उत्पन्न हुई। हजारो लोगो ने शूद्र जल सम्बन्धी प्रतिना लेकर सत्पात्र दान का सौभाग्य प्राप्त किया। लोग सम्यक्चारित्र की ओर अधिक उन्मुख हुए। रत्नत्रय धर्म द्वारा सच्ची प्रभावना हुई। वाणी __ पवित्र हृदय होते हुए भी चन्द्र सागर महाराज की वाणी से कभी-कभी कडे शब्द निकलने से कोई व्यक्ति रुष्ट हो जाते थे। कुछ लोगो ने विरोध में आन्दोलन भी किए, किन्तु सच्ची तपस्या और विशुद्ध श्रद्धा युक्त व्यक्तित्व होने के कारण चन्द्र सागर महाराज के कार्यों में बाधा नही आई, यदि कठिनाई आई भी तो वह थोड़े समय तक टिकी। हमें हजारो समृद्ध सम्पन्न जैन मिले जो यह कहते है कि हम लोगों का सच्चा उद्धार चन्द्र सागर जी महाराज के द्वारा हुआ। उदाहरण एक वर्ष हो गगा, जब अनंतमती आविका माता जी (कन्नड वाली) सिवनी में Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार के उत्तम भोगों का कारण पुण्य है। पधारी थी। उन्होंने बताया था कि दीक्षा के पूर्व वै सोना बाई के नाम से प्रसिद्ध थी। विधवा हो जाने पर भी उनके शरीर पर सोने के बहुत आभूषण मोजूद थे। चन्द्र सागर महाराज ने कहा "सोना बाई ! क्या दूसरा पति कर लिया? सदाचारिणी विधवा का वेष तो ऐसा नहीं रहता है।" यह कठोर बात सोना बाई के हृदय में प्रवेश कर गई। उन्होंने तुरन्त ही सव आभूषण दूर कर दिये । उनको गुरु की कड़ी वाणी ने कल्याण के मार्ग में लगा दिया। इस प्रकार की कड़वी उपदेश रूपी दवा देकर चन्द्र सागर महाराज ने हजारों भव्यात्माओं को सन्मार्ग पर लगाया था। आचार्य शान्ति सागर महाराज कहते थे "कड़ी भाषा बोलना चन्द्र सागर की पिण्ड प्रकृति थी। चन्द्र सागर महाराज ने स्वतन्त्र रूप से बड़ी योग्यता पूर्वक अपने संघ का संचालन किया । वे आचार्य होते हुए भी अपनी वीतरागता को संघ का संचालन करते समय सदा सजग रखते थे। दर्शन जब चन्द्र सागर महाराज गजपंथा पधारे तव मुझे उनके निकर संपर्क में जाने का सुयोग मिला, मैंने उनका उपदेश सुना मैंने उनकी वाणी में ओज और प्रभावकता के दर्शन किये । वे वर्तमान युग के भ्रष्ट आचार तथा विचार की भय विमुक्त हो कड़ी समालोचना किया करते थे। गजपंथा में उस समय विद्यमान मुनि भक्त भाई वंशीलाल जी पाटनी ने उनके बारे में एक विचित्र वात सुनाई थी "कि महाराज गजपंथा पहाड पर अपना कमंडलु नही ले जाते थे और उसे नीचे ही तलहटी में देव के भरोसे छोड़ देते थे। वे इस बात की तनिक भी चिन्ता नहीं करते थे कि इसे कोई उठाकर ले जायेगा। वे कहते थे हमारी कार्मण वर्गणायें चारो ओर फैली है । वे इसकी रक्षा करेंगी। वे अत्यन्त निर्मोही और निर्भीक प्रकृति के थे। पायदान तथा पूजा को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्यमान उपदेश देते थे।" वे धनवानों को खुश करने के लिये उपदेश नही देते थे वे कहा करते थे जैसे-जैसे लोगों के पास पैसा बढ़ता है वैसे-वैसे उनके भीतर दुर्बद्धि भी वढती है। उनकी वाणी कटु होते हुये भी कल्याण की भावना युक्त रहती थी। माता ही बच्चों को सुधारने के लिये कड़ी बोली कहती है दूसरे लोग मीठी बात करते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में हित नहीं है। महाराज ये मारवाड़ी की कहावत कहते थे, "कड़वी बोली मायड़ी, मीठा बोल्या लोक" शुद्ध वंश-परम्परा एक दिन मैंने गजपंथा पहाड को जाते समय महाराज से सामाजिक शांति तथा संघ को कीर्ति संवर्धन के बारे में चर्चा की तब उन्होने मुझसे बड़े प्रेम पूर्वक कहा था, "पंडित जी आप को हमारी और हमारे संघ की कीर्ति रक्षा की बात क्यों सूझती है ? इसका कारण यह है कि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर सुरा सुर के द्वारा अनिवार्य काल सिंह से पाने याला कोई नहीं । तुमने धार्मिक कुल में जन्म प्राप्त किया है। तुम्हारे पिता सिंघई कुवर सेन जी को हम जानने है । वे महान प्रभावशाली और परम धार्मिक जैन नेता है । जीवन में उच्चतुल और सज्जातित्य के कारण मानव की प्रवृत्ति अच्छे कामो की ओर होती है। शुद्ध वंश परम्परा का महत्व है। जैसे सच्चा क्षत्रिय युद्ध भूमि से विमुख नही होता है उसी प्रकार शुद्ध वश परम्परा वाला व्यक्ति कर्मों के क्षय रूप धर्म युद्ध से विमुख नही होता है यह कह कर उन्होने मुझे अनेक उपयोगो बातें कहते हुए अपना आशीर्वाद दिया था। सत्य प्रेम उनकी खास बात थी कि समझ में आ जाने पर वे अपनी भूल को आगम के प्रकाश में सुधारने में संकोच नही करते थे। वे कहते थे, जिनके मन में पाए का निवास है वे ही हठ और दुराग्रह का त्याग नही करते, "हठ ग्राहि रहे जिनके पोते पाप" ऐसा वे कहा करते थे। वे सत्य प्रेमी थे। नर सिंह महान आत्मा में जो गुण आवश्यक है, वे सब उनमे विद्यमान थे। वे सिंह के समान निर्भीक स्वभाव थे । जब वे जयपुर नगर के निकट खानिया को धर्मशाला मे थे और जगल में पहाडी पर ध्यान हेतु चले जाया करते थे तब कभी-कभी वहां शेर की तथा अन्य जगली जानवरो की गर्जना सुनाई पडती थी किन्तु ये धीर, वीर साधु उस जगह पर शात भाव से आत्म ध्यान में लीन रहा करते थे। कठिनाइयो के आगे सिर झुकाना और न्याय मार्ग को छोड देना उनका स्वभाव नहीं था। विपत्तियों और कठिनाइयों के बीच वे-सात्मवली, वीर मनम्बी सयमी-रत्न धर्म का आश्रय ले आगे बढ़ते जाते थे । यथार्थ मे वे बड़े तेजस्वी साधुराज हो गये। घे नर-सिह समान थे वे ज्ञान-ध्यान-तपोरक्त महर्षि थे। सच्चे साधु रत्नकरण्ड श्रावकाचार मे सच्चे गुरु का लक्षण इस प्रकार कहा है विषयाशा-वशातीतो निरारंभोपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।। जो विषय भोगो की आशा से रहित है, जो आरभ और परिग्रह से विमुख है, तया जो ज्ञान, ध्यान और तप मे अनुरक्त है, वह तपस्वी स्तुति-योग्य हैं। चद्र सागर महाराज में ममत भद्र स्वामी कथित उपरोक्त लक्षण पूर्णतया पाया जाता था। यथार्थ में वे बडे निर्मोही, निस्पृही, परम वीतराग तपस्वी थे। उन्होने खूब स्व तथा पर का कल्याण किया। विरोधी भी, पश्चात उनके चरणों का भक्त बनता था ऐसा था उनका अपूर्व व्यक्तित्व । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल रूपी सिंह से व्याप्त संसारवन में कोई रक्षक नहीं है। समाधि मरण वे मृत्यु का आक्रमण होते समय भी अपनी सिह वृत्ति से शोभायमान थे। जब वे वड़वानी में थे और १०४ डिग्री से अधिक ज्वर से उनका शरीर माक्रांत था, उस समय उनकी श्रद्धा, धैर्य, तथा आत्मबल अलौकिक थे। डाक्टरो ने उन्हे देख कर कहा, "महाराज आप जैसे. ज्ञानवान, तेजस्वी साधु का जीवन अनमोल निधि है।" हम इंजेक्शन देकर आपको रोग मुक्त कर सकते है।" उन्होने उत्तर दिया, "हमारा अपने जीवन के प्रति कोई मोह नही है। हमारा मोह अपने व्रत नियम आदि के निर्दोप रूप से परिपालन में है।" यह कहते हुये उन्होने आंख बन्द करली । वे आत्मस्वरूप में निमग्न हो गये । प्राणो ने शरीर का त्याग कर दिया। उस समय इन्दौर से रावराजा राज्यरत्न सर सेठ हुकम चंद जी ने हमे तार द्वारा समाचार दिया था, कि वे अनेक प्रभावशाली लोगो को साथ लेकर महाराज के देह सस्कार के अवसर पर पहच. गये थे। प्रभाव दर्शन आचार्य चंद्र सागर महाराज के जीवन की झलक उनके सच्चे भक्त और नियो में दिखाई पड़ती है । आर्यिका इन्दु मती माता जी, सुपार्श्व मती माता जी के सघ में उक्त साधुराज का पुण्य प्रभाव तथा पवित्र श्रद्धा का दर्शन होता है। उन दिवंगत महर्षि के चरणो को मेरा शतशः बन्दन है। MER [३] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी श्री १०८ चन्द्रसागरजी महाराज के प्रति श्रद्धाञ्जलि (रच० श्री नेमीचन्द पटोरिया B. A. LL. B साहित्यरत्न) हे गुरु महान् ! गौरव-निधान ! चारित्र - शिरोमणि! विज्ञ-प्राण ! हे तापसवर ! शिव सतत-ध्यान ! हे धर्मरत्न ! आदित्य - भान ! आगम-सरिता के विमल तीर, पाखण्ड-जलद के वर-समीर । अपने पथ के एकान्त-वीर, अपने सुध्येय के सुदृढ़-धीर ॥ हे अभयवृत्ति - धारक महान् ! विचरे निर्भय केहरि समान । सम था तुमको मानापमान, सच सच कहते आगम-प्रमाण ।। जब उठी विरोधानल प्रचण्ड, मानो कर देगी खण्ड खण्ड । पाकर श्री गुरु को दृढ़ अखण्ड, तब स्वय हुई वह खण्ड-खण्ड ।। वचनों को इतना पूर्ण किया, जीवन तक उनके हेतु दिया। जब रोगों ने तन क्षीण किया, तब गुरुने ध्यान-समाधि लिया । मैं नत-मस्तक ले मनोद्गार, करता चरणों में नमस्कार । गुरु-चरण-चिह्न-पथ को निहार, चाहूं करलूं कुछ निजोद्धार ।। हे गुरु महान ! गौरव निधान । अर्पित चरणो मे शत-प्रणाम ।। [३७] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अनुपकारी के प्रत्युपकार" - पूज्य श्री १०५ आर्यिका सुपार्श्वमती जी माताजी - एक बार निर्जन बन मे भ्रमण करते २ सीता अत्यन्त म्लान हो गई थी, तब राम से बोली-हे प्राणनाथ ! मेरे कठ एक दम सूख गये है । जिस प्रकार ससार में परिभ्रमण करते करते अनन्त जन्म-मरण से दुखी भव्य जिनेन्द्र भगवान के दर्शन की इच्छा करता है, उसी प्रकार तीव्र पिपासा से व्याकुल हुई मैं जल पीने की इच्छा करती है। इस प्रकार कहती हुई सीता एक सघन छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गई। इस प्रकार पिपासा से आकुलित हुई सीता को राम ने कहा-देवी ! विषाद को प्राप्त मत होवो । देखो सामने विशाल प्रासादो से युक्त नगर दृष्टिगोचर हो रहा है, वहा चलकर तुझे पानी पीने को मिलेगा। राम के वचन सुनकर सीता उठी और धीरे-धीरे चलने लगी। नगर मे प्रवेश कर सोता सहित राम और लक्ष्मण एक ब्राह्मण के घर पहुंचे । ब्राह्मण को एक टूटी फूटी यज्ञशाला थी। उसमें विश्राम कर राम ने ब्राह्मणी से जल की याचना की । ब्राह्मणी पानी लेकर आई। सीता ने पानी पीकर थोड़ा सा विश्राम किया। इतने में मस्तक पर वेल, पीपल, पलाश आदि की लकड़ियो का भार लिये हुये अत्यन्त कुरूप लम्बोदर ब्राह्मणो का पति कपिल ब्राह्मण आ गया। निरन्तर क्रोध करने वाले उस विप्र का मन दावानल के समान था, वचन कालकूट के समान थे और मुख उल्लू के सदृश था । शिर पर बड़ी चोटी एव मुख पर दाढी थी । उसको दखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानो साक्षात यमराज ही हो। महापुरुष राम और लक्ष्मण को देखकर उस विप्र का क्रोध रूपी समुद्र उमड़ गया। मुख एवं भौहें अत्यन्त कुटिल हो गई। उसने तीक्ष्ण वचन रूपी शस्त्र से हृदय को विदारते हुये कहाहे पापिनी तूने इनको यहां क्यों प्रवेश करने दिया। हे दुष्टे ! इन पापी निर्लज्ज ढीठ ने मेरी यज्ञशाला को दूषित कर दिया। इस प्रकार ब्राह्मण के कठोर एव अपशब्दों को सुनकर सीता ने कहा-हे आर्य ! हिसक पशुओ से भरे हुये निर्जन बन में रहना उचित है, परन्तु इन अपशब्दो से तिरस्कृत होकर यहां रहना योग्य नही है । इसलिये इस कुकर्म अपशब्द कहने वाले पापी का स्थान शीघ्र छोड़ दो। उसके वचनो के आघात से लक्ष्मण के नेत्र क्रोध से रक्त हो गये । ज्योंही राम के अनुज [३८] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म तत्व से विमुख अपनो कीति से प्रसन्न होने वाला मूढ है। ने अमागलिक वचन कहने वाले ब्राह्मण को ऊर्ध्वपाद और अधोग्रोव कर घुमाकर पृथ्वी पर पछाडने के लिए प्रयत्न किया, त्योही अनुकम्पा के स्रोत राम ने कहा-हे सौमित्र, यह तुम क्या कर रहे हो, इस दीन के घात से क्या प्रयोजन है। धीर वीर महामानव, मुनि, ब्राह्मण, गाय, पशु, स्त्री, बालक और वृद्ध के दोषी होने पर भी हिंसा नही करते हैं। आज्ञाकारी सौमित्र ने धीरे से उस दीन को पृथ्वी पर सुला दिया तथा शीघ्र ही बाह्मण की कुटिया से बाहर निकल आये । शीतऋतु के समय दुर्गम कानन में तरुतल मे वास करना सर्वश्रेष्ठ है, आहार का परित्याग कर प्राण त्यागना अच्छा है परन्तु तिरस्कार के कटु वचन सुनकर दूसरे के घर मे रहना योग्य नहीं है। हम नदियो के तटो और पर्वतो की अतिशय मनोज्ञ गुफाओं मे रहेगे, परन्तु दुजनो क घर में प्रवेश नही करेंगे। इस प्रकार मन मे दृढ निश्चय कर सीता सहित राम और लक्ष्मण गाव से बाहर निकल कर बन में चले गये। इतने में ही समस्त आकाश को नीला करता और गर्जना से पर्वत की गुफाओ को प्रति-- ध्वनित करता हुआ वर्षाकाल आ गया। उस समय समस्त ग्रह और नक्षत्र बादलो की ओट छिप कर विद्युत के बहाने से हसने लगे । ग्रीष्मकाल के भयकर विस्तार का दूर कर मेघ गर्जने लगे और बिजली रूपी अगुलि के द्वारा पापी मानवो को ताड़ने लगे । जिस प्रकार हस्ती लक्ष्मी का अभिषेक करता , उसी प्रकार जलधाराओ के द्वारा नभस्थल को अधकार युक्त करता हुआ श्यामल मेघ सीता का अभिषेक करने लगे। जल वृष्टि से भीगते हुये एक निकटवर्ती अत्यन्त ऊ चे विशाल वृक्ष के नीचे वह पहुचे । जैसे ससार के दु.ख से भयभीत प्राणी जिनराज की शरण मे पहुचता है। राम लक्ष्मण के तेज से अभिभूत हुआ इभकर्ण नामक यक्ष विध्याचल पर्वत पर रहने वाले अपने स्वामी के पास जाकर नमस्कार कर बोला-हे नाथ ! स्वर्ग से आकर कोई तीन महानुभाव मेरे घर मे ठहर गये है और अपने तेज से अभिभूत कर मुझे शोघ्र ही घर के बाहर कर दिया। इभकर्ण के वचन सुनकर मन्द हास्य करता हुआ यक्षराज अपनी स्त्रियो के साथ महावैभव से युक्त लोला पूर्वक वट-वृक्ष के पास आया और अत्यन्त मनोज्ञ रूप के धारक राम लक्ष्मण को देखकर तथा अवधि ज्ञान के द्वारा यह बलभद्र और नारायण हैं, ऐसा जानकर शीघ्र ही वात्सल्य से ओत-प्रोत हो सुन्दर नगरी की रचना की। प्रात काल मनोहर सगीत के शब्द से प्रबोध को प्राप्त हुये राम और लक्ष्मण ने अपने आपको अनेक खण्डो के अत्यन्त रमणीय महल में आदर के साथ शरीर की सेवा करने में व्यग्र सेवको से घिरे हुये रत्नो से सुशोभित शैय्या पर अवस्थित देखा। महाशब्द प्रकार तथा गोपुरो से सुशोभित सहसा नगर को देखकर भी उन महानुभावो का मन आश्चर्य को प्राप्त नही हुआ, क्योकि ये [३६] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुष्ट पुरुष निर्दोष वाणी को भी दूषण लगाते हैं। सब चमत्कार छुद्र चेष्टा थी। पवित्र हृदय वाले राम, सोता और लक्ष्मण देवो के समान अनुपम भोग-भोगते हुये उस नगरी में सुख से रहने लगे । पुण्यात्मा पुरुष जहा जहां जाते है वहां वहां पुण्य सामग्री उनके पीछे चली आती है। एक दिन कपिल ब्राह्मण लकड़ी लाने के लिए जंगल में गया। वहां पर अकस्मात उसको दृष्टि उस नगर पर पड़ी। उस शोभनीय नगर को दखकर उसका मुख आश्चर्य चकित हो गया। वह विचारने लगा - क्या यह स्वर्ग है अयवा वही मृगो से सेवित अटवी है । यह नगरी ऊंचे २ शिखरो की माला से शोभायमान तथा रत्नमयी पर्वतों के समान दीखने वाले भवनों से अकस्मात् ही सुशोभित हो रही है। यहा कमल आदि से आच्छादित जो यह मनोहर सरोवर दिखाई दे रहे हैं। वे पहले मैंने कभी नही देखे। यहां मनुष्यो के द्वारा सेवित सुरम्य उचान और बड़ी बड़ो ध्वजाओं युक्त मन्दिर दिखाई पड़ते है। इस नगर की निकटवर्ती भूमि, हाथियों, घोड़ों, गायों और भैसो से संकीर्ण तथा घन्टा आदि के शब्दों से पूर्ण है। क्या यह नगरी स्वर्ग से यहां अवतीर्ण हई है। अथवा किसी पुण्यात्मा के प्रभाव से पाताल से निकली है । क्या मैं ऐसा स्वप्न देख रहा हूं ? अथवा यह किसी की माया है या गन्धर्व का नगर है। या मै स्वयं पित्त से व्याकुलित हो गया हूं या मेरा निकट काल में मरण होने वाला है सो उसका चिह्न प्रकट हुमा है ? इस प्रकार विचार करता हुआ वह ब्राह्मण अत्यधिक विवाद को प्राप्त हुआ। उसी समय उसे नाना अलंकार धारण करने वाली एक स्त्री दृष्टिगोचर हुई । उसके पास जाकर उसने पूछा-उस स्त्री ने बताया कि यह राम की नगरी है, जिनका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है । इस पुरुषोत्तम ने मन वांछित द्रव्य देकर सभी दरिद्र मनुष्यों को राजा के समान बना दिया है। ब्राह्मण ने कहा-हे सुन्दरी मैं किस उपाय से राम के दर्शन कर सकता है ? ऐसा कहकर उस ब्राह्मण ने ईधन का भार पृथ्वी पर रख दिया और स्वयं हाथ जोड़ उस स्त्री के पैरो पर गिर पड़ा। दया से आकृष्ट हुई उस सुमाया नाम की यक्षिनी ने ब्राह्मण से कहा कि तूने यह बड़ा साहस किया है। तू इस नगरी की समीपवर्ती भूमि में कैसे आया? यदि भयकर पहरेदार तुझे देख लेते तो तू अवश्य ही नष्ट हो जाता । इस नगरी के तीन द्वारों में तो देवों को भी प्रवेश करना कठिन है । क्योकि वे सदा सिंह हाथी और शार्दूल के समान मुख वाले तेजस्वी, वीर तथा कठोर नियन्त्रण रखने वाले रक्षकों से पूर्ण रहते है । इन रक्षकों के द्वारा डराये हुए मनुष्य निःसन्देह मरण को प्राप्त हो जाते हैं । इनके सिवाय जो वह पूर्वद्वार तथा उसके वाहर समीप ही बने हुये वगुले के पख के समान कान्ति वाले सफेद-सफेद भवन तू देख रहा है, वे मणिमय तोरणो से रमणीय तथा नाना ध्वजाओं की पक्तियो से सुशोभित जिन मन्दिर हैं। उनमे इन्द्रों के द्वारा वन्दनीय अरहन्त भगवान की प्रतिमाएं है। जो मनुष्य सामायिक कर तथा 'अरहन्त तया सिद्धों को नमस्कार हो' इस प्रकार कहता हुआ भाव पूर्वक प्रतिमाओ का स्तवन पढ़ता है तथा निर्ग्रन्थ गुरु का उपदेश पाकर सम्यगदर्शन धारण करता है वही उस पूर्व द्वार में प्रवेश करता है । इसके विपरीत जो मनुष्य प्रतिमाओं को नमस्कार नहीं करता है, वह मारा जाता है । जो मनुष्य अणुब्रत का धारी तथा गुण और शील से अलंकृत होता है राम उसे बड़ी प्रसन्नता से इच्छित वस्तु [४०] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सुधारस मयो चन्द्रबिम्बको शोभा से चकवाक द्वेष करते हैं। देकर सतुष्ट करते है। उसके अमृत तुल्य वचन सुनकर तथा धन प्राप्ति का उपाय सुनकर वह ब्राह्मण परम हर्ष को प्राप्त हुआ । उसका समस्त शरीर रोमाचो से सुशोभित हो गया तथा उसका हृदय अत्यन्त अद्भुत भावो से युक्त हो गया । वह उस स्त्री को नमस्कार कर तथा बार बार उसको स्तुति कर चारित्र पालन करने के लिए शूर-वीर मुनिराज के पास गया और अजुली बाध सिर से प्रणाम कर उसने उनसे अणब्रत धारण करने वालो को क्रिया पूछी। उस चतुर बुद्धिमान ब्राह्मण ने मुनिराज के द्वारा उपदिष्ट गृहस्थ धर्म अगीकृत किया तथा अनुयोगो का स्वरूप सुना। पहले तो वह ब्राह्मण धन के लोभ से अभिभूत होकर धर्म श्रवण करना चाहता था। पर अब वास्तविक धर्म ग्रहण करने के भाव को प्राप्त हो गया । मुनिराज से धर्म का स्वरूप जानकर जिसका हृदय अत्यन्त शुद्ध हो गया था, ऐसा वह ब्राह्मण बोला कि-हे नाथ। आज आपके उपदेश से तो मेरे नेत्र खुल गये है । जिस प्रकार प्यास से पीडित मनुष्य को जल मिल जाय, आश्रय करने की इच्छा करने वाले को छाया मिल जाय, भूख से पीडित मनुष्य को मिष्ठान मिल जाय, रोगी के लिए उत्तम औषधि मिल जाय, कुमार्ग मे भटक हुये को इच्छति स्थान पर भेजने वाला मार्ग मिल जाय और बडी व्याकुलता से समुद्र में डूबने वाले को जहाज मिल जाय, उसी प्रकार आपके प्रसाद से सर्व दुखो को नष्ट करने वाला यह जैन शासन मुझे प्राप्त हुआ है । यह जैन शासन नीच मनुष्यो के लिए सर्वथा दुर्लभ है । चूकि आपने यह ऐसा जिन प्रदर्शित मार्ग मुझ दिखलाया है, इसलिये तीन लोक में भी आपके समान मेरा हितकारी कोई नही है । इस प्रकार कहकर तथा अञ्जलीबद्ध सिर से मुनिराज के चरणो मे नमस्कार कर प्रदक्षिणा देता हुआ वह ब्राह्मण अपने घर चला गया । घर में प्रवेश कर ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से कहा-हे प्रिये ! आज मैंने परम दिगम्बर गुरुओ के मुखारविन्द से अश्रु त तत्व का स्वरूप का और धर्म का उपदेश सुना है, जो तुम्हारे माता पिता ने भी नही सुना है। मैने भीषण अटवी में अत्यन्त रमणीक नगर देखा । उसमे प्रवेश करने से दारिद्र दूर हो जाता है। परन्तु उसमे प्रवेश वही कर सकता है, जो जिन-धर्मावलम्बी हो, इसलिये मैने जिन धर्म स्वीकार किया है । आज मैने महान पूर्व पुण्योदय के प्रभाव से भवनाशक अरहन्त नाम रूप महौषधि प्राप्त कर ली है। आज तक मैने अहिंसा से निर्मल वीतरागमय अरहन्त भगवान कथित धर्म रूपी रसायन को छोड़कर अज्ञानवश मिथ्यात्वरूपी विषम विष का भक्षण किया। मानव देह को पाकर भी देवोपदिष्ट धर्म रत्न का परित्याग कर विषयरूपी कांच के टुकड़ को स्वीकार किया। उस सम्यगदृष्टि विप्र ने अपनी भार्या को जिनधर्मावलम्बी बनाया दोनो घर मे रहकर व्रती श्रावक के बतो का पालन करने लगे। [४१] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियरूपी राक्षसों से व्याप्त कामरूपी सिंह से चवित संसार कानन में मोहान्य प्राणी भटक रहा है। एक दिन कपिल ब्राह्मण ने दोनो बच्चो को कन्धे पर विठाया और उसकी पत्नी ने हाथ में फूलों का पिटारा लिया तथा शीघ्र हो राम के दर्शन करने के लिये निकले । मार्ग में अनेक भयंकर सर्प, सिंह आदि जन्तु उसको बाधा देने लगे, परन्तु वह मन हो मन जिनेन्द्र भगवान का स्त्रोत पढ रहा था, इसलिये समस्त विघ्न दूर हो गये। भयंकर संसार रूप दावानल को शात करने वाले जिनेन्द्र स्त्रोत से क्ष द्र कार्य, विघ्न नष्ट हो जाय तो उसमें कौन सी आश्चर्य की बात है। इसको जिन धर्म में दृढ विश्वासी देखकर वहां के रक्षक द्वारपालों ने भी उसको राम के दर्शन करने को जाने के लिए आज्ञा देदी? तदन्तर ब्राह्मण ने राम के महल मे प्रवेश किया, वहां वह दूर से ही लक्ष्मण को देखकर आकुलता को प्राप्त हुआ। उसके शरीर मे कपकंपो छटने लगी। वह विचार करने लगा कि नील कमल के समान प्रभाववाला यह वही पुरुष है, जिसने उस समय मुझ मूर्ख को नाना प्रकार को मार से दुखी किया था। उसको बोलती वन्द हो गई । वह मन ही मन अपनी जिह्वा से कहने लगा है महादुष्टे ! हे पापे ! उस समय तो तूने कानो के लिए अत्यन्त दुःखदायी वचन कहे, अब चुप क्यो हो, बाहर निकल । वह मन ही मन विचार करने लगा कि क्या करूं ? कहा जाऊँ ? किस विल मे घुस जाऊ? आज मुझ शरणहीन का यहां कौन शरण होगा? यदि मुझे मालूम होता कि वह यहां ठहरा है तो मैं उत्तर दिशा को लापकर देश त्याग ही कर देता । इस प्रकार उद्वेग का प्राप्त हुआ वह ब्राह्मण ब्राह्मणी को छोड़ भागने के लिए तैयार हुआ ही था कि लक्ष्मण ने उसे देख लिया। हंसकर लक्ष्मण ने कहा कि यह ब्राह्मण कहा से आया है । जान पड़ता है कि इसका पोषण वन मे हो हुआ है । यह इस तरह आकुलता को क्यो प्राप्त हुआ है। सान्त्वना देकर उस ब्राह्मण को शीघ्र लाओ, हम उसकी चेष्टा को देखेंगे और सुनेगे कि यह क्या कहता है । डरो मत, लौटो इस प्रकार कहने पर वह सात्वना को प्राप्त कर लड़खड़ाते पैरो से वापिस लौटा। श्वेत वस्त्र को धारण करने वाला वह ब्राह्मण पास जाकर निर्भय हो राम लक्ष्मण के सम्मुख गया तथा अजुली मे पुष्प रखकर उनके सामने खड़ा हो 'स्वस्ति' शब्द का उच्चारण करने लगा, जो प्राप्त हुये आसन पर बैठा था और पास ही जिसकी स्त्री बैठी थी ऐसा वह ब्राह्मण स्ववन करने में समर्थ ऋचाओ के द्वारा राम लक्ष्मण को स्तुति करने लगा । स्तुति के बाद राम ने कहा कि हे बाह्मण उस समय हम लोगो का वैसा तिरस्कार कर अब इस समय भाकर पूजा क्यों कर रहे हो सो तो बताओ । ब्राह्मण ने कहा-हे देव ! मैने नही जाना था कि आप प्रच्छन्न महेश्वर हो इसलिये भस्म से आच्छादित अग्नि के समान मोहवश मुझ से आपका अनादर हो गया। हे जगन्नाथ, चराचर विश्व को यही रीति है कि शीत ऋतु में सूर्य के समान धनवान की ही सदा पूजा होती है । यद्यपि इस समय मै जानता हूं कि आप वही है, भन्य नही फिर भी आपकी पूजा हो रही है । सो हे पद्म ! यहा यथार्थ मे धन की पूजा हो रही है आपकी नही । हे देव! लोग निरन्तर धनवान की ही पूजा करते हैं और जिसके साथ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनादि काल से लगी हुई कर्मरूपी कालिमा अति कठिनता से त्याज्य है। मित्रता का प्रयोजन जाता रहा है,ऐसे धन हीन मनुष्य को छोड़ देते है । जिसके पास धन है, उसके मित्र है, बान्वव है, लोक में वही पुरुष है । पण्डित है । और जब मनुष्य धन रहित हो जाता है, तब उसका न कोई मित्र रहता है और न भाई । और वही अगर जन-धन सहित हो जाता है तो लोग उसके आत्मीय बन जाते है । हे राजन् यह मनुष्य लोक विचित्र है । इसमे मेरे जैसे लोगो को तो कोई जानता ही नही है अथवा आपकी बात जाने दीजिये। आप, जैसे लोग जिनकी वदना करते है, वे साधु भी मूर्ख पुरुषों से अपमान प्राप्त करते है । मुझ मन्द भाग्य ने उस समय आपकी आतिथ्य क्रिया क्यो नही की यह विचार कर आज भी मेरा मन सन्ताप को प्राप्त हुआ है । आपके अतिशय सुन्दर रूप को देखकर मनुष्य ही अत्यन्त आश्चर्य को प्राप्त नही होता है। वरन पृथ्वी पर ऐसा कोई नही है जो आपके प्रति अत्यन्त आश्चर्य को प्राप्त नही हुआ हो । इस प्रकार कहकर वह कपिल ब्राह्मण शोकाकुल होकर रोने लगा । तब राम ने शुभ वचनो से सान्त्वना दी और सीता ने उसकी स्त्री सुशर्मा को समझाया । राम की आज्ञा से किंकरो ने भार्या सहित कपिल श्रावक को सुवर्ण घटो में रखे हुये जल से प्रीति पूर्वक स्नान कराया, उत्कृष्ट भोजन करवाया और वस्त्र तथा रत्नो से उसे अलकृत किया । वह बहुत भारी धन लेकर अपने घर वापिस गया । यद्यपि वह ब्राह्मण लोगों को आश्चर्य में डालने वाले तथा सब प्रकार के उपकरणो से युक्त भोगोपभोग पदार्थों को प्राप्त हुआ था। तो भी वह राम के सम्मान रूपी वाणो से बिद्ध था, गुण रूपी महासर्पो से डसा गया था तथा सेवा सुश्रूषा के कारण उसकी आत्मा दब रही थी । इसलिये वह सन्तोष को प्राप्त नही होता था । राम ने तिरस्कार के बदले उसका सत्कार किया था । अपने अनेक-गुणो से उसे वशीभूत किया था। वास्तव मे पुरुष वही है जो अनुपकारी के प्रति पुरुषोत्तम राम के समान उपकार करते हैं जिन्होने दुर्वचनो के द्वारा तिरस्कार करने वाले को सुवर्ण कलशो के पवित्र जल से अभिषेक कराकर अमूल्य वस्त्राभूषण भेट किये। [४३] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री १०८ स्वर्गीय मुनि श्री चन्द्रसागर स्तुतिः स्वर्गीय महा विद्वान पं० इन्द्रलाल जी जैन शास्त्री, वोरडी का रास्ता जयपुर जिन्होने प० मिश्रीलाल जी शाह को अधिकतम प्रेरणा पाकर वि० सं० २०२१ में यह स्तुति रच कर भी चन्द्रसागर स्मारक लाडनूं को सेवापित फो। अनुष्टुप् छंद २० " इलामूल मिलन्मौलि, श्चन्द्रसागर सन्मुनिम् । नं नमीमि महाभक्त्या, संसार क्लेश हानये ॥१॥ शताब्धि नव के के उदे, वैक्रमे जन्म लब्धवान् । माघ कृष्ण त्रयोदश्यां नांदगांव पुरे वरे ॥२॥ माता सीता सती यस्य, पिता नथमलो बुधः । खण्डेलवाल मार्तण्ड: पहाड्या कुलदीपकः ॥३॥ संलेभे जन्म ताभ्यां यो, वंश संमोदकारकम् । द्वितीया चंद्रवद्वृद्धि, प्राप चन्द्र समद्य तिः ॥४॥ नाम्ना खुशाल-चन्द्रोऽयं, प्रथितोऽभून्महीतले । पठित्वा बहु शास्त्राणि, महाविद्वान विभूच्छिशु. ॥५॥ पाश्चात्य शासन द्रोही, देशभक्ति युतो युवा । स्वातंत्र्यार्थ स्वदेशस्य, यत्नं चक्र त्रिधा मुदा ॥६॥ न तत्र पूर्णता दृष्टा, स्वातंत्र्यस्य स्वतो विना । वैराग्यमादधे चित्ते, ह्यात्मस्वातंत्र्य हेतवे ॥७॥ ब्रह्मचर्य पदं लेभे, गुरोः श्री शान्तिसागरात् । धर्म सेवां प्रकुर्वाणः तत्पश्चात् क्षुल्लकादिकम् ॥८॥ षडष्ट नव के केन्दे, वैक्रमेन्दे विदांवरः। सुवर्णगिरि सिद्धाख्ये, मुनिदीक्षां समाहदे ॥६॥ * पृथ्वी के मूल में लगा है मस्तक जिसका ऐसा मै 'इन्द्रलाल' [४] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयों की आराधना करके मानव पर्याय को नष्ट मत करो। चन्द्रप्रभ प्रभोः पादे, गुरोः श्री शान्तिसागरात् । खुशालचन्द्रात्संजातो, दीक्षाख्यश्चन्द्रसागरः ॥१०॥ तपस्त्यागविधौ सक्तः, श्रुताध्ययन तत्परः। वीत मोहो विदांश्रेष्ठो, निर्भीकः सिंह वृत्तिधृत् ॥११॥ सर्व चिन्ता विनिर्मुक्त स्तारण स्तरणो गुरुः । विजह भारती भूमि, सत्यां वाणी प्रसारयन् ॥१२॥ जैन नागर सौभाग्यात्, लाडनूं नगरे वरे। बोधयामास यो भव्यान् सुप्तान् वैषयिके सुखे ॥१३॥ देश धर्म कुलोद्दीपी, रागद्वेष विदुरितः। अद्वितीयो जगबन्धु, निस्पृहो मुनिसत्तमः ॥१४॥ एक बिन्दु द्वयं द्वयब्दे, बडवानी महाचले। सित फाल्गुन पूर्णायां, तिथौ सद्धयान चेतसा ॥१५॥ समाधिमरणं लेभे, कुभकर्णादि सत्पदे । पूर्व मुक्तादि वच्छीघ्र, निर्वाण पदमेष्यति ॥१६॥ सत्य मार्गमजानन्तो, मिथ्याज्ञान विमोहितः । _ विरोधिनोऽपि संजाता, यत्पाद नुत मस्तकाः ॥१७॥ दूषयन्तो मुधा मोढ्यात्, वृथां पंडित मानिनः । नेमस्तेऽपि शिरः सर्वे, चन्द्रसागर पादयोः ॥१८॥ आचंद्रार्क मिदं स्थयात्, चंद्रसागर सद्यशः । तस्येदं स्मारकं नित्यं, रत्नत्रितयराजितम् ॥१६॥ यद्भक्ति भावना मिन्द्रः, स्वान्तर्भावयते मुदा । सदा मन्मन सि स्थयात् स गुरु श्चंद्रसागरः ॥२०॥ शमिति । प्रेषकमिश्रीलाल शाह जैन शास्त्री भी चन्नसागर स्मारक, लाडनूं । [४५] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रो॥ विश्ववंद्य पूज्यपाद स्व० मुनि श्री चन्द्रसागर जी महाराज की तपस्विता - व. शिवकरण जैन अग्रवाल, लाडनूं (राजस्थान) - (वर्तमान में पूज्य क्षल्लक श्री १०५ सिद्धसागर जी महाराज) चारित्र शिरोमणि परम तपोनिधि पूज्य १०८ स्व० श्री चन्द्रमागर जी महागज वर्तमान युग के एक आदर्श श्रेष्ठ वीतराग साधु थे । यद्यपि आज वसुधरा पर वे विद्यमान नही है, परन्तु उनका दिव्य उपदेश युग युगान्तर तक इस जगत के जीवो को मार्ग प्रशस्त करता रहेगा। यह घ व सत्य है। आप आगमानुसार स्पष्ट वोलते थे। आगम पर आपको अडिग विश्वास था। आपकी कृपा से इस जैन समाज में फैला हुआ मिथ्याधकार दूर हो सका । जिसके लिये जैन समाज आपका सर्वदा ऋणी रहेगा। वास्तव में समन्तभद्र स्वामी के बताये हुये साधु लक्षण के अनुसार आप ज्ञान ध्यान तप मे लीन सच्चे दिगम्बर साधु पुगव थे । आप इस पचम काल में सूर्यवत् अज्ञान व मिथ्यात्व के नाशक ही नहीं थे वल्कि मिथ्यादृष्टियो को त्रिशूल थे। आपके मामने धर्म विरुद्ध बोलने का कोई साहम नहीं कर सकता था आपको उग्र तपस्या के आगे आगम विरोधियो के आसन हिल जाते थे। आपका युक्तिवाद अभेद्य था। वक्तृत्व शक्ति भो असाधारण थी। इसी कारण आपके सामने आगम विरोधियो को नतमस्तक होना पड़ता था। वास्तव में आपके द्वारा जैन धर्म का प्रचार व प्रसार हुआ है। आपने आगम प्रणाली के रक्षण के लिए जो प्रयत्न किया था वह धार्मिक जनता यावत् "चन्द्र दिवाकरौ" भूल नही सकती है । आप प्राणी मात्र के हित चितक तथा हितकारी थे । ससार की महान् विभूति थे । ऐसे महामुनिराज को स्मृति को स्थापी बनाने का यह प्रयत्न स्तुत्य और अनुकरणीय है। ___ मै स्व० महाराज श्री के चरणो में कोटि कोटि नमन करता है और जिनेन्द्र प्रभ से यह हार्दिक प्रार्थना करता हूं कि आपकी आत्मा को शीघ्र ही मुक्ति लाभ मिले। नोट:-श्री १०८ चन्द्रसागर जी महाराज की हस्तलिखित एक पुस्तक मुझे स्व० आचार्य श्री महावीर कीर्ति महाराज के सघ से प्राप्त हुई तभी मे इसको प्रकाशित करवाकर धार्मिक बन्धुओ के पठनार्थ पहुचाने को प्रवल इच्छा रही फलस्वरूप विदुषो रत्न श्री १०५ आयिका सुपार्श्वमती जी के कर कमलो मे अर्पित की। उन्होने इसका सपादन करके स्वर्गीय श्री चन्द्रसागर जी महाराज की निर्मल देशना को जनता तक पहुंचाने का प्रयत्न किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन होने का श्रेय आपको ही है। [४६] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री॥ श्री १०८ परम पूज्य स्व० चन्द्रसागर जी महाराज का ॥ तेजोमय तपस्वी जीवन ॥ - श्री मिश्रीलाल शाह जैन शास्त्री, श्री चंद्रसागर स्मारक लाडनूं (राजस्थान) - ज्यो ही यह जानने मे आया कि उपर्युक्त आचार्य कल्प सघ नेता श्री चन्द्रसागर जी महाराज के सम्बन्ध मे स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है, मानस परम आलाद को तरंगो मे तरगति हो उठा। सुन्दर सामग्री से सुसज्जित होकर इसके प्रकाशन में वर्धमान उत्साह होने का एक कारण बना, वह यह कि स्व० १०८ आचार्य श्री महावीर कीर्तिजी मुनिराज के सघ के पास श्री १०८ चन्द्रसागरजी महाराज के स्वय के हाथ की लिखी हुई विपुल पठनीय सामग्री से परिपूर्ण महान पुस्तक थी। उनने लाडनू निवासी सप्तम श्रावक श्री शिवकरणजी जैन अग्रवाल को हस्तगत कर दो। इनने फिर १०५ विदुषीरत्न श्री सुपार्श्वमती जी आर्यिका जी (श्री १०५ इन्दुमती जो सघस्थ) जिनको कि गुरु महाराज पर परम श्रद्धा, भक्ति, और उनके पुनीत गुणों के सस्मरण से परम प्रभावशील रहती आई है-उस पुस्तक को सेवार्पित किया । आपने' ही इस पुस्तक के सपादन मे परिपूर्ण योगदान देकर जन हित की भावना से इसके प्रकाशित कराने की योजना को कार्यान्वित बना दिया। इसलिये मुझे भी-जिनकी कि चरण छाया में दीर्घकाल तक रहकर ओजस्वी अमृतोपम वाणो के पान करने का सुखद सयोग मिला है, उनके प्रसाद से प्राप्त होने वाले अनुभवो को लेखनी वद्ध करने का उत्साह जागृत हुआ है। आपने माघ बदी १३ वि० स० १९४० में अपने जन्म द्वारा नादगाव (दक्षिण) के धरातल को पवित्र बनाया था। पितु श्री नथमलजी माता सोता पहाडिया व गृह परिवार के तब हर्ष का पारावार न था। पुत्र खुशालचन्दजो ने तब अपने पूर्व सस्कार व माता पिता के भव्य सस्कारो से शीघ्र ही शास्त्र बोध पाया। लौकिक पारलोकिक शिक्षण मे पारगत हो गये । तारुण्य के प्रवेश मे ही आपको देश भक्ति का उत्साह जाग्रत हो गया । साधु सन्तो के सम्पर्क से वैराग्य से प्रोत प्रोत होकर साधना के क्षेत्र मे रहते रहते मगसर सुदी १५ वि० स० १९८६ सोनागिर सिद्धक्षेत्र मे स्व. आचार्य गुरु शातिसागर जी महाराज द्वारा मुनिदीक्षा से दीक्षित होकर सर्वत्र धरातल पर विहार करते हये अपने विशिष्ट ध्यान, अध्ययन तपस्विता से बड़े प्रभावशाली विशिष्ट व्यास्याता एव परम वाग्मी बन गये। मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविकाओ से आपका सघ दीप्तिमान था। सघ सचालन को आपमे बड़ी कुशलता थी। विहरित क्षेत्र में आपके [४७] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम को आराधना शक्ति ज्योति और आनन्द को प्रदान करती है। विज्ञान बल से अनेको श्रावक श्राविकाओ ने व्रत नियम लिये । अजैन भी आपके भव्योपदेश से प्रभावित होकर रात्रि भोजन मांस मदिरा आदि अभक्ष्य भक्षण के संसर्ग से छट गये। आप में प्रकृति दत्त एक गुण था, वह यह कि आप बड़े निर्भीक व सिंह वृत्ति के धारक थे। सेठ साहूकार धनी मानी आदि की परवाह न कर खरी कहने में कभी संकोच न करते थे। इससे शक्तिवन्त श्रीमन्त वर्ग आप से प्रतिगामी होकर भी कही पेश आते थे पर अन्त में उन्हें आपकी सत्यता, वास्तविकता अलंध्य तर्करणा शक्ति और आर्ष मार्ग साधक तत्त्वबोध के आगे सभी वर्ग को आपके आगे झुकना पड़ता था। बड़े बड़े महारथी शास्त्री विद्वान आपकी विद्वता प्रतिभाशालिता के आगे नतमस्तक हो जाते थे। आपके भाषण में सहस्रों व्यक्ति जमा होते थे। बड़े बड़े सरकारी आफिसर्स भी आपके वस्तु प्ररूपण शैली से चमत्कृत होते थे। इन्दौर चातुर्मास में बहुत बड़ा विरोधी वातावरण खड़ा हुआ था पर वहां भी आप तप्तायमान स्वर्ण की भांति दीप्तिमान सिद्ध हुए, और आपकी तपस्विता के आगे सब शांत हो गये, उस समय जो वहां धर्म प्रभावना व जय जयकार हुआ वह अवर्णनीय है। एतावता आप परीषह जयो उपसर्ग जयी जितेद्रिय सिद्ध हुए। आपके निमित्त से आपकी स्मृति में सच्छावकों ने प्रभावित होकर यहां 'श्री चन्द्र सागर स्मारक' निर्माण कराया। उसमें साधुत्रय की मूर्ति विराजमान होने से (श्री शाति, वीर, चद्र, मुनित्रय) नित्य ही कर्तव्य की संस्मृति होती रहतो है । ऐसा ही स्मारक इन्दौर मे भी भागम सेवको जनो द्वारा निर्मापित हुआ है। इन्दौर से विहार कर आप सिद्धक्षेत्र बड़वानी चले गये। वहां फागुन सु०१५ सं० २००१ में शुभ सल्लेखना पूर्वक स्वर्गीय हो गये। आपके प्रति मैं भक्ति से अवनत होकर श्रद्धांजलि समर्पित करता हूं और आप ही के पथ का अनुगामी होने की भावना करता हूं। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: जीवन निर्माता : आज से लगभग ३८ वर्ष पूर्व जबकि मेरी आयु लगभग १७ वर्ष की थी । मे अपनी पूज्य माता जी के साथ रेवारपुर ( कोटा ) गया हुआ था। वहां मैने सर्वप्रथम परमपूज्य प्रातः स्मरणीय तपोनिधि आचार्य कल्प श्री १०८ श्री चन्द्र सागर जी महाराज के दर्शन किये। उन्होने बड़े प्रेम से मेरे सिर पर पिच्छिका रखते हुए आशीर्वाद दिया । दूसरे दिन मैंने उनके आहार की विधि देखी, मनमें उमग उठी कि मैं भी आहार दूं- मैंने अपनी पूज्य माता जी से कहा- क्या मैं भी आहार दे सकता हू । उन्होने कहा बेटा – इन्हे वही व्यक्ति आहार दे सकता है जो स्वय शुद्ध आहार लेने का नियम ले — उस सारी विधि को सुन कर सहम सा गया । मैं तो बाजार की पकौड़ियाँ, सेव आदि खाने का आदी था । एक दिन पूज्य गुरुवर ने टोक ही दिया। क्यो हमें भोजन नही कराओगे। मन में सोचा क्या उत्तर दू- आखिर अनायास मुह से निकल गया। महाराज जब आप हमारे गांव में पधारेंगे तब मै आपको आहार दूगा - महाराज श्री का ३-४ दिन बाद वहा से विहार हो गया। बात आई गई सी हो गई। पर उनकी स्मृति हृदय पटल पर अकित हो गई । लगभग - १० माह बाद निमित्त से पूज्य गुरुवर का सघ सहित सवाई माधोपुर में आगमन हुआ (वि० स० १९६६ ) | बड़े समारोह के साथ सघ का नगर में प्रवेश हुआ - मै भी उस उत्सव में सम्मिलित था। मुझे पिछली सारी स्मृति याद हो आई । पूज्य महाराज श्री की धर्म देशना हुई । उसी प्रसग में उन्होने कहा कि यहा का एक लड़का जो अपने आपको पापडीवाल बतलाता था । हमे यहाँ आने का निमन्त्रण देकर आया था— कौन है वह - मैं झट हाथ जोडकर खड़ा हो गया । महाराज श्री ने कहा- क्यो भोजन कराना है या नही - में लज्जित सा खड़ा रहा । पूज्य महाराज जी का आहार अन्यत्र हुआ । | दूसरे दिन प्रात' मैंने स्वय बिना घरवालो के पूछे महाराज श्री से शुद्ध भोजन करने की प्रतिज्ञा ली और जो-जो नियम उन्होने बतलाए उन सभी को मैंने स्वीकार किया उस दिन से मेरे जीवन में एक नया मोड़ आ गया और मुझे एक नया मार्ग मिला - लगातार हमारे यहां चौका बनता रहा लेकिन लगभग ५-६ दिन तक पूज्य गुरुवर के आहार दान के पुण्य का योग प्राप्त नही हो सका । जब वे अन्यत्र आहार करके आये तो मैं मंदिर जी की सीढ़ियों पर बैठा था । मेरी आँखो से अश्रु धारा बह रही थी। गुरुवर ने सिर पर पिच्छिका रख कर आशीर्वाद देते हुये कहा। क्यो आज क्या बात है - मैने कहा महाराज मेरे वहा आहार क्यो नही हो रहा हैपूज्य गुरुवर कहने लगे रोने से क्या लाभ है । दूकानदार दूकान लगाता है। ग्राहक भी पाता है तुम तो अपने कर्त्तव्य का पालन कर रहे हो ... .................................s ...मेरे को कुछ धैर्यं बंधा । और (शेष पृष्ठ ५० पर) [ ४७ ] १३ 7 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इस युग के महान् सन्त :जो साधना के क्षेत्र मे अपना सब कुछ दे देते है वे साधु कहलाते है। साध शब्द की निरुक्ति यह है कि 'यः आत्मानं साधयति तत्साधुः' । जो सब तरफ से इन्द्रियों के विषय भोग आशा लोकतष्णा आदि जाल से अपनी आत्मा को यहां तक कि अपनी देह से भी निर्ममत्व होकर सहज स्वभाव में रमाते रहते है वे ही ग्रन्थ रहित सच्चे पवित्रमना साधु माने जाते है । स्वर्गीय श्री १०८ चन्द्र सागर जी महाराज इसी के प्रतीक थे। आपकी साधुता की गध सर्वत्र फैल गई थी। जो भी आपके चरणों में एक बार आ जाता था। वह चरण भ्रमर बन जाता था । आपकी कठोर तपस्या को देख कर दर्शक आश्चर्य चकित हो जाते थे । ग्रीष्म ऋतु में एक पाव से खड होकर ध्यान लगाना आपकी एक विशिष्ट आकर्षण शील चर्या थी। आप सज्जातित्व के परम पोषक थे । आपके भाषणो मे आर्ष मार्ग की छाप रहती थी। प्रकृति मे बड़ी निर्भीकता थी। उपसर्ग परीषह जय मे अचल रहते थे। आप परम जितेन्द्रिय थे। घृत, मीठा, लवण का आजन्म त्याग ही इसका प्रबल प्रमाण है। श्रावकोचित योग्याहार विहार ही आपके आशीर्वाद को परम कसौटी थी। आपके निधन से समाज अनाथ हो गया। आज के युग में आपकी परम आवश्यकता थी। आपही के समान सन्मार्ग का अनुसरण करने वाले प्राचार्य प्रवर शाति सागर जी महाराज की संघ परपरानुवर्ती आचार्य श्री १०८ धर्म सागर जी प्रभृति संघ अहिंसा, अपरिग्रहवाद की महिमा से लोक को आलोकित कर रहे है । मैं आपके चरणो में अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करता है। -सुमतिशाह जैन बी. ए. एकाउन्टेन्ट मेडीकल विभाग जयपुर (राजस्थान) पृष्ठ ४६ का शेषाश.... तीसरे या चौथे दिन गुरुवर को आहार देकर मैंने अपने को बड़ा भाग्यशाली समझा । सौभाग्य सेसंघ का वर्षायोग यही हुमा और संघ के सानिध्य मे लगभग ६ माहरहने का पुण्य योग प्राप्त हुआ। उन्ही का आशीर्वाद है कि जीवन कुछ धार्मिक प्रवृत्तियो की ओर मुड़ा और आज तक उनके आशीर्वाद से उनके दिलाये हुये नियमो का बराबर पालन करता रहा हूं। मेरे वास्तविक जीवन के प्रदाता उन परम गुरुवर तारण तरण परम तपस्वी तपोनिधि श्री १०८ आचार्य कल्प चन्द्र सागर जी महाराज के पुनीत चरण कमलो में मै शत शत वन्दना करता हूं। -लाडली प्रसाद जैन पापड़ीवाल सवाई माधोपुर [ ५.] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य आचार्यकल्प श्री चन्द्रसागर जी महाराज के चातुर्मास-स्थल ऐलक अवस्था में संबत गांव का नाम वीर सवत् २४५० आ० शाति सागर महाराज जी के संघ में समडोली -१ २४५१ कुभोज-१ २४५२ नादणी -१ २४५३ अकेले नादगाव -. २४५४ आचार्य श्री के साथ कटनी-११ २४५५ ललितपुर -१ २४५६ मथुरा -१ मुनि अवस्था में २४५७ आचार्य श्री के साथ दिल्ली-१ जयपुर२४५६ अकेले अजमेर२४६० कुचामन-1 २४६१ सुजानगढ. २४६२ व्यावर - २४६३ जयपुर२४६४ सवाई माधोपुर - २४६६ बड नगरર૪૬૭ नांदगॉव - २४६८ कोपर गांवર૪૬૦ कसाब खेडा, " २४७० आडूल - २४५८ नैनवां - २४६५ [ ५१] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री की शिष्य परम्परा का संक्षिप्त वर्णन चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी महाराज द्वारा दीक्षितमुनिगण-सर्वश्री १०८ वीरसागर जी महाराज, नेमिसागर जी महाराज, वर्द्ध मानसागर जी महाराज, देवसागर जी महाराज, पायसागर जी महाराज, चन्द्रसागर जी महाराज, नमिसागर जी महाराज, पद्मसागर जी महाराज, आदिसागर जी महाराज, श्रुतसागर जी महाराज, कुन्थुसागर जी महाराज, सुधर्मसागर जी महाराज, नेमिसागर जी (पूत्तरकर), धर्मसागर जी महाराज, अनन्तकीर्ति जी महाराज, पार्श्वकोति जो महा राज, चन्द्रसागर जी महाराज, (पुत्तरकर), समतभद्र जी महाराज । पूज्य आचार्य श्री १०८ वीरसागर जी द्वारा दीक्षितमुनिगण-सर्वश्री १०८ शिवसागर जी, आदिसागर जी, धर्मसागर जी, सुमतिसागर जी, तसागर जी, सन्मतिसागर जी, पद्मसागर जो, जयसागर जो। आर्यिकाये-सर्वश्री १०५ वीरमती जी, सुमतिमती जी, विमलमती जी, इन्दुमती जी, पार्श्वमती जी सिद्धमती जी, वासुमती जी, ज्ञानमतो जी, सुपार्श्वमती जी। छल्लिकाये सर्वश्री १०५ चन्द्रमती जी, जिनमती जी, पद्मावती जी, अनन्तमती जी, गुणमती जी। छुल्लक-सर्वधी १०५ सिद्ध सागर जी। पूज्य आचार्य श्री १०८ पायसागर जी महाराज द्वारा दीक्षितमुनिगण-सर्वश्री १०८ जयसागर जी, कुलभूषण जी, देशभूषण जी। आर्यिका-श्री १०५ चन्द्रमती जी। छुल्लिकाये-सर्वश्री १०५ विमलमती जी, अजितमती जी, जिनमती जी, राजमती जी, विद्यामती जी, अनन्तमती जी, पांवमती जी, सुमतिमती जी। छ ल्लक-सर्वश्री मल्लिसागर जी, विमलसागर जी, सुमतिसागरजी, सिद्धसागर जो। पूज्य आचार्य कल्प श्री १०८ चन्द्रसागर जी महाराज द्वारा दीक्षितमुनिगण-सर्वश्री १०८ निर्मलसागर जी, हेमसागर जी। आर्यिकायें सर्वश्री १०५ पार्श्वमती जी, कीर्तिमती जी। छल्लिकायें-सर्वश्री १०५ इन्दुमती जी, बोधमती जी, मानस्तम्भामती जी। छुल्लक-सर्वश्री १०५ भद्रसागर जी, बोधसागर जी, गुप्तिसागर जी, जयसागर जी । पूज्य आचार्य श्री १०८ शिवसागर जी महाराज द्वारा दीक्षितमुनिगण-सर्वश्री १०८ अजितसागर जो, सुपार्श्वमागर जी, भव्यसागर जी, ऋषभसागर जी सुबुद्धिसागर जी, यतीन्द्र सागर जी, श्रेयांस सागर जी। आपिकायें-सर्वश्री १०५ जिनमती जी, राजुलमती जी, पद्मावती जी, बद्धिमती जी, विशुद्धमती जी, सुथीलमती नी, धन्यमती जी, कनकमती जी, श्रेयांसमती जी. अरहमती जी। -संकलनक/-आयिका सुपार्श्वमती [५२ ] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a 2) चन्द्र सागर स्मृति था द्वितीय खण्ड सैद्धान्तिक लेख Lur ॐ नय विवक्षा __-पूज्य आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी * अनेकान्त --धर्मालंकार पं० हेम चन्द्र जी शास्त्री निमित्त उपादान मीमांसा -विद्यावाचस्पति पं०वर्द्धमानपार्श्वनाथ शास्त्री..२२ 200770 Page #68 --------------------------------------------------------------------------  Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम रूपी हस्ती निरंकुश होकर संयम रूपी वृक्ष को उखाड़ देता है। नय विवक्षा लेखिका-पूज्या श्री १०५ आयिका सुपार्श्वमती माताजी विश्व के समस्त दर्शन शास्त्र वस्तु तत्व की कसौटी के रूप में प्रमाण को स्वीकार करते है । किन्तु जैन दर्शन इस सम्बन्ध मे एक नयी सूझ देता है । जैन धर्म को मान्यता है कि प्रमाण अकेला वस्तुत्व को परखने के लिए पर्याप्त नही है । वस्तु की यथार्थता का निर्णय प्रमाण और नय के द्वारा ही होता है। प्रमाण नयरधिगम ॥ अर्थात-प्रमाण और नय के द्वारा पदार्थों की जानकारी होती है केवल प्रमाण या नय से वस्तु का स्वरूप नहीं जाना जाता है । जैनेतर दर्शन नय को स्वीकार नही करते इस कारण एकातवाद के समर्थक बन गये है और जैन दर्शन नय वाद को स्वीकार करता है इसलिए अनेकात वादी है। किसी भी वस्तु का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये उसका विश्लेषण करना अनिवार्य है क्योकि विश्लेषण के बिना उसका परिपूर्ण रूप नही जाना जा सकता है । तत्व का विश्लेषण करना और विश्लिष्ट स्वरूप को समझना नय को उपयोगिता है। नय वाद के द्वारा परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले विचारो के अविरोध का मूल खोजा जाता है और उनका समन्वय किया जाता है नय विचारो को मीमासा है । वह एक ओर विचारो के परिणाम और कारण का अन्वेषण करते है और दूसरी ओर परस्पर विरोधी विचारो में अविरोध का बीज खोज कर समन्वय स्थापित करते है। ___ अनेक धर्मात्मक वस्तु के परस्पर विरोधी नित्य अनित्य, सत असत, एक अनेक आदि धर्मों का समन्वय करके सिद्धि करना नय का कार्य है । जगत के विचारो के आदान प्रदान का साधन नय है। नय का लक्षण अनन्त धर्मात्मक वस्तु को अखड रूप से जानने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है, और प्रमाण के द्वारा जानी हुई वस्तु के एक अश जानने वाला ज्ञान नय कहलाता है । प्रमाण सर्वा श ग्राही है और नय एक अश का ग्राहक है। "सधर्मणैव साध्यस्य सधाा दविरोधतः । स्याद्वाद प्रविभक्तार्थ विशेष व्यञ्जको नय. ॥ -"आप्त मीमासा" स्याद्वाद अर्थात-श्रुत प्रमाण के द्वारा ग्रहीत अर्थ के विशेष धर्मो का प्रथक-प्रथक कथन करना नय है। नीयतेऽनेन इति नय. जिसके द्वारा जाना जाय उसे नय कहते है। ___ "नीयते गम्यते येन श्रुता शीशों नयो हि सः" श्रुत के द्वारा जाने हुये पदार्थों का एक अश जिससे जाना जाता है वह नय है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम रूपी वाणों से जर्जरित चित्त रूपी घड़े में विवेक जल नहीं रह सकता है। "स्वार्थेक देश निर्णीत्ति लक्षणो हि नय.।" - श्लोकवात्तिक अपने अर्थ के एक अंश का निर्णय करने वाला नय है। "प्रमाणप्रकाशितार्थ विशेष रूप को नयः।" प्रमाण के द्वारा प्रकाशित अस्तित्व नास्तित्व, नित्यत्व अनित्यत्व आदि अनंत वर्मात्मक जीवादि पदार्थों के जो विशेष धर्म है उनके एक अश का ग्राहक नय है। ___ "प्रमाण परिग्रही तार्थेक देशे वस्त्वध्यवसायो नयः । प्रमाण के द्वारा परिग्रहीत अर्थ के एक देश की सत्प्ररूपणा का निश्चय करने वाला नय है। "अनिराकृत प्रतिपक्षो वस्त्वंश ग्राही ज्ञानुरमि प्रायो नयः। -प्रमेय कमल मार्तण्ड परस्पर अपने प्रति पक्षी का विरोध न करते हुये वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाले को अथवा ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते है। वस्तुन्यने कातात्म विरोधेन हेत्वपणत्साध्य विशेषस्य याथात्म्य प्रापण प्रवण प्रयोगो नय । -स० सि. अनेक धर्मात्मक वस्तु के विरोध न करके किसी एक धर्म को अपेक्षा से वर्णन करने वाला नय कहलाता है। ___ "नयंति प्रापयंति प्रमाणे क देशानिति नयः । प्रमाण के एक देश को प्राप्त कराता है उसको नय कहते है। "यथा वस्थित स्वरूप दर्शन समर्थ व्यापारो नयः" वस्तु के जैसा स्वरूप है वैसे स्वरूप के वर्णन करने के सामर्थ्य व्यापार को नय कहते है। "जो णाणीण वियप्पं सुवासयं वत्थु अंस संगहणं" तं इह णायं पउत णाणी पुण तेण जाणेण । - श्रत ज्ञान का आश्रय लेकर ज्ञानी वस्तु के विकल्प को ग्रहण करता है वह नय है । नय श्रुत ज्ञान के भेद है इसलिये श्रुत के आधार से नय की प्रवृति होती है। श्रुत प्रमाण होने से सकल ग्राही होता है उसके एक अश को ग्रहण करने वाला नय है । इसलिये नय विकल्प स्व नय के बिना मानव को स्यावाद को बोध नही हो सकता है। इसलिये जो एकान्त का विरोध कर वस्तु का यथार्थ स्वरूप जानना चाहते है उनको नय जानना चाहिये। श्रत ज्ञान के दो कार्य है-१ स्याद्वाद -२ नय । सम्पूर्ण वस्तु के कथन को स्याद्वाद कहते है और वस्तु के एक देश कथन को नय कहते है । अथवा स्याद्वाद के द्वारा ग्रहीत अनेकान्तात्मक पदार्थों के धर्म का प्रथक् प्रथक् करने वाला नय है। तथा प्रमाण के द्वारा अनेकान्त का वोध होता है । परन्तु नय तभी सुनय है जब वह सापेक्ष हो । यदि वह नय अन्य नयों के द्वारा गृहीत अन्य धर्मों का निराकरण करता है तो वह नय दुर्नय हो जाता है । अत. सापेक्ष नयों के द्वारा गृहीत एकान्तो के समूह का नाम ही [२] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामवासना नरक कुण्ड में प्रवेश करने के लिये प्रतोली है। अनेकात है और अनेकांत का ग्राहक या प्रतिपादक स्याद्वाद है। इसलिये स्याद्वाद को जानने के लिए नय की ही शरण लेनी पड़ता है । यद्यपि नय वस्तु के एक अश को ग्रहण करता है इसलिये एकात है परन्तु वह दूसरे नय को सापेक्षता रखता है यदि दूसरे नय को अपेक्षा न रखे तो मिथ्या हो जाता है। "अर्थस्यानेक रूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्नयस्तन्निराकृति.॥" अनेक धर्मात्मक अर्थ के ज्ञान को प्रमाण कहते है। धर्मान्तर सापेक्ष एक धर्म के ज्ञान को नय कहते है । तथा इतर धर्म निरपेक्ष एक ही धर्म का ग्रहण करने वाले ज्ञान का दुर्नय कहते है। विरोधी प्रतीत होने वाले इतर धर्म का निराकरण करने का नाम निरपेक्षता है और वस्तु के विचार के समय विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म को अपेक्षा न होने से उसकी उपेक्षा करने का नाम सापेक्षता है निरपेक्ष नय मिथ्या होते है और सापेक्ष नय सम्यक् होते है क्योंकि वही कार्यकारी होते है । स्वामी समन्तभद्र ने कहा है "निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेर्थ कृत" इसलिये जिनेन्द्र कथित नय के द्वारा एकात का निरास होता है। जैन धर्म सम्यक एकात का विरोधी नहीं है मिथ्या एकात का विरोधी है। क्यो कि नय का ज्ञाता यह जानता है कि जो नय जिस धर्म का वर्णन करता है वह उतने ही अश में सत्य है, सर्वा श मे सत्य नही है। दूसरा ज्ञाता उसी वस्तु को अपने अभिप्राय के अनुसार भिन्न रूप से वर्णन करता है उनके पारस्परिक विरोध को नय दृष्टि के द्वारा ही दूर किया जा सकता है । अतः वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझाने वाला नय ही है नयाश्रय के बिना वस्तु का स्वरूप नही जाना जा सकता है। ____ यदि आकारादि अक्षर नही हो तो शास्त्रादि की रचना और लेखन सभव नही। सम्यक्त्व न हो तो तपस्वी का तप समीचीन नहीं होता, पारा नामक धातु नही हो तो अन्य धातुओं की शुद्धि नही होती उसी प्रकार नय विवक्षा न हो तो वस्तु की सिद्धि नही होती । लेखन का मूल, अक्षर है-अनेकात का मूल नय है। प्रमाण वस्तु के पूर्ण रूप को ग्रहण करता है, अंश विभाजन करने की प्रवृति इसको नही है। अत: प्रमाण नय नहीं है किन्तु प्रमाण से जानी हुई वस्तु के एक देश में वस्तुत्व की विवक्षा का नाम नय है। द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक यह नय के दो मूल भेद है । अत. वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक या सामान्य विशेषात्मक होती है। वस्तु के द्रव्याश या सामान्य रूप का ग्राही द्रव्याथिक नय है और पर्यायाश या विशेषात्मक रूप का ग्राही पर्यायाथिक नय है । वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक या सामान्य विशेषात्मक है। द्रव्य और पर्याय अथवा सामान्य • और विशेष को देखने वाली दो आखे है-द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । जिस समय पर्यायायिक दृष्टिको बन्द करके केवल द्रव्यार्थिक दृष्टि से देखते है तो नारक तिर्यच देव मानव सिद्धत्व पर्याय [३] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम वासना को नाश करने के लिये गुरु संगति ही श्रेष्ठ है रूप विशेष में व्यवस्थित एक जीव सामान्य का ही दर्शन होता है पर्याय प्रतिभासित नही होती और द्रव्यार्थिक दृष्टि वन्द करके पर्याय दृष्टि से देखते है तो नर पर्याय आदि से जीव आत्मा भिन्न-भिन्न रूप से प्रतिभासित होता है । द्रव्यार्थिक पर्यायाथिक दोनों दृष्टि को खोलकर के देखते है तो नरकादि पर्याय में अवस्थित जीव ओर जीव में व्यवस्थित नर नारकादि पर्याय में युगपत् दृष्टिगोचर होती है। अतः वस्तु को एक दृष्टि से देखना वस्तु का एक देश देखना है और दोनों दृष्टियो से देखना वस्तु का सर्न देश देखना है । इस प्रकार वस्तु के देखने को दो दृष्टि है । उन्ही का नाम पर्यायाथिक और द्रव्याथिक नय है। जैसा सन्मति तर्क में लिखा है-- "तित्थयर वयण संग्रह विसेस पत्थार मूल वागरणी। . द्विव्वद्विओ य पज्जवणओ य ऐसा वियप्पासि ॥ तीर्थकरों के वचनों की सामान्य और विणेप रूप राशियों का मूल प्रतिपादक द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नय है वाकी सव इन दो नयों के ही भेद है। अनेकांत का निरूपण नयों के द्वारा ही हो सकता है। नय अनेक है क्यों कि वस्तु अनेक धर्मात्मक है और एक एक धर्म का ग्राइक नय है परन्तु उन सवका समावेश सक्षेप मे इन्ही दो नयो में हो जाता है। -विशेष भेद--- द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद है-नैगम, संग्रह, और व्यवहार । तथा पर्यायाथिक नय के चार भेद है । ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवं भूत । इन सात नयों में आदि के चार नयों को अर्थ नय कहते है । क्यों कि वे अर्थ की प्रधानता से वस्तु को ग्रहण करते है। तथा शब्द प्रधान होने से प तीनो नयों को शब्द नय कहते है। द्रोप्यतिगदु दुवत्तांस्तान पर्यायानिति द्रव्यं वा द्रव्यति गच्छति तांस्तान्पर्यायान् द् व्यते गम्यते तस्तै. पर्यायरिति वा द्रव्यं । जो अपनी अपनी गुण पर्यायों को प्राप्त होते है उसको द्रव्य कहते है । "निज निज प्रदेश समूहै रखण्ड वृत्या स्वभाव विभाव पर्यायान द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रवत चोति द्रव्यं ।" जो अपने प्रदेश समूह के द्वारा अखण्ड वृत्ति से अपने अपने गुण पर्यायों को प्राप्त होते है उसको द्रव्य कहते है। द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्पेति द्रव्यार्थिक. । द्रव्य ही जिसका प्रयोजन हो उसको द्रव्यार्थिक कहते है वा द्रव्यं सामान्यम भेदो अन्वय उत्सर्गो अर्थो विषयो येषां ते द्रव्यार्शिक. । द्रव्य सामान्य अभेद अन्वय उत्सर्ग यह ऐकार्थ वाची है-अभेद अन्यव सामान्य का विषय करने वाला द्रव्या र्थिक नय है । अकलक देवने लघीयस्त्रय में कहा है-- "चत्वारो अर्थनया हयेते जीवाद्यर्थ व्यापाश्रयात् । त्रयः शब्दनयाः सत्यपद विद्यां समाश्रिताः॥ चार अर्थ नय है जीवादि अर्थ के आश्रय है और तीन शब्द नय है सत्यपद विद्या के आश्रित है। नगम नय नैकं गमः नैगम. संग्रहासग्रहस्वदयं द्रव्यार्थिको नैगम. अर्थात् जो धर्म और धर्मी मे से एक [४] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्पुरुषों को वाणी हृदय नेत्र को खोल देती है। को ही नही जानता है, किन्तु गौण और प्रधान रूप से धर्म और धर्मी दोनों का विषय करता है उसे नैगम नय कहते है । जैसे जीव अमूर्त है ज्ञाता है दृष्टा का सूक्ष्म भोक्ता परिणामी और नित्य है । यहा प्रधान रूप से जीवत्व का निरूपण करने पर सुखादि धर्म गौण हो जाते है । और सुखादि गुणो का निरूपण करने पर आत्मा गौण हो जाती है। और धर्म धर्मी को या गुण गुणी को अत्यन्त भिन्न मानना नैगमाभास है । जैन धर्म के अनुसार गुण गुणी अवयवअवयवी क्रिया कारक और जाति व्यक्ति में अत्यन्त भेद मानने वाला न्याय वैशीषिक दर्शन नगमाभासी है । तथा चैतन्य और सुखादि अत्यन्त भेदवादी साख्य भी नैगमाभासी है। इन दोनों दर्शनो ने निरपेक्ष तत्व स्वरूप का विवेचन किया है वह नैगम नय की दृष्टि से यथार्थ होते हुये भी निरपेक्ष है । इसलिये अयथार्थ है, क्योकि नैगम नय सत्याश है पूर्ण सत्य नही है । नगम का अर्थ अनभिनी वृतार्थ सकल्पमात्र ग्राही नैगम । (स सि०)अर्ण सकल्प मात्र ग्राह नैगमः । (त० रा०) तत्र सकल्प मात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः । (त० श्लो० वा०) अनिष्यन्नार्थ सकल्प मात्र ग्राही नैगमः । (प्र० क० मा) - अनिष्यन्न सकल्प मात्र ग्राहक नैगम नय है। ___ अन्यदेव हि सामन्यमभिन्न ज्ञान कारण। विशेषो अप्यन्य एवेति मन्यते निगमो नयः । (स० त० टी) सामान्य ज्ञान भिन्न है और विशेष ज्ञान भिन्न है ऐसा मानने वाला नैगम नय है। नैकर्मानमहासत्ता सामान्य विशेष विशेष जाननिर्माते मिनोति वा नैकम.। एक मानस महासत्ता सामान्य विशेषज्ञान के द्वारा जो नही मानता है वह नैगम है। निगमेषु अर्थ बोधेषु कुशलो भवो वा नैगम । निगम अर्थात् पदार्थ के ज्ञान में कुशल जान नैगम है । अथवा नैके गमाः पन्थानां यस्य स नैकेगम । एक जिसका मार्ग नही वह नैगम है। तत्राय सर्वत्र सदित्येवमनुगता काराव बोध हेतुभूता महासत्तामिच्छति-अनुव्रत व्यावृत्ता वबोध हेतुभूत च सामान्य विशेष द्रव्यत्वादि ध्यावृत्तावबोध हेतुभूत च नित्य द्रव्यवृत्ति मन्त्य विशेषमिति । इस नय में सर्वत्र सत् इस प्रकार अनुगत द्रव्याकार ज्ञान की कारण भूत महासत्ता को स्वीकार करता है जो अनुव्रत और व्यावत रूप सामान्य विशेष रूप द्रव्य को स्वीकार करता है वह नैगम नय है। निगम का अर्थ सकल्प भी होता है। अत अर्थ के सकल्प मात्र का ग्राही नैगम नय है। जैसे प्रस्थ बनाने के निमित्ति जगल से लकडी लेने के लिये कुठार लेकर जाने वाले किसी पुरुष को पूछा आप कहा जा रहे है। वह उत्तर देता है कि प्रस्थ के लिये । तथा पानी ईधन चावल आदि कार्य में लगे पुरुष से किसी ने पूछा आप क्या कर रहे है ? तो वह उत्तर देता है कि रसोई बना रहा हू । किन्तु उस समय न तो प्रस्थ है और न रसोई । परन्तु उन दोनो का प्रस्थ और रसोई बनाने का सकल्प है । उस सकल्प में ही वह प्रस्थ या रसोई का व्यवहार करता है। अत. अनिष्यन्न अर्थ के सकल्प मात्र का ग्राहक नैगम नय है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसके हृदय में सत्पुरुष की वाणी ने प्रवेश नहीं किया वह अंधा है। इस नैगम नय के अनेक भेद बतलाये है । नेगम नय के मूल भेद तीन है पर्याय नैगम, द्रव्य नैगम, और द्रव्य पर्याय नैगम । पर्याय नैगम के तीन भेद है। द्रव्य नैगम के दो भेद है। और द्रव्य पर्याय-नगम के चार भेद है। इस प्रकार नैगम नय के नो भेद है। पर्याय नैगम के तीन भेद हैभर्थ पर्याय नैगम, व्यंजन पर्याय नंगम, अर्थ- व्यजन पर्याय नैगम । अर्थ पर्याय नैगम किसी वस्तु में दो अर्थ पर्यायो को गोण और मुख्यरूप से जानने के लिये ज्ञाता का जो अभिप्राय होता है वह अर्थ पर्याय नंगम है। जैसे सशरीर जीवका मुख मवेदन प्रतिक्षण नाश को प्राप्त होता है यहा प्रतिक्षण उत्पाद- व्ययरूप अर्थपर्याय तो विशेपरूप होने से गौण है और सवेदन रूप अर्थपर्याय विशेष्य होने से मुख्य है । विशेप और विशेष्य कथञ्चित् एक है कञ्चित् अनेक है जो सुख और ज्ञान को सर्वथा परस्पर मे भिन्न मानते है वह नेगमाभास है । व्यंजनपर्याय नगम एक वस्तु मे गौणता और मुख्यता से दो व्यजन पर्यायो को जानने वाला व्यजन पर्याय नंगम है। जैसे आत्मा मे सत् चैतन्य है यहा मत्व को गीण रूप में और चैतन्य को मुख्यरूप से ग्रहण है तथा सत् और चतन्य को कथचित् भिन्न कथचित् अभिन्न मानता है। सत्ता और चैतन्य को परस्पर मे आत्मा से सनथा भिन्न मानने का अभिप्राय व्यजन पर्याय नैगमाभास है। अर्थ व्यञ्जनपर्याय नगम अर्थ पर्याय और व्यजन पर्याय को गौण और मुख्य रूप में जानने का अभिप्राय अर्थ व्यंजन पर्याय नैगम है । जैसे धर्मात्मा पुरुप का मुखी जीवन है । मुख और जीवन को सर्वथा भिन्न मानने का अभिप्राय अर्थ व्यजन पर्याय नैगमाभास है। गद्ध द्रव्य नैगम नय, अणद्ध द्रव्य नैगम नय । सम्पूर्ण वस्तु सद् द्रव्यरूप है इस प्रकार के अभिप्राय को शुद्ध द्रव्य नैगम नय कहते है । इसमे गुण और पर्याय का वर्णन नहीं है । सत् और द्रव्य का गुण गुणी को सर्वथा प्रथक् मानना शुद्ध द्रव्य नैगमाभास है। ___ द्रव्य पर्यायी है गुणी है अर्थात् द्रव्य गुण और पर्यायवाला है ऐसा कयन करने वाला है कथंचित् गुण गुणी में पर्याय पर्यायी में भेद मानना अशुद्ध द्रव्य नैगम नय का विपय है । और गुण - गुणी में सर्वथा भेद मानना नैगम नयाभास है। द्रव्य पर्याय नैगम के शुद्ध द्रव्यार्थ पर्याय नैगम नय अशुद्ध द्रव्यार्थ पर्याय नैगम नय शुद्ध द्रव्य व्यजन पर्याय नेगम नय अशुद्ध द्रव्य व्यजन पर्याय नैगमनय यह चार भेद है। शुद्ध द्रव्य-अर्थ पर्याय नैगमनय इस ससार में मुख सत्स्वरूप है तथा क्षणिक है यहा सत् द्रव्य है । और सुख अर्थ पर्याय है। इसमे सत् द्रव्य विशेष है रूप शुद्धद्रव्य तो गौण है और विशेष्य रूपअर्थ पर्याय सुख मुख्य है द्रव्य और पर्याय दोनो को गौण मुख रूप से ग्रहण करने वाला शुद्ध द्रव्य अर्थपर्याय नैगम नय है जो मुख पर्याय से सत् को सर्वथा भिन्न भिन्न मानते हैं वह नैगमाभास है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु-संगति रूपी अमृत के झरने में विवेक लक्ष्मी निवास करती है। अशुद्ध द्रव्य पर्यायाथिक नय "ससारी जीव क्षण भर सुखी है" इस प्रकार विवेचन करना अशुद्ध द्रव्य पर्यायार्थिक नय है क्योकि यह नय सुख रूप अर्थ पर्याय को गौण रूप से और अशुद्ध द्रव्य ससारी जीव को प्रधान रूप से ग्रहण करता है। सुख और ससारी जीव में कथन भेद अवश्य है परन्तु वास्तविक भेद नही है जो एकातवादी सर्वथा द्रव्य पर्याय मे भेद मानते है इस लिये उनका नयाभास है। शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय आत्मा सिद्ध स्वरूप है ऐसा ग्रहण करने वाला नय शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है क्योकि आत्मा शुद्ध द्रव्य है और सिद्धावस्था शुद्ध व्यजन पर्याय है। इसमे यह नय मुख्य और गौण से दोनो का विषय करता है जो प्रात्मा और सिद्ध पर्याय को सर्वथा भिन्न मानता है वह नैगमाभास है। अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय अशुद्ध द्रव्य और अशुद्ध व्यजन पर्याय को गौणता और मुख्यता से ग्रहण करता है वह अशुद्ध द्रव्य व्यजन पर्याय नैगम नय है। जैसे ससारी आत्मा अशुद्ध द्रव्य है और नर-नारकादि अशद्ध व्यजन पर्याय है। जो नर नारकादि पर्याय से आत्मा को सर्वथा भिन्न मानता है वह नेगमाभास है। "नेक गमो नैगम" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो दो धर्मों में या दो मियो मे से या धर्म धर्मो मे से विवक्षा के अनुसार केवल एक को नही जानता उसे सज्जन पुरुष नैगम नय कहते है। नैगम शब्द की एक व्युत्पत्ति के अनुसार तो ऊपर उसका लक्षण बतलाया था यहां उसकी दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ किया है जो दो धर्मों में से या दो धर्मियो में से या दो धर्म धर्मियों में से केवल एक को न जानकर गौणता और मुख्यता की विवक्षा से दोनो को जानता है वह नैगम नय है । अकलक देव ने अष्टशती में लिखा है कि दो मूल नयों ( अर्थात् पर्यायार्थिक और द्रव्याथिक ) की शुद्धि और अशद्धि की अपेक्षा से नंगमादि की उत्पत्ति होती है । उसको व्याख्या करते हुये स्वामी विद्यानन्दी ने अष्ट सहस्त्री मे लिखा है कि-मूलनय द्रव्यार्थिक की शुद्धि से सग्रह नय निष्पन्न होता है क्योकि वह समस्त उपाधियो से रहित शुद्ध सन्मात्र को विषय करता है और सम्यक एकत्व रूप से सबका सग्रह करता है। उसी को अशुद्धि से व्यवहार नय निष्पन्न होता है, क्यो कि वह सग्रह नय के द्वारा गृहीत अर्यों का विधि पूर्वक भेद प्रभेद करके उनको ग्रहण करता है जैसे वह सत् द्रव्य रूप है या गुणरूप है । इसी तरह नैगम भी अशुद्धि से निष्पन्न होता है क्योंकि वह सोपाधि वस्तु को विपय करता है । उस नैगम नय की प्रवृति तीन प्रकार से होती है-द्रव्य में, पर्याय में और द्रव्य पर्याय मे। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमी जनों की संगति से आशा पिशाचिनी नष्ट हो जाती है। द्रव्य नैगम के दो भेद है-१. शुद्ध द्रव्य नैगम २. अशुद्ध द्रव्य नैगम । पर्याय नेगम के तीन भेद है -१. अर्थ पर्याय नेगम २. व्यजन पर्याय नैगम ३. अयं व्यजन पर्याय नैगम । अर्थव्यजन पर्याय नैगम के तीन भेद हैं- १. ज्ञानपर्याय नैगम २. ज्ञयार्थ पर्याय नगम ३. ज्ञान ज्ञेयार्थ पर्याय नैगम । व्यजनपर्याय नैगम के ६ भेद है (१) शब्द व्यंजन पर्याय नैगम, (२)समभिरूढ़ व्यजनपर्याय नयम, (३) एवभूत व्यंजन पर्याय नैगम (४) शब्द समभिरूढ़ व्यजन पर्याय नैगम, (५) शब्द एवभूत व्यजन पर्याय नैगम, (६) समभिरूढ एवभूत व्यजन पर्याय नैगम । अर्थ व्यंजन पर्याय नैगम के तीन भेद है (१) ऋजुसूत्र शब्द अर्य व्यजन पर्याय नैगम (२) ऋण सूत्र समभिरूढ अर्थ व्यंजन पर्याय नैगम (३) ऋजुसूत्र एवभूत अर्थ व्यजच पर्याय नैगन । द्रव्य पर्याय नैगम के आठ भेद है- (१) शुद्धद्र-य ऋजुसूत्र-द्रव्यपर्याय नैगम (२) शराब पर्यायनैगम, (३) शुद्ध द्रव्य समभिरूढ द्रव्य पर्याय नैगम (४) शुद्ध द्रव्य एवंभूत द्रव्य पर्याय नेगम (५) अशुद्ध द्रव्य ऋजुसूत्र द्रव्य पर्याय नेगम (६) अशुद्ध द्रव्य शब्द पर्याय नैगम (७) अशुद्ध द्रव्य समभिरूढ द्रव्य पर्याय नैगम (८) अशुद्ध द्रव्य एवभूत द्रव्य पर्याय नैगम । नैगम नय के उक्त भेदो को गिनाकर विद्यानन्द स्वामी ने लिखा है कि लोक और शास्त्र के अविरोध पूर्वक उदाहरण घटा लेना चाहिये किन्तु इनके उदाहरणादि किसी अन्य ग्रन्थ में मेरे देखने में नही आये है। जय धवल में लिखा है-तत्र शुद्ध द्रव्यार्थिकः पर्याय कलक रहितः बहु भेद संग्रहः । अशुद्ध द्रव्याथिकः पर्याय कलकाकित द्रव्य विषय. । यदस्ति न तद्वयमतिलभ्य वर्तते इति नकगमी नैगमः शब्द शील कर्म कार्य कारणाधाराधेय सहत्तार मानमेयोन्मेय भूत भविष्यद वर्त मानादिक माश्रित्य स्थितोपचार विषयः। पर्याय कलक से रहित शुद्ध द्रव्याथिक के बहुत से भेदों को ग्रहण करने वाला सग्रह नय है। अशुद्ध द्रव्यार्थिक पर्याय कलंक से युक्त द्रव्य का विषय करने वाला व्यवहार नय है। अस्ति और नास्ति दोनो का उलघन न कर अथवा एक द्रव्य वा एक पर्याय का विषय न करके गौणता और प्रधानता से दोनों का विषय करने वाला नैगम नय है । शब्द शील कर्म कार्य कारण आधार-आधेय मान-मेय उन्मेय भूत भविष्यत वर्तमानादि समस्त भेदों का विषय करने वाला नैगम नय है । संग्रह नय विधि व्यतिरिक्त प्रतिवेषानुप लंभा द्विधि मात्र मेव तत्व मित्यव्यवसाय समस्तस्यग्रहणा संग्रहः । विधि (सत्ता) से व्यतिरिक (भिन्न) असत्ता नही है इसलिये विधि मात्र ही तत्त्व है। इस प्रकार समस्त सत्ता को ग्रहण करने वाले नय को सग्रह नय कहते है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् धतधारी गुरुओ को संगति रूपी चंद्रोदय से प्रज्ञा रूपी समुद्र बृद्धिगत होता है सद पतानति क्रान्त स्व स्वभाव मिदं जगत सत्ता रूपतया सर्व संगहन संग्रहो मतः। यह जगत सद् रूपता का उलघन करने वाला नहीं है इस प्रकार सत् रूप से सबका सग्रह करने वाला सग्रह नय है। स्वजात्याविरोधे नैक त्व मुपनीय पर्यायानाक्रांत भेरान विशेषेण समस्त संग्रहणात् संग्रहः । स०सि०९-३३ अपनी जाति का विरोध न करके पर्यायो से आक्रात भेदो को एकत्व रूप से ग्रहण करता है उसको सग्रह नय कहते है। स्वजात्य विरोघे नैकत्वोपनयात् समस्त ग्रहणं संग्रहः । ता० रा. वा० १-३३-४८ एकत्वेन विशेषाणां ग्रहणं सग्रहो मतः । सजातेर विरोधेन दृष्टेष्टाभ्यां कथंचन । प्रत्यक्ष और अनुमान से अपनी जाति का विरोध न करते हुए समस्त विशेषों (भेदों) को एक साथ ग्रहण करने वाला संग्रहनय कहलाता है। पर्याय को छोडकर द्रव्य नहीं और द्रव्य को छोड़कर पर्याय नहीं है। द्रव्य पर्याय का एक ही द्रव्य क्षेत्र काल भाव है इसलिये द्रव्य ही तत्त्व है। इसप्रकार द्रव्य और पर्याय का भेद न करके अभेद रूप से ग्रहण करना सग्रह नय का विषय है। जैसे सत् कहने से सत्ता सम्बन्ध के योग्य द्रव्य-गुण कर्म आदि समस्त सद्व्यक्तियो का ग्रहण हो जाता है तथा द्रव्य कहने से सभी द्रव्यो का ग्रहण हो जाता है। सग्रह शब्द दो अक्षरो के मेल से बना है उनमें से सम का अर्थ है एकीभाव या सम्यकत्व समीचीनपना ग्रह का अर्थ है ग्रहण करना, दोनो को मिलाने से सग्रह शब्द बनता है अर्थात् समीचीन एकत्वरूप से ग्रहण करना अर्थात् समस्त भेद प्रभेदों की जो जो जाति है उसके अनुसार उनमे एकत्व के ग्रहण करने वाले नय को सग्रह नय कहते है। जैसे सत् कहने पर सत्ता के आधार भत सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है और द्रव्य कहने पर जीव अजीव उनके भेद प्रभेदों का सग्रह होता है। जैसे घट कहने पर समस्त घटों का सग्रह होता है। सग्रह नय के दो भेद है परसग्रह और अपरसग्रह । पर संग्रह नय का विषय सत्ता मात्र शुद्ध द्रव्य है। यह नय सत्ता के सम्पूर्ण भेद-प्रभेदों में सदा उदासीन रहता है अर्थात् यह नय न तो उनका निषेध करता है और न उनको विधि ही करता है। जो नय सम्पूर्ण विशेषों का निराकरण करके केवल सत्ता द्वैत को मानता है वह परसग्रहा-भास है। अपर संग्रह नयः-पर सग्रह नत्र के द्वारा ग्रहीत वस्तु के विशेष अंशों का ग्रहण करने वाला अपर संग्रह नय है। जैसे सत् के भेद द्रव्य और पर्याय है अतः सम्पूर्ण द्रव्यों में व्याप्त द्रव्यत्व तथा सम्पूर्ण पर्यायों में व्याप्त पर्यायत्व का ग्रहण करना अपर संग्रह नय का विषय है। यह मय अवान्तर भेदों का एकत्व रूप से संग्रह करता है किन्तु प्रतिपक्षी भेदों का निराकरण नही करता है। [[] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणी जनों को संगति से कायरता नष्ट होती है। व्यवहार नय संग्रह नयाक्षिप्ताना मानां विधि पूर्वक भवहरणं भेदनं व्यवहारः । व्यवहार परतन्त्रो व्यवहार नयः । सग्रह नयके द्वारा ग्रहण किये हुये पदार्थों का विधिपूर्वक भेद करना व्यवहार नय है । जैसे परसग्रह सब सत् है, ऐसा ग्रहण करता है व्यवहार नय उसके भेदों को ग्रहण करता है वह सत् द्रव्य और पर्याय रूप है । जैसे अपर संग्रह नय सब द्रव्यों का द्रव्य रूप से और सर्वपर्यायों का पर्याय रूप से संग्रह करता है। व्यवहार नय उसका विभाग करता है । व्यवहार नय वहां तक भेद करता है जब तक भेदों की सभावना है। काल्पनिक द्रव्य पर्याय के विभाग को मानने वाला नय व्यवहाराभास है । यह तीनो नय द्रव्याथिक है । क्योकि इन तीनों ही नयों का विशेष पर्याय न होने के कारण इन तीनों नयों के विषय में सामान्य और विशेष काल का अभाव है। इन नयों में काल को विवक्षा नही है। जिसमें काल कृत भेद है वह पर्यायार्थिक नग है और जिसमें काल कृत भेद नहीं है वह द्रव्याथिक नय है। ऋजुसूत्र नय से लेकर एवंभूत नय तक पूर्ण पूर्ण नय सामान्य रूप से उत्तरोत्तर नय विशेष रूप से वर्तमान कालव” पर्याय को विषय करते है। पर्यायाथिक नय के अर्थ नय और व्यंजन नय को अपेक्षा दो भेद है। लिग संख्या कारक पुरुष और उपग्रह के भेद से अभेद रूप वर्तमान समयवर्ती वस्तु का ग्राहक अर्थ नय है, और शब्द भेद से वस्तु के भेद को ग्रहण करने वाला व्यजन नय है। ऋजुसूत्र नय ऋजुसूत्र अर्थ नय है । ऋजुप्रंगुणं सूत्रयति सूचयति इति ऋजुसूत्र नयः । ऋजु-सरल' अर्थात् वर्तमान समयवर्ती पर्याय मात्र को ग्रहण करता है वा सूचित करता है वह ऋजुसूत्र नय है । यह नय केवल प्रधान रूप से क्षरण क्षण में ध्वस होने वालो पर्याय को वस्तु रूप से विषय करता है क्योकि भूत पर्याय तो नष्ट हो चुको है और भविष्य पर्याये अभी उत्पन्न नही हुई है इसलिये इनसे व्यवहार नही चलता है अतः यह नय त्रिकालीन द्रव्य को विवक्षा न करके केवल वर्त-- मान पर्याय का ही विषय करता है इस नय को दृष्टि में समस्त पदार्थ क्षण-क्षण में उत्पन्न ध्वंस शील हैं जो नय बाह्य ओर अतरग द्रव्यों का सर्वथा निराकरण करता है । उसे ऋजुसूत्र नयाभास समझना चाहिये । क्यों कि अन्वयी द्रव्य का सनथा निषेध करने पर कार्य कारणपना ग्राह्य ग्राहक पना और वाच्य वाचक पना नही बन सकता है ऐसी दशा में अपने इष्ट तत्त्व का साधन और पर पक्ष का दूषण कैसे बन सकेगा। तथा लोक व्यवहार सत्य और परमार्थ सत्य भी सिद्ध नही हो सकता है और सामानाधिकरण्य विशेष विशेष्य भाव साध्य साधन भाव आवाराधेय भाव सयोग, वियोग क्रिया कारक स्थिति सादृश्य विसदृशता स्वसंतान और पर सन्तान की स्थिति समुदाय मरण बन्ध मोक्ष पाप पुण्य के फल को व्यवस्था नहीं बन सकती। बौद्ध मत सनथा एकान्त क्षणिक वादी है इसलिये मिथ्या दृष्टि है । और सर्मथा कूटस्थ नित्य मान लेने पर भी पदार्थ में अर्थ क्रिया नही होती इसलिये एक नय कार्यकारी नहीं है। इस ऋजुसूत्र नय को ही अर्थ नय कहते है। वस्तुनः स्वरूप स्वधर्म भेदेन भिदोऽर्थनयः वस्तु के स्वरूप का स्वधर्म के भेद से भेद करने वाला अर्थ नय है। अभेद को वा अभेद रूपेण सर्व वस्तु [१०] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुजनो को आज्ञा का उल्लंघन करने वाला पाप का भागी होता है। इयति एति गच्छति इत्यर्यनयः । अभेदक अथवा अभेद रूप से सर्व वस्तु को प्राप्त होता है उसको अर्थ नय कहते है। जय धवल अ१ शब्द पृष्ठतोऽर्थ ग्रहण प्रवणः शब्द नय' लिंग संख्या काल कारक पुरुषोपग्रह व्यभिचार निवत्ति परत्वात् । लिंग सख्या साधनादि व्यभिचार निवृति परः शब्द नयः शपत्यर्थ माह्वयति प्रत्यायति शब्दः । जो नय काल कारक लिग सख्या आदि के भेद से अर्थ को भेद रूप मानता है व्यवहार नय काल कारक के भेद से अर्थ भेद स्वीकार नहीं करता है परन्तु शब्द नय को दृष्टि में यह सुस गत नहीं है। क्योंकि यह नय शब्द की प्रधानता से उसके वाच्यार्थ को भेद रूप मानता है इसलिये इसे शब्द नय कहते है। जैसे इस मानव के विश्व को देख चुका है ऐसा लडका उत्पन्न होगा जो अभी पैदा नहीं हुआ है वह विश्व को कैसे देख चुका है अत अतीत और अनागत का जो सामानाधिकरण्य व्यवहार में जोड़ा जाता है परन्तु शब्द नय की दृष्टि में वह योग्य नही है। इसी प्रकार यह नय लोक व्यवहार और व्याकरण शास्त्र के विरोध की चिन्ता नही करता इसलिये यह नय लिग और कारक के भेद से अर्थ भेद ग्रहण करता है । यदि अतीत काल और भविष्यत मे भेद नही माना जायेगा तो अतीत रावण और भविष्यत् में होने वाला शंख चक्रवर्ती भी एक हो जायेगे । उसी प्रकार पुष्प तारा नक्षत्र आदि में लिंग भेद होने पर भी वैयाकरगा लोग एक ही मानते है अर्थ भेद नही करता है परन्तु शब्द नय भेद करता है यदि लिंगभेद से भेद नही माना जायेगा तो घर कुटी वस्त्र सब एक हो जायेगे। इसलिये शब्द नय कारकलिग आदि के भेद से भेद ग्रहण करता है। समभिरूढ नय नानार्थ समभिरोहणात् समभिरूढः । शब्द भेद से अर्थ भेद मानने वाला नय समभिरूढ है जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्द्र शब्द इस नय को दृष्टि में भिन्न भिन्न अर्थ के वाचक है। अर्थात क्रीड़ा करने से इन्द्र शक्तिशाली होने से शक और पुरो का विदारण करने से पुरन्दर है इस प्रकार यह नय शब्द भेद से एक ही इन्द्र को भेद रूप स्वीकार करता है। शब्द नय तो कारक लिंग से आदि भेद से अर्थ भेद मानता है। पर्याय भेद नही परन्तु यह नय तो प्रत्येक शब्द का भिन्न भिन्न अर्थ मानता है जितने शब्द है उतने ही इस नय के वाच्यार्थ है। एवंभूत नय चेनात्मनाभूतस्ते तैवा व्यवसाय यबीति एवंभूतः । जो पदार्थ जैसा है उसका उसी प्रकार निर्णय करना एवभूत नय है अर्थात शब्द का जो वाच्यार्थ है उस रूप क्रिया परिणत अर्थ ही उस शब्द का वाच्यार्थ हो वह एवभूत नय का विषय है । जैसे जिस समय स्वर्ग का स्वामो इन्दन अर्थात् परमैश्वर्य का अनुभव करता है इस नय की अपेक्षा उसी समय वह इन्द्र कहलाने योग्य है। वह नय क्रिया प्रधान है इसलिये इस नय मे जिस त्रिया में परिणत को उस समय उसी प्रकार कहना इस नय का कार्य है । इन सात नयो में 'नगम सग्रह व्यवहार' यह तीन नय द्रव्यार्थिक है क्यो कि इनमें द्रव्य की प्रधानता [११] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुओ के सदुपदेश से सुमति का प्रादुर्भाव होता है। है जहां कालकृत भेद होता है वह पर्यायायिक नय है । ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ और एवभूत यह चार पर्यायाथिक नय है। क्योकि इनमें पर्याय को मुख्यता है। पर्यायाथिक नय दो प्रकार का है- अर्थ नय और व्यजन नय। नैगम संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र नय अर्थ नय है तथा शब्द समभिरूढ और एवभूत यह व्यजन शब्द नय है। ___ उक्त सात नयों में पूर्ण पूर्व का नय वह विषय वाला है क्योंकि वह कारण रूप है और उत्तर उत्तर का नय अल्प विपय वाला है, क्योंकि वह पूर्व नय का कार्यरूप है । जैसे नैगम और सग्रह नयों में से सग्रह नये वह विपय वाला नहीं है, क्योकि वह नैगम से उत्तर है बल्कि संग्रह से पूर्व होने के कारण नैगमनय ही वह विपय वाला है। सग्रह नय केवल सन्मात्र को ग्रहण करता है किन्तु नैगम नय सत् और असत् दोनों का ग्राहक है, क्योकि जैसी सद्प वस्तु में सकल्प किया जाता है तथा सग्रह से व्यवहार नय अल्प विपय वाला है। क्योकि सग्रहनय तो समस्त सत्समूह का संग्राहक है और व्यवहारनय सद्विशेष का ही ग्राहक है । व्यवहारनय से ऋजुसूत्रनय अल्प विषय वाला है। क्योकि व्यवहारनय त्रिकालवर्ती अर्थ को ग्रहण करता है और ऋजुसूत्र नय वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है। ऋजुसूत्र से शब्दनय अल्प विषय वाला है क्योंकि ऋजुसूत्र कालादि के भेद से अर्य को भेदरूप नही मानता, किन्तु शब्दनय कालादि के भेद से अर्थ भेद मानता है। शब्दनय से समभिरूढ अल्य विषय वाला है, क्योकि शब्दनय तो पर्याय भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को स्वीकार करता है किन्तु समभिरूढ पर्याय भेद से अर्य को भेदरूप स्वीकार करता है समभिरूढ नय से एवं भूतनय अल्प विषय वाला है, क्यों कि समभिरूढनय क्रिया भेद से अर्थ को भेदरूप स्वीकार करता है। नयों के वर्णन दो प्रकार से है एक आगम भापा की अपेक्षा और एक अध्यात्म भापा की अपेक्षा । आगम भाषा की अपेक्षा भी दो भेद है द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक जिनका वर्णन ऊपर कर दिया है यहाँ से आध्यात्मिक की अपेक्षा वर्णन किया जाता है यद्यपि आगम भाषा का वर्णन और आध्यात्मिक भाषा का वर्णन भिन्न-भिन्न नही है केवल कथन मे अन्तर है। पिच्छय ववहारनया मूलमभेद्या पयाण सन्वाएं। पिच्छय साहण हेऊ दन्वय पन्जित्थया मुण्ह ॥ सम्पूर्ण नयों के निश्चय नय और व्यवहारनय यह दो मूल भेद है। निश्चय का हेतु द्रव्यार्थिक नय है और साधन (व्यवहार) का हेतु पर्यायाथिक नय है। क्योंकि निश्चयनय द्रव्य में स्थित है और व्यवहार नय पर्याय में स्थित है। श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने भी समय सार गाथा ५६ को टीका मे "व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रित्वात्" निश्चय नयस्तु द्रव्याधित्वात् । व्यवहार नय पर्याय के आश्रय है और निश्चय नय द्रव्य के आश्रय है अर्थात निश्चय नय का विषय द्रव्य है और व्यवहारनय का विषय पर्याय है : व्यवहारो य पियप्पो भेद तह पज्जओत्ति एयढो गो० जी० व्यवहारेण विकल्पेन भेदेन पर्यायेण" -समयसार गाथा-१२ [१२] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुओ को सगति कल्पवृक्ष के सम्गन मनोवांक्षित फल देने वाली होती है। व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय सब एकार्थवाचो है निर्विकल्प अभेद निश्चय और द्रव्य यह एकार्थ वाची है इसलिये व्यव्हारनय का दूसरा नाम पर्यायाथिक है और निश्चय नय का दूसरा नाम द्रव्याथिक है। अभेद अनुपचार रूप से जो वस्तु का निर्णय करे वह निश्चय नय है । तथा भेद विकल्प सयोग रूप वा उपचार से जो वस्तु का व्यवहार करता है वह व्यवहार नय कहलाता है। आगम भाषा मे द्रव्यार्थिक नय को नैगम सग्रह और व्यवहारनय यह तीन भेद कहे है। आध्यात्म भाषा से द्रव्यार्थिक (निश्चय) नय के मूल दो भेद है-- (१) शुद्ध द्रव्याथिक (२) अशुद्ध द्रव्याथिक । शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद है . (१) कर्म निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय-जैसे इस नय की अपेक्षा समस्त ससारी जीव सिद्धो के समान है क्योकि ससारी और मुक्त जीवो में कर्म को अपेक्षा से हो अन्तर है परम पारिणामिक भाव की अपेक्षा कोई अन्तर नही है। कम्मारणं मझगय जीवं जो गहइ सिद्ध संकासं । भण्णई सो सुद्धपओ खलु कम्मोवाहि पिरवेक्खो ॥ कर्मों के बीच पड़े हुये जीव को सिद्ध समान ग्रहण करने वाला नय कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध नय है। (२) उत्पाद व्ययगौण सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय - यह नय उत्पाद-व्यय को गौण करके केवल सत्तामात्र को ग्रहण करने वाला है । जैसे द्रव्य नित्य है। द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है नित्य अनित्य आत्मक है परन्तु यह नय उत्पाद-व्यय को गौण करके केवल घोव्य को प्रधानता को ग्रहण करता है। अनेकात दृष्टि से इस नय का विषय यथार्थ नही है तथापि एक नित्य धर्म की अपेक्षा सत्य है। (३) भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिक नय-इसकी अपेक्षा गुण-गुणी पर्याय-पर्यायी में अभेद का अभिन्नत्व है । यद्यपि सज्ञा सख्या लक्षण और प्रयोजन को अपेक्षा गुण ओर गुणी मे द्रव्य और पर्याय में भेद है तथापि द्रव्य-क्षेत्र-काल-स्वभाव की अपेक्षा कोई भेद नही है । अनेकात दृष्टि से द्रव्य भेदाभेदात्मक है । परन्तु जो भेद को गौण कर अभेद को मुख्यता से ग्रहण करता है वह भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय के चार भेद है(१) कर्मोपावि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय । (२) उत्पाद-व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय । (३) भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय । (४) अन्वय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय। (१) कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यायिक नय कर्मोपाधि को अपेक्षा सहित अशुद्ध जीव द्रव्य अशुद्ध द्रव्याथिक नय का विषय है। जैसे कर्म-जनित क्रोधादि भावरूप आत्मा है । ससारी जीव अनादि काल से पोद्गलिक कर्मों से धवा हुआ है इसलिए अशुद्ध है । ससारी जीव में कर्मजनित औदयिक भाव निरन्तर होते है और वे [१३ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुजनों को संगति से उत्तम तप की प्राप्ति होती है। भाव जीव के स्वतत्त्व है । इसलिये कर्म-उपाधि अशुद्ध द्रव्याथिक नय को अपेक्षा आत्मा क्रोधादि भाव वाला है। (२) उत्पाद-व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय उत्पाद-व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय एक ही समय में उत्पाद-व्यय-धौव्य तीनो को ग्रहण करने वाला यह नय शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय मात्र घोव्य है । क्यो कि उत्पाद-व्यय पर्याथिक नय का विषय है । द्रव्य का लक्षण सत है और सत् का लक्षण उत्पाद-व्यय धौव्य है इसलिये द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय घोव्य रूप है। किन्तु उत्पाद-व्यय पर्यायाथिक का विषय होने के कारण उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक द्रव्य को अशुद्ध द्रव्य को अशुद्ध द्रव्याथिक नय का विषय कहा है। (३) भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय यह गुण-गुरिणयो में द्रव्य पर्याय मे भेद ग्रहण करता है। प्रात्म एक अखण्ड द्रव्य है। शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा उसमें भेद नहीं है तथापि यह नय ज्ञान-दर्शन आदि गुणों को कल्पना करता है इसलिये अशुद्ध द्रव्याथिक है । (४) अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय-- , समस्त गुण पर्याय और स्वभाव मे द्रव्य को अन्वय रूप से ग्रहण करने वाला नय अन्वय सापेक्ष द्रव्याथिक नय है । जो सम्पूर्ण गुणो और पर्यायों में से प्रत्येक को द्रव्य बतलाता है वह अन्वय द्रव्याथिक नय है । जैसे कड़े आदि पर्यायों में तथा पीतत्व आदि गुणों में अन्वय रूप से रहने वाला स्वर्ण अथवा मनुष्य देव आदि नाना पर्यायों में यह जीव है। यह जीव है ऐसा अन्वय द्रव्याथिक नय का विपय है। स्वद्रव्य ग्राहक द्रव्याथिक नय स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभाव की अपेक्षा द्रव्य को अस्ति रूप से ग्रहण करने वाला नय स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय है । यह नय पर द्रव्यादि की विवक्षा न करके स्वद्रव्य-स्वक्षेत्र स्वकाल और स्वभाव को अपेक्षा से द्रव्य के अस्तित्व को ग्रहण करने वाला है। पर द्रव्य ग्राह्य द्रव्याथिक नय पर द्रव्य पर क्षेत्र-पर काल-परस्वभाव की अपेक्षा द्रव्य नास्ति है। ऐसा वर्णन करने वाला पर द्रव्य ग्राह्य द्रव्यार्थिक नय है। परम भाव ग्राह्य द्रव्याथिक नय ज्ञान स्वरूप आत्मा है । ऐसा कहना परम भाव ग्राह्य द्रव्यार्थिक नय है। क्यों कि जीव के अनेक स्वभाव में से ज्ञानात्मक परम भाव ग्रहण किया गया है। पर्यायाथिक नय के ६ भेद (१) अनादि नित्य पर्यायाथिक नय। (४) नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय । (२) सादि नित्य पर्यायार्थिक नयः। (५) नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय। (३) अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय.। (६) अनित्य अशद्ध पर्यायार्थिक नय । [१४] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुजनो को संगति पाप रूपी मन को दग्ध करती है। www (१) अनादि नित्य पर्यायाथिक नयः जैसे मेरु आदि पुद्गल को पर्याय नित्य है अर्थात् मेरु कुलाचल पर्वत अकृत्रिम जिनबिम्ब जिनालय आदि सब पुद्गल को पर्याय अनादि काल से है । और अनन्य काल तक रहेगी इनका कभी विनाश नही होगा इसलिये यह अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय का विषय है। (२) सादि नित्य पर्यायाथिक नयः जैसे सिद्ध ससार अवस्था को छोडकर सिद्ध हुये इसलिये सादि है, और कभी मोक्ष अवस्था को छोडकर फिर ससार मे लौट कर नही आवेगे इसलिये यह नित्य है और दोनो मिलाकर नित्य पर्यायाथिक नय का विषय है। (३) अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नयः धौव्य को गौण करके उत्पाद-व्यय को ग्रहण करने वाला नय अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है जैसे प्रति समय मे पर्यायो का विनाश होता है ।। (४) नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नयः घौव्य को अपेक्षा सहित द्रव्य को ग्रहण करने वाले नग को नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहा है । जैसे द्रव्य एक समय मे उत्पाद व्यय प्रौव्यात्मक है। (५) नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नयः___कर्म-उपाधि निरपेक्ष द्रव्य को ग्रहण करने वाला नय नित्य शुद्ध पर्यायाथिक है। जैसे-अरिहन्त पर्याय सिद्ध समान है। (६) अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिक नयः इस नय का विपय कर्म उपाधि सापेक्ष स्वभाव है। जैसे ससारी जीवो का नित्य जन्म मरण होता है। इस नय के विषय का नाम निश्चय नय है । क्योकि निश्चय नय शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है । अशद्ध द्रव्याथिक मे अशुद्ध नय और शुद्ध द्रव्याथिक में शुद्ध निश्चय नय गर्भित होता है। व्यवहार नय "भेदोपचार तथा वस्तु व्यवह्रियत इति व्यवहार" भेद और उपचार के द्वारा जो वस्तु का व्यवहार होता है वह व्यवहारनय है। व्यवहारनय का दूसरा नाम उपनय है। अर्थात् जो नयो के समीप रहे उसको उपनय कहते है । उसके तीन भेद है-सद्भूत व्यवहारनय, असद्भुत व्यवहान्नय, उपचरित असद्भूत व्यवहारनय । सजा संख्या लक्षण की अपेक्षा गुण गुणी मे पर्याय पर्यायी में स्वभाव स्वभावी मे कारक कारकी में भेद करने वाला सद्भूत व्यवहारनय है, जैसे-उष्ण स्वभाव है-और अग्नि स्वभावी है-इसमें भेद करना सद्भूत व्यवहारनय का काम है। [१५] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोती दानानुसार फैलती है। अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र समारोप करने वाली असद्भुत व्यवहारनय है। जैसे पुद्गल आदि में जो धर्म है उसका जीवादि में समारोप करना। इसके नी भेद है (१) द्रव्य में द्रव्य का उपचार (८) गुण में द्रव्य का उपचार (२) पर्याय में पर्याय का उपचार (७) गुण में पर्याय का उपचार (३) गुण में गुण का उपचार (८) पर्याय में द्रव्य का उपचार (४) द्रव्य में गुण का उपचार (६) पर्याय में गुण का उपचार (५) द्रव्य में पर्याय का उपचार यह नौ प्रकार का उपचार असद्भूत व्यवहार नय का विषय है। जैसे- (१) पुद्गल में जीव का उपचार अर्थात् पृथ्वी आदि पुद्गल में एकेन्द्रिय जीव का उपचार । (२) दर्पण रूप पर्याय में अन्य पर्याय रूप प्रतिबिंब का उपचार । किसी के प्रतिबिब को देखकर जिसका वह प्रतिबिंब है उसको उस प्रतिबिंब रूप बतलाना । (३) मतिज्ञान मूर्त है-यहां विजाति ज्ञानगुण में विजाति मर्त गुण का आरोपण है। (४) जीव अजीव ज्ञेय अर्थात् ज्ञान के विषयक है। यहां जीव-अजीव द्रव्य में ज्ञान गुण का उपचार है। (५) परमाण बहुप्रदेशी है अर्थात् परमाण पुद्गल द्रव्य में बहुप्रदेशी पर्याय का उपचार है। (६) श्वेत प्रसाद । यहा पर श्वेत गुण में प्रसाद द्रव्य का आरोप किया गया है। (७) ज्ञान गुण के परिणमन में ज्ञान-पर्याय का ग्रहण, गुण में पर्याय का आरोपण है। (८) स्कंध को पुद्गुल द्रव्य कहना, पर्याय में द्रव्य का उपचार है। (8) इसका शरीर रूपवान है। यहाँ पर शरीर रूप पर्याय में "रूपवान" गुण का उपचार किया गया है। मुख्य के अभाव में प्रयोजन वश या निमित्त वश जो उपचार होता है वह उपचरित असद्भूत-व्यवहार नय है। जैसे मार्जार को सिह कहना। यहा मार्जार और सिंह में सादृश्य सम्बन्ध के बिना उपचार नही हो सकता। जैसे चूहे आदि में सिंह का उपचार नही किया जा सकता । वह सम्बन्ध अनेक प्रकार का है। जैसे अविनाभाव सम्बन्ध, सश्लेष सम्बन्ध, परिणाम-परिणामी सम्बन्ध. श्रद्धा-श्रद्धेय सम्बन्ध ज्ञान-ज्ञय सम्बन्ध, चारित्र-चर्या सम्बन्ध इत्यादि । ये सब उप-- चरित असदभूत व्यवहार नय के विषय है । "तत्वार्थ का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है" यह उपचरित असद्भूत-व्यवहार नय का विषय है। क्योकि यहा पर श्रद्धा-श्रद्धेय सम्बन्ध पाया जाता है। "सर्वज्ञ" यह भी उपचरित असद्भूत-व्यवहारनय का विषय है, ज्ञय ज्ञायक सम्बन्ध पाया जाता है। सर्व जो ज्ञेय उनका ज्ञायक सर्वज्ञ होता है। इन नयो के द्वारा वस्तु का स्वरूप जाना जाता है। क्योकि जिनेन्द्र भगवान की तीर्थ प्रवतैना दो नय के आधीन है । एक नय से कार्य को सिद्धो नही होती है। अमृत चन्द्राचार्य ने कहा है: व्यवहार निश्चययौ वा प्रबुद्ध तत्वेन भवति मध्यस्थः। प्राप्नोति देशनायाः स एव फलम विकलं शिष्यः॥ [१६] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मी पुण्यानुसार प्राप्त होती है। जो शिष्य व्यवहार और निश्चय के द्वारा तत्व को जान कर माध्यस्थ होता है वही शिष्य देशना का निर्दोष फल प्राप्त करता है। यदि तू जिन मत में प्रवेश करना चाहता है तो निश्चय व्यवहार दोनो को ही मत छोड । यदि व्यवहार को छोडता है तो तीर्थ का नाश करता है और निश्चय छोड़ता है तो तीर्थ फल का नाश करता है। क्योकि जीवो का अनादि अज्ञान मुख्य कथन और उपचार कथन नय के द्वारा ही दूर हो सकता है। मुख्य कथन निश्चय नय के आश्रित है क्योकि निश्चय नय स्वाश्रित है अर्थात् द्रव्य के अस्तित्व मे जो भाव रहते है उस द्रव्य मे उन्ही भावो का स्थापन करना, अणुमात्र भी अन्य को की कल्पना नहीं करना स्वाश्रित है-इसको ही मुख्य कथन कहते है। इस नय के ज्ञान से शरीरादि परद्रव्य में एकत्व श्रद्धानुरूप अज्ञान भावना का अभाव होकर भेद विज्ञान उत्पन्न होता है तथा समस्त पर द्रव्यो से भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप का अनुभव होता है। पराश्रित कयन को व्यवहार कहते है। इस नय का विषय है किंचित मात्र कारण पाकर अन्य द्रव्य के भावो का अन्य द्रव्य में आरोपित करना । अर्थात् यह नयसयोगी और आगन्तुक भावो का वर्णन करता है। इसलिये यह नय पराश्रित है। पराश्रित कथन को गौण या उपचार कहते है । इस नय के जानने से शरीर आदि के साथ सम्बन्ध रूप ससार दशा का ज्ञान होता है, तथा संसार का ज्ञान होने से संसार का कारण आस्रव बंध का त्याग कर मुक्ति के कारण सवर और निर्जरा में प्रवृति करता है । अज्ञानी जन इसको जाने बिना ही शुद्धोपयोगी होना चाहता है अतः वह व्यवहार को छोड़ देता है और पापाचरण में पड़कर नरकादि में दुःख उठाता है । इसलिये व्यवहार नय के कयन को जानना भी परमावश्यक है। सिद्धान्त मे तथा अध्यात्म में प्रवेश करने के लिये नय ज्ञान बहुत आवश्यक है क्योकि दोनों नय दो आँखे है और दोनो आखों से देखने पर ही सर्वावलोकन होता है । एक आख के देखने से देश का ही अवलोकन होता है जो नय दृष्टि से विहीन है उन्हे वस्तु के स्वरूप का अवबोध नही होता और वस्तु के यथार्थ स्वरूप जाने बिना सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है इसलिये व्यवहार और निश्चय दोनो को जानना चाहिये । जितना अपने विषय को जानने के लिये निश्चय नय उपयोगी है उतना ही व्यवहार नय अपने विषय को जानने के लिये उपयोगी है। अपने-अपने विषय में दोनों ही समान है एक भी हीनाधिक नही है, जो एक-एक नय के विषय को लेकर विवाद करते है अथवा एक को असत्य वा हेय बताकर अवहेलना करते है वह मिथ्या दृष्टि है। वस्तु के स्वरूप से अनभिज्ञ है। यदि एक नय के आश्रित ही वस्तु का स्वरूप होता तो आचार्यों ने दोनों नयों का विषय क्यों कहा है इसलिये सविकल्प अवस्था में दोनों ही उपयोगी है और निर्विकल्प अवस्था में दोनों ही हेय है ऐसा जान कर एकान्तवाद के हठ को छोड़कर ऐसा स्याद्वाद को ग्रहण करना चाहिये। [१७] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या अभ्यासानुसार बढ़ती है। wwwmmmmmmm अनेकान्त -श्री धर्मालंकार पं० हेमचन्द्र जी जैन शास्त्री एम. ए. अजमेरपरमागमस्य जीवं निषिद्ध जाव्यन्ध सिन्धुरभिधानम् । सकल नय विलसिताना, विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ -'अमृत चन्द्राचार्य ' विश्ववंद्य महावीर के सुप्रसिद्ध तीन सिद्धान्तों का नामकरण वर्णमाला के प्रारम्भ अक्षर अकार से होता है १- अहिंसा २- अनेकान्त ३- अपरिग्रह ये तीनों ही सिद्धान्त अपनी महत्ता के लिये विश्व में प्रसिद्ध है। और इनकी उपयोगिता मानव जीवन मे अपरिहार्य है। तीनों का मूल उद्देश्य विश्वैक्य, विचार सामन्जस्य, और सुख सम्प्राप्ति है। अहिंसा जहां सम्पूर्ण चराचर में एकता का सद्भाव पैदा करती है, वहां अनेकान्त समस्त विचारो में सद्भावनात्मक सामञ्जस्य का सृजन करता है। जीवन के प्रत्येक क्षण में अपरिग्रह भाव ही सुख और शान्ति का जनक है । सम्पूर्ण जीवों के प्रति अहिसात्मकभाव, सर्वजन विचार सहिष्णता एवं सग्रहवृत्ति के अभाव से केवल व्यक्तिगत जीवन ही परिपूर्ण नही होता किन्तु समष्टिगत जीवन को पूर्ति को भी यही प्रमुख आधार शिलाएं है। ___भारत एक विचारणा शील देश है । यहां की प्राकृतिक रमणीय स्थली में प्राणिमात्र अपने अपने योग्य भोग्य सामग्री सरलता से प्राप्त कर लेता था। राजा और प्रजा के मघर सम्बन्ध थे। राजा प्रजा का पुत्रवत् पालन करता था और उसकी कर्त्तव्य निष्ठा उसके प्रजाजन की खुशियाली पर ही आंको जाती थी। प्रकृति उन्हे भरपूर देती थी और वे सन्तोष वत्ति से प्रकृति का दोहन कर अपनी सीमित अभिलाषाएं तृप्त कर लेते थे। विचारक दल प्रकृति को गोद में पर्वतगुफा, वन प्रदेश, नदी के कुल, आश्रम आदि शान्त वातावरण युक्त स्थलो में इसी प्रकृति के विभिन्न रूपों का चिन्तन करता था। इन चिन्तको के विभिन्न विचार ही दर्शनों की उत्पत्ति की पृष्ठभूमि थे। जिस जिस तत्व वेत्ता ने जिस जिस दृष्टि से वस्तु को जिस २ रूप में देखा, उनके विचारो का एकीकरण ही भिन्न २ दर्शनों की उत्पत्ति का कारण बना। और परम्परा सिद्ध यही विचारधाराए मतों का रूप ले बठी। षट दर्शनों में यही अपेक्षाकृत दृष्टि आज भी अनेक ग्रन्थो में भरी उपलब्ध होती है। : . दृष्टिभेद नयों का जनक होता है। एक दृष्टि अनेक गुणों का अथवा दृष्टिकोणों का किसी भी मूल्य पर कथन करने की सामर्थ्य नही रखती अतः यह आवश्यक हो जाता है कि विचारक वस्तु के गुणों को क्रमशः जानने या कथन करने का प्रयत्न करे। यदि वह सभी गुणों को एक साथ कहने का प्रक्रम करेगा तो यह उसका कार्य वचन को अशक्तता के कारण कभी भी पार नही पड़ सकता है। उसे अपनी वचन धारा क्रम से ही प्रयुक्त करनी होगी। इस वचन [१८] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि कर्मानुसार होती है। को क्रमिक धारा का नाम ही नय है । जैन दर्शन का अकाट्य सूत्र है जिसमें वक्ता के अभिप्रायः दृष्टिभेद को ही नय कहा गया है, 'ज्ञातुरामे प्रायोनय ।' अथवा "वस्त्वेक देश सग्राही नयः" यह सूत्र भी इसी अभिप्राय को प्रकट करता है। वस्तु के एक अश का कथन करने पर अनेक अश वक्तव्य से अवशिष्ट रह जाते है, उनके न कहने पर वस्तु स्वरूप का पूरा विवेचन नही हो पाता है। जैनाचार्यों ने अनेकान्त युक्त वस्तु की पूर्ण परीक्षा प्रमाण और नय दोनो के ही आधीन मानी है । "अनेकान्त प्रमाण नय साधन" ऐसी आचार्य समन्त भद्र को उक्ति है इनमें 'सकलादेशः प्रमाणाधोनः विकलादेश. नयाधीनः वस्तु स्वरूप को सम्पूर्ण दृष्टि या रूप से विचार करना प्रमाण के अधीन है और विकला देश (एक दृष्टि) नय के अधीन है। उदाहरणार्य 'रसोई शब्द से वाच्य एक ऐसा स्थान है जहा भोजन को अनेक सामग्री तैयार की जाती है। व्यवहार में रसोई का अर्थ मकान विशेष से होता है। परन्तु जब एक व्यक्ति अतिथि को निवेदन करता है कि पधारिये 'रसोई तैयार है भोजन कीजिये। तब अतिथि प्रमाण रूप में विश्वस्त होता है कि उसे भोजन सामग्री का उपभोगकर उदर पूर्ति करना है। न कि रसोई (मकान) का। किन्तु रसोई स्वय अनेक भोजन सामग्री का संग्रह स्थान है। वहा की एक एक वस्तु अलग २ होते हुए भी स्वय का निजी अस्तित्व रखती है। और वह रसोई शब्द में गभित हो जाती है। यह अलग २ दृष्टि नय का रूप लेती है। रमोई सभी सामग्री का जिस प्रकार सग्रह है। उसी प्रकार प्रमाण भी अनेक नयो का संग्रह है। दोनो परस्पर सापेक्ष है, अतएव आचार्यों ने स्पष्ट कर दिया है कि ____ 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु सार्थकृत ।' अर्थात निरपेक्ष नय मिथ्या है और वे ही सापेक्ष होकर वस्तु स्वरूप की सिद्धि करने वाले होते है। फल यह हुआ कि अनेक नयों से सापेक्ष कथन की गई वस्तु प्ररूपणा ही प्रमाण सिद्धि कही जा सकती है एक नयाधीन नही। इसमें यह भी पुष्ट होता है कि न तो प्रमाण ही वस्तु स्वरूप का स्वतन्त्र साधक है और न केवल नय । दोनो का समन्वय ही सत्य निर्णय हो सकता है। _ 'अर्पितानर्पितसिद्धः' इस सूत्र द्वारा नय व्यवस्था को भली प्रकार हृदयगम किया जा सकता है। एक दृष्टि अर्पित (मुख्य) और दूसरी दृष्टि अनर्पित (गौण) से वस्तु तत्व को सिद्धि होती है। जिसे प्रधानता देनी है उस पर प्रधानता का दृष्टि कोण होना चाहिये। उस समय वही प्रमुख है परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नही होना चाहिए कि दूसरी गौण दृष्टि है ही नहीं वह अवश्य है किन्तु उसका कथन गौण है । जिस प्रकार आमका फल अनेक गुणों से युक्त स्वाद है। आम के भक्षण करने वाले से पूछा गया कि यह कैसा है ? (क्योकि खाने वाले की दृष्टि केवल उस आम के स्वाद पर ही है) वह उत्तर देता है कि आममीठा है। उसे उसके रग आकार, वजन आदि से कोई प्रयोजन नही है। प्रश्नकर्ता और उत्तर प्राप्त कर्ता दोनो ही सतुष्ट है। परन्तु क्या यह पूर्णतः सही है। विचारक सोचता है कि आम का पूर्ण रूप तो सामने आया ही नहीं। अभी अनेक विशेषताएं अव्यक्त बनी हुई है। तभी वह उन पर दृष्टि डालता है और सन्देह में पड़कर कहता है कि मेरे वचन की सामर्थ्य आम के सभी गुणो और रूपो को एक साथ [१६] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्र विचार मानव के मन को उज्ज्वल करते हैं । कहने की नहीं है। वस्तु का पूर्ण स्वरूप एक साथ वक्तव्य नही हो सकता। उसे तो क्रमश. हो जाना जा सकता है। क्रमशः जानने पर भी वह उतना ही वक्तव्य बना रहेगा जितना उसे जानने की इच्छा बलवती होगी। निर्णय यह हुआ कि किसी वस्तु के अनेक गुणों या धर्मों को जानने की प्रक्रिया ही अनेकान्त है। वस्तु स्वयं अनेक - अन्त (वर्म) युक्त है और उसका प्ररूपण करने वाले वचन भी अनेक । इसलिए जैन आचार्यों की यह उक्ति पूर्णत: खरी उतरती है कि जाव दिया ताव दिया चेव होत्तिगया। नय वाद के अनेक प्रयोग करने पर भी जब तक उन्हे परस्पर सापेक्ष नही किया जाता है तव तक वस्तु सिद्धि अधूरी है, अपूर्ण है, एकांगी है, वह प्रमाणित नहीं है। उक्त अनेकान्तात्मक वस्तु स्वरूप की कथन शैली का नाम ही स्याद्वाद है। दर्शन के क्षेत्र में अनेकवाद सदा से ही प्रचलित है। परमात्मवाद, जडवाद, नित्यवाद, क्षारिणकवाद, कर्मवाद, भौतिकवाद, अध्यात्मवाद आदि के ऊपर भारतीय धार्मिको ने (दार्शनिकों) अनेकानेक महान तात्विक न थो का प्रणयन किया है जिसमें खण्डन मण्डनात्मक शैली को प्रमुखता है। परन्तु वस्तु स्वरूप को सर्वागीण निदोंप कथन करने वाना स्याद्वाद ही है जिसमें विरोधी धर्मों और दृष्टियों को भी समादर दिया गया है। इसी प्रणाली में दृष्टि भेदाश्रित सप्तभंगी का कथन है । जब किसी वस्तु के कयन को विधि रूप कयन करने का लक्ष्य है तो स्वरूप चतुष्टय से उसे 'अस्ति' कहा जाता है। और उसी को निपेच रूप कयन करने का लक्ष्य है तो परचतुष्टय से नास्ति' कहा जायगा । इस प्रकार अस्ति और नास्ति दो भाग हुए । स्यात (कयचित्) शब्द अन्य विरोधी दृष्टियो को समादर देता रहता है। इसी प्रकार जब विधि और निषेध दोनों को युगवत् कयन करने का उद्देश्य रहा तो वचना सामर्थ्य के कारण वह अवक्तव्य हो गया ये तीसरा स्वतन्त्र भग हुआ। १ स्यादस्ति २ स्यान्नास्ति ३ स्यादवक्तव्य इन मुख्य अगो को क्रमणः एवं युगपत् प्रयोग करने से ४ स्यादस्ति नास्ति ५ स्यादस्यवक्तव्य ६ स्यान्नास्त्यवक्तव्य ७ म्यादस्ति नास्त्यवक्तव्य भगो की सृष्टि होती है। यह सप्तभंगी नय प्रणाली नय सप्तभंगी और प्रमाण सप्तभंगी के कथन से भी प्रयोग में लाई जा सकती है। उक्त सप्तभंगी जैन दर्शन का प्राण है। इसी के कारण से ही नित्यानित्य, एकानेक, भेदाभेद, स्वभाव-विभाव, अस्तिनास्ति अनेक गुणो का सामजस्य न्याय एव सिद्धान्त ग्रन्थो में पाया जाता है जो जैनधर्म की गरिमा का ही परिचायक नहीं है परन्तु विचार सामञ्जस्य एवं समन्वय का मूल कारण है। जैन दर्शन में परस्पर विरोधी अनेक धर्म एकानेक धर्मात्मक वस्तु में सदा प्राप्त हो सकते है। इसमें दुराग्रह को कोई स्थान नही है । अत: जिज्ञासुओ को अनेकान्त प्ररूपणा में सहिष्णता और सामञ्जस्य को प्रमुखता देना चाहिये, नही तो एकान्तवाद का दुराग्रह ज्यों का त्यों बना रहेगा। जो वस्तु स्वरूप विचारणा में महान बाधक है। दुराग्रह का मूल कारण प्रायः स्वमत व्यामोह हुआ करता है । सहिष्णुता विचार-वैमनस्य को दूर करती है । व्यवहार में स्पष्ट देखा जाता है कि एकांगी दृष्टिकोण वाले अपनी ही बात [२०] Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैतिक संस्कार अनंतिक वासनाओ का दमन करते हैं। बात करते चले जाते है । दूसरो के विचारो का उनके यहाँ कोई मूल्य नही है। परिणामतः विरोध का जन्म होता है। उदाहरणार्थ तीन वयस्क छात्राये भिन्न-भिन्न स्कूलो मे पढती थी। एक कान्वन्ट में जो अपनी जन्मदात्री को मदर या मम्मी कहती थी। दूसरी हिन्दी स्कूल में थी जो अपनी प्रसविनी को माता जी कहती थी किन्तु तीसरी गरीब थी जो अपनी मा को अम्मा कहा करती थी सयोगवश ये तीनों एक मेले मे सपरिवार आयी और आपस मे पूछने लगी कि उनको मा आई है या नही । तीनों ने मना कर दिया कि उनकी मा नहीं आई है। कारण तीनों ने अपने-अपने शब्दो को समझ रखा था। उनके ध्यान मे मम्मी माता जी नहीं हो सकती थी और माता जी अम्मा नही हो सकती थी। विवाद बढ गया और किसी एक तीसरी महिला ने, जो तीनो ही शब्दो को एकार्थवाची जानती थी, उनके विवाद को दूर किया। इस तरह भाषा भेद, अभिप्राय भेद, देश-काल भेद नाना प्रकार के विवाद और दुराग्रहो को जन्म देते है। ये विवाद दर्शन के क्षेत्र में ही नही राष्ट्र, जाति समाज और व्यक्ति के रूप में सदा से पनप रहे है। ___ अनेकान्त दृष्टि न होने के कारण एक छोटे से परिवार की जो दुर्दशा हुई वह निम्न उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है । एक सद् गृहस्थ का छोटा सा सुखी परिवार था, जिसमे विधवा माता, उसका बडा पुत्र, पुत्रवधू, छोटा भाई तथा एक छोटा पोता था। छोटा भाई तथा पुत्र दोनो समवयस्क थे । रात्रि में दूध पिलाने का कार्य वृद्धा मा किया करती थी। एक दिन वह बीमार हो गई और उसने अपनी पुत्रवधू को दूध देने के लिये कहा और सो गई। वहू ने देवर और अपने बेटे को बराबर दूध देकर सुला दिया। प्रातः वृद्धा ने अपने बच्चे से पूछा बेटा भावी ने तुझे कितना दूध दिया था। बेटा बोला मुझे भावी ने साधा गिलास दूध पिलाया था। मा के मन में पाप जागा उसने पोते को बुलाया और पूछा । क्यो मुन्न तुम्हे तेरी मा ने कितना दूध पिलाया बच्चा वोला मुझे मेरी मा ने आधा भरा गिलास दूध पिलाया था। यह बच्चे का उत्तर सुनकर वृद्धा जल' गई और घर मे वह कलह हुई कि सवका खाना पीना हराम हो गया। रसोई बन्द पडी रही । बडे भाई ने आकर जब यह सन्नाटा देखा तो वह भी समझ न पाया कि क्या वस्तुस्थिति है। वृद्धा मा अपनी बहू को खरी खोटी सुनाती ही जा रही थी। अन्त मे रहस्य का उद्घाटन हुआ कि मा के मन की कलुषता ने आधे भरे और आधे खाली गिलास का अनर्थ कर डाला। तथ्य यह था कि दोनो ही गिलास में दूध बरावर था। मन के विकार या अभिप्राय विशेष के कारण विरोध व अशात्ति उत्पन्न होती है। विचारक यदि विचार समन्वय का ध्यान रखे तो उसे निश्चित ही दैनिक जीवन में सुख और शाति मिल सकती है। जोवन के प्रत्येक क्षण में सापेक्षवाद, समन्वयवाद, दृष्टिभेद को व्यक्ति कार्य में लेते रहे तो विरोध का शमन अनिवार्य हो हो जाता है । स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा साधारण विचार विरोध ही नहीं विश्व में सुख और शान्ति का अखण्ड साम्राज्य स्थापित किया जा सकता है । स्वामी समन्त भद्र घोषणा करते है अनवद्यः स्याद्वादः ॥ [२१] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' सद् विचार से अन्तद्वन्द शांत हो जाता है। - निमित्त उपादान मीमांसा (श्री विद्या वाचस्पति पं वर्द्ध मान पा० शास्त्री सोलापुर) कुछ लोग निमित्त को कार्यकारी नहीं मानते है, उनकी दृष्टि में उपादान ही करण है। निमित्ति कार्य मे कारण नही बनता है । इस सम्बन्ध में जैनागम का क्या दृष्टिकोण हे ? और जैन आचार्यों का क्या मत है ? इसका विवेचन इस लेख में करने का हमने विचार किया है। सबसे पहिले उपादान और निमित्त कारणो को व्याख्या क्या है उसे समझने का प्रयत्न करे। उपादान कारण जो कारण कार्य रूप में परिणत होता है उसे उपादान कारण कहते है । कार्य रूप में परिणत होने के बाद कारण का काम कारण के रूप में खतम हो जाता है। वह कार्य रूप में बन जाता है। ___उदाहरण के लिए हम यहां पर लोक-प्रसिद्ध दृष्टान्त लेते है। मिट्टी का घड़ा बनाने के लिये मिट्टी की जरूरत है। मिट्टी घड़े का उपादान कारण है। मिट्टी घडे के रूप में परिणत हो जाती है। घड़ा बनने के बाद मिट्टी का कारणत्व क्या करेगा, वह घड़े के कार्य रूप में परिणत हुआ, अतः वह मिट्टी उपादान कारण कहलाती है । निमित्ति कारण उपादान में बलाधान करने के लिये जो सहकारी के रूप में कार्य करता है वह निमित्ति कारण है । इस घड़े के कार्य में कुम्हार, चक्र, दड, पानी आदि निमित्त कारण है, क्योकि इन कारणो ने उस उपादान में उपादानत्व जागृत होने के लिये बलाधान व्यक्त किया, अगर कुम्हार उस मिट्टी को उठाके नही लाता, उसमें पानी नही मिलाता, चाक में उसे नहीं रखता, दण्ड से उसे नही फिराता तो तीन काल में भी वह घड़ा नही बनता, अर्थात् उपादान रूपी मिट्टी पडो रहती तो भी घड़ा नही बनता, उसमें घड़ा बनने की योग्यता उस निमित्तिो के बिना नही हो पाती। . सो दोनों कारण अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण है । 'किसी एक के बिना कार्य नहीं हो सकता है। , न्याय शास्त्रों में कहा गया है कि कार्य करने को शक्ति किसी एक कारण में नहीं है, अनेक समर्य कारणो के मिलने पर ही कार्य होता है । इसलिए केवल उपादान कारण ही कार्य करने के लिए समर्थ है यह कहना उपयुक्त नहीं है। इस विषय का स्पष्ट समर्थन आचार्य समत भद्र ने किया है बाहोतरो पाधि समग्रतेमं, कार्येषु ते द्रव्य गतः स्वभावः । नैवान्यथा मोक्ष विविश्च पुंसां, तेनाभिवंद्यस्त्वमषिव॒धानाम् ।। [२२] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग द्वेष रूपी विष--बन का बीज मोह है। बाह्य कारण (निमित्त) व अभ्यतर कारण (उपादान) इन दोनों की पूर्णता होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है । जिस प्रकार मिट्टी का घडा अपने को तैयार करना है। उसमे मिट्टी उपादान कारण है। क्योकि उसमे घडे के रूप में परिणत होने की योग्यता है । इसी प्रकार बहिरग कारण कुमार चक्र, दड, पानी बगैरह है । इन दोनो की पूर्णता होने पर ही घडा बनने रूपी कार्य होता है। फिर उस कार्य में बिलब नही लगता है । हे भगवन् । यह दोनों ही कारण द्रव्य का ही स्वभाव है, ऐसा आपने कहा है। इन दोनो कारणो को पूर्णता से ही कार्य होता है। यहा पर दूसरा उदाहरण लीजिये - जिस प्रकार बोरे में रखे हुए उडद में पकने की शक्ति है । परन्तु जब तक आग, पानी लकडो आदि बहिरग कारण नही मिलते है । तब तक वह शक्ति व्यक्त नहीं हो सकती है। एक विशेष जाति के मूग में पकने की शक्ति भी नहीं है बाह्य सर्व सामग्री मिलने पर भी उसमें पकने को शक्ति नही है । सो वह पक नही सकेगा। दोनो कारणो में समर्थता होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है । अत केवल उपादान से या निमित्त से कार्य नही होता है, दोनो कारणो के मिलने पर ही कार्य होता है । आचार्य ने यहा पर दोनो कारणो को द्रव्यगत स्वभाव वतलाया है। इसलिये एक ही कारण पर्याप्त है, दूसरा कारण अकिचित्कर है इस कथन का भी कोई अर्थ नहीं है। इस विषय को ग्रन्थकार ने और भी स्पष्ट किया है। इस प्रकार बाह्य और अभ्यतर, निमित्ति और उपादान दोनो को कार्य मे कारण नही मानोगे तो मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा। क्योकि मोक्ष भी वाह्य और अभ्यतर कारणो का लकर ही होता है। मोक्ष में अभ्यतर कारण, मोक्ष प्राप्ति की योग्यता है। और बाह्य कारण दीक्षा लेना, तपश्चर्या करना, महाव्रत धारण करना, रत्नत्रय को पूर्णता करना, ध्यान की सिद्धि करना आदि है, इन दोनो कारणो को पूर्ति में ही मोक्ष रूपी कार्य होता है। अगर दीक्षा लेना बगैरे निमित्त कारणो के बिना ही मुक्ति होना माना जाय तो आगम विरोध होगा। इसलिए दोनों कारणो की पूर्ति मे ही मोक्ष की सिद्धि होगी। इन दोनो कारणो को पूर्ति एव सामर्थ्य भव्य में ही प्रगट होती है । अन्यथा अभव्य को भी मुक्ति प्राप्त हो जाती। दूसरी बात तद्भव मोक्षगामी निश्चित रूप से मोक्ष को जाने वालो के लिए दीक्षा लेना, घ्यान, चारित्र आदि की आवश्यकता नही पडती, वे तो अपनी योग्यता से मोक्ष जाने वाले ही है। फिर वे दीक्षा आदि क्यो लेवे । इससे मालुम होता है कि कार्य करने मे उपादान में जैसे योग्यता है उसी प्रकार निमित्त कारण में भी उसमें सहकार्य करने को शक्ति है। परन्तु तीर्थकर आदिको को भी मुक्त, होने की योग्यता होने पर भी बाह्य कारणो -- दीक्षा, तपश्चर्या आदि निमित्तो को मिलाना पडता है । उसके बिना त्रिकाल मे भी मोक्ष रूपी कार्य होना सभव नही है। इससे विषय बहुत स्पष्ट हो जाता है, आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में "तन्सिर्गा वधि गमाद्वा" इस सूत्र को व्याख्या करते हुए लिखा है कि- " उभयत्र सम्यग्दर्शने अतरगो हेतु [२३] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय रूपी सेना का राजा मोह है। mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm स्तुल्यो दर्शन मोहस्यो पशमः क्षयः, क्षयोपशमो वा । तस्मिन्सति यत् बाह्योपदेशाइते प्रादुभवति तन्नैसर्गिकम्, यत्परोपदेशपूर्वक जीवा अधिगम निमित्त स्यात् तदुत्तरम्" निसर्गज सम्यग्दर्शन और अधिगमज सम्यग्दर्शन दोनो में अन्तरग कारण (उपादान कारण) दर्शन मोहनीय कर्म का क्षयोपशम, क्षय, अथवा उपशम है । उसके होने पर बाह्य उपदेशादि के अभाव में जो होता है वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है, जो परोपदेश पूर्वक जीवादि अधिगम निमित्त को पाकर होता है वह अधिगमज है । अर्थात् दोनो कारणो को लेकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। पूज्यपाद ने अनेक स्थानों पर सम्यग्दर्शन के वाह्य व अभ्यंतर कारणो का विवेचन किया सम्यग्दर्शन के साधन का विवेचन निर्देश स्वामित्वादि सूत्र मे किया है। साधन का अर्थ उत्पत्ति निमित्त है। वे लिखते है कि "साधन द्विविधम्, आभ्यतर बाह्य च आभ्यतरम् दर्शनमोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा, बाह्य नारकारणों प्राक् चतुर्थ्या सम्यग्दर्शनस्य साधन केषाचिज्जातिस्मरण, केषाचिद्धर्मश्रवण, केषाचिद्वदनामिभवः, चतुर्थोमारभ्य आसप्तम्या नारकाणा जातिस्मरणं, वेदना मिभवश्च तिरश्चां केषाचिज्जातिस्मरण, केपा च धर्मश्रवण केषांचित जिनविम्ब दर्शनम् मनुष्याणामपि तथैव, देवानां, केषाचित्जातिस्मरण, केषाचिद्धर्मश्रवणम् केषाचित् जिनमहिमा दर्शनं, केषांचित् देवद्धि दर्शनम् एवं प्रागानतात् आनत प्राणता रणाच्युत देवाना देवद्धि दर्शन मुक्त्वा अन्यत् त्रितयमप्यस्ति नव वेयक वासिनां केषाचिज्जातिस्मरण केषाचित् धर्म श्रवणम्, अनुदिशानुत्तर विमान वासिना मिद कल्पना न सभवति, प्रागेव गृहीत सम्यक्त्वानां तमोत्पत्तेः" साधन दो प्रकार के है, एक आभ्यतर, दूसरा बाह्य । दर्शन मोहनीयका उपशम, क्षय, अथवा क्षमोपशम आभ्यंतर कारण है । बाह्य कारणो में नारकियों को चौथे नाक से पहिले पहिले बाह्य कारण किसी को जाति स्मरण है, किसी को धर्म श्रवण है किसी को वेदना की तीव्रता है । चौथे नरक से आगे सातवे नरक तक किसी को जाति स्मरण व किसी को वेदना की तीव्रता है। तिर्यञ्चों में वाह्य कारण किसो को जाति स्मरण, किसी को धर्म श्रवण वा किसी को जिन बिंबका दर्शन होना है। मनुष्यो को भी बाह्य साधन इसी प्रकार है । देवों में किसी को जाति स्मरण, किसी को धर्म श्रवण, किसो को जिन महिमा दर्शन और किसी को देवों के ऋद्धतिशय को देखना है । इस प्रकार आनत स्वर्ग से पहिले है । आनत प्राणतारण अच्युत स्वर्ग में देवऋद्यतिशय को छोड़कर अन्य बाह्य कारण पाये जाते है। नव वेयक वासियो में किसी को जाति स्मरण और किसी को धर्म श्रवण बाह्य कारण है । अनुदिश अनुत्तर विमान वासियों में यह बाह्य अभ्यतर कारणों की कल्पना नही हो सकती है क्याकि पहिले से सम्यक्त्व को प्राप्त करके ही वहा पर उत्पन्न होते है। इससे और भी विषय स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के लिये ही उपादान [२४] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकारी विस को सन्पग्बान रूपी अमृत को पार से शान्त करना चाहिए। एक है व निमित्ति कारणो की आवश्यकता पड़ती है,. उन दोनो कारणो के बिना कार्य नही होता है। इस विषय का समर्थन आचार्य कुद कुद ने भी अपने ग्रन्थ में किया है सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं नस्सनाणमा पुरिसा। अंतर हेवो भडिया दंसण मोहस्स खय पहुदी ॥ -नियमसार सम्यक्त्व उत्पन्न होने के लिए बाह्य (निमित्त) कारण दो है। एक तो जिनवाणी का स्वाध्याय और जिनागम के ज्ञाता उपदेशक आचार्य आदि । सम्यक्त्व उत्पत्ति का अतरगकारण दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम है। इस प्रतिपादन मे आचार्य कुद कुद देव ने निमित्त पद को देकर निमित्त कारण को स्वीकार किया है। एक ही उपादान कारणत्व नही यहा पर यह भी समझने की आवश्यकता है कि एक पदार्थ में एक ही उपादान शक्ति या गुण नही है। उसमे निमित्त को पाकर विभिन्न रूप से परिणमन करने की शक्ति है । अगर यह नही माना जाय तो पदार्थों में अनत धर्मों का अस्तित्व स्वीकार नही किया जा सकता है । अनत धर्म द्रव्य मे अगर न हो तो अनेकात की सिद्धि नही हो सकती है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान दर्शनमय है, वह किसी भी अवस्था मे ज्ञान दर्शन का परित्याग नही करता है। तथापि आयु कर्म को निमित्तता पाकर वह कभी नारकी बनता है और कभी तिर्यच बन जाता है। और कभी देव व मनुष्य, यदि आयु कर्म को निमित्तता स्वीकार नही की जाये तो उस जीव में अन्यान्य पर्याय नहीं बन सकती है। एक ही पदार्य अगर पड़ा रहा तो गल, सडकर चला जाता है। उसे पानी में डाल रखें तो ताजा हो जाता है । अगर उसे इतर रूप रग दिया जाय तो खुलकर दिखता है। एक ही द्रव्य का उपयोग अनेक रूप से कर सकते है। इसमें निमित्त ही कारण है। इस निमित्त को नही मानने का क्या कारण है ? उसका एकमात्र कारण यह है कि निमित्त में कार्यकारिता या सहकारिता स्वीकार करने पर उपादान को पूर्ण शक्तिमान् सिद्ध करने मे आपत्ति आती है । एक द्रव्य अन्य द्रव्य के ऊपर असर नहीं करता है इस सिद्धान्त में भी बाधा आती है। परन्तु प्रत्यक्ष में देखा जाता है कि एक द्रव्य अन्य द्रव्य पर असर करता है। जीव जीव का उपकार करता ही है, पुद्गल भी जीव का उपकार करता है । हर एक द्रव्य का हर एक द्रव्य के साथ उपकार सभव होता है। उस प्रकृति को इनकार नही करना चाहिए। दूसरी बात केवली ने अपने ज्ञान से देखा उस प्रकार होता ही रहेगा, निश्चित रूप से होगा, फिर निमित्त कारण को मान कर अन्यथा रूप में परिणत होने की प्रक्रिया को क्यो माना । जाय? इस भय के मारे निमित्त कारण को ही उडाने की बात सोचना उचित नही है। ... Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग द्वेष से व्याप्त हृदय में समता रूपी लक्ष्मी प्रवेश नहीं करती। केवली भले ही अपने ज्ञान से जीव के या द्रव्य के भवितव्य को देखें, परन्तु वस्तुत्व का परिणमन उपादान व निमित्त से हो जाय तो उसमें कोई हानि नहीं है। केवली ने उस परिणमन को उसी प्रकार देखा है। उन्होने उपादान को भी देखा है, निमित्त को भी देखा है। इसमे आपत्ति क्या है ? निमित्त निमित्त का कार्य करता है। उपादान उपादान का कार्य करता है ऐसा मानने में क्या हानि है ? निमित्त उपादान का कार्य करता है ऐसा कोई नही मानते है । अथवा उपादान निमित्त का कार्य करता है ऐसा भी कोई नही मानते है। ऐसी स्थिति में अपनी अपनी जगह दोनो को महत्व दिया जाय तो क्या हानि हो सकती है? निमित्त यदि अकिचित्कर है। कार्य करने में उसका कोई भाग नही है तो उसकी उपस्थिति क्यो चाहिये, उपादान में कार्य प्रवण की योग्यता के समय वह निमित क्यों उपस्थित होता है ? इन प्रश्नो का उत्तर हमारे निमित्त विरोधी वन्धु नहीं दे सकते हैं। आचार्य परम्परा के विरुद्ध सिद्धान्त का प्रचार क्यों किया जाय ? स्वकपोल' कल्पना के लिये जैनागम परम्परा में कोई स्थान नहीं है । इतना ही नहीं वह अनुष्ठान भी पाप मय है। दर्पण पर धूल जमा हुआ है दर्पण अन्दर से स्वच्छ है । अर्थात् उसका उपादान उसके साथ ही है । तथापि धूल जमने के निमित्त से अपने उपादान को प्रकट नहीं कर सकता है। धूल को पोंछने पर वह दर्पण स्वच्छ होकर मुख को दिखा सकता है। उस दर्पण में उपादान के होने पर भी निमित्त के कारण से उपादान की शक्ति जागृत नहीं हो रही थी, और प्रतिबंधक निमित्त के हटने पर एव कार्यकारी निमित्त के प्रकट होने पर उपादान ने कार्य किया । यह स्पष्टतः हमें दिखता है। पेट्रोल समाप्त होने पर गाड़ी नहीं रुकी पेट्रोल मोटर के चलने में सहायक है । गाड़ी चलने मे वह निमित्त है। पेट्रोल के समाप्त होने पर भी गाड़ी अपने आप रुकती है। चलने रूप उसको क्रिया नही हो सकती है। परन्तु इसे घुमाकर फिराकर यह कहना कि पेट्रोल समाप्त होने पर गाड़ी नही रुको, गाड़ी को रुकना था इसलिए पेट्रोल समाप्त हो गया, इस शब्द की कसरत में क्या अर्थ है। लोक प्रसिद्ध बात तो यही है कि निमित्त के अभाव में नैमित्तक द्रव्य अपने कार्य को नही करता है। जो लोग निमित्त को स्वीकार न करते हुये या निमित्त को स्वीकार करते हुए भी उसके कार्य को स्वीकार नहीं करते है वे लोगों को पुरुषार्थ होन बनाते है। जब भी जिस देश में जिस काल में जो कुछ भी भवितव्य होगा,हागा ही, उसके लिये प्रयत्न करने को क्या आवश्यकता है ? मानव उसके लिये जो प्रयत्न करता है, अपने कार्य को सिद्ध के लिए निमित्तो को मिलाये रहता है, वह भूल करता है। सब कुछ उपादान से ही होवेगा। ऐसी मान्यता दैववादी को हो सकती है। पुरुषार्थवादी इसे स्वीकार नहीं कर सकता है। [२६] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशा रूपी बडवानल समता रूपी जल से शांत होता है। ' यहा पर मरीचि कुमार का उदाहरण दिया जाता है, मरीचिकुमार को महावीर भगवान् ही होना था, सो यथा समय होना था, परन्तु इस बात का विचार नही करते है कि मोक्ष कार्य के लिए जो निमित्त चाहिए थे वह मरीचि या अन्य भवो में नहीं मिल सके। फिर उपादान में जागति कैसे होती ? सिह के भव में उपादान को जागृति के लिए निमित्त मिले, उन निमित्तो से उस जीव ने अपना कल्पण किया। सिंह की पर्याय मे हरिण के ऊपर आक्रमण करने को जाना, और उस समय अजितजय व अमितजय मुनियो का आगमन, उनका उपदेश यह सब उस जीव के उपादान की जागति के लिए निमित्ति है, उन निमित्तो के मिलने पर उस जीव का उद्धार हुआ, नही तो इससे पहिले क्यो नही हुआ? इससे ज्ञात होता है कि निमित्तो के मिलने पर ही उपादान की शक्ति जागृत होती है । आत्मा को किसने रोक रखा है ? ___आत्मा शुद्ध है, बुद्ध है, निष्कलक है, ज्ञानस्वरूप है, ऐसी स्थिति में उसकी मुक्ति क्यों नही होती है ? उसे किसने यहा पर रोक रखा है । यदि एक द्रव्य का असर अन्य द्रव्यो के ऊपर नही होता हो तो, निमित्त कुछ भी बनाता बिगाडता न हो तो, उसे मुक्ति जाने मे क्या आपत्ति है, उसे न कोई रोक सकता है, और न किसी दूसरे द्रव्य से वह रोका ही जा सकता है । परन्तु कहा जाता है कि कर्मों ने इस आत्मा को ससार में रोक रक्खा है। कर्मों के निमित्त से आत्मा बवन से बद्ध हो जाता है। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के निमित्त से आत्मा को कर्मों का आस्रव और आस्रव के बाद बन्ध उदय व सत्वकी व्यवस्था होती है । इसे गोम्मटसार मे नेमिचन्द्र सिद्धान्त चत्रवति ने कहा है। इसी प्रकार मोक्ष मार्ग प्रकाशक में श्री प० टोडरमल जी ने इसका विवेचन करते हुये लिखा है कि "कर्म और आत्मा का प्रवाह रूप से अनादि सम्बन्ध है । परन्तु नवीन कर्म सयोग होने व पुराने कर्म के वियोग होने को अपेक्षा कर्म और आत्मा का सादि सम्बन्ध है । जहा तक मुक्ति न हो वहा तक तेजस शरीर और कार्भण शरीर का सम्बन्ध साथ-साथ रहता है । तेजस शरीर बिजली का शरीर है, वह कर्मण शरीर के कार्य मे अवश्य सहायक रहता है। निरर्थक नही होता है। तेजस शरीर मे भी नवीन तैजस वर्गणाये आकर मिलती है। पुरानी झड़ती जाती है। जगत मे अनेक प्रकार के पुद्गल स्कध परमाणुओ के मिलने से बनते रहते है। उन्ही को वर्गणा कहते है। उन्ही वर्गणाओ में से एक कर्म वर्गणा है । इन कर्म वर्गणाओं को आत्मा के साथ सयोग कराने में व सयोग को बनाये रखने में कारण योग और कषाय है।" इन पक्तियो से बिषय कितना स्पष्ट होता है ? तैजस स्वतन्त्र शरीर है, कार्मण स्वतन्त्र शरीर है, कार्मण शरीर के कार्य में वह तैजस शरीर सहायक क्योकर होता है ? तैजस वर्गणाओं से तैजस शरीर बनता है और कामण वर्गणाओ से कार्मण शरीर बनता है। फिर एकमेक में सहायता कैसी? इसी प्रकार औदारिक, वैत्रियक व आहारक शरीर के निर्माण में विघटन मे कर्म [२७] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' जिसकी दृष्टि निर्मल है उसको दीपक की जरूरत नहीं है। निमित्तता हैं या नही? यदि है तो निमित्त को स्वीकार करने मे क्या आपत्ति है ? यदि नही है तो सिद्धान्त विरुद्ध कथन कैसे मान्य होगा?' प्रकृति आदि बंधो का लक्षण करते हुए आचार्य स्पष्टतः कहते है - पयडि ठिठदि अणुभाग ,प्पदेस चउ विहो बंधो। ... . जोगा वडिपदेसा ठिदि अणु भागा कसाय दो होति ।। vi. 'बंध'चार प्रकार के होते है । प्रकृति बध, स्थिति बंध, अनुभाग बध और प्रदेश बंध । मन वचन काय रूपी योग के निमित्त से प्रकृति और प्रदेश बंघ होता है। स्थिति और अनुभाग कषाय के निमित्त से होते है। '..,आत्म प्रदेश का परिस्पदंन योग के लिए निमित्त है। योग प्रकृति स्थिति के लिए निमित्त है। यदि मन वचन काय रूपी योग न हो तो आस्रव ही नही हो सकता है। प्रकृति और प्रदेश बध न हो तो स्थिति और अनुभाग बघ किन कर्म परमाणुओ का होगा ? जरा सूक्ष्म दृष्टि से विचार कीजिये। आत्म प्रदेशो का परिस्पदन का नाम ही योग है । इसमें काय योग कारण पड़ता है। घचन योग कारण पडता है, और मनोयोग भी निमित्त पड़ता है। उस निमित्त के भी निमित्त है। काय की उत्पत्ति में अतरग निमित्त तो ,वीर्यातराय कर्म का क्षयोपशम है। परन्तु वाह्य निमित्त औदारिकादि सप्त विधि काय वर्गणानो में किसी एक काय के भी निमिति से आत्म प्रदेशो में परिस्पदन जो होता है वह-काय योग है। इसी प्रकार वचन के लिए अंतरंग निमित्त शरीर नाम कर्म के उदय के निमित्त से होने वाली वाग वर्गणा है। वीर्या तराय मत्यक्षरा आवरण होने पर बाह्य से वाक् प्रवृति में परिणत मात्मा का प्रदेश परिस्पद वाक् योग है। इसी प्रकार मनो योग में अभ्यतर निमित्त वीर्या तराय नो इन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम एव बाह्य निमित्त मनोवर्गणा के संचय से विचार परिणत आत्म प्रदेश का परिस्पंदन मनोयोग है। . . . : . अर्थात् इन तीनो योगो में बाह्य और अंतरंग निमित्त का उल्लेख आचार्यों ने किया है। जब योग के द्वारा प्रकृति प्रदेश का बंध होता है तब उन कर्म प्रकृतियों की स्थिति बंध जाती है, वह कर्म प्रकृति आत्मा के साथ कितने काल तक रहने वाली है इसका निर्णय हो जाता है । दीर्घ काल तक रहने वाली है या अल्प काल तक रहने वाली है ? इसका निर्णय कि निमित्तक होगा? आचार्य ने वही उत्तर दिया है, स्थिति व अनुभाग बंध कषाय से होते है। इसमें कषाय निमित्त है। [२८] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध रूपी अग्नि संघन रूपी बगीचे को नष्ट कर देती है। कषाय को अधिक तीव्रता से अधिक स्थिति पडती है, कषाय को मदता से स्थिति न्यून प्रमाण मे पड़ती है। इसी प्रकार कषायो की तीव्रता से अनुभाग बध मे पाप रूप रस भाग अधिक पडता है, कषायो की मदता से अनुभाग बघ मे पाप रूप रस भाग की म्यूनता होती है। पुण्य रूप रस भाग की अधिकता होती है। इसमे भी कषायो की निमित्तता है। बाह्य निमित्ति एक ही प्रकार के कार्यों का निर्माण नही करते है । निमित्ति जिस प्रकार के भी मिलते है उसी प्रकार का कार्य भी हुआ करता है। आस्रव में जीवाधिकरण भी कारण है, अजीवाधिकरण भी कारण है । जीवाधिकरण से होने वाले आस्रव मे अधिक तीव्रता हो सकती है। अजीवाधिकरण से होने वाले प्रास्रव में मदता हो सकती है । किसी मनुष्य का प्रत्यक्ष वध करने में एवं उसके फोटो के वध करने में बडा अन्तर है। हाथी को साक्षात् मारने में एव हाथी के चित्र को मारने में अन्तर हो सकता है। परिणामों में भी अन्तर हो सकता है । कषायों की तीव्र मदता में अन्तर हो सकता है। किसी सुन्दरी स्त्री को प्रत्यक्ष देखने में जो सम्मोहन व आकर्षण हो सकता है, उतना आकर्षण किसी सुन्दर चित्र को देख कर नही हो सकता है, क्योकि मोह के निमित्त में अन्तर है। जैसे-जैसे निमित्त मिलते है उसी प्रकार के परिणाम होते है। परिणामों के सक्लेश व विशुद्धि मे भी बाह्य निमित्ति कारण पडते है, सो निमित्ति को उपेक्षा एकदम कैसे की जा सकती है ? इसलिए इसे स्वीकार करना चाहिये कि आत्मा कर्म के निमित्त से यहा पर रुका हुआ है, उपादान उसका कितना ही प्रवल क्यो न हो, परन्तु निमित्त कर्म उससे भी अधिक बलवान है। उसे भूलकर हमे नही जाना चाहिए। ज्ञानावरणादि कर्मो के निमित्त से अज्ञान, अदर्शन, अचारित्र, असयम, विविध रूप, निदित कुल, श्रेष्ठ कुल, जाति, उच्च गोत्र, नीच गोत्र, कार्य में सुकरता एव कार्य में दुष्करना आदि अनेक प्रकार की बाते होती है। यह सब कार्य के निमित्त से हो होते है। कर्म बलवान है। परमात्म प्रकाश में योगिदु देव ने कहा है कि कम्मई दिढ-घण-विक्कणईगरुवई वज्जसमाई। णाणवियक्खणु जीवडउ उप्पहिषाडहिं ताई ॥ यह ज्ञानावरणादि कर्म बहुत बलवान् है। जिनका नाश करना दुःसाध्य है। वे कर्म चिकने है, भारी है, एव वज्र के समान कठिन है। बुद्धिमान् जीव को भी अधः पतन के गर्त में वे डालते है। कम्माई बतियाई, बतियो कम्मादु पत्थि कोइ जगे। सव्वे बलाइ कम्मं मवेदि हत्तीव णाविणिवणम् ॥ -मूलाराधना जगत में सबसे बलवान् कर्म ही है। उससे बढकर कोई बलवान् नही है। जैसे हाथी कमल वन को मर्दित करता है उसी प्रकार कर्म सर्व प्रकार की शक्ति को मदित करता है। [२६] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधान्ध मानव का हृदय विवेक शून्य हो जाता है। इसमें भी कर्म के उदय को बलवान् समझकर उसको निमित्तता स्वीकार की गई है। कर्म के बिना प्रात्मा को रोकने वाला इस ससार में कौन है ? ___कोई कोई मिथ्यात्व के कारण रुका हुआ है ऐसा कहते है । परन्तु वह मिथ्यात्व क्या है ? इसका भी विचार करने पर निमित्त को स्वीकार करना ही पड़ता है । निमित्त कुछ नही करता है यह कहते हुए भी सारे ससार का निमित्त कर्म ही है इसे स्वीकार करना पड़ता है। कर्म के निमित्त से ही देव नारको, मनुष्य, तिर्यच पर्याय की प्राप्ति होती है। इसमें गति और आयु कर्म ही निमित्त है। आचार्य कुदकुद कहते हैं कि कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण बिज्जदे उवसमं वा। खइयं सवोव समियं तम्हा भावं हि कम्म कयम् ।। कर्मों के विना इस जीव के उदय, उपशम, भय एव क्षयोपशम आदि नही होते है । इस लिये जीव भाव कर्म कृत है । अर्थात् कर्म के निमित्त से होते है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भाव प्राभृत में स्पष्ट किया है कि जिणवर चरणांबुरुहं णमंति जे परम भत्ति रायेण । ते जम्म वेछि मूलं खरणंति वरभाव सत्तेण ॥१५१॥ जो परम भक्ति रूपी राग से जिनेद्र के चरण कमलों को नमस्कार करते है वे (उस निमित्त से) उत्तम भाव रूपी शस्त्र से जन्म रूपी लता को मूल से उखाड़ देते है। यहां पर ससार को नाश करने वाली जिनेद्र भक्ति कही गई है। यदि अन्य निमित्त जिनेद्र भक्ति, समवसरण, दिव्य ध्वनि आदि हमारा कुछ भी उपकार नही करते है तो उनकी निमित्तता को स्वीकार क्यो करना चाहिये? पात्र दान, संयम, तपाराधना वगैरे से क्या प्रयोजन है ? महर्षि कुदकुद ने श्रावक व मुनियों के कर्तव्य को विभक्त किया है दाणं पूजा मुक्खं सावय धम्मे ण सावया तेण विणा । झाणाज्झयणं मुक्खं जइ घम्मे तं विणा तहा सोवि ॥ - रयणसार श्रावक धर्म में दान पूजा मुख्य है। श्रावक धर्म को पवित्र बनाने के लिए इनकी आवश्यकता है। अगर ये कर्तव्य न हो तो वह श्रावक नही कहलाता है। ध्यान व अध्ययन यति धर्म में मुख्य है । यति धर्म को सुसस्कृत करने के लिए ध्यान व अध्ययन कारण है। उसके बिना वह यति नही बन सकता है। . [३०] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोष नरक रूपी गड्ढे में गिराने वाला है। ___इस कर्तव्य निर्देश का भी यही अर्थ है कि वह गृहस्य या त्यागी इन कार्यों के निमित्त से ही अपने-अपने पद मे सफलता प्राप्त करता है। मुक्त जीव भी निमित्त से शून्य नहीं है । जब कर्मो को सर्वथा क्षय करके मुक्ति को यह जीव जाता है तब वह ऊर्ध्वगमन का स्वभाव होने पर भी लोकाग्र भाग तक ही जाता है। वहा से आगे नही जाता है। इसका कारण आचार्य उमा स्वामी ने यह बताया कि "धर्मास्तिकायाभायात्" क्योंकि उसमे आगे गतिपरिणत जीव पुद्गलो को गमन करने मे सहकारी (निमित्त) धर्म द्रव्य नहीं है । अत वह मुक्त जीव आगे गमन नही करता है। प्रश्न-वह तो मुक्त जीव परमात्मा बन गया, सर्व शक्तिमान् है, उसे धर्म द्रव्य क्यों कर रोक सकता है ? उत्तर-सर्व शक्तिमान् का यह अर्थ नहीं है कि वह वस्तुस्वरूप को हो बदल देवे, उस हालत में वह जीव अजीव हो सकता है, अजव जीव हो मकता है, वह आग को ठण्डी कर सकेगा, पानी का स्वभाव गरम हो जायगा । यह सर्व शक्तिमान् का अर्थ नहीं है। द्रव्य के स्वभाव व शक्ति को अपने-अपने स्थान में स्वीकार करना ही चाहिए। अत धर्मास्तिकाय के अभाव में वह जीव आगे गमन नही करता है, यह निश्चित है। तीर्थकर, केवली श्रुन केवलो के पादमूल में कुछ समय रहने पर ही क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति क्यो होती है ? क्याकि उपादान तो उस जीव मे पहिले से ही विद्यमान है। वह निमित्त है। मुक्ति प्राप्त करने के लिए उत्तम महनन व उत्तम सस्थान की आवश्यकता क्यो है ? उत्तम कुल मे (क्षत्रियो में) तीर्थकर क्यो पैदा होते है ? मुक्ति के साधक सयम को त्रिवर्णोत्थ गृहस्थ ही क्यो धारण करते है ? विरक्ति होने के वाद वाह्य वस्तुओ का त्याग क्यो करना चाहिए? दिगम्बर अवस्था को धारण करना क्यो आवश्यक है ? परिणामो मे निर्मम वृत्ति को धारण करना पर्याप्त है । परन्तु दिगम्बर रूप को धारण किये विना किसी भी अवस्था मे मुक्ति नही हो सकती है। ऐसे एक नही. अनेक प्रमाणो को उपस्थित कर सकते है जिनके विना वह कार्य होही नही सकता है । इससे कार्य की उत्पत्ति मे उपादान जिस प्रकार आवश्यक है निमित्त भी उसमें सहकारिता के लिए आवश्यक है। ___ मोक्ष के लिए यह जीव नाना प्रकार का पुरुपार्थ करता है। सवेग को भावना, निर्वेद का प्रयोग, वस्त्र त्याग, विधि पूर्वक दीक्षा ग्रहण, महाव्रतो का पालन, समितियो का धारण, इन्द्रियो का निरोध, षडावश्यक क्रियाओ का अनुष्ठान, एक भुक्ति, भक्तिपाठ, अचेलक्य, केशलोच आदि क्रियाओ को क्यो पालन करना चाहिये ? यदि इनसे हमारी भलाई व बुराई का कोई सम्बन्ध नही है तो इनके आचरण की क्या आवश्यकता है ? मालूम होता है आत्मा के भवितव्य का सम्बन्ध इन सदाचरणो से है, ये सदाचरण आत्मोद्धार में निमित्त पडते है । इससे आत्म विशुद्धि होती है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय रूपो विषम प्रह जीवों को स्थिर नहीं रहने देता। . . इसलिए आचार्य विद्यानदि ने अष्ट सहस्री में स्पष्टतः कहा है कि "मोक्षस्यापि परम पुण्यातिशय-चारित्र विशेपात्मक पौरुषाभ्यामेव सभवात्" मोक्षकार्य भी परम पुण्य अतिशय रूप चारित्र विशेष के कारण ही सिद्ध होता है। वह पौरुष ही उसके लिए निमित्त है। पुण्यातिशय आदि सर्व सर्वथा कर्म रूप है तो वह मोक्षकार्य मे कारण क्यो माना गया है। उपादान न होने पर भी वह निमित्त या सहकारी कारण अवश्य है। कुछ लोग कहते है कि अन्य द्रव्य अन्य द्रव्य के परिणमन में निमित्त वन नही सकता है। परन्तु आचार्य उमा स्वामी ने एक द्रव्य दूसरे द्रव्य पर क्या उपकार करता है, इसका विवेचन तत्वार्थ सूत्र के ५ वे अध्याय में किया है। जब आचार्य स्वयं मानते है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य पर उपकार करता है, अपकार करता है तो आपको स्वकपोल कल्पना का क्या अर्थ है। मद्य के द्वारा मुर्छा आती है। काटा चुभने से वेदना होती है, कर्मों के द्वारा संसार परिभ्रमण होता है, यह जब हम प्रत्यक्ष में देखते है तो उसका निषेध क्यों किया जाता है। ___ शायद यह इसलिए कहा जा रहा है कि सर्व पदार्थों की परिणति नियत देश, नियत काल में अपने आप होती है, उसमें कर्म कुछ ही परिवर्तन नही करता है। यह कहना सत्य नहीं है। पदार्थों की परिणति नियत भी होतो है, अनियत भी होती है। कोई निमित्त कारण के उपस्थित होने पर कर्म के उदय में भी अनियत व्यवस्था आती है। इसे सिद्धान्त को जानने वालो ने स्वीकार किया है । तप से निर्जरा होती है, वह निर्जरा सविपाक भी होती है, अविपाक की होती है, इसका विचार करे । अकाल मरण क्यों ? आयुवभाग में भुज्यमान आयु को यह जीव वाचता है तो वीच में ही आयु खतम होने का कोई कारण नहीं है, उसे नियत पूर्ण आयु को भोग कर ही जीवन समाप्त करना चाहिए, परन्तु लोक मे अकाल मरण भी देखा जाता है। उदाहरण के लिए किसी जीव ने ८० वर्ष की आयु का बध किया, बीच में किसी सभा से लौटते समय ३० वर्ष की अवस्था में उसका मोटर से एक्सीडेन्ट हुमा। मरण हुआ, अर्थात् यह अकाल मरण है, सकाल मरण नही है। सकाल मरण तो आयु की स्थिति पूर्ण होने पर ही हो सकता था। बीच में ही आकस्मिक कारण से हुआ, इसलिये इस अकाल मरण कहते है, यह सभव होता है। किसी ने घड़ी को चावी दी, उस चाबी के निमित्त से वह २४ घण्टे तक वह घडी निर्धास्त होकर चलेगी, परन्तु स्प्रिंग में बिगाड़ हो जाय तो वह घडी बीच में कुछ घण्टो में ही बद भी हो सकती है । उस बिगाड़ के निमित्त से उसका बीच में बंद होना संभव हो सका। दूसरा उदाहरण लीजिए:-एक घडा पानी किसी को देकर यह कहा कि २४ घटे के लिए यह पानी आपके सर्व कार्यों के लिये पर्याप्त है । बीच में ही इधर उधर जाते हुए वह घड़ा लुढ़क गया तो एक दम पानी समाप्त हो सकता है या नही ? विचार करे। |३२) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोष रूपी अग्नि को शान्त करने के लिये क्षमा अद्वितीय नदी है। अजी | वह तो अकाल मरण ही नही, सकाल मरण है। क्योकि केवली ने उसे उसी प्रकार देखा है। केवली उसे किस प्रकार देखते है यह यहा प्रश्न नही है, उसकी परिभाषा केवली के दर्शन से नही हो सकती है। वह यथार्थ में सकाल' मरण है या अकाल मरण है। इसका निर्णय होना चाहिये। ___आयु कर्म के बध में ही निश्चित हो जाता है कि एक एक समय मे आयु का एक एक निषेक उदय में आवेगा और खिरेगा, यदि वह ८० वर्ष तक समयावच्छेद रूप से खिरता रहेगा जो वह जीव उस पर्याय में पूर्णायष्य को प्राप्त कर पर्याय का परिवर्तन करेगा। यदि बीच में ही कोई दुरुपयोग हो गया, आकस्मिक घटना घटी तो बीच मे हो उसका मरण होता है, उसे अकाल मरण कहते है। इस अकाल मरण को स्वीकार न करने वालो से आचार्यों ने प्रश्न किया है कि यदि अकाल मे मरण होता ही न हो तो विपभक्षण, वेदना की तीव्रता, रक्तक्षय, गिरिपात, समुद्रपात आदि से तुम डरते क्यो हो ? टायफाईड की बीमारी होने पर डाक्टरो के घर क्यो ढूढते हो? यदि आयुष्य होगा तो मरेगा ही नहीं, आयु वही समाप्त होने का योग हो तो मरेगा ही, फिर प्रयत्न की क्या आवश्यकता है? देखा जाता है कि अकाल मरण से बचाया जा सकता है, सकाल मरण से बचाने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए औषधि आदि का उपयोग (निमित्त) अकाल मरण को दूर करने मे सहकारी सिद्ध होता है, अत निमित्त का मानना आवश्यक है। ____ इसे नही मानेगे तो द्रव्य क्षेत्र काल भाव का क्या अर्थ होगा? कार्यकारण भाव कैसे सिद्ध होगा? यदि केवल उपादान कारण या द्रव्य की योग्यता से कार्य होता हो तो इतर अनेक कारण जो लोक में पडे है जिनके होने से कार्य होता है, जिनके न होने से कार्य नही होता है, उनका क्या होगा? आचार्यों ने निमित्त कारण को सर्वत्र स्वीकार किया है। कही कही उपादान का नाम ही निमित्त कहा है । हरिवंश पुराण मे आचार्य जिनसेन कहते है कि. निमित्तमांतरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता । बहिनिश्चय कालस्तु निश्चित स्तत्व दििभः । द्रव्य को योग्यता अभ्यतर निमित्त है। बाह्य निमित्त काल द्रव्य है। इस प्रकार तत्व दशियो ने निश्चय किया है । अर्थात् बाह्य व अभ्यतर निमित्त की आवश्यकता है, यह स्वीकार किया गया है। इसलिए जीव को हर प्रकार से अपने परिणामो के बनाने बिगाड़ने वाले कर्मों की निमित्तता को स्वीकार करना हो चाहिए। आचार्य कुदकुद समयसार की गाथा ८० में कहते हैजीव परिणाम हे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गल कम्म णिमित्तं तहेव जीवो विपरिणमदि ॥५०॥ [३३] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा संघम रूपी बगीचे की रक्षा करने के लिये सुदृढ़ बाढ़ है। . जीव के परिणामो को कारण बनाकर पुद्गल कर्मत्व को प्राप्त करते है। पुद्गल कर्मों को निमित्त बनाकर जोव भी उसी प्रकार परिणमन करता है। इस गाथा में आचार्य ने ससारी जीव के परिणाम को उन पृद्गल परमाणुओ को कर्म रूप में परिण मन करने के लिए कारण बताया है। इसी प्रकार उन पुद्गल कर्मों के निमित्त को पाकर जीव भी अपना परिणमन उस रूप में करता है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के परिणमन में किस प्रकार कारण होता है इसे स्वयं कुदकुद देव ने स्वीकार किया है। ___ आस्रव तत्व को जिस प्रकार कुदकुद ने स्वीकार किया है, उसी प्रकार अन्य आचार्यो ने प्रतिपादन किया है। इसमें कोई मतभेद नही है, ऐसी स्थिति में इसमें निमित्त नैमित्तिक भाव को नही मानना, निमित्त को अकिचकर मानना यह एक स्वतंत्र मत को प्रचलित करने का प्रयास है, अनेक मिथ्यामतो के समान यह भी व्यर्थ माना जावेगा। आस्रव व बंध तत्व की न्यूनाधिकता को व्यवस्था में भी अतरग व बहिरंग कारण माने गये है। आचार्य समंतभद्र इस सबध मे कहते है कि दोषावरणयोहानिः निश्शेषा स्यातिशायनात् । क्वचिद्यया स्वहेतुभ्यो बहिरन्तमलशयः ॥ किसी जीव में दोष व आचरण का अभाव पाया जाता है। उसमें विशुद्धि या हानि पाई जाती है । गुण स्थानों के क्रम से भावो में जो विशुद्धि पाई जाती है। उन सब का कारण बाह्य व अभ्यतर दोष का नाश है। प्रत्येक कार्य में बाह्य व अभ्यतर कारण होते है। स्वामी समतभद्र के इसी अभिप्राय का आचार्य अकलक एवं महर्षि विद्यानन्दि ने अपने प्रथों में समर्थन किया है। ऐसी स्थिति में इस कयन में आचार्य परपरा के आशय का भी ध्यान रखना चाहिये। आचार्य पूज्यपाद सवार्थसिद्धि में उपयोग का लक्षण करते हुए कहते है कि उमय निमित्त वशादुत्पद्य मानश्चैतन्मानु विद्यायी परिणाम उपयोग., बाह्य व अभ्यतर निमित्त के कारण से उत्पन्न होने वाले चैतन्य अनुविद्यायी परिणाम का नाम उपयोग है। आचार्य अकलंक देव ने राजवार्तिक में इसी को समर्थन करते हुये कहा है कि बाह्याभ्यंतर हेतु द्वय सन्निधाने यथा सभवम् उपलब्ध चैतन्यानु विद्यायी परिणाम उप योगः, अर्थात् बाह्य व अभ्यतर दोनो हेतुवो के प्राप्त होने पर यथासभव आत्म परिणाम का नाम उपयोग है । इसी प्रकार क्रिया का लक्षण करते हुये आचार्य अकलक ने निरूपण किया है। ___ "उभय निमित्ता पेक्ष पर्याय विशेषो द्रव्यस्य देशांतर प्राप्ति हेतु क्रिया"। अंतरंग बहिरंग के निमित्त की अपेक्षा रखकर द्रव्य के देशातर प्राप्ति में कारण विशेष या पर्याय विशेष क्रिया कहलाती है। . [३४] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपम ही पमरान का नाश करने के लिए समर्थ है। इसलिए एक नही, दो नही, हजारो स्थानो में इस प्रकार का उल्लेख मिलेगा कि उपादान के साथ निमित्त भी काम करता है। निमित्त उपादान को कार्य करने में कारण स्वीकार न करे तो जैन सिद्धान्त का ही अन्त हो जायेगा, मोक्ष की प्राप्ति भी जीव को नहीं हो सकेगी । पचास्तिकाय की गाथा नम्बर ५ की टीका में स्पष्ट कहा गया है "रागादि दोष रहितः शुद्धात्मानुभूतिसहितो निश्चय धर्मों यद्यपि सिद्धगतरूपादानं कारणं भव्यानां भवति तथापि निदान रहित परिणाम उपार्जित तीर्थंकर प्रकृत्युत्तम संहननादि विशिष्ट पुण्य रूप कर्मापि सहकारिकारणं भवति ।" यद्यपि भव्यो को रागादि दोष रहित शुद्धात्मा के अनुभव से युक्त निश्चय धर्म सिद्ध गति के लिए उपादान कारण है, फिर भी निदान रहित निर्मल परिणाम, तीर्थकर प्रकृति, उत्तम संहनन, विशिष्ट पुण्य आदि सहकारी कारण होते है। इससे विषय बहुत स्पष्ट हो जाता है। अपने कार्य की सिद्धि के लिए उपादान व निमित्त (उपादान में सहकारी) दोनो कारणों को मानना आवश्यक है, यह वस्तु स्थिति है। वस्तु स्थिति को कोई बलात्कार से नही भी माने तो वह द्रव्य अपने स्वभाव के अनुसार अन्तःबाह्य कारणो से कार्य करेगा ही। अग्नि को कोई गरम माने या न माने वह भाग तो स्पर्श करने पर जलायेगी ही, उसे कोई शक्ति रोक नही सकती है। ordin 3 शास्त्र का लक्षण जो जीवों का हितकारी हो, जिसका हो न कभी खण्डन । ) जो न प्रमाणो से विरुद्ध हो, करता होय कुपथ खण्डन ।। वस्तु रूप को भली-भांति से, बतलाता हो जो शुचितर । X कहा आप्त का शास्त्र वही है, शास्त्र वही है सुन्दरतर ॥ तपस्वी या गुरु का लक्षण विषय छोड़ कर निरारम्भ हो, नही परिग्रह रखे पास । X ज्ञान, ध्यान, तप में रत होकर, सब प्रकार की छोडे आस ॥४ ऐसे ज्ञान, ध्यान, तप भूषित, होते जो साँचे मुनिवर । " वही सुगुरु हैं, वही सुगुरु है, वही सुगुरु है उज्ज्वलतर ॥ (6) RECEDEKDEREDEEDEDEOS DDDDDDDD NEEDDEDEKDEOS [३५] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी प्राणी मोह निद्रा के कारण प्रमाद रूपी पिशाच के आधीन है। से है ? ॥जैन-सिद्धान्त ।। (जीव और कषाय सम्वन्धो संक्षिप्त प्रश्नोत्तर) (१) जीव द्रव्य किसे कहते है ? जिसमें चेतना गुण पाया जाये उसको जीव द्रव्य कहते है। (२) एक जीव कितना बड़ा है ? एक जीव प्रदेश की अपेक्षा लोकाकाश के बरा बर है, परन्तु संकोच विस्तार के कारण अपने शरीर के प्रमाण है। (३) लोकाकाश के बराबर कौन मोक्ष जाने से पहिले समुद्घात करने वाला सा जीव है ? जीव लोकाकाश के बराबर है। मूल शरीर को छोड़े विना जीव के प्रदेशों के बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। (४) जीव के अनुजीवी गुण कोन । चेतना, सम्यक्त्व, चारित्र, सुख, वीर्य, भव्यत्व, अभव्यत्व, जोवत्व, वैभाविक, कर्तृत्व, भोक्तृत्व वगैरह अनंत गुण है। (५) जीव के प्रति जीवी गुण कौन अव्यावाध, अवगाह, अगुरु लघु, सूक्ष्मत्व, नास्तित्व इत्यादि। (६) जीव के कितने भेद है ? दो है-संसारी और मुक्त । कर्म सहित जीव को संसारी जीव कहते है। कर्म रहित जीव को मुक्त जीव कहते हैं। (७) कषाय किसे कहते है ? क्रोध, मान, माया, लोभ रूप आत्मा के विभाव परिणामों को कषाय कहते हैं। (८) कषाय के कितने भेद है ? सोलह। अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । (E) नो कषाय के कितने भेद है ? नव-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद। [३६] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN . HE . .. " चन्द्र सागार स्थति यह म "NASE तृतीय खण्ड .. . HT नित्य पाठ संग्रह Pa0 ALI MAnkar AAAAMAN AMITARAN / - Page #106 --------------------------------------------------------------------------  Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ne ॥ श्री ॥ जैन नित्य पाठ संग्रह श्री महावीर जिनेन्द्राय नमः हुण्डावसर्पिणि काले-पंचमेः ॥ वीर संवत् २४५२ फाल्गुन शुक्ले २ रविवासरे प्रातः काले हा कलाके पूर्व भाद्रपद नक्षत्रे लेखन प्रारम्भ करिष्याम्। श्री श्री १०८ दिगम्बर जैन चतुसंघाधिपति कुन्दकुन्दाचार्य मूल संघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण आचार्य रत्न श्री शान्तिसागर महाराज तत्पदसेवी शिष्य "ऐल्लक चन्द्रसागर," लिखितः स्वपठणार्थ गुरूउपदेशे। . 影響業樂業籌繼榮藥業業競業業 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओं नमः सिद्धेभ्यः। ओं नमः सिद्धेभ्यः ॥ ओं नमः सिद्धेभ्यः ॥ AM even=|| मंगलाचरण = ओंकारं बिंदु संयुक्त नित्यं ध्यायति योगिनः।। कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः ॥१॥ अविरलशब्दघनौघ प्रक्षालित सकल भूतलकलंका । मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतुनो दुरितं ॥२॥ अज्ञान - तिमिरांधानां ज्ञानांजन - शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवेनमः ॥३॥ परमगुरवे नमः, परंपराचार्य गुरवे नमः । सकल कलुषविध्वंसकं श्रेयसः परिवर्द्ध धर्मसंबंधकं भव्यजीव प्रतिबोध कारकमिदं शास्त्रं श्री पुण्य प्रकाशकं पापप्रणाशनं.........'नामधेयं । अस्य मूलग्रंथ कर्तारः श्री सर्वज्ञदेवास्तत्प्रयुत्तर ग्रंथकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधर देवास्तेषां वचोऽनुसारतामासाद्य श्रीमदाचार्य एन विरचितं । श्रोतारः सावधानतया शृण्वंतु । मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुंदकंदाद्यो जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रसागर-स्मृति ग्रन्थ 0 ॐ तृतीय खण्ड ® विषय-सूची क्रम सं० विषय पृष्ठ सं० क्रम सं० विषय १ सुप्रभात स्तोत्रम् ... ५ | २० विषापहार स्तोत्रं ... ४४ २ दृष्टाष्टक स्तोत्रम् ६ | २१ जिन चतुर्विशतिका ३ अद्याष्टक स्तोत्रम् २२ सामायिक भाषा ४ नमस्कार मंत्राः ... २३ सामायिक पाठ ५ तीर्थकर नाम २४ कल्याणा लोचनां ६ श्री पंच परमेष्टीस्तोत्रम् २५ ईर्यापथ शुद्धि '७ श्री गोमटेशाष्टकम् ... २६ प्रतिक्रमण ८ श्री वीतराग स्तोत्रम् ... | २७ चौबीस तीर्थकरांची स्तुति... ९ अध्यात्माष्टकम् २८ सिद्ध भक्तिः १० श्री महावीराष्टक स्तोत्रम् ... १४ | २९ श्रुत भक्तिः ११ श्री सरस्वती स्तोत्रम् ... १५ | ३० चारित्र भक्तिः १२ श्री सरस्वती स्तोत्रं (द्वितीय) १६ | ३१ योगि भक्तिः १३ श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम् ... | ३२ आचार्य भक्तिः १४ श्री अकलंक स्तोत्र ... । ३३ पंचगुरु भक्तिः १५ चैत्य वंदना प्रारम्भ ... ३४ तीर्थकर भक्तिः १६ श्री जिन सहस्र नाम स्तोत्रं | ३५ शान्ति भक्तिः १७ भक्तामर स्तोत्रम् ... ३४ | ३६ समाधि भक्तिः १८ कल्याण मंदिर स्तोत्रम् ... ३८ | ३७ चतुः दिशि वन्दना १९ एकोभाव स्तोत्रम ४२ । ३८ निर्वाण भक्तिः Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० ... २०३ क्रम सं० विषय पृष्ठ सं० क्रम सं० विषय ३६ नंदीश्वर भक्तिः ८६ | ५७ आत्म संबोधन ४० चैत्य भक्तिः ... ९१ | ५८ यति भावनाष्टकम् ... २०७ ४१ बृहत्स्वयम्भू स्तोत्रम् ... ९५ | ५९ सर्वज्ञ स्तवनम् ... २०९ ४२ द्वादशानुप्रेक्षा | ६० शलाकानिक्षेपण निष्काशन ४३ तत्त्वार्थ सूत्रम् ... ११४ । विवरणं ... २१० ४४ कल्याण माला ६१ योगसारः ४५ वैराग्य मणि माला ... ६२ सिद्धान्त सारः ४६ विविध भक्ति पाठ्य-वेला... ६३ कर्मबन्धादि यंत्रः ४७ बृहद् द्रव्य संग्रह ... ६४ गणित-ज्योतिष ४८ लघु तत्वार्थ सूत्र ... १४९ ६५ नक्षत्र विचार ४९ जिन-बिम्ब निर्मापणं विधि १५१ | ६६ श्री समाधि मरण ५० समयसार के अंतिम सवैया ६७ समाधि मरण ५१ चर्चा शतक ६८ वैराग्य भावना ___... २६६ ५२ मुनि दीक्षा विधि ... ६६ बारह भावना ५३ उपाध्याय पद दान विधि ... ७० निर्वाण काण्ड भाषा ५४ आचार्य पद स्थापना विधि... ७१ बाईस परीषह ... २७२ ५५ श्री गौतम स्वामी स्तवन ... ७२ सिद्ध स्वरूप ५६ करुणाष्टकं ... २०२ । Sammely myhi [४] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रसागर स्मृति ग्रन्थ तृतीय खण्ड भूल सुधार | पृष्ठ पंक्ति |४ १७ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध प्रिन्ट ६ १८ ।, पुण्याञ्जलि १० १६ मष्टमोदराप्रब १० १८ भिख ११ २४ खावनाय श्रुत बादि मोत्या वस्त्रे २१ सर्वागभूषल मत्तवप्तितवने शुद्ध शब्द पुष्पाञ्जलि मष्टमीघराग्रज मिद्ध खंडनाप श्रुत वादि मोक्त्या ६१ ११ ६ १७ बन्ने अशुद्ध पिन्ट मगाव अगाष शास्त्र शास्त्रः भद्रमुत्तय भद्रमुक्तये नियक्ष तिर्यक्षु पावममो पापमयो श्रीमत्यवित्र धीमत्पवित्र सर्वत्र सर्वज्ञ निचित मनुसनं निचित मनुसम श्रद्धान एषवहित एषवहति तपोऽमावितानम् तपोमयभावितानम तपतुं तपतु त्रितपेऽहदाज्ञाः विपतेऽहंदानाः योगिशास्ताऽहं योगिरणांस्तानह १५ सर्वांगभूषित मत्तवपिन्हवने करम्है पद्य २१ २६ सुप्रतिष्ठे प्रशमसोयुवे सायिका नंतोय परमेष्टिने परमेष्टी ब्रह्मनिष्टः महोदका नन्न विभुतचिन्त्य सुपतिष्ठ शशो सूकरा शशी २६ १५ सकरो अचरप ३६ २ २ क्यो वो पसममीयुषे क्षायिका नतोप परमेष्ठिने परमेष्ठी ब्रह्मनिष्ठः महोदको नन: १०० १४ विभुमचिन्त्य १० १० २६ उच्चर भवति ૧૦૪ ૨૪ पा तार को भवतो ११३ २४ तद्भुवन १५८ ७ मालिताह प परं नान्तु नाप्नु ३६ ३७ ३८ १९ १४ १२ बात्वा वृष्टिमः वात्या वृष्टिभिः ४० भवित पचं तारको भवता तभुवन शालिताह २० परिमाध्य मोवारीकोय परिभाव्य वैक्रियक ४३ ६ Page #112 --------------------------------------------------------------------------  Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनको आत्म बल पर विश्वास नहीं है वह संसार को पार नहीं कर सकते है। श्री: श्री परमात्मने नमः सुप्रभात स्तोत्रम् । यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवजन्माभिषेकोत्सवे । यदीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिलज्ञानप्रकाशोत्सवे ॥ यनिर्वाणगमोत्सवे जिनपतेः पूजाद्भुतं तद्भवः। संगीतस्तुतिमंगलैः प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सवः ॥१॥ श्रामन्नतामरकिरीट मणिप्रभा। भिरालीढ पादयुगदुर्धरकर्मदूर ॥ श्रीनाभिनन्दनजिना जितशंभवाख्य। त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततंमम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचलचामर वीज्यमान । देवाभिनंदनमुने सुमते जिनेन्द्र ।। पद्म प्रभारुणमणि ति भासुरांग । त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन् सुपार्श्व कदलीदलवर्णगात्र । प्रालय तारगिरिमौक्तिक वर्णगौर ।। चंद्रप्रभस्फटिक पाण्डुर पुष्पदंत । स्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ संतप्तकांचनरुचे जिनशीतलाख्य । श्रेयान्विनष्ट दुरिताष्टकलंकपंक ॥ बंधूकबंधुररुचे जिनवासुपूज्य । त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उदंडदर्पकरिपो विमलामलांग । स्थेमन्ननंत जिवनंत सुखांबुराशे ॥ दुष्कर्मकल्मष विवर्जित धर्मनाथ । त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ वेवामरीकुसुमसन्निभ शांतिनाथ । कुन्थो दयागुण विभूषण भूषितांग ॥ देवाधिदेव भगवन्नरतीर्थनाथ । त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥७॥ यन्मोहमल्लमद भंजनमल्लिनाथ । क्षेमंकरा वितथशासन सुनताख्य ॥ यत्संपदा प्रशमितो नमिनामधेय । त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततंमम सुप्रभातम् ॥८॥ तापिच्छगुच्छरुचिरोज्ज्वल नेमिनाथ । घोरोपसर्गविजयिन् जिनपार्श्वनाथ ॥ . स्याद्वाद सूक्तिमणि दर्पणवर्द्ध मान । त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ प्रालेयनील हरितारुण पीतभासं । यन्मूर्तिमव्यय सुखावसथं मुनीन्द्राः॥ ध्यायंतिसत्पतिशतं जिनवल्लभानां । त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततंमम सुप्रभातम् ॥१०॥ [५] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य पाप के कारण निज परिणाम ही है। सुप्रभातं सुनक्षत्रं मांगल्यं परिकीर्तितम् । चतुर्विशति तीर्थानां सुप्रभातं दिने दिने ॥११॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं श्रयः प्रत्यभिनंदितम् । देवता ऋषयः सिद्धाः सुप्रभातं दिने दिने ॥१२॥ सुप्रभातं तवैकस्य वृषभस्य महात्मनः । येन प्रवर्तितं तीर्थ भव्य सत्त्व सुखावहम् ॥१३॥ सुप्रभातं जिनेन्द्राणां ज्ञानोन्मीलित चक्षुषाम् । अज्ञान तिमिरांधानां नित्यमस्तमितो रविः ।१४॥ सुप्रभातं जिनेंद्रस्य वीरः कमल लोचनः । येन कर्माटवी दधा शुक्ल ध्यानोग्रवह्निना ॥१५॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं सुकल्याणं सुमंगलम् । त्रैलोक्य हित कर्तृणां जिनानामेव शासनम् ॥१६॥ इति सुप्रभातस्तोत्रम् समाप्तम अथ दृष्टाष्टकस्तोत्रम् पृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि, भव्यात्मनां विभवसंभव भूरिहेतुः । दुग्धाब्धिफेनधवलोज्ज्वलकूटकोटि, नद्धध्वज प्रकरराजिविराजमानम् ॥१॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भुवनकलक्ष्मी, धाद्विद्धित महामुनिसेव्यमानम् । विद्याधरामर वधूजन मुक्तदिव्य, पुण्याञ्जलिप्रकरशोभितभूमिभागम् ॥२॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवनादिवासु, विख्यातनाकगणिका गणगीयमानम् । नानामणि प्रचयभासुररश्मिजाल, व्यालीढनिर्मल विशालगवाक्षजालम् ॥३॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं सुरसिद्धयक्ष, गन्धर्व किन्नरकरापित वेणुवीणा । संगीत मिश्रितनमस्कृत धीरनादै, रापूरिताम्बर तलोरुदिगन्तरालम् ॥४॥ दृष्टं जिनेन्द्र भवनं विलसद्विलोल, मालाकुलालिललितालकविभ्रमाणम् । माधुर्य वाद्यलय नृत्यविलासिनीनां, लीलाद्वचललय नूपुरनादरम्यम् ॥५॥ [६] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराधीनता के स्वर्ग से स्वाधीन कुटिया श्रेष्ठ है । दृष्टं जिनेन्द्रभवनं मणिरत्नहेम, सारोज्ज्वलैः कलशचामरदर्पणाद्यः। सन्मंगलः सततमष्टशतप्रभेद, विभ्राजितं विमलमौक्तिकदामशोभम् ।।६॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं वरदेवदार, कर्पूरचन्दन तरुष्कसुगन्धि धूपः । मेघायमानगगने पवनाभिघात, चञ्चच्चल द्विमलके तनतुंगशालम् ॥७॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं धवलातपत्र, च्छायानि मग्नतनु यक्षकुमारवृन्दैः । दो धूयमानसितचामरपंकिभासं, भामंडल युतियुत प्रतिमाभिरामम् ॥८॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं विविधप्रकार, पुष्पोपहार रमणीय सुरत्नभूमि । नित्यं वसंततिलकश्रियमादधानं, सन्मंगलं सकलचन्द्रमुनिन्द्रवन्धम् ॥६॥ दृष्टं मयाद्य मणिकाञ्चनचित्रतुंग, सिहासनादिजिनविम्बविभूतियुक्तम् । चैत्यालयं यदतुलं परिकीतितं मे, सन्मंगलं सकलचन्द्रमुनीन्द्रवन्धम् ॥१०॥ इति दृष्टाष्टकस्तोत्रम् सम्पूर्णम् अथाद्याष्टकस्तोत्रम् । अद्य मे सफलं जन्म, नेत्रे च सफले मम। त्वामद्राक्षं यतो देव, हेतुमक्षयसम्पदः ॥१॥ अद्य संसारगम्भीर, पारावारः सुदुस्तरः । सुतरोऽयं क्षणेनैव, जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥२२॥ अद्य मे क्षालितं गात्रं, नेत्रे च विमले कृते । स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥३॥ अद्य मे सफलं जन्म, प्रशस्तं सर्वमंगलम् । संसारार्णवतीर्णोऽहं, जिनेन्द्र तव दर्शनात् ।।४॥ अद्य कर्माष्टकज्वालं विधूतं सकषायकम् । दुर्गविनिवृतोहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥५॥ अद्य सौम्या ग्रहा सर्वे,शुभाश्चकादश स्थिताः । नष्टानि विघ्नजालानि,जिनेन्द्र तव दर्शनात्।।६॥ अद्य नष्टो महाबन्धः, कर्मणां दुःखदायकः । सुखसंगमसमापन्नो, जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥७॥ [७] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथनी और करनी में जमीन आसमान का अन्तर होता है। अद्य कर्माष्टकं नष्टं, दुःखोत्पादनकारकम् । सुखाम्भोधिनिमग्नोऽहं, जिनेन्द्र तब दर्शनात्॥८॥ अद्य मिथ्यान्धकारस्यहन्ता, ज्ञानदिवाकरः। उदितो मच्छरीरेऽस्मिन्, जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥९॥ अद्याहं सुकृतो भूतो, निर्धू ताशेषकल्मषः । भुवनत्रयपूज्योऽहं, जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥१०॥ अद्याष्टकं पठेद्यस्तु, गुणानन्दितमानसः । तस्य सर्वार्थसंसिद्धि, जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥११॥ इति अद्याष्टकस्तोत्रम् सम्पूर्णम् (०) अथ नमस्कार मंत्राःom णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरीयाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सन्वसाहूणं ॥१॥ मन्त्रं संसारसारं त्रिजगदनुपमं सर्वपापारिमन्त्रं, संसारोच्छेदमन्त्रं विषमविषहरं कर्मनिर्मूलमन्त्रम् । मन्त्रं सिद्धि प्रदानं शिवसुखजननं केवलज्ञानमन्त्रं, मन्त्रं श्रीजैनमन्त्र जप जप जपितं जन्मनिर्वाणमंत्रम् ।।२।। आकृष्टि सुरसंपदा विदधते मुक्तिश्रियो वश्यता, उच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वषमात्मैनसाम् । स्तम्भं दुर्गमनं प्रति प्रयततो मोहस्य सम्मोहनम् , पायात्पंचनमस्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता ॥३॥ अनन्तानन्त संसार सन्ततिच्छेद कारणम् । जिनराजपदाम्भोज स्मरणं शरणं मम ॥४॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥५॥ [4] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव काम करने से नहीं मरता है परन्तु अधिक खाने से मरता है। न हि त्राता न हि त्राता न हि त्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति ॥६॥ जिने भक्तिजिने भक्तिजिने भक्तिदिने दिने । सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदामेऽस्तु भवे भवे ॥७॥ जिन धर्म विनिर्मुक्तं माभवन् चक्रवर्त्यपि । स्याञ्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि जिनधर्मानुवासितम् ॥ जन्म जन्म कृतं पापम् जन्म कोटिमुपार्जितम् । जन्म मृत्यु जरा रोगं हन्यते जिन वन्दनात् ॥६॥ 0 इति. -:-तीर्थंकर नाम-: भूतकाल तीर्थकराः १ श्री निर्वाण २ सागर ३ महासाधु ४ विमलप्रभ ५ श्रीधर ६ सुदत्त ७ अमलप्रभ ८ उद्धर ६ अंगिर १० सन्मति ११ सिंधु १२ कुसुमांजलि १३ शिवगण १४ उत्साह १५ ज्ञानेश्वर १६ परमेश्वर १७ विमलेश्वर १८ यशोधर १६ कृष्ण २० ज्ञानमति २१ शुद्धमति २२ श्रीभद्र २३ अतिक्रान्त २४ शांताश्चेति भूतकालसंबन्धिचतुर्विंशतितीर्थकरेभ्यो नमो नमः॥ वर्तमानकाल तीर्थकराः। १ श्री वृषभ २ अजित ३ शंभव ४ अभिनन्दन ५ सुमति ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्व ८ चंद्रप्रभ ६ पुष्पदंत १० शीतल ११ श्रेयान् १२ वासुपूज्य १३ विमल १४ अनन्त १५ धर्म १६ शान्ति १७ कुंथु १८ अर १६ मल्लि २० मुनिसुव्रत २१ नमि २२ नेमि २३ पार्श्व २४ वर्द्धमानाश्चेति (वीर, महावीर, सन्मति) वर्तमानकालसम्बन्धिचतुर्विशतितीर्थकरेन्यो नमो नमः । भविष्यत्काल तीर्थंकराः। १ श्रीमहापन २ सुरदेव ३ सुपार्श्व ४ स्वयंप्रभ ५ सर्वात्मभूत ६ देवपुत्र ७ कुलपुत्र ८ उदंक ६ प्रौष्टिल १० जयकीर्ति ११ मुनिसुव्रत १२ अर १३ निष्पाप १४ निष्कषाय १५ विपुल १६ निर्मल १७ चित्रगुप्त १८ समाधिगुप्त [] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कलियुग के मानव ने पक्षियों के समान नभ में उड़ना सीख लिया है, मीन के समान १६ स्वयंभू २० अनुवृत्तिक २१ जय २२ विमल २३ देवपाल २४ अनन्तवीर्याश्चेतिभविष्यत्कालसम्बन्धिचतुर्विशतितीर्थकरेभ्यो नमो नमः॥ विदेहक्षेत्र के तीर्थंकराः । १ श्री सीमंधर १ युगमंधर ३ बाहु ४ सुबाहु ५ सुजात ६ स्वयंप्रभ ७ वृशभानन ८ अनंतवीर्य ६ सूरप्रभ १० विशालकीति ११ बजधर १२ चंद्रानन १३ चन्द्रबाहु १४ भुजंगम १५ ईश्वर १६ नेमप्रभ १७ वीरसेन १८ महाभद्र १६ देवयश २० अजितवीर्याश्चेति विद्यमान महाविदेहोत्रेविंशतितीर्थकरेभ्यो नमो नमः ॥ ----इति नमस्कारमन्त्रा समाप्ता:---- 6 श्री पंच परमेष्टी स्तोत्रम् 20 श्री शतेन्द्र योगि वृन्द वंद्य पाद पंकज, शाश्वतेद्ध बोध दृष्टि वीर सौख्य भासुरम् । सु प्रशस्त योग दग्ध घाति कर्म वैरिणं, भू प्रशस्य नाथ महंदीश म→याम्यहं ॥१॥ अष्ट कर्म विप्र मुक्तमष्ट सद्गुणोज्वलं, दुष्ट भाव दुःख दूर मष्टमीदराग्रज । स्पष्ट दृष्ट लोका लोकमच्युतं तुलोजितं, तोषयामि निष्ट तार्थ भिद्ध सिद्ध संचयम् ॥२॥ आचरन्ति चारु पञ्च वृत्त कानिये स्वयं, चारु यत्यनुग्रहोरु बुद्धितः समाश्रितान् । शूरमार मल्लमान मर्दकान्गुणो ज्वलां, स्तांच्छरण्य मंगलोत्तमान्य जामि शिक्षकान ॥३॥ द्वादशांग सांग बाह्य शास्त्र वाद्धिपारगान्, साधुवाद वज्र भिन्न मत्त वादि भूधराम । साद्य नाद्य नन्त शान्त मोक्ष मार्ग देश का, नादरेण तान्नमामि पाठकान्गुणाम्बुधीन् ॥४॥ [१०] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल में तैरना भी सीखा है परन्तु मानवता से धरातल पर चलना नहीं सीखा। मोक्ष हेतु · भूतधर्म शुक्ल योग तत्परं, दक्ष चक्षुरादि दृष्ट वादि रोधनक्षम । अक्षयोर लक्षमेय सत्कटाक्ष वीक्षणं, मोक्ष मुख्य साधु संघमाय जामि सिद्धये ॥५॥ ॥ इति समाप्ताः ॥ -: श्री गोमटेशाष्टकम् :तुभ्यं नमोऽस्तु शिव शंकर शंकराय । तुभ्यं नमोऽस्तु कृत कृत्य महोन्नताय ॥ तुभ्यं नमोऽस्तु घनघाति विनाशनाय । तुभ्यं नमोऽस्तु विभवे जिनगोमटाय ॥१॥ तुम्यं नमोऽस्तु नव केवल लोचनाय । तुभ्यं नमोऽस्तु पुरुदेव सुनन्दनाय । तुभ्यं नमोऽस्तु जिनशासन शासनाय । तुम्यं नमोऽस्तु विभवे जिनगोमटाय ॥२॥ तुन्यं नमोऽस्तु मदवारण वारणाय । तुभ्यं नमोऽस्तु सुरराज विराजिताय ॥ तुभ्यं नमोऽस्तु जिन मंगल मंगलाय । तुभ्यं नमोऽस्तु विभवे जिन गोमटाय ॥३॥ तुभ्यं नमोऽस्तु गिरिमस्तक संस्थिताय । तुभ्यं नमोऽस्तु कुमताद्रि विभेदनाय ।। तुभ्यं नमोऽतु शशिसूर्य सम प्रभाय । तुभ्यं नमोऽस्तु विभवे जिन गोमटाय ॥४॥ तुभ्यं नमोऽस्तु भव बन्ध विनाशनाय । तुभ्यं नमोऽस्तु विषयामिषखादनाय ।। तुभ्यं नमोऽस्तु गुणरत्न करण्ड काय । तुम्यं नमोऽस्तु विभवे जिन गोमटाय ॥५॥ [११] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोष सबसे बडा धन है और सदाचार सबसे उत्तम जीवन है। तुभ्यं नमोऽस्तु श्रुतबाद्धि विवर्द्धनाय । तुभ्यं नमोऽस्तु परमार्थ समर्थनाय ॥ तुभ्यं नमोऽस्तु परमावधि निष्कषाय । तुभ्यं नमोऽस्तु विभवे जिन गोमटाय ॥६॥ तुभ्यं नमो निरुपमाय निरञ्जनाय । तुभ्यं नमोऽस्तु भव वाद्धि विनाशनाय ।। तुभ्यं नमः सकल जन्तु हितंकराय । तुभ्यं नमोऽस्तु विभवे जिन गोमटाय ॥७॥ तुभ्यं नमो निखिल लोक विलोकनाय । तुभ्यं नमोऽस्तु परमार्थ गुणाष्टकाय ।। तुभ्यं नमो व्यणगुणाधिप पालनाय । तुभ्यं नमोऽस्तु विभवे जिनगोमटाय ॥८॥ इति समाप्ता. श्री वीतराग स्तोत्र 40 शिवं शुद्धबुद्धं परं विश्वनाथं, न देवो न बन्धुर्न कर्म न कर्ता। न अंग न संगं न स्वेच्छा नकामं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम् ।।१॥ न बन्धो न मोक्षो न रागादिलोकं, न योगं न भोगं न व्याधिन शोकम् । न कोपं न मानं न माया न लोभं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम् ॥२॥ न हस्तौ न पादौ न घ्राणं न जिह्वा, न चक्षुर्न कर्ण न वक्त्रं न निद्रा। न स्वामी न भृत्यं न देवो न मत्य, चिन्दानन्दरूपं नमो वीतरागम् ॥३॥ न जन्म न मृत्युन मोदं न चिन्ता, न क्षुद्रोनभीतोन कार्य न तंद्रा। न स्वेदं न खेदं न वर्ण न मुद्रा, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम् ॥४॥ त्रिदंडे त्रिखंडे हरे विश्वनाथं, ऋषीकेशविध्वस्त कर्मारिजालम् । न पुण्यं न पापं न चाक्षादिपायं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम् ॥५॥ न बालो न वृद्धो न तुच्छो न मूढो, न खेदं न भेदं न मूर्तिन स्नेहा । न कृष्णं न शुक्लं न मोहं न तन्द्रा, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम् ॥६॥ [१२] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी अध्यात्मिक उन्नति को भौतिकवाद का लकवा मार गया है। न आद्य न मध्यं न अन्तं न मन्या, न द्रव्य न क्षेत्रं न दृष्टो न भावः । न गुरुर्न शिष्यो न होनं न दीनं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम् ।।७।। इदं ज्ञानरूपं स्वयं तत्ववेदी, न पूर्ण न शून्यं न चैत्यं स्वरूपो। न चान्योन्यभिन्नं न परमार्थमेकं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम् ॥८॥ आत्मारामगुणाकरं गुणनिधि चैतन्यरत्नाकरं, सर्वे भूतगतागते सुखदुःखे ज्ञाते त्वया सर्वगे । त्रैलोक्याधिपते स्वयंस्वमनसाध्यायन्तियोगीश्वरा, वंदे ते हरिवंशहर्षहृदयं श्रीमान् हृदाभ्युद्यताम् ।।६॥ इति समाप्ता अध्यात्माष्टकम् 2विभावाद्य भावात्स्वभावं वहतं, सुवोधिप्रकर्षाद बोधं वहन्तम् । नयातीतरूपं नयाम्भोधि चन्द्र, भजेहं जगज्जीवनं श्री जिनेन्द्रम् ॥१॥ दयादेय भावादना देय दूरं, गुणानाम भावाद् गुणाम्भोधि पूरम् ।। सुचारित्र चर्ये क्षणादाव निन्द्र, भजेहं जगज्जीवनं श्री जिनेन्द्रम् ॥२॥ शुभंवा शुभं कर्म चैकं समस्तं, नयन्निश्चितं बंधबीजं निरस्तम् । स्वभावाप्तिरस्य स्वयं चाप्यतन्द्र, भजेहं जगज्जीवनं श्री जिनेन्द्रम् ॥३॥ वयं चा द्वयं वस्त्वं नित्यं च नित्यं, विधालन्यमे तत्त्व वक्तव्य चिन्त्यम् । लसत्सप्त भंगोमि माला समुद्र, भजेहं जगज्जीवनं श्री जिनेन्द्रम् ॥४॥ कुतस्त्यो विरोधादि दोषावकाशो, ध्वनिः स्यादितिस्यादहोयत्प्रकाशः । इतीत्थं वदन्तं प्रमाणा दरिद्र, भजेहं जगज्जीवनं श्री जिनेन्द्रम् ॥५॥ प्रमाणं यतो द्वादशांगाख्य शास्त्रं, सुवक्तृत्वतो धर्म कर्मादि पात्रम् । फलं वातपोद्रोर भूद्भव्य भद्र, भजेहं जगज्जीवनं श्री जिनेन्द्रम् ॥६॥ उपादान हाने फलं चाप्युपेक्षा, परैरन्यथा वादि भाने सुशिक्षा। तदा भा सदृक्त्वाच्चतेषाम् मन, भजेहं जगज्जीवनं श्री जिनेन्द्रम् ॥७॥ अतुल्या अनन्ता गुणास्ताव कोना, सदोषा सतुच्छामतिर्माम कोना । पदं प्राप्यमेता वर्तवामिन, भजेहं जगज्जीवनं श्री जिनेन्द्रम् ॥८॥ [१३] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौतिक उन्नति में नैतिक पतन होता है, क्योंकि भौतिक उन्नति अतृप्ति, वार्धाराद्यर्हणा ते समगति सुखदातुष्टि पुष्टयादिकों, दिव्या वागागमोत्या श्रुति सरणि गतानंत मिथ्यात्वहो । रागद्वेषादि मुक्तो मुनिरिह विदितः शुद्धबोधाशयालुः, जन्मां होवारणात्कंस्तवमिमम सृजद्वादिराजो दयालुः ॥६॥ ___- इति श्री वादिराज विरचितम् अध्यात्माष्टक स्तोत्रम् . श्री महावीराष्टक स्तोत्र ... छंद शिखरिणि यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः, समभांति ध्रौव्यव्ययजनिलसंतोतरहिताः । जगत्साक्षी मार्गप्रकटनपरो भानुरिवयो महावीरस्वामी नयनपथगामो भवतु मे (नः) ॥१॥ अताम्नं यच्चक्षुः कमल युगलं स्पंदरहितं, जनान्कोपापायं प्रकटयति वाभ्यंतरमपि। स्फुटमूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः) ॥२॥ नमन्नाकेन्द्राली मुकुटमणिभाजालजटिलं, लसत्पादाभोजद्वयमिह यदीयं तनुभृतां । भवज्ज्वालाशांत्यै प्रभवति जलंबा स्मृतमपि, महावीरस्वामी नयनपथगामीभवतु मे (नः) ॥३॥ यदाभावेन प्रमुदितमना दर्दुर इह, क्षणादासीत्स्वर्गी गुणगणसमृद्धः सुखनिधिः । लभंते सद्भक्ताः शिवसुखसमाजं किमुदता ? महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतुमे (नः) ॥४॥ कनत्स्वर्णाभासोऽप्य पगततनुर्ज्ञान निवहो, विचित्रात्माप्येको नृपतिवरसिद्धार्थतनयः । अजन्मापि श्रीमान् विगतभवरागोड़, तगतिर, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः) ॥५॥ [१४] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशान्ति, मौर भय की जन्मदात्री है। यदीया वाग्गंगा विविधनयकल्लोलविमला, बृहज्जानांभोभिर्जगति जनता यास्नपयति । इदानीमप्येषा बुधजनमरालः परिचिता, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः) ॥६॥ अनिर्वारो कस्त्रिभुवनजयी काम सुभटः। कुमारावस्थायामपि निजवलायन विजितः। स्फुरन्नित्यानंदप्रशमपदराज्याय स जिनः, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः) ॥७॥ महामोहांतक प्रशमनपराकस्मिकभिषग, निरापेक्षो बंधुविदितमहिमा मंगलकरः । शरण्यः साधूनां भवभयभृतामुत्तमगुणो, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः) ॥८॥ महावीराष्टकं स्तोत्रं भक्तया भागेन्दुना कृतं, यः पठेच्छणुयाच्चापि स याति परमां गति ॥६॥ --समाप्तम्--- अथ श्री सरस्वती स्तोत्रं 40 चंद्रावककोटिघटितोज्ज्वल दिव्यमूर्ते, शुभ्र वस्त्रेश्रोचन्द्रिकाकलितनिर्मलसुप्रभासी। कामात्यदायि कलहंस समाधिरूढे, वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥१॥ देवा सुरेन्द्र नत मौलि मणि प्ररोचिः, श्री मञ्जरीनिविड रञ्जितपाद पर्छ। नीलालके प्रमदहस्त समान याने, वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥२॥ केयूर हार मणि कुण्डल मुद्रिकाद्य, सर्वागभूषण नरेन्द्र मुनीन्द्र वन्य। नाना सु रत्न वर निर्मल मौलि युक्त, वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥३॥ मंजीर कोत्कनक कंकण किंकणीना, तेषां सुझंकृतरवेण विराजमाने । सद्धर्म वारि निधि संतत वर्द्धमाने, वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥४॥ कंकेलि पल्लव विनिन्दित पाणि युग्मे, पद्मासने दिवस पद्म समान वन्के । जैनेन्द्र वक्र भव दिव्य समस्त भाषे, वागीश्वरि प्रति दिनं मम रक्ष देवि ॥५॥ [१५] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस भौतिकवादी राक्षस के पदतले लोग तडपते हुये कराह रहे हैं। अद्धन्दु मण्डित जटा ललित स्वरूपे, शास्त्र प्रकाशिनि समस्त कलाधिनाथे । उन्मुद्रिका जपसरा भय पुस्तकान्ते, वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥६॥ डिण्डीरपिण्ड हिमशंख तुषारहारे, पूर्णेन्दु विम्वरुचिशोभित दिव्य गात्रे । चाञ्चल्यमान मृगशाव ललाट नेत्रे, वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥७॥ सर्व पवित्रकरणोन्नत काम रूपे, नित्यं फणीन्द्र गरुडाधिपकिन्नरेन्द्र । विद्याधरेन्द्र सुर यक्ष समस्त वन्छ, वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ॥८॥ सम्पूर्णम् - श्री सरस्वती स्तोत्रम् (द्वितीय) सरस्वत्याःप्रसादेन काव्यंकुर्वन्ति मानवाः। तस्मान्निश्चल भावेनपूजनियासरस्वती ॥१॥ श्रीसर्वज्ञमुखोत्पन्न भारती बहु भाषिणी । अज्ञानतिमिरहन्ति विद्या बहुविकासिनी ॥२॥ सरस्वती मया दृष्टा विद्याकमल लोचनी । हंसस्कन्ध समारूढावेणीपुस्तकधारिणी ॥३॥ प्रथमं भारती नाम द्वितीय च सरस्पती। तृतीयं शारदादेवी चतुर्थ हंस गामिनी ॥४॥ पंचमंविदुषां माता षष्टं वागीश्वरी तथा । कौमारीसप्तमं प्रोक्ताअष्टमंब्रह्मचारिणी ॥५॥ नवमं च जगन्माता दशमं ब्रह्मणी भवेत् । एकादशं तु ब्रह्माणी द्वादशं वरदा तथा ॥६॥ वाणी त्रयोदशं माय भाषा चैव चतुर्दशं । पंचदशं शुतदेवी षोडशंगौनिगद्यते ॥७॥ एतानि श्रुतनामानि प्रातरूत्थाय य: पठेत् । तस्मिन्सन्तुष्यतीदेवीशारदावरदाभवेत् ॥८॥ सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणी । विद्यारम्भंकरिष्यामि सिद्धिर्भवतुमे सदा ॥६॥ ॥समाप्ता.॥ - - श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम् - (अपरनाम-लक्ष्मीस्तोत्र) लक्ष्मीर्महस्तुल्य सती सती सती । प्रवृद्धकालो विरतो रतो रतो॥ जरारजा जन्म हता हता हता। पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥१॥ अचेय माद्यं सुमना मना मना । यः सर्वदेशो भुविना विना विना ॥ समस्त विज्ञान मयो मयो मयो । पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥२॥ [१६] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम भौतिकवाद की नरसा के कारण मागते हुये भी सो रहे हैं। विनेष्ट जंतोः शरणं रणं रणं । क्षमादितो यः कमळं मठं महं॥ मरामराराम क्रमं क्रमं क्रमं । पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥३॥ अज्ञान सत्काम लता लता लता। यदीय सद्भावनता नता नता॥ निर्वाण सौख्यं सुगता गता गता। पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥४॥ विवादिता शेषविधि विधी विधी । बभूव सव्वहरी हरी हरी ॥ विज्ञान सज्ञान हरो हरो हरो। पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥५॥ यद्विश्व लोकैक गुरु गुरु गुरुं । विराजिता येन वरं वरं वरं ॥ तमाल नीलांग भरं भरं भरं। पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥६॥ संरक्षितो दिग्भुवनं वनं वनं । विराजिता येषु दिवै दिवै दिवः॥ पाद द्वये नूत सुरासुराः सुराः । पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ॥७॥ रराज नित्यं सकला कला कला। ममारतृष्णो वृजिनो जिनो जिनो॥ संहार पूज्यं वृषभा सभा सभा। पार्श्व फणे रामगिरौ गिरी गिरौ ॥८॥ तर्के व्याकरणे च नाटक चये काव्याकुले कौशले । विख्यातो भुवि पद्मनंदि मुनिपस्तत्वस्य कोषं निधिः॥ गंभिरं यमकाष्टकं पठति यः संस्तूयसा लभ्यते । श्री पद्मप्रभदेव निर्मितमिदं स्तोत्रं जगन्मंगलं ॥६॥ -----समाप्तम्--- * * ** * अकलंक स्तोत्र । त्रैलोक्यं सकलं त्रिकाल विषयं सालोकमा लोकितम् । साक्षाय न यथा स्वयं करतले रेखात्रयं सांगुलिम् ॥ रागद्वेष भया मयान्तक जरा लोलत्व लोभादयो। नालं यत्पदलंघनाय स महादेवो मया वंद्यते ॥१॥ दग्धं येन पुर त्रयं शरभवा तीवाचिषा वह्निना। यो वा नृत्यति मत्तवप्तितृवने यस्यात्मजोवागुहः ।। सोऽयं किं मम शंकरो भय तृषारोषाति मोहक्षयं । कृत्वा यः स तु सर्व वित्तनु भृतां क्षेमंकरः शंकर ॥२॥ [१७] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि सुख की इच्छा है तो चोरी जारी दीनता और परमारी का त्याग करो। यत्नाद्यन विदारितं कररहे दैत्येन्द्र वक्षःस्थलम् । सारथ्येन धनंजयस्य समरे योऽमारयत्कौरवान् ॥ नासौ विष्णुरनेक काल विषयं यज्ज्ञान मव्याहतम् । विश्वं व्याप्य विजुभते सतुमहा विष्णुः सदेष्टोमम ॥३॥ उर्वश्यामुदपादि रागबहुलं चेतो यदीयं पुनः । पात्री दंड कमण्डलु प्रभृतयो यस्या कृतार्थ स्थितिम् ॥ आविर्भाव यितु भवंतिस कथं ब्रह्मा भवेन्मादृशाम् । क्षुत्तृष्णा श्रमराग रोग रहितो ब्रह्मा कृतार्थोऽस्तुनः ॥४॥ योजग्ध्वापिशित समत्स्यकवल जीवं च शून्यंवदन् । कर्ता कर्म फलं न भुक्त इतियो वक्ता सबुद्धः कथम् ।। यज्ज्ञानं क्षणत्तिवस्तुसकलं ज्ञातुं न शक्त सदा । यो जानन्युगपज्जगत्रयमिदं साक्षात्सबुद्धो मम ॥५॥ इशः कि छिन्नालगो यदि विगतभयः शूलपाणिः कथं स्यात् । नाथः किं भक्ष्यचारी यतिरिति स कथं सांगना सात्मजश्च । आर्द्राजः कित्वजन्मा सकल विदिति किं वेत्ति नात्मान्तरायं । संक्षेपात्सम्यगुक्त पशुपतिम पशुः कोऽत्र धीमानुपास्ते ।।६।। ब्रह्माचर्माक्षसूत्री सुरयुवतिरसावेश विभ्रान्तचेताः । शम्भुः खट्वांग धारी गिरिपति तनया पांगलीलानुविद्धः ।। विष्णुश्चक्राधिपः सन्दुहितरमगमद् गोपनाथस्य मोहाद् । अर्हन्विध्वस्तरागो जितसकल भयः कोऽयमेष्वाप्त नाथः ॥७॥ एको नृत्यति विप्रसार्य कुकुमां चक्रे सहस्तं भुजा-, नेकः शेष भुजंग भोगशयने व्यादाय निद्रायते । दृष्टुं चारुतिलोत्तमा मुखमगादेकश्चतुर्वक्त्रता, ___मेते मुक्तिपथं वदंति विदुषा मित्येतदत्यद्भुतम् ॥८॥ यो विश्वं वेद वद्य जनन जलनिधेगिनः पारदृश्वा। पौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलंक यदीयम् ॥ तं वंदे साधुवंद्य सकलगुणनिधि ध्वस्तदोषद्विषतं । बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदलनिलयं केशवंवा शिवंवा ॥६॥ [१८] Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम निज शक्ति के विकास विना वर दर भटकते फिरते हैं। माया नास्तिजटा कपाल मुकुटं चन्द्रोन मूर्धावली। खट्वांगं न च वासुकिर्न च धनुः शूलं न चोमुखम् ।। कामो यस्य न कामिनी न च वृषो गोतं न नृत्यं पुनः । सोऽस्मान्पातु निरंजनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः ॥१०॥ नो ब्रह्मांकित भूतलं न च हरेः शम्भोर्न मुद्रांकितं । नो चन्द्रापर्क करांकितं सुरपतेर्वजाकितं नैव च ॥ षड्वक्त्रांकित बौद्ध देव हुत भुग्यक्षोर गैर्नाकितं । नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्र मुद्रांकितं ॥११॥ मौज्जीदंड कमण्डलु प्रभुतयो नो लाञ्छन ब्रह्मणो। रुद्रस्यापि जटा कपाल मुकुटं कोपीन खट्वांग ना ।। विष्णोश्चक्र गदादि शंखमतुलं बुद्धस्य रक्ताम्बरं । नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्र मुद्रांकितम् ॥१२॥ नाहंकार वशी कृतेन मनसा ना षिणा केवलं । नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्य बुद्ध्या मया ॥ राज्ञः श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो। बौद्धौधान्सकलान् विजित्य सघटः पादेन विस्फालितः ॥१३॥ खट्वांगंनैव हस्ते न च हृदिरचिता लम्बते मुण्डमाला । भस्मॉग नैव शूलं न च गिरिदुहिता नैव हस्ते कपालं ।। चन्द्रार्द्ध नैव मूर्धन्यपि वृषगमनं नव कण्ठे फणीन्द्रः । तं बन्दे त्यक्त दोषं भवभयमथनं चेश्वरं देवदेवं ॥१४॥ कि वाद्यो भगवानमेयमहिमा देवोऽकलंकः कलौ । काले योजनता सुधर्म निहितो देवोऽकलंको जिनः ॥ यस्य स्फार विवेक मुद्रलहरी जाले प्रमेयाकुला। निर्मग्ना तनुतेतरां भगवती ताराशिरः कम्पनम् ॥१५॥ सा तारा खलु देवता भगवती मन्या पिमन्यामहे । षण्मासावधि जाड्य सांख्य भगवद्भट्टाकलंक प्रभोः ।। वाकल्लोल परम्पराभिरमते नूनं मनोमज्जन । व्यापार सहतेस्म विस्मित मतिः सन्ताडिते तस्ततः ॥१६॥ इति श्री अकलकस्तोत्र सम्पूर्णम् [१६] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुध्यान को रोकने के लिये स्वाध्याय अर्गला के समान है। ॥ अथ चैत्य वंदना प्रारम्भः ॥ सद्भक्त्या देवलोके रविशशि भुवने व्यंतराणां निकाय । नक्षत्राणां निवासे ग्रहगण पटले तारकाणां विमाने । पाताले पन्नगेंद्रे स्फुटमणि किरणे ध्वस्त मिथ्यांध कारे। श्रीमत्तीर्थकराणां प्रति दिवस महं तत्र चैत्यानि वन्दे ॥१॥ वैताढ्यमेरुगे रुचक गिरिवरे कुण्डले हस्ति दन्ते । वक्षारे कूट नंदीश्वर कनक गिरौ नैषधे नीलवन्ते ॥ चित्रे शैले विचित्रे यमक गिरिवरे चक्रवाले हिमाद्रौ । श्रीमत्तीर्थकराणां प्रति दिवस महं तत्र चैत्यानि वंदे ॥२॥ श्री शैले विन्ध्य भृगे विमल गिरिवरेह्यर्बुदे पावके वा। सम्मेदे तारके वा कुलगिरि शिखरेऽष्टापदे स्वर्ण शैले॥ सह्याद्री वैजयन्ते विपुल गिरिवरे गुर्जरेरोहणाद्रौ । श्रीमतीर्थकराणां प्रतिदिवस महं तत्र चैत्यानि वंदे ॥३॥ आषाढे मेदपाटे क्षितितट मुकटे चित्रकूटे चलाटे। नाटे घाटे च वाटे विधनवर तटे देव कूटे विराटे ॥ कर्नाटे हेमकटे विकटतर कटे चक्र कोटे च भोटे। श्रीमत्तीर्थकराणां प्रति दिवस महं तत्र चैत्यानि वंदे ॥४॥ श्रीमाले मालवे वा मलयति निखिले मेखले पीठले वा। नेपाले नाहले वा कुवलय तिलके सिंहले मेखले वा ।। डाहाले कौशले वाविगलित सलिले जंगले मालले वा। श्रीमतीर्थकराणां प्रति दिवस महं तत्र चैत्यानि वंदे ॥५॥ अंगे वंगे कलिगे सुगत जनपदे सत्प्रयागेऽतिगंगे । गौडे चौडे पुरंधे वर तरद्रविडे उद्रयाणे च मुद्रे ॥ आद्रे माले पुलिन्द्र द्रवल कुवलये कर्ण कुब्जे सुराष्ट्र। श्रीमत्तीर्थकराणां प्रति दिवस महं तत्र चैत्यानि वंदे ॥६॥ [२०] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध रूपी अग्नि को बुझाने के लिये क्षमा रूपी जल ही समर्ष है। चम्पायां चन्द्रमुख्यां गजपुर मथुरा पत्तने चोज्जयिन्याम् । कौशंब्यां कौशलायॉ कनकपुर वरे देवगिर्या च काश्यां । नशिक्ये राजगेहे दशपुर नगरे भद्रडे ताम लिप्त्यां । श्रीमतीर्थकराणां प्रति दिवस महं तत्र चैत्यानि वंदे ॥७॥ स्वर्गमर्येऽन्तरिक्ष गिरि शिखर हे स्वर्नवी नीर तीरे। शैलाग्ने नागलोके जलनिधि पुलिनेभोरुहाणां निकुंजे ।। प्रामेऽरण्ये वने वा स्थलजल विषमे दुर्ग मध्ये ति संध्ये । श्रीमतीर्थकराणां प्रति दिवस महं तत्र चैत्यानि वंदे ॥८॥ इत्थं श्री जैन चैत्यं स्तुति मति मनसां भक्ति भाजां प्रसिद्ध । प्रोद्यत्कल्याण हेतुः कलिमल हरणं ये पठति त्रिसंध्यं ॥ तेषां श्री तीर्थयात्रा फलम तुलमलं जायते मानवानां । श्रीमतीर्थकराणां प्रति दिवस महं तत्र चैत्यानि वंदे ॥६॥ -समाप्त-: श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्रं : (श्री जिनसेनाचार्य कृत ) स्वयंभुवे नमस्तुभ्य मुत्पाद्यात्मानमात्मनि । स्वात्मनव तथोद्भूतंवृतये चित्तवृत्तये ॥१॥ नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मी भर्ते नमो नमः । विवांबर नमस्तुभ्यं नमस्ते बदतांबर ॥२॥ कामशत्रुहणं देव मामनंति मनीषिणः । त्वामानुमः सुरमौं लिसग्मालाचिंतक्रमम्॥३॥ ध्यानदुर्घणनिभिन्नः घनघातीमहातरूः । अनंत भव संतान जयोप्यासीरनंतजित् ॥४॥ त्रैलोक्य विजयेनोप्त दुर्दर्पमतिदुर्जयं । मृत्युराजं विजित्यासोज्जन्ममृत्युजयोभवान् ॥५॥ विधूताशेषसंसारो बंधु!भव्यबांधवः । त्रिपुरारिस्त्वमीशोसि जन्ममृत्युनरांतकृत् ॥६॥ [२१] Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानरूपी पर्वत को भेदने के लिये भादव भाव वन के समान है। त्रिकालविषयाशेषतत्स्वभेदात् त्रिधोच्छिदं । केवलाख्यं दधच्चक्षुस्त्रिनेत्रोसि त्वमीशिता ॥७॥ स्वामंध कांतकं प्राहुर्मोहाँध सुर मई नात् । अर्द्धन्ते नारयो यस्मादर्धनारीश्वरोस्यत ॥८॥ शिवः शिवपदाध्यासाद् दुरितारिहरोहरः। शंकरः कृतशं लोके संभवस्त्व भवन्मुखे ॥६॥ वृषभोसि जगज्ज्येष्टः गुरुर्गुरु गुणोदयः । नाभेयो नाभिसंभूतेरिक्ष्वाकुःकुलनंदनः ॥१०॥ त्वमेकः पुरुषस्कंधस्त्वं लोकस्य लोचने । त्वं विधाबुधसन्मार्गस्त्रिज्ञास्त्रिज्ञान धारकः ॥११॥ चतुःशरण मांगल्यमूर्तिस्त्वं चतुरहः सुधीः। पंचब्रह्ममयो देवः पावनस्त्वं पुनीह माम् ॥१२॥ स्वर्गाव तारणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नमः । जन्माभिषेकवामाय वामदेव नमोस्तुते ॥१३॥ सुनिःक्रांताय घोराय परं प्रशमसीयुषे । केवलज्ञानसंसिद्ध विषाणाय नमोस्तुते ॥१४॥ पुरु स्तुत् पुरुष स्तुभ्यं विमुक्तपदभागिने । नमस्तत्पुरुषावस्थां भावनानघ विनते ॥१५॥ ज्ञानावरण निर्हासान्नमस्ते नंतचक्षुषे । दर्शनावरणोच्छेदान्नमस्ते विश्वशिने ॥१६॥ नमो दर्शनमोहम्नेज्ञायिकामलदृष्टये । नमश्चारित्रमोहघ्ने विरागाय महौजसे ॥१७॥ नमस्तेऽनंतवीर्याय नमोनंतसुखाय ते। नमस्तेअनंतलोकाय लोकालोकविलोकिने ॥१८॥ नमस्तेऽनंतदानाय नमस्तेऽनंतलब्धये । नमस्तेऽनंतभोगाय नमो ऽनंतोय भोगिने ॥१६॥ नमः .परम योगाय नमस्तुभ्यमयोनये । नमः परमपूताय नमस्ते परमर्षये ॥२०॥ [२२] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश रूपी समुद्र को बढ़ाने के लिये आर्जव भाव चंद्रतुल्प है। नमः परमविद्याय नमः परमतच्छिदे । नमः परमतत्त्वाय नमस्ते परमात्मने ॥२१॥ नमः परमरूपाय नमः परमतेजसे । नमः परममार्गाय नमस्ते परमेष्टिने ॥२२॥ परद्धिजुषे धाम्ने परमज्योतिषे नमः। नमः पारतमः प्राप्तधाम्ने ते परमात्मने ॥२३॥ नमः क्षीणकलंकाय क्षीणबंध नमोस्तुते । नमस्ते क्षीणमोहाय क्षीणदोषाय ते नमः ॥२४॥ नमः सुगतये तुभ्यं शोभनांगतमीयुषे । नमस्तेतीन्द्रियज्ञान सुखायानिद्रियात्मने ॥२५॥ कायबंधननिर्मोक्षाद कायाय नमोस्तु ते। नमस्तुभ्यमयोगाय योगिनामपि योगिने ॥२६॥ अवेदाय नमस्तुभ्यमकषायायते नमः। नमः परम योगीन्द्रवंदिताघ्रि द्वयायते ॥२७॥ नमः परमविज्ञान नमः परम संयम । नमः परमहग्नुप्त परमार्थाय तेनमः ॥२८॥ नमस्तुभ्यमलेश्याय शुल्क लेशांशकस्पृशे । नमो भव्ये तरावस्था व्यतीताय विमोक्षणे ॥२६॥ संज्ञा सजिद्वयावस्था व्यतिरिक्तामलात्मने । नमस्ते वीतसंज्ञाय नमः ज्ञायक दृष्टये ॥३०॥ अनाहाराय तृप्ताय नमः परम भाजुषे । व्यतीता शेषदोषाय भवाव पारमीयुषे ॥३१॥ अजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते ऽतीत जन्मने । अमृत्यवे नमस्तुभ्यंमचलायाक्षरात्मने ॥३२॥ अलमास्तांगुण स्तोत्रमनन्तास्ताव कागुणाः । त्वन्नामस्मृतिमात्रेण परमंशं प्रशास्महे ॥३३॥ इति प्रस्तावना [२३] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार दुःख से पीड़ित प्राणियों के लिये धर्म ही शरण है। प्रसिद्धाष्ट सहस्रद्ध लक्षणं त्वां गिरां पतिम् । नाम्नाष्टसहस्रण तोष्टुमोऽभीष्टसिद्धये ॥१॥ श्रीमान्यस्वयंभू वृषभः शंभवः शंभुरात्मभूः । स्वयंप्रभः प्रभुर्भोक्ता विश्वभूरपुनर्भवः ॥२॥ विश्वात्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चक्षुरक्षरः । विश्वविद्विश्वविद्यशो विश्वयोनिरनीश्वरः ॥३॥ विश्वदृश्वा विभुर्धाता विश्वेशो विश्वलोचनः। विश्व व्यापी विधिधाः शाश्वतो विश्वतोमुखः ॥४॥ विश्वकर्मा जगज्जेष्टो विश्वमूर्तिजिनेश्वरः । विश्व दृग्विश्वभूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वरः ॥५॥ जिनो जिष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पतिः । अनन्तचिदचिन्त्यात्मा भव्य बन्धुर बन्धनः ।।६।। युगादिपुरुषो ब्रह्मा पञ्च ब्रह्ममयः शिवः । परः परतरः सूक्ष्मः परमेष्टी सनातनः ॥७॥ स्वयं ज्योतिरजोऽजन्मा ब्रह्मयोनिरयोनिजः । मोहारिविजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वजः ॥८॥ प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगीश्वराचितः। ब्रह्म विद्ब्रह्म तत्त्वज्ञो ब्रह्मोद्याविद्यतीश्वरः ॥६॥ सिद्धो बुद्धः प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थः सिद्धशासनः । सिद्धः सिद्धान्तविद्धयः सिद्ध साध्यो जगद्धितः ॥१०॥ सहिष्णुरच्युतोऽनतः प्रभविष्णुर्भवोद्भव । प्रभूष्णुरजरोऽजों माजिष्णु/श्वरोऽव्ययः ॥११॥ विभावसुरसंभूष्णुः स्वयं भूष्णुः पुरातनः। परमात्मा परंज्योतिस्त्रि जगत्परमेश्वरः ॥१२॥ ॥ इति श्रीमदादिशतम् ॥१॥ [२४] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन ही सर्व अर्थों की सिद्धि करने वाला है। दिव्य भाषापतिर्दिव्यः पूतवाक्पूतशासनः । पूतात्मा परमज्योतिधर्माध्यक्षो दमीश्वरः ॥१॥ श्रीपति भगवानहन्नर जाविरजाः शुचिः । तीर्थकृत्केवलीशानः पूजार्ह स्नातकोऽमलः ॥२॥ अनंतदीप्तिर्ज्ञानात्मा स्वयंबुद्धः प्रजापतिः । मुक्तः शक्तो निराबाधो निष्कलोभुवनेश्वरः ॥३॥ निरंजनो जगज्ज्योति निरुक्तोक्तिनिरामयः । अचलस्थितिरक्षोभ्यः कूटस्थः स्थाणुरक्षयः ॥४॥ अग्रणीमिणीनेता प्रणेता न्यायशास्त्रकृत् । शास्ता धर्मपतिद्धर्यो धर्मात्मा धर्मतीर्थकृत् ॥५॥ वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुर्वषायुधः। वृषो वृषपतिर्भर्ता वृषाभांको वृषोद्भवः ॥६॥ हिरण्यनाभिर्भूतात्मा भूतभृतभावनः । प्रभवोविभवोभास्वान्भवोभावो भवांतकः ॥ ७॥ हिरण्यगर्भः श्रीगर्भः प्रभूतविभवोद्भवः । स्वयं प्रभुः प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्प्रभुः ॥८॥ सर्वादिः सर्वहक् सार्वः सर्वज्ञः सर्वदर्शनः । सर्वात्मा सर्व लोकेशः सर्ववित्सर्वलोकाजित् ॥६॥ सुगतिः सुश्रुतः सुश्रुक् सूरिवहुश्रुतः । विश्रुतो विश्वतः पादो विश्वशीर्षः शुचिश्रवाः ॥१०॥ सहनशीर्षः क्षेत्रज्ञः सहस्राक्षः सहस्त्रपात् । भूतभव्यभवद्भर्ता विश्वविद्या महेश्वरः ॥११॥ इति दिव्यादिशतम् ॥२॥ स्थविष्टः स्थविरो जेष्टः पृष्टः पृष्टो वरिष्टधीः । स्थेष्टो गरिष्टोबहिष्टःश्रेष्टो निष्टो गरिष्टगीः ॥१॥ विश्वभृद्विश्वसृट विश्वेट विश्वभुग्विश्वनायकः । विश्वाशीविश्वरूपात्मा विश्वजिद्विजितांतकः ॥२॥ [२५] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्वर्गरिपुः क्रोधः, क्रोधः स्वपर नाशक: विभवो विभयो वीरो विशोको विजरो जरन । विरागो विरतो संगो विविक्तो वोतमत्सरः ॥३॥ विनेय जनता बन्धुविलीना शेष कल्मषः । वियोगो योग विद्विद्वान्विधाता सुविधिः सुधीः ॥४॥ क्षान्ति भाक्पृथिवी मूर्तिः शान्ति भाक् सलिलात्मकः । वायु मूर्तिर संगात्मा वह्निमूर्तिर धर्म धृक् ॥५॥ सुयज्वा यज मानात्मा सुत्वा सुत्राम पूजितः। ऋत्विग्यज्ञ पतिर्यज्ञो यज्ञांगम मृतं हविः ॥६॥ व्योम मूतिर मूर्तात्मा निर्लेपो निर्मलोऽचलः । सोम मूर्तिः सुसौम्यात्मा सूर्य मूतिर्महाप्रभः ॥७॥ मंत्रविन्मन्त्र कृन्मन्त्री मन्त्र मूर्तिरनन्तकः । स्वतन्त्रस्तन्त्रकृत्स्वान्तः कृतान्तान्तःकृतान्तकृत् ॥८॥ कृती कृतार्थः सत्कृत्यः कृत कृत्यः कुत क्रतुः । नित्यो मृत्युं जयो मृत्युर मृतात्मामृतोद्भवः ॥६॥ ब्रह्मनिष्टः परब्रह्म ब्रह्मात्मा ब्रह्म सम्भवः । महाब्रह्म पतिर्ब्रह्म'ट् महाब्रह्म पदेश्वरः ॥१०॥ सु प्रसन्नः प्रसन्नात्मा ज्ञानधर्म दमप्रभुः । प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराण पुरुषोत्तमः ॥११॥ -इति स्थविष्टादिशतम् ॥३||महाशोक ध्वजो शोकः कः सृष्टा पद्म विष्टरः । पद्मशः पद्मसम्भूतिः पद्मनाभिरनुत्तरः ॥१॥ पद्म योनिर्जगद्यो नि रित्यः स्तुत्यः स्तुतीश्वरः । स्तवना) हृषी केशो जितजेयः कृत क्रियः ॥२॥ गणाधिपो गणज्येष्टो गण्यः पुण्यो गणाग्रणीः । गुणाकरो गुणाम्भोधि गुणज्ञो गुण नायकः ॥३॥ गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुणः पुण्यगीर्गुणः । शरण्यः पुण्य वाक्पूतो वरेण्यः पुण्यनायकः ॥४॥ [२६] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोष, धर्म अर्थ और काम को नाश करने के लिये अग्नि तल्प है। अगण्यः पुण्यधीगण्यः पुण्य कृत्पुण्य शासनः । धर्मा रामो गुण ग्रामः पुण्यापुण्य निरोधकः ॥५॥ पापापेतो विपापात्मा विपात्मा वीत कल्मषः । निन्द्रो निर्मदः शान्तो निर्मोहो निरूपद्रवः ॥६॥ निनिमेषो निराहारो निःक्रियो निरुपप्लवः । निष्कलंको निरस्तैना निर्धू तांगो निरास्त्रवः ॥७॥ विशालो विपुल ज्योतिरतुलो चिन्त्य वैभवः। सुसंवृत्तः सुगुप्तात्मा सुभृत्सुनय तत्त्ववित् ॥८॥ एक विद्यो महाविद्यो मुनिः परिहढ़ः पतिः। धोशो विद्यानिधिः साक्षी विनेता विहितान्तकः ६॥ पिता पितामहः पाता पवित्रः पावनो गतिः। प्राता भिषग्वरो वर्यो वरदः परमः पुमान् ॥१०॥ कविः पुराण पुरुषो वर्षीयान्वृषभः पुरुः। प्रतिष्टा प्रसवो हेतुर्भुवनैक पितामहः ॥११॥ - इति महादि शतम् ॥४॥श्री वृक्ष लक्षणः श्लक्ष्णो लक्षण्यः शुभ लक्षणः। निरक्षः पुण्डरीकाक्षः पुष्कलः पुष्करे क्षणः ॥१॥ सिद्धिदः सिद्ध संकल्पः सिद्धात्मा सिद्धि साधनः । बुद्ध बोध्यो महाबोधि बर्धमानो महद्धिकः ॥२॥ वेदांगों वेद विद्व द्यो जात रूपो विदांवरः। वेदवेद्यः स्व संवेद्यो विवेदो वदतांवरः ॥३॥ अनादि निधनो व्यक्तो व्यक्त वाग्व्यक्त शासनः। युगादि कृद्य गाधारो युगादिर्जगदा दिजः ॥४॥ अतीन्द्रोऽतीन्द्रियो धोन्द्रो महेन्द्रोऽतीन्द्रियार्थदृक् । अनिन्द्रियोऽहमिन्द्रार्यों महेन्द्र महितो महान् ॥५॥ उद्भवः कारणं कर्ता पारगों भव तारकः । अगाझो गहनं गृह्यं परायः परमेश्वरः ॥६॥ [२७] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्म साधना का प्राण निर्भीकता है। अनन्तद्धिरमे यद्धिरचियद्धिः समनधीः । प्राग्न यः प्राग्रहरोऽन्धन यः प्रत्यग्रोऽग्न योऽनिमोऽनजः ॥७॥ महातपा महातेजा महोदर्को महोदयः । महायशो महाधामा महासत्त्वो महाधृतिः ॥८॥ महाधर्यो महावीर्यो महासम्पन्महाबलः। महाशक्ति महाज्योति महाभूति महाद्य तिः ॥६।। महामति महानीति महाक्षान्ति महोदयः । महाप्राज्ञो महाभागो महानन्दो महाकविः ॥१०॥ महा महा महाकीर्ति महाकांति महावपुः । महादानो महाज्ञानो महायोगो महागुणः ॥११॥ महामहपतिः प्राप्तमहाकल्याण पंचकः । महाप्रभु महाप्रातिहार्याधीशो महेश्वरः ॥१२॥ - इति वृक्षादिशतम् ।।५।महामुनि महामौनी महाध्यानी महादमः । महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामखः ॥१॥ महाबतपतिर्मह्यो महाकांति धरोऽधिपः । महामंत्री महामेयो महापायो महोदयः ॥२॥ महा कारुण्य कोमन्ता महामन्त्री महायतिः । महानादो महाघोषो महेज्यो महसांपतिः ॥३॥ महाध्वरधरो धुर्यो महौदार्यों महिष्ट वाक् । महात्मा महसांधाम महर्षि मंहितोदयः ॥४॥ महाक्लेशांकुशः शूरो महाभूतपतिर्गुरुः । महापराक्रमोऽनन्तो . महाक्रोध रिपुर्वशी ॥५॥ महाभवाब्धिसंतारि महामोहाद्रि सूदनः । महागुणाकरः क्षांतो महायोगीश्वरः शमी ॥६॥ महाध्यानपतिर्ध्याता महाधर्मा महावतः । महाकर्मारिहात्मज्ञो महादेवो महेशिता ॥७॥ [२८] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशुद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति हुये विना आत्म शक्ति का विकास नहीं हो सकता। सर्वक्लेशापहः साधुः सर्वदोषहरो हरः । असंख्येयोऽप्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकरः॥ सर्वयोगीश्वरोचित्यः श्रुतात्मा विष्टरश्रवाः । दांतात्मा दमतीर्थेशो योगात्मा ज्ञानसर्वगः ॥६॥ प्रधानमात्मा प्रकृतिपरमः परमोदयः । प्रक्षीणबंधः कामारिः क्षेमकृत्क्षेमशासनः ॥१०॥ प्रणवः प्रणयः प्राणः प्राणदः प्रणतेश्वरः । प्रमाणं प्रणिधिदक्षो दक्षिणोध्वर्युरध्वरः ॥११॥ आनंदो नंदनो नंदो वंद्योनिद्योऽभिनदनः । कामहा कामदः काम्यः कामधेनुररिञ्जयः ॥१२॥ -इति महामुन्यादिशतम् ॥६॥असंस्कृत सुसंस्कारः प्राकृतो वै कृतांतकृत । अंतकृत्कांतगुः कांतश्चितामणिरभीष्टदः ॥१॥ अजितो जितकामारिरमितोऽमितशासनः । जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितांतकः ॥२॥ जिनेन्द्रः परमानंदो मुनीन्द्रोदुन्दुभिस्वनः । महेन्द्रवंधो योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनंदनः ॥३॥ नाभेयो नाभिजो जातः सुबतो मनुरुत्तमः । अभेद्योऽनत्ययोऽनश्वानधिकोऽधिगुरुः सुधीः ॥४॥ सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षों निरुत्सुकः । विशिष्टः शिष्टभुक् शिष्टः प्रत्ययः कर्मणोऽनघः ॥५॥ क्षेमी क्षेमंकरोऽक्षय्यः क्षेज्ञधर्मपतिः क्षमी। अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो तानगम्यो निरुत्तरः ॥६॥ सुकृती धातुरिज्याहः सुनयश्चतुराननः । श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्र श्चतुरास्यश्चतुर्मुखः ॥७॥ सत्यात्मा सत्यविज्ञानः सत्यवाक्सत्यशासनः । सत्यः सत्यपरायणः ॥८॥ [२९] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्म हष्टि के वैभव से सम्पन्न साधक के हृदय में भीति नहीं रहती है। स्थेयान्स्थ वीयान्ने दीयान्द वीयान्दूरदर्शनः । अणोरणीयान नणुर्गुरुरायो गरीयसाम् ॥६॥ सदायोगः सदाभोगः सदातृप्तः सदाशिवः । सदागतिः सदासौख्यः सदाविद्यः सदोदयः ॥१०॥ सुघोषः सुमुखः सौम्यः सुखदः सुहितः सुहृत् । सुगुप्तागुप्ति भृद्गोप्ता लोकाध्यक्षो दमीश्वरः ॥११॥ -इति असंस्कृतादिशतम् ॥७॥ -- बृहन्बृहस्पति ग्मिी वाचस्पति रुदारधीः । मनीषीधिषणो धीमाञ्छे मुषीशो गिरांपतिः ॥१॥ नैकरूपो नयस्तुंगो नैकात्मा नेक धर्मकृत् । अविज्ञेयोऽप्रतात्मा कृतज्ञः कृतलक्षणः ॥२॥ ज्ञानगर्भो दयागर्भो रत्नगर्भः प्रभास्वरः । पद्मगर्भो जगद्गर्भो हेमगर्भः सुदर्शनः ॥३॥ लक्ष्मी वांस्त्रिदशाध्यक्षो दृढीयानिन इशिता । मनोहरो मनोज्ञांगो धीरो गम्भीरशासनः ॥४॥ धर्मयुपो दयायागो धर्मनेमिर्मुनीश्वरः । धर्मचक्रायुधो देवः कर्महा धर्मघोषणः ॥५॥ अमोघवागमोघाज्ञो निर्मलोऽमोघशासनः । सुरूपः सुभगस्त्यागी समयज्ञः समाहितः ॥६॥ सुस्थितःस्वास्थ्य भावखस्थो नीरजस्को निरुद्धवः । अलेपो निष्कलङ्कात्मा वीतरागो गतस्पृहः ॥७॥ वश्येन्द्रियो विमुक्तात्मा निःसपत्नो जितेन्द्रियः । प्रशान्तोऽनन्त धामषिमंगलं मलहानघः ॥८॥ अनीहगुपमाभूतो दृष्टिर्दैवमगोचरः। अमूर्तो मूर्तिमानेको नैको नानकतत्त्वदृक् । ९॥ अध्यात्मगम्यो गम्यात्मा योगविद्योगि वन्दितः । सर्वत्रगः सदाभावीत्रिकाल विषयार्थदृक् ॥१०॥ [३०] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार के भोग फर्माधीन, नश्वर, दुःख मिश्रित और पाप के बीग हैं। शंकरः शंवदो दान्तोदमी क्षान्तिपरायणः । अधिपः परमानन्दः परात्मज्ञः परात्परः ॥११॥ त्रिजगवल्लभोग्न्यर्च्य स्त्रिजगन्मंगलोदयः । त्रिजगत्पतिपूजांघ्रि स्त्रिलोकान शिखामणिः ॥१२॥ - इति बृहदादिशतम् ।।८- त्रिकालदर्शी लोकेशो लोकधाता दृढ़ततः। सर्वलोकातिगः पूज्यः सर्वलोकैकसारथिः ॥१॥ पुराणपुरुषः पूर्वः कृतपूर्वाग विस्तरः । आदिदेवः पुराणाद्यः पुरुदेवोऽधिदेवता ॥२॥ युगमुख्यो युगज्येष्टो युगादिस्थितिदेशकः । कल्याणवर्णः कल्याणः कल्य कल्याणलक्षणः ॥३॥ कल्याणः प्रकृतिर्दीप्तः कल्याणात्मा विकल्मषः । विकलंकः कलातीतः कलिलघ्नः कलाधरः॥४॥ देवदेवो जगन्नाथो जगबंधुर्जगाद्विभुः । जगद्धितषी लोकज्ञः सर्वगोजगदग्रजः ॥५॥ चराचर गुरुर्गोप्यो गूढात्मा गूढगोचरः। सद्योजातः प्रकाशात्मा ज्वलज्ज्वलनसप्रभः ॥६॥ आदित्य वर्णो भर्माभः सुप्रभः कनक प्रभः । सुवर्ण वर्णो रूक्माभः सूर्य कोटि सम प्रभः ॥७॥ तपनीय निभस्तुंगो बालार्काभोऽनलप्रभः । संध्यानबहेमाभस्तप्त चामीकरच्छविः ॥८॥ निष्टप्त कनकच्छायः कनत्कॉचनसन्निभः । हिरण्यवर्णः स्वर्णाभः शातकुंभनिभप्रभः ॥६॥ धुम्नभाजातरूपाभो दीप्तजाम्बूनदा तिः । सुधौतकलधौतश्री प्रदीप्तो हाटका तिः ॥१०॥ शिष्टेष्टः पुष्टिदः पुष्टःस्पष्टः स्पष्टाक्षरक्षमः । शत्रुघ्नोप्रतिघोऽमोघःप्रशास्ताशासिता स्वभूः ॥११॥ [३१] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म तत्त्व की उपलब्धि देवेन्द्र चक्रवति आदि के वैभव से भी अधिक है। शान्तिनिष्टो मुनिजेष्टः शिवतातिः शिवप्रदः । शान्तिदः शान्तिकृच्छान्तिः कान्तिमान्कामितप्रदः ॥१२॥ श्रेयोनिधिरधिष्टानमप्रतिष्टः प्रतिष्टितः । सुस्थितः स्थावरः स्थाणुः प्रथीयान्प्रथितः पृथः ॥१३॥ इति० त्रिकालदर्यादिशतम् ॥६॥ दिग्वासा वातरशनो निर्गन्थेशो निरम्बरः । निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुहः ॥१॥ तेजोराशि रनन्तौजा ज्ञानान्धिः शीलसागरः। तेजोमयोऽमित ज्योति ज्योतिर्मूतिस्तमोऽपहः ॥२॥ जगच्चूडामणिर्दीप्तः सर्वविघ्न विनायकः । कलिघ्नः कर्मशत्रुघ्नो लोकालोक प्रकाशकः ॥३॥ अनिद्रालु रतंद्रालु र्जागरूकः प्रमामयः। लक्ष्मीपति जगज्ज्योति धर्मराजः प्रजाहितः ॥४॥ मुमुक्षुर्बन्ध मोक्षज्ञो जिताक्षो जितमन्मथः । प्रशांतरसशैलूशो भव्यपेटक नाटकः ॥५॥ मूलकर्ताखिल ज्योतिर्मलघ्नो मूलकारणः । आप्तो वागीश्वरः श्रेयाञ्छ्ायसोक्तिनिरुक्तवाक् ॥६॥ प्रवक्ता वचसामीशो मारजिद्विश्वभाववित् । सुतनुस्तनु निर्मुक्तः सुगतो हतदुर्नयः ॥७॥ श्रीशः श्रीश्रितपादाब्जो वीतभीरभयंकरः । उत्पन्नदोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सलः॥८॥ लोकोत्तरो लोकपतिर्लोकचक्षुर पारधीः । धीरधीर्बुद्ध सन्मार्गः शुद्धः सूनृतपूतवाक् ॥६॥ प्रज्ञापारमितः प्राज्ञो यतिनियमितेन्द्रियः। भदन्तो भद्रकृद्भद्रः कल्पवृक्षो वरप्रदः ॥१०॥ समुन्मूलित कर्मारिः कर्मकाष्टाशु शुक्षणिः । कर्मण्यः कर्मठः प्रांशुहेयादेय विचक्षणः ॥११॥ [३२] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा का हत्य, ज्ञान का मस्तक और आचरण के हाथ की एकता से मुक्ति की प्राप्ति होती है। अनन्तशक्तिरच्छेद्यस्त्रिपुरारि स्त्रिलोचनः। त्रिनेत्रस्न्यम्बकस्त्यक्षः केवलज्ञानवीक्षणः ॥१२॥ समंतभद्रः शांतारि धर्माचार्यों दयानिधिः। । सूक्ष्मदर्शी जितानंगः कृपालुधर्मवेशकः ॥१३॥ शुभंयुः सुखसाद् भूतः पुण्यराशिरनामयः । धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः ॥१४॥ इति दिग्वासादिशतम् ॥१०॥ धाम्नांपते तवामूनि नामान्यागम कोविदः । समुच्चितान्यनुध्यायन्पुमान्पूतस्कृति भवेत् ॥१॥ गोचरोऽपि गिरामासां त्वमवाग्गोचरों मतः । स्तोतातथाप्यसंदिग्धंत्वत्तोऽभीष्टफलंभवेत् ॥२॥ त्वमतोऽसिजगबन्धुम्त्वमऽतोऽसिजगद्भिषक् । त्वमतोऽसिजगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धितः ॥३॥ त्वमेकं जगतां ज्योतिस्त्वं द्विरूपोपयोगभाक् । त्वं त्रिरूपंकमुक्त्यंगं सोत्थानंतचतुष्टयः ॥४॥ त्वं पंचब्रह्मतत्त्वात्मा पंचकल्याण नायकः । षड्भेद भाव तत्त्वज्ञस्त्वं सप्तनयसंग्रहः ॥५॥ दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं नवकेवल लब्धिकः । दशावतारनिर्धार्यों मां पाहि परमेश्वर ॥६॥ युष्मन्ना मावलीहन्धविल सत्स्तोत्रमालया। भवंतं वरिवस्यामः - प्रसोदानुगृहाण नः ॥७॥ इदं स्तोत्रमनुस्मृत्य पूतो भवति त्राक्तिकः । यः स पाठं पठत्येनं स स्यात्कल्याणभाजनम् ॥८॥ ततः सदेदं पुण्यार्थी पुमान्पठति पुण्यधीः । पौरुहूती श्रियं प्राप्तुं परमामभिलाषुकः ॥६॥ स्तुत्वेति मघवा देवं चराचर्जगद्गुरुम् । ततस्तीर्थविहारस्यव्यधात्प्रस्तावनामिमाम् ॥१०॥ [३३] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मोदार की विद्या की प्राप्ति भत्यन्त दुर्लभ है। स्तुतिः पुण्यगुणोत्कीर्तिः स्तोता भव्यः प्रसन्नधीः । निष्टिताओं भवान्सुत्यः फलं नश्रेयसं सुखम् ॥११॥ यः स्तुत्यो जगतात्रयस्य न पुनस्तोता स्वयं कस्यचित् । ध्येयो योगिजनस्ययश्चनितरांध्याता स्वयं कस्पचित् ।। यो नेतृनपिते नमन्नत मलंनन्त व्ययक्षेक्षणः । सश्रीमाञ्जगतां त्रयस्य च गुरुर्देवः पुरुः पावनः ॥१२॥ तं देवं त्रिदशाधिपाचित पदं घातिक्षयानन्तरं । प्रोत्यानन्त चतुष्टयं जिनमिमं मव्यान्ज नीनामिनम् ॥ मानस्तम्भ विलोकना नतजगन्मान्यं त्रिलोकी पति। प्राप्ताचिन्त्य बहिविभूतिमनघं भक्त्याप्रवन्दा महे ॥१३॥ -इति धाम्ना० शतम् ॥११||* जिन सहस्रनाम स्तोत्रम् मपूर्णम् * -: भक्तामर स्तोत्रम् : - श्री मानतुगाचार्य विरचितं - भक्तामर प्रणत मौलिमणि प्रभाणा, मुद्योतकं दलित पाप- तमो- वितानम् । सम्यक्प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा, वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥१॥ यः संस्तुतः सकलवाङमय-तत्त्वबोधा, दुत-बुद्धि-पटुभिः सुरलोक-नाथः । स्तोत्रजगत्रितय-चित-हर- रुदारैः, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥ बुद्ध या विनापि विबुधाचित-पाद-पीठ, स्तोतुं समुद्यत-मतिविगत-त्रपोऽहम् । बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब, मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥ वक्तुं गुणान् गुण-समुद्र शशांक-कान्तान्, कस्ते क्षमः सुर-गुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या। कल्पान्त-काल- पवनोद्धत- नक्र-चक्र, कोवा तरीतु-मलसम्बुनिधि भुजाभ्याम् ॥४॥ सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश, कतुं स्तवं विगत शक्ति-रपि प्रवृतः। प्रोत्यात्म-वीर्य मविचार्य मृगोमगेन्द्र, नाऽभ्येति कि निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥ [३४] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोष मान माया लोभादि विकार मात्मानंद के उपवन का स्वाहा कर देते हैं। अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम, त्वद्भक्ति-रेव मुखरी कुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरोति, तच्चामा चार-कलिका निकरक-हेतु ॥६॥ त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति सन्निबद्ध, पापं क्षणात्मय - मुपैति शरीर-भाजाम् । आक्रान्त-लोक-मलिनील -मशेष माशु, सूर्या शु-भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम् ॥७॥ मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद, मारम्यते तनुधियाऽपि तव प्रभावात् । घेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु, मुक्ताफल - झुति - मुपैति ननूद-बिन्दुः ॥८॥ आस्तां तव स्तवन-मस्त-समस्त दोषं, त्वत्संकथापि जगतांदुरितानि हन्ति । दूरे सहा - किरणः कुरुते प्रभव, पद्माकरेषु जलजानि विकास-भाजि ॥६॥ नात्यद्भुतं भुवनं - भूषण - भूतनाथ, भूतैर्गुण वि भवन्त मभिष्टु - वन्त । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥ दृष्टवा भवन्त -मनिमेष-विलोकनीयं, नान्यत्र तोष-मपुयाति जनस्य चक्षः। पीत्वा पयः शशिकर-छ तिदुग्ध-सिन्धोः, क्षारं जलं जलनिषे रसितुं क इच्छेत् ॥११॥ यः शान्तराग-रुचिभिः परमाणु-भिस्त्वं, निर्मापितस्त्रिभुवनक ललाम-भूत । तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समान - मपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥ वक्त्रं क्व ते सुर - नरोरगनेत्र-हारि, निःशेष - निजित - जगत्रितयोपमानम् । बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डु - पलाश-कल्पम् ॥१३॥ सम्पूर्ण मण्डल-शशांक-कला कलाप, शुभा गुणास्त्रिभुवनं तव लघयन्ति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर - नाथमेकं, कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥ चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि, नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् । कल्पान्त-काल-मरुतां चलिता चलेन, कि मन्दराद्रि - शिखरं चलितं कदाचित् ॥१५॥ निधूम - वत्ति - रपवर्जित-तैलपूरः, कृतस्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी - करोषि । मम्यो न जातु मरुतां चलिता-चलाना, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः ॥१६॥ नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्यः, स्पष्टी - करोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोधरोदरनिरुद्ध - महा - प्रभावः, सूर्यातिशायि - महिमासि मुनीन्द्र लोके ॥१७॥ नित्योदयं दलित - मोह-महान्धकारं, गम्यं न राहु वदनस्य न वारिदानाम् । विधाजतेतवमुखान्जमनल्प - कान्ति, विद्योतयज् - जगदपूर्व -शशांक विम्बम् ॥१८॥ [३५] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोवृत्ति के आधीन ही वध अबंध व्यवस्था है। कि शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्व तावा, युष्मन्मुखेन्दु दलितेषु तमःसु नाथ।। निष्पन्न शालि वन शालिनि जीव लोके, कार्य कियज्जलधरैर्जल भारनम् ॥१६॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभूति कृतावकाशं, नैवं तथा हरि हरादिषु नायकेषु । तेजो महामणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काच शकले किरणा कुलेऽपि ॥२०॥ मन्ये वरं हरि हरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । कि वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ॥२१॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्र रश्मि, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुर दंशु जालम् ॥२२॥ त्वामा मनन्ति मुनयः परमं पुमांस, मादित्य वर्ण ममलं तमसः पुरस्तात् । त्वामेव सम्य गुपलभ्य जयन्ति मृत्यु, नान्यःशिवःशिव पदस्य मुनीन्द्र पन्थाः ॥२३॥ त्वा मव्ययं विभु तचिन्त्य मसंख्य माद्य, ब्रह्माण मीश्वर मनन्त मनंग केतुम् । योगीश्वरं विदित योग मनेक मेकं, ज्ञान स्वरूप ममलं प्रवदन्ति सन्तः ।.२४॥ बुद्धस्त्वमेव विबुधाचित बुद्धि बोधा, त्वं शंकरोऽसि भुवन त्रय शंकरत्वात् । धातासि धीर शिव मार्ग विधेर्विधानात्, व्यक्त तवमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ।।२।। तुभ्यं नम स्त्रिभुवनाति हराय नाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामल भूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन भवोदघि शोषणाय ॥२६॥ को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणरशेष, स्त्वं संश्रितो निरवकाश तया मुनीश । दोष रुपात्त विविधाश्रयजात गर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिद पीक्षि तोसि ॥२७॥ उच्चर शोक तरु संश्रित मुन्मयूख, माभाति रूप ममलं भवतो नितान्तम्। स्पष्टोल्लसत् किरणमस्त तमोवितानं, विम्बं रवेरिव पयोधर पार्श्ववति ॥२८॥ सिंहासने मणि मयूख शिखा विचित्रे, विभाजते तव वपुः कनकावदातम् । विम्बं विद्विल सदंशु लता वितानं, तुंगोदयाद्रि सिरसीव सहा रश्मे-॥२६॥ कुन्दावदात चल चामर चारु शोभं, विभाजते तव वपुः कलधौत कान्तम्'।' उद्यच्छशांक शुचि निर्झर वारि धार, मुच्चस्तटं सुर गिरेरिव शात कौम्भम् ॥३०॥ छत्र त्रयं तव विभाति शशांक कान्त, मुच्चैःस्थितं स्थगित भानु कर प्रतापम्। .. मुक्ता फल प्रकर जाल विवृद्ध शोभं, प्रख्यापयतः त्रिजगत परमेश्वरत्वम् ॥३१॥ [३६] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भात्म दर्शन निर्वाण की प्रथम सोढी है। गम्भीर तार रव पूरित दिग्विभाग, स्त्रलोक्य लोक शुभ संगम भूति दक्षः । सद्धर्म राज जय घोषण घोषकः सन्, खे दुन्दुभिर ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥ मन्दार सुन्दर नमेर सुपारिजात, सन्तानकादि कुसमोत्कर वृष्टिरद्धा। गन्धोद बिन्दु शुभ मन्द मरुत्प्रयाता, दिव्या दिवः पतति ते वयसां ततिर्वा ॥३३॥ शुम्भप्रभा वलय भूरि विभा विभोस्ते, लोकत्रये तिमतां | तिमाक्षिपन्ती । प्रोद्यद्दिवाकर निरन्तर भूरि संख्या, दीप्त्याजयत्यपिनिशामपि सोमसौम्याम् ॥३४॥ 'स्वर्गा पवर्ग गममार्ग विमार्गणेष्टः, सद्धर्म तत्त्व कथनैक पटुस् त्रिलोक्याः । दिव्य ध्वनिर् भवति ते विशदार्थ सर्व, भाषा स्वभाव परिणाम गुणः प्रयोज्यः ॥३५॥ उन्निद्र हेम नवपंकज पुञ्ज कान्ती, पर्युल्लसन्नख मयूख शिखा भिरामौ । पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधा परिकल्पयन्ति ॥३६॥ इत्थं यथा तव विभूतिर भूजिनेन्द्र!, धर्मोपदेशन विधौ न तथा परस्य । यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, तादृक्कुतो ग्रह गणस्य विकासिनोऽपि ॥३७॥ श्च्योतन मवाविलविलोल कपोलमूल, मत्त भ्रमद् भ्रमर नाव विवृद्ध कोपम् । ऐरावता भमिभ मुदत मापतन्तं, दृष्ट्वा भयंभवित नोभवदाश्रितानाम् ॥३८॥ भिन्नेभ कुम्भगल दुज्ज्वल शोणिताक्त, मुक्ताफल प्रकर भूषित भूमिभागः । बद्ध क्रमः क्रम गतं हरिणाधिपोऽपि, नाकामति क्रमयुगाचल संश्रितं ते ॥३६॥ कल्पान्त काल पवनोद्धत वह्नि कल्पं, दावानलं ज्वलित मुज्ज्वलमुत्स्फुलिंगम्। विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख मापतन्तं, त्वन्नाम कीर्तन जलं शमयत्य शेषम् ॥४०॥ रक्तक्षणं समद कोकिल कण्ठ नीलं, क्रोधोद्धतं फणिन मुत्फण मापतन्तम् । आक्रामति क्रमयुगेण निरस्त शंकस्, त्वन्नाम नाग दमनी हृदि यस्य पुंसः ॥४१॥ वल्गत्तुरंग गज गर्जित भीम नाद, माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम् । उद्यद् दिवाकर मयूख शिखा पविद्धं, त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ॥४२॥ कुन्तान भिन्न गज शोणित वारिवाह, वेगावतार तरणातुर योध भीमे । युद्ध जयं विजित दुर्जय जेय पक्षास्, त्वत्पाद पंकज वना श्रयिणो लभन्ते ॥४३॥ अम्भो निधौ क्षुभित भीषण नक्र चक्र, पाठीन पीठ भय दोल्बण वाडवाग्नौ । रंगतरंग शिखर स्थित यान पात्रास्, त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् बजन्ति ।।४४॥ [३५३ 10 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानी और अज्ञानी को मनोवृत्ति में महान अन्तर है। उद्भूत भीषण जलोदर भार भुग्नाः, शोच्यां दशा मुपगताश् च्युत जीविताशाः । त्वत्पाद पंकज रजोमृतदिग्ध देहा, मां भवन्ति मकरध्वज तुल्य रूपाः ॥४५॥ आपाद कण्ठ मुरुशृंखल वेष्टितांगा, गाढं बृहन्निगड कोटि निघृष्ट जंघाः । त्वन्नाम मन्त्र मनिशं मनुजाः स्मरंतः, सद्यः स्वयं विगत बन्ध भया भवन्ति ॥४६॥ मत्त-द्विपेन्द्र मृगराज दवानलाहि, संग्राम वारिधि महोदर बंधनोत्थम् । तस्याशु नाश मुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमान-धोते ॥४७॥ स्तोत्र साजं तव जिनेन्द्र गुणैर् निबद्धां, भक्त्या मया विविध वर्ण विचित्र-पुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठ गतामजसू, तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥ ॥ इति श्री मानतुंगाचार्य विरचित भक्तामर स्तोत्रम् ॥ श्री सिद्धसन दिवाकर प्रणोतं SC कल्याण मंदिर स्तोत्रम 20 कल्याणमंदिर मुदारम वद्य भेदि, भोता भय प्रदनिदितमंति पद्य। संसारसागर निमिज्ज दशेष जंतु, पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१॥ यस्य स्वयं सुरगुरुगरिमाबुराशेः, स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्न विभुविधातुमं । तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतो, स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥२॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूपम्, स्मादृशाः कयाधीश भवन्त्यधोशाः । धुष्टोऽपिकौशिक शिशुर्यदि वा दिवांधो, रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मः ॥३॥ मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्यो, नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत । कल्पांतवान्तपयसः प्रगटोऽपि यस्मान्, मीयेत केन जलधेर्ननुरत्नराशिः ॥४॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि, कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य । बालोपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः । ५॥ [३८] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोग परिग्रह हिंसा तथा विषयासक्ति, विपसि का मार्ग है। ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश, वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः । जाता तदेव मसमीक्षित कारितेयं, जल्पन्ति वा निजगिरा ननुपक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य महिमा जिन संस्तवस्ते, नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीवात पोपहत पान्थ जनान्निदाघे, प्रोणाति पद्म सरसः सरसोऽनिलोपि ॥७॥ हृतिनि त्वयि विभो शिथिली भवन्ति, जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजंग ममया इव मध्य भाग, मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ॥८॥ मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र, रौद्र रुपद्रव शर्तस्त्वयि वीक्षितेपि । गोस्वामिनि स्फुरित तेजसि दृष्टमात्रे, चौरैरिवाशु पशवः प्रपलाय मानः ॥६॥ त्वं तास्को जिन कथं भविनांत एव, त्वामुद्र हन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून, मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥१०॥ यस्मिन्हर प्रभृतयोपि हतप्रभावाः, सोपि त्वयारति पतिः क्षपितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाथयेन, पोतं न किं तदपि दुर्धर वाडवेन ॥११॥ स्वामिन्ननल्पगरि माणमपि प्रपन्ना, स्त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः । जन्मोदधि लघु तरन्त्यति लाघवेन, चिन्त्यो न हन्तमहतां यदि वा प्रभावः ॥१२॥ क्रोधस्त्वया यदि विभो प्रथमं निरस्तो, ध्वस्तस्तदा वदकथं किलकर्म चौराः । प्लोषत्यमुत्र यदिवा शिशिरापिलोके, नीलद्र माणि विपिनानिन कि हिमानी ॥१३॥ त्वां योगिनो जिन सदा परमात्मरूप, मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुज कोषदेशे । पूतस्य निर्मल रुचेर्यदि वाकिमन्य, दक्षस्य सम्भव पदं ननु कणिकायाः ॥१४॥ ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन, देहं विवाह परमात्मदशां ब्रजन्ति । तोबानलादुपलभाव मपास्य लोके, चामोकरत्वम चिरादिव धातुभेदाः ॥१५॥ अन्तः सदैव जिन यस्य विभाव्यसे त्वं, भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरम् । एतत्स्वरूपमथ मध्य विवतिनो हि, यद्विप्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥१६॥ आत्मा मनीषि भिरयं त्वद भेद बुध्द्या, ध्यातो जिनेन्द्र भवतीह भवत्प्रभावः । पानीय मध्य मृत मित्यनु चिन्त्यमानं, कि नाम नो विषविकारमपाकरोति ॥१७॥ त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि, नूनं विभोहरिहरादिधिया प्रपन्नाः। कि काचकामलि भिरीश सितोऽपिशंखो, नो गृह्यते विविधवर्ण विपर्ययेण ॥१८॥ [३६] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर बाह्य परिग्रह का त्याग, हिसा और आत्म निमग्नता आत्म कल्याण का प्रशस्त पथ है। धर्मोपदेश समये सविधानुभावा, दास्तां जनो भवति ते तरुरप्शोकः । अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरहोऽपि, किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ॥१६॥ चित्रं विभो कथमवाङ मुखवृन्तमेव, विष्वक्प तत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः । त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश! गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि ॥२०॥ स्थाने गभीरहृदयोदधिसम्भवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परमसंमदसंगभाजो, भव्या ब्रजन्ति तरसाप्य जरामरत्वम् ॥२१॥ स्वामिन्सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो, मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौघाः । येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुंगवाय, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ॥२२॥ श्यामं गभीरगिरिमुज्ज्वलहेमरत्न, सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम् । आलोकयंति रभसेन नदंतमुच्चै, श्चामीकराद्रि शिरसीव नवाम्बुवाहम् ॥२३॥ उद्गच्छता तवशितिधु तिमण्डलेन, लुप्तच्छ दच्छविरशोक तरुर्बभूव । सांनिध्यतोऽपि यदिवातव वीतराग! नीरागतां ब्रजति को न सचेतनोऽिप ॥२४॥ भो भोः प्रमादमवधूय भजध्वमेन, मागत्य निर्वृतपुरों प्रति सार्थवाहम् । एतन्निवेदयति देव जगत्त्रयाय, मन्ये न दन्नभिनभः सुरदुन्दुभिस्ते ॥२५॥ उयोतितेषु भवता भुवनेषु नाथ, तारान्वितो विधुरयं विहतान्धकारः । मुक्ताकलाप कलितोरुसितातपत्र, व्याजास्त्रिधा धृत तनुर्धवमभ्युपेतः ॥२६॥ स्वेन प्रपूरित जगत्त्रय पिण्डितेन, कान्ति प्रताप यशसामिव सञ्चयेन । माणिक्य हेम रजतप्रविनिर्मितेन, सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥२७॥ दिव्यजो जिन नमस्त्रिदशाधिपाना, मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबंधान् । पादौ श्रयंति भवतायदि वापरत्र, त्वत्संगमे सुमनसो नरमंतएव ॥२८॥ त्वं नाथ जन्मजलविपराङ मुखोऽिप, यत्तारयस्यसुमतो निज पृष्टलग्नान् । युक्त हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव, चित्रं विभो यदसि कर्मविपाकशून्यः ॥२६॥ विश्वेश्वरोऽपि जनपालक दुर्गतस्त्वं, कि वाक्षर प्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश । 'अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव, ज्ञान-त्वयि स्फुरति विश्व विकास हेतु ॥३०॥ प्राग्भारसम्भृतनभांसिर जांसि रोषा, दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापितैस्तव न नाथ हता हताशो, ग्रस्तस्त्वमी भिरयमेव परं दुरात्मा ॥३१॥ [४०] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगम्बर मुद्रा धारण कर कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना ही मानव भव का सार है। यद्गर्जदूर्जितघनौष मदम्र भीम, अश्यत्तडिन्मुसल मांसलघोर धारम् । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दर्ष, तेनैव तस्य जिन दुस्तरवारिकृत्यम् ॥३२॥ ध्वस्तोर्ध्वकेशविकृता कृतिमय॑मुंड, प्रालंबभूद्भयदवक्त्रविनिर्य दग्निः । प्रेतवजः प्रति भवंतमपीरितो यः, सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ॥३३॥ धन्यास्त एव भुवनाधिप ये त्रिसंध्य, माराधयंति विधिवद्विधुतान्यकृत्वा । भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मलदेह देशाः, पादद्वयं तव विभो भुवि जन्म भाजः ॥३४॥ अस्मिन्नपारभववारिनिधी मुनीश, मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि । आणिते तु तव गोत्रपवित्रमंत्र, किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति ॥३५॥ जन्मांतरेऽपि तव पादयुगं न देव, मन्येमया महितमीहितदानदयों । तेनेह जन्मनि मुनीश! पराभवानॉ, जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥३६॥ नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन, पूर्व विभो सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयंति हि मामनाः, प्रोद्यत्प्रबंधगतयः कथमन्यौते ।।३७॥ आणितोपिमहितोपि निरीक्षितोपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जनबॉधव दुःखपान, यस्मात्कियाःप्रतिफलति न भावशून्या ॥३॥ त्वं नाथ दुःखिजनवत्सल हे शरण्य, कारुण्य पुण्य वसते वशिनां वरेण्य । भक्त्यानते मयिमहेश दयांविधाय, दुःखांकुरोद्दलन तत्परताँ विधेहि ॥३९॥ निसंख्यसारशरणं शरणं शरण्य, मासाद्य सादित रिपुप्रथितावदानं । त्वत्पादपंकजमपि प्रणिधान वंध्यो, वंध्योस्मि तन्दुवनपावन हा हतोस्मि ॥४०॥ देवेंद्र वंद्य विदिताखिल वस्तुसार, संसारतारक विभो भुवनाधिनाथ । त्रायस्व देव करुणाहद मॉ पुनीहि, सीदन्तमद्य भयदव्यसनॉबुराशेः॥४१॥ यद्यस्ति नाथ भवदंघिसरोरुहाणां, भक्त फलं किमपि संततसंचितायाः। तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य भूयाः, स्वामी त्वमेव भुवनेत्र भवांतरेपि ॥४२॥ इत्थं समाहितधियो विधिवज्जिनेंद्र, सांद्रोल्लसत्पुलककंचुकितांग भागाः। त्वदबिम्वनिर्मलमुखाम्बुजबद्धलक्ष्म्या, ये संस्तवं तव विभो रचगंति मध्याः॥४३॥ जन नयन कुमुद चंद्र प्रभास्वराः, स्वर्गसंपदो भुक्त्वा । ते विगलितमलनिचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यते ॥४४॥ इति कल्याण मदिर स्तोत्रम् 11 [१] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागढष रूपी तेल के नष्ट हो जाने से कर्म-दीपक पुझ जाता है। श्री वादिराज प्रणीतं * एकीभाव स्तोत्रम् एकीभावं गत इवमया यः स्वयं कर्मबन्धो, घोरं दुःख भवभवगतो दुनिवारःकरोति । तस्याप्यस्य त्वयिजिनवरे भक्तिरुन्मुक्तये चे,ज्जेतुं शक्यो भवति न तयाकोऽपरस्तापहेतुः ।। ज्योतीरूपं दुरितनिवह ध्वान्तविध्वंसहेतुं, त्वामेवाजिनवर चिरं तत्त्वविद्याभियुक्ताः। घेतोवासे भवसि च मम स्फारमुद्भासमान, स्तस्मिन्नंहः कथमिवतमोवस्तुतो वस्तुमोष्टे ।। आनन्दाश्रुस्न पित वदनं गद्गदं चाभिजल्पन्,यश्चायेत त्वयिदृढमनाःस्तोत्रमन्त्रैर्भवन्तम् । तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरंदेहवल्मीकमध्या,न्निष्कास्यतेविविधविषमव्याधयःकाद्रवेयाः ।। प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात्, पृथ्वीचक्र कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम् । ध्यानद्वारं मम रुचिकरं स्वान्तगेहं प्रविष्ट, स्तत्कि चित्रं जिनवपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि ।। लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन्निनिमित्तेन, बन्धुस्त्वय्येवासौ सकलविषया शक्तिरप्रत्यनीका । भक्तिस्फीतांचिरमधिवसन्मामिकाँचित्तशय्यां,मय्युत्पन्नं कथमिव ततः क्लेशयूथंसहेथाः ।। जन्माटव्यां कथमपिमया देव दीर्घ भ्रमित्वा,प्राप्तवेयं तव नय कथा स्फारपीयूषवापी । तस्या मध्ये हिमकर हिमव्यूहशीते नितान्तं निर्मग्नं मां न जहित कथं दुःखदावोपतापाः ।। पादन्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकी,हेमाभासो भवतिसुरभिःश्रीनिवासश्च पद्मः । सर्वा गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेषं मनो मे, श्रेयः किं तत्स्वयमहरहर्यन्न मामभ्युपैति ।। पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्तिपात्या पिबन्तं, कर्मारण्यात्पुरुषमसमानन्दधाम प्रविष्टम् । त्वां दुरस्मरमदहरं त्वत्प्रसादैकभूमि, क्रूराकाराः कथमिव रुजाकण्टका निलुंठन्ति ।। पाषाणात्मा तदितरसमः केवलं रत्नमूर्ति, निस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्नवर्गः। दृष्टिप्राप्तो हरति स कथं मानरोगनराणां, प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्तिहेतुः ।६। हृधःप्राप्तो मरदपि भवन्मूर्ति शलोपवाही, सद्यः पुंसां निरवधिरुजाधूलिबन्धं धुनोति । ध्यानाहूतो हृदयकमलं यस्य तुत्वं प्रविष्ट, स्तस्याशक्यः क इह भुवने देवलोकोपकारः ॥१०॥ जानासि त्वं मम भवभवेयच्चयाक्च दुखजातं यस्यस्मरणमपि मे शस्त्रवन्निपिनष्टि । त्वं सर्वेशःसकृपइति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्तया, यत्कर्तव्यंतदिहविषये देव एवप्रमाणम् ॥११॥ प्रापदैवं तव नुतिपदैर्जीवकेनोपदिष्टः, पापाचारीमरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम् । कः संदेहोयदुपलभते वासव श्रीप्रभुत्वं,जल्पजाप्यमणि भिरमलस्त्वन्नमस्कार चक्रम् ॥१२॥ शुद्ध ज्ञानेशुचिनिचरितेसत्यपित्वय्यनोचा,भक्ति!चेदन वधिसुखावञ्चिकाकुञ्चिकेयम् । शक्योद्धघाटभवति हि कथं मुक्तिकामस्य पुंसो, मुक्तिद्वारं परिदृढ़महामोहमुद्राकवाटम् ॥१३॥ [४२] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन में संयम का महत्व पूर्ण स्थान है। प्रच्छन्नः खल्वयमघमयरंधकारैः समंता, त्पंथा मुक्तः स्थपुटितपदः क्लेशगतैरंगाधैः । तत्कस्तेन बाजति सुखतो देव तत्त्वावभासी, यद्यग्नेऽग्न न भवति भवद्भारतीरत्नदीपः ॥१४॥ आत्मज्योति निधिरनवधि ष्टुरानंद हेतुः, कर्मक्षोणीपटलपिहितो योऽनवाप्यः परेषां। हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद्भक्तिभाजः, स्तोत्रर्बध प्रकृतिपुरुषोद्दामधात्री खनित्रः ॥१५॥ प्रत्युत्पन्नानयहिमगिरेरायताचामृताब्धेर्या, देव त्वत्पदकमलयोः संगता भक्तिगंगा । चेतस्तस्यां मम रुचिवशादाप्लुतं शालितांहः, कल्माषं यद्भवति किमियं देव संदेहभूमिः ॥१६॥ प्रादुर्भूतस्थिरपदसुखं त्वामनुध्यायतो मे, त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा। मिथ्यवेयं तदपि तनुते तृप्तिमभेषरूपां, दोषात्मानोप्यभिमतफलास्त्वत्प्रसादाद्भवति ।१७। मिथ्यावादं मलमपनुदन्सप्तभंगीतरंगे, वगिंभोधिर्भुवनमखिलं देव पर्येति यस्ते । तस्यावृत्ति सपदि बिबुधाश्चेतसैवाचलेन, व्यातन्वंतः सुचिरममृतसेवया तृप्नुवति ।१८। आहार्येभ्यः स्पृहयति परं यःस्वभावादहृद्यः,शस्त्रनाही भवति सततं वैरिणायश्च शक्यः। सर्वागेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषां,तरिक भूषावसनकुसुमैः किं च शस्त्ररुदस्त्र ।१६॥ इन्द्रः सेवांतव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते,तस्यैवेयंभवलयकरी श्लाघ्यतामातनोति । त्वंनिस्तारीजननजलधेःसिद्धिकांतापतिस्त्वं, त्वंलोकानांप्रभुरितितवश्लाघ्यतेस्तोत्रमित्थं ॥२०॥ वृत्तिर्वाचामपरसदृशी न त्वमन्येन तुल्य, स्तुत्यद्गाराः कथमिव ततस्त्वय्यमीनःमते । मैवं भूवंस्तदपि भगवन्भक्तिपीयूषपुष्टा, स्ते भव्यानामभिमतफलाःपारिजाता भवंति ।२१। कोपावेशो न तब न तव क्वापि देव प्रसादो, व्याप्तंचेतस्तव हि परमोपेक्षयवानपेक्षं। आज्ञावश्यं तदपि भुवनं सन्निधिरहारी, क्वैवंभूतं भुवनतिलक ! प्राभवं त्वत्परेषु ।२२० देव स्तोतुं त्रिदिवगणिकामंडलीगीतकीति,तोतूति त्वां सकलविषयज्ञानमूर्ति जनोयः । तस्यः क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूति पंथा,स्तत्त्वग्रंथस्मरणविषये नैष मोमूर्ति मयः ॥२३॥ चित्ते कुर्वन्निरवधिसुखज्ञानदृग्वीर्यरूपं, देव त्वां यः समयनियमादादरेण स्तवीति । श्रेयोमार्ग सखलुसुकृतीतावता, पूरयित्वा कल्याणानांभवति विषयःपंचधा पंचिताना ॥२४॥ भक्तिप्रहमहेंद्रपूजितपदत्वत्कीर्तने न क्षमाःसूक्ष्मज्ञानदृशोऽपिसंयमभृतःके हन्तमंदा वयं । अस्माभिः स्तवनच्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते, स्वात्माधीनसुखैषिणां स खलु नः कल्याणकल्पद्र मः ॥२५॥ वाविराज मनु शाब्दिकलोको वादिराजमनु तार्किकसिंहः । मादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्य सहायः ॥२६॥ -इति श्री वादिराज कृतमेकीभाव स्तोत्रम् [४] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह रूपी व्याधि को दूर करने के लिये जिनेन्द्र वाणी ही परमौषधि है । ' श्री धनंजय कवि प्रणीतं । GR विषापहार स्तोत्रं 40 स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्त, व्यापारवेदी विनिवृत्तसंगः । प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्यः, पायादपायात्पुरुषः पुराणः ॥१॥ पररचित्यं युगभारमेकः, स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्यः । स्तुत्योऽद्यमेऽसौऽवृषभो नभानोः, किमप्रवेशे विशति प्रदीपः ॥ २ ॥ तत्याज शक्रः शकनाभिमानं, नाहं त्यजामि स्तवनानुबंध । स्वल्पेन बोधेन ततोधिकार्थ, वातायनेनेव निरूपयामि ॥३॥ त्वं विश्वदृश्वा सकलरदृश्यो, विद्वानशेषं निखिलरवेद्यः । वक्तंकियान्कीदृशमित्यशक्यः, स्तुतिस्ततो ऽशक्तिकथा तवास्तु ॥ ४ ॥ व्यापीडितं बाल मिवात्मदोष, रुल्लाघतां लोकमवापि पस्त्वं । हिताहितान्वेषण मांद्य भाज्यः, सर्वस्य जंतोरसि बालवैद्यः ॥ ५ ॥ दाता न हर्ता दिवसं विवस्वा, नद्यश्व इत्य च्युत दर्शिताशः । सब्याजमेवं गमयत्य शक्तः, क्षणेन दत्सेऽभिमतंनताय ॥ ६ ॥ उपति भक्त्या सुमुखः सुखानि, त्वयि स्वभावाद्विमुखश्च दुःखं । सदावदात घ तिरेक रूप, स्तयोस्त्वमादर्श इवाऽऽवभासि ॥ ७॥ अगाद्यताऽब्धेः सयतः पयोधि, मे रोश्च तुंगाप्रकृतिः स यत्र । धावा पृथिव्यो प्रथुता तथैव, व्यापत्वदीया भुवनांतराणि ॥ ८ ॥ तवानवस्था परमार्थतत्त्वं, तवया न गीतः पुनरागमश्च । - दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैषी, विरुद्धवृत्तोऽपि समंजसस्त्वं ॥६॥ स्मरःसुदग्धो भवतैव तस्मि, न्नुर्बुलितात्मा यदि नाम शंभु । अशेत वृन्दोपहतोपि विष्णुः, किं गृह्यते येन भवानजागः॥१०॥ स नीरजा स्यादपरोऽघवान्वा, तद्दोषकोत्यैव न ते गुणित्वं । स्वतोंबुराशेर्महिमा न देव, स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥११॥ कर्मस्थिति जंतुरनेकभूमि, नयत्यमं सा च परस्परस्य ।। त्वं नेतृभावं हि तयोर्भवाब्धौ, जिनेन्द्र नौनाविक योरिवाख्यः ॥१२॥ सुखाय दुःखानि गुणाय दोषा, धर्माय पापानि समाचरंति। [४४] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभक्ष भक्षण त्याग के विना अहिंसात्मक जीवन विकसित नहीं हो सकता। तैलाय बालाः सिकतासमूह, निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीयाः ॥१३॥ विषापहारं मणिमौषधानि, मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च। भ्राम्यन्त्यहो नत्वमितिस्मरन्ति, पर्यायनामानि तवैव तानि ॥१४॥ चित्ते न किञ्चि कृतवानसि त्वं, देवः कृतश्चेतसि येन सर्वम् । हस्ते कृतं तेन जगद्विचित्रं, सुखेन जीवत्यपि चित्तवाह्यः ॥१५॥ त्रिकालतत्त्वं त्वमवैस्त्रिलोकी, स्वामीति संख्या नियतेरमोषाम् । बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यं, स्तेऽन्येऽपि चेद् व्याप्स्यदभूनपोदम् ॥१६॥ नाकस्य पत्युः परिकर्म रम्यं, नागम्यरूपस्य तवोपकारि । तस्यैव हेतुः स्वसुखस्य भानो, रुद्विधतश्छत्र मिवादरेण ॥१७॥ क्वोपेक्षकस्त्वं क्व सुखोपदेशः, स चेत् किमिच्छा प्रतिकूलवादः । क्वासौ क्व वा सर्वजगत्प्रियत्वं, तन्नो यथा तथ्य मवेविजं ते ॥१८॥ तुंगात्फलं यत्तदकिञ्चनाच्च, प्राप्यं समृद्धान्न धनेश्वरादेः । निरम्भसोऽप्युच्चत मादिवाने, कापि निर्याति धुनी पयोधेः ॥१६॥ त्रैलोक्य सेवा नियमाय दण्डं, वधे यदिन्द्रो विनयेन तस्य । तत्प्रातिहार्य भवतः कुतस्त्यं, तत्कर्मयोगाद्यदि वा तवास्तु ॥२०॥ श्रिया परं पश्यति साधु निःस्वः, श्रीमान्न कश्चित्कृपणं त्वदन्यः । यथा प्रकाश स्थित मन्धकार, स्थायीक्षतेऽसौ न तथातमःस्थम् ॥२१॥ स्ववृद्धिनिः श्वास निमेषभाजि, प्रत्यक्ष मात्मानु भवेऽपि मूढः । कि चाखिलज्ञेय विवर्तिबोध, स्वरूप मध्य क्षमवैति लोकः ॥२२॥ तम्यात्म जस्तस्य पितेति देव, त्वां येऽवगायन्ति कुलं प्रकाश्य । तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं, पाणौ कृतं हेम पुनस्त्यजन्ति ॥२३॥ दत्तस्त्रिलोक्यां पटहोऽभिभूताः, सुरासुरास्तस्य महान्स लाभः । मोहस्य मोहस्त्वयि को विरोधु, मूलस्य नाशो बलवद्विरोधः ॥२४॥ मार्गस्त्वयैको ददृशे विमुक्त श्च, तुर्गतीनां गहनं परेण । सर्व मया दृष्टमिति स्मयेन, त्वं मा कदाचिद् भजमालुलोके ॥२५॥ स्वर्भानुरकस्य हविर्भुजोऽम्भः, कल्पान्त बातोम्बनिर्विघातः। संसारभोगस्य वियोगभावो, विपक्ष पूर्वाभ्युदयास्त्वदन्ये ॥२६॥ अजानतस्त्वां नमतः फलंयत्त, ज्जानतोऽन्यं न तु देवतेति । हरिमणि काचधिया दधानम्तं, तस्य बुद्धया वहतो न रिक्तः ॥२७॥ [४५] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसात्मक जीवन वीरता का पोषक है तथा जीवनदाता है । प्रशस्तवाचश्चतुराः कषाय, दग्धस्य देवव्यवहारमाहुः । गतस्य दीपस्य हि नन्दितत्वं, दृष्टं कपालस्य च मंगलत्वम् ॥२८॥ नानार्थ मेकार्थ मदस्त्वदुक्त, हितं वचस्ते निशमय्य वक्त । निर्दोषतां के न विभावयन्ति, ज्वरेण मुक्तः सुगमः स्वरेण ॥२६॥ न क्वापि वाञ्छा ववृते चवाक्त, कालेक्वचित्कोऽपि तथानियोगः । नपूरयाम्यम्बुधि मित्युदंशुः, स्वयं हि शीता तिरभ्युदेति ॥३०॥ गुणागभीराः परमः प्रसन्ना, बहु प्रकारा बहवस्तवेति । दृष्टोऽयमन्तः स्तवने नतेषां, गुणो गुणानां किमतः परोऽस्ति ॥३१॥ स्तुत्या परं नाभिमतंहि भक्त्या, स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि । स्मरामि देवं प्रणमामि नित्यं, केनाप्युपायेन फलंहि साध्यम् ॥३२॥ ततस्त्रिलोकी नगराधि देवं, नित्यं परं ज्योतिरनन्त शक्तिम् । अपुण्यपापं परपुण्यहेतु, नमाम्यहं वन्द्यम वन्दितारम् ॥३३॥ अशब्दम स्पर्शम रूप गन्धं, त्वां नीरसं तद्विषयाव बोधम् । सर्वम्य मातारममेय मन्य, जिनेन्द्र मस्मार्य मनुस्मरामि ॥३४॥ अगाधमन्यै मनसाऽप्य लंघय, निष्किचनं प्रार्थित मर्थ वद्भिः। विश्वस्य पारं तमदृष्ट पारं, पति जिनानां शरणं प्रजामि ॥३५॥ त्रैलोक्य दीक्षा गुरवे नमस्ते, यो वर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत । प्राग्गण्ड शैलः पुनरद्रि कल्पः, पश्चान्नमेरुः कुलपर्वतोऽभूत् ॥३६॥ स्वयं प्रकाशस्य दिवानिशा वा, न बाध्यता यस्य न बाधकत्वम् । नलाघवं गौरवमेक रूपं, वन्दे विभुं कालकलामतीतम् ॥३७॥ इति स्तुति देव विधाय दैन्या, द्वरं नयाचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छायातरं संश्रयतः स्वतः, स्यात्कश्छायया याचितयात्मलाभः॥३८॥ अथास्ति दित्सा यदि वोपरोध, स्त्वय्येवसक्तांदिश भक्ति बुद्धिम् । करिष्यते देव तथा कृपामे, को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरिः ॥३६॥ वितरति विहिता यथाकथंचि, जिनविनताय मनीषितानिभक्तिः। त्वयि नुतिविषया पुनर्विशेषा, द्दिशतिसुखानि यशो धनंजयं च ॥४०॥ -- इति श्रीधनजय कृत विषापहारस्तोत्रम् सम्पूर्णम् - [४६] Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दयाद्र अन्तःकरण हुये विना प्राणियों के हृदय में अहिंसा की ज्योति नहीं जगती। - श्री भूपाल कवि प्रणीता - जिन चतुर्विशतिका 17 श्रीलीलायतनं महीकुलगृहं कीर्तिप्रमोदास्पदं । वाग्देवीरतिकेतनं जयरमाक्रीडानिधानं महत् ॥ सः स्यात्सर्व महोत्सवैक भवनं यः प्रार्थितार्थ प्रदं । प्रातः पश्यति कल्पपाद पद लच्छायं जिनांघ्रिद्वयं ॥१॥ शान्तं वपुः श्रवणहारि वचश्चरित्रं । सर्वोपकारि तव देव ततः श्रुतज्ञाः ॥ संसारमार व महास्थल रुद्र सान्द्र-। च्छाया महील्ह भवन्त मुपा श्रयन्ते ॥२॥ स्वामिन्न्ध विनिर्गतोऽस्मि जननी गर्भान्ध कूपोदरा । वद्योद्घाटित दृष्टिरस्मि फलवज्जन्मास्मि चाद्यस्फुटम् ।। स्वामद्राक्षमहं यद क्षय पदानन्दाय लोकत्रयो । नेत्रेन्दीवर काननेन्दुम मृतस्यन्दि प्रभाचन्द्रिकम् ॥३॥ निःशेष त्रिदशेन्द्र शेखरशिखा रत्न प्रदीपावली । सान्द्रीभूत मृगेन्द्र विष्टरतटी माणिक्य दीपावलिः॥ क्वेयं श्रीक्वच निःस्पृहत्वमिद मित्यूहाति गस्त्वादृशः । सर्वज्ञान दृशश्चरित्र महिमा लोकेश लोकोत्तरः ॥४॥ राज्य शासन कारिनाकपति यत्त्यक्त तृणावज्ञया । हेलानिर्दलित त्रिलोकमहिमा यन्मोह मल्लोजितः ॥ लोकालोकपि स्ववोध मुकुर स्यान्तः कृतं यत्त्वया । सैषाऽश्चर्य परम्परा जिनवर क्वान्यत्र संभाव्यते ॥५॥ दानं ज्ञानधनाय दत्तम सकृत्पात्राय सवृत्तये । चीर्णान्युनतपांसि तेन सुचिरं पूजाश्च वह्वयः कृताः॥ शीलानां निचयः सहामल गुणैः सर्वः समासादितो। दृष्टस्त्वं जिन येन दृष्टि सुभगः श्रद्धापरेण क्षणम् ॥६॥ [४७] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा के प्रभाव से आत्म शक्तियों की जागृति होती है। प्रज्ञापारमितः स एव भगवान्यारं स एव श्रुत, स्कंधाब्धेर्गुणरत्नभूषण इति श्लाघ्यः स एव ध्रुवं । नीयंते जिन येन कर्णहृदयालंकारतां त्वद गुणाः, संसाराहिविषाप हार मणय स्त्रैलोक्य चूडामणेः ॥७॥ जयति दिविजवृदान्दोलिरिंदुरोचि, निचय रुचिभि रुच्चैश्चामरैर्वीज्यमानः । जिनपतिरनुरज्यन्मुक्ति साम्राज्य लक्ष्मी, युवति नव कटाक्ष क्षेपलीलां दधानः ॥८॥ देवः श्वेतातपत्र त्रयचमरिल्हाशोक भाश्चक्र भाषा, पुष्पौघासार सिंहासन सुरपट हैरष्टभिः प्रातिहार्यः । साश्चर्यंभ्राजमानःसुरमनुजस भांभोजिनी भानुमाली, पायान्नःपादपीठीकृत सकल जगत्पाल मौलिजिनेद्रः ॥६॥ नृत्यत्स्वदन्तिदन्ता बुरुहवन नटन्ना कनारीनिकायः, सधस्त्रैलोक्ययात्रोत्सव करनिनदातोद्यमाद्यन्निलिपः । हस्तां भोजातलीलाविनिहित सुमनोदामरम्यामरस्त्री, , काम्यः कल्याण पूजाविधिषु विजयते देवदेवागमस्ते ॥१०॥ चक्षुष्मानहमेव दैव भुवने नेत्रा मृतस्यंदिनं, त्वद्वन्दु मति प्रसाद सुभगैस्ते जोभिरुद्भासितं । येना लोकयता मयाऽनतिचिराच्चक्षुः कृतार्थीकृतं, दृष्टव्या वधिवीक्षण व्यतिकरव्या जृम्भमाणोत्सवं ॥११॥ कंतोः सकांतमपि मल्लमवैति कश्चिन्, मुग्धो मुकुंद मरविंद जमिदुमौलि । मोघी कृतत्रि दत्रायोषिद पांगपात, स्तस्त त्वमेव विजयी जिनराजमल्लः ॥१२॥ किसलयित मनल्पं त्वद्विलोका भिलाषा, स्कुसुमित मतिसांद्रं त्वत्समीप प्रयाणात् । मम फलितममंदं त्वन्मुखेदोरिदानी, नयनपथ मवाप्ताद्देव पुण्य द्रमेण ॥१३॥ नयनपथ [४८] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का प्राण अथवा जीवन रस महिंसा है। त्रिभुवन वनपुष्प्यप्पुष्पको दण्डदर्प, प्रसरदवन वाम्भो मुक्तिसूक्ति प्रसूतिः । स जयति जिनराजवात जीमूतसंघः, शतमखशिखि नृत्यारम्भ निर्बन्धवन्धः ।।१४॥ भूपालः स्वर्गपाल प्रमुखनरसुर श्रेणिनेत्रालिमाला, लीलाचत्यस्य चैत्यालयमखिलजगत्कौमुदीन्दोजिनस्य । उत्तंसीभूतसेवाञ्जलिपुटनलिनोकुड्मलास्त्रिः परीत्य, श्रीपादच्छाययापस्थितभवदवथुः संश्रितोऽस्मीवमुक्तिम् ॥१५॥ देव त्वदंघ्रिनख मण्डल दर्पणेऽस्मिन्, नये निसर्गरुचिरे चिरदृष्टवक्त्रः। श्रीकीर्तिकान्ति तिसंगम कारणानि, भव्यो न कानि लभते शुभमंगलानि ॥१६॥ जयति सुरनरेन्द्र श्रीसुधा निर्झरिण्याः, कुलधरणि धरोऽयं जैनचैत्या भिरामः । प्रविपुल फलधर्मा नोकहान प्रवाल, प्रसर शिखर शुम्भत्केतनः श्रीनिकेतः ॥१७॥ विनमद मरकान्ता कुन्तला क्रान्किान्ति, स्फुरित नखमयूखद्यो तिताशान्तरालः । दिविजमनु जराजवात पूज्यक्रमान्जो, जयति विजितकर्मारातिजालो जिनेन्द्रः ॥१८॥ सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमंगलाय, दृष्टव्यमस्ति यदि मंगलमेव वस्तु । अन्येन किं तदिह नाथ तवैव वक्र, त्रैलोक्य मंगल निकेतन मीक्षणीयम् ॥१६॥ त्वं धर्मोदयतापसाश्रमशुकस्त्वं काव्यबन्धक्रम, क्रीडानन्दनकोकिलस्त्वमुचितः श्रीमल्लिकाषट्पदः । त्वं पुन्नागकथारविन्दसरसीहंसस्त्वमुत्तं सकैः, __ कैर्भूपाल न धार्यसे गुणमणिसङ मालिभिमौलिभिः ॥२०॥ v Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिंसा समत्व के सूर्य को गाती है। शिवसुखमजर श्रीसंगमं चाभिलष्य , स्वमभि निगमयन्ति क्लेशपाशेन केचित् ।। वयमिह तु वचस्ते भूपते र्भावयन्त , — स्तदुभयमपि शश्वल्लीलया निर्विशामः ॥२१॥ देवेन्द्रास्तवमज्जनानि विदधुर्देवांगना मंगला , न्यापेठः शरदिन्दुनिर्मलयशो गन्धर्व देवा जगुः ॥ शेषाश्चापि यथानियोगमखिलाः सेवा सुराश्चक्रिरे, तरिक देव वयं विदध्म इति नश्चित्तं तु दोलायते ॥२२॥ देव त्वज्जननाभिषेकसमये रोमाञ्च सत्कञ्चुकै , देवेन्द्र यंदनति नर्तनविधौ लब्धप्रभावःस्फुटम् ॥ किंचान्य त्सुरसुन्दरी कुच तट प्रान्ता वनद्धोत्तम , प्रेङ ख दल्लकिनाझंकृतमहो तत्केन संवर्ण्यते ॥२३॥ देव त्वप्रतिबिम्बमम्वुजदल स्मेरेक्षणं पश्यतां , यत्रास्माकमहो महोत्सवरसो दृष्टरियान्वर्तते ॥ साक्षात्तत्रभवन्तमीक्षितवतां कल्याणकाले तदा , देवानामनिमेषलोचनतया वृत्तः स कि वर्ण्यते ॥२४॥ दृष्टं धाम रसायनस्य महतां दृष्टं निधीनां पदं , दृष्टं सिद्धरसस्य समसदनं दृष्टं च चिन्तामणेः ।। किं दृष्टेरथवानुषंगिकफलैरेभिर्मयाऽद्य ध्रुवं , दृष्टं मुक्तिविवाहमंगलगृहं दृष्टे जिनश्रीगृहे ॥२५॥ दृष्टस्त्वं जिनराजचन्द्र विकसद्भूपेन्द्रनेत्रोत्पलः, स्नातं त्वन्नुतिचन्द्रिकाम्भसि भव द्विद्वच्चकोरोत्सवे ॥ नीतश्चाद्य निदाघजः क्लमभरः शातिमया गम्यते , देव त्वद्गतचेतसैव भवतो भूयात्पुनदर्शनम् ॥२६॥ इति श्री भूपाल कवि प्रणीता जिनचतुर्विंशतिका curdita [५०] Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिता विषमता की गहरी अंधियारी को उत्पन्न करती है। SC-श्रीयुत पंडित महाचन्द्र जी कृत-21 er सामायिक भाषा ॐ १-अथ प्रथम प्रतिकमण कर्म काल अनंत घम्यो जग में सहिये दुख भारी, जन्ममरण नित किये पापको हअधिकारी । कोटि भवांतरमाहि मिलन दुर्लभ सामायक, धन्य आज मै भयो योग मिलियो सुखदायक ।। हे सर्वज्ञ जिनेश किये जे पाप जु मैं अब, ते सब मनबचकाय योग की गुप्तिविना लभ । मापसमीप हजूरमाहि मैं खड़ो खड़ो सब, दोष कहूं सो सुनो करो नठ दुःख देहि जब ।२। क्रोधमानमदलोभमोह माया वशि प्राणी, दुःख सहित जे किये क्या तिनको नहिं आणी। विना प्रयोजन एकेंद्रिय बि ति चउ पर्चेद्रिय, आपप्रसादहि मिटै दोष जोलग्यो मोहि जिय ॥३॥ आपस मैं इक ठौर थापि करि जे दुख दीने, पेलि दिये पगतले दाबिकर प्राण हरीने । आप जगत के जीव जिते तिन सबके नायक, अरज करूं मैं सुनो दोष मेटो दुखदायक ।। अंजन आदिक चोर महाघनघोर पापमय, तिनके जे अपराध भये ते क्षमा क्षमा किय । मेरे जे अब दोष भये ते क्षमो दयानिधि, यह पडिकोणो कियो आदि षटकर्ममाहि विधि ॥५॥ इति प्रतिक्रमण कर्म । २-अथ द्वितीय प्रत्याख्यान कर्म जो प्रमादवशि होय विराधे जीव घनेरे, तिनको जो अपराध भयो मेरे अघ ढेरे। सो सब झूठो होउ जगतपति के परसाद, जा प्रसादत मिल सर्व सुख दुःख न लापं ।। मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि हीन महाशठ, किये पाप अघढेर पापमति होय चित्त दुठ। निंदू हूं मैं बारबार निज जियको गरहूं, सबविधि धर्म उपाय पाय फिर पापहि करहूं ७॥ दुर्लभ है नरजन्म तथा श्रावककुल भारी, सतसंगति संयोग धर्म जिन श्रद्धा धारी। जिनवचनामृत धार समावर्ते जिनवाणी, तोहू जीव संघारे पिक धिक धिक हम नाणी ।। इंद्रिय लंपट होय खोय निजज्ञान जमा सब, अज्ञानीनिमि कर तिसी विधिहिंसक अब । गमनागमन करतो जीव विराधे भोले, ते सब दोष किये निन्दू अब मन वच तोले ।। आलोचन विधि थकी दोष लागे जु घनेरे, ते सब दोष विनाश होउ तुम त जिन मेरे। बारबार इस भांति मोहमद दोष कुटिलता, ईर्षादिक ते भये निदिये जे भयभीता ॥१०॥ इति प्रत्याख्यान कर्म ॥२॥ . [१] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग पोप मान गापा भाविकागे कामयाग करना ही परम आँगा। ३-अथ तृतीय सामायिक कर्म सब जीवन में मेरे समताभाव जग्यो है, सब जिय मोसम रामता रापो भाव लग्यो है। आतंरीद्र द्वयच्यान छांनि फन्हूिं मामायिक, मंयम मो करशन होय यहभाववधायक ॥११॥ पृथ्वोजल अग अग्निवायु चउकाय बनस्पति,पंचाह थावरमाहि तपायमजीववस जित । बेइंद्रियतिय चउ पंचद्रियमाहि जीवगव, तिनत क्षमाकराऊ मुसपर क्षमाकरो अब ॥१२॥ इस अवसरमें मेरे मन ममफंचन अर तण, महल ममान समानत्र अमित्र हिमम गण। जामनमरण समान जानिाम नमना कोनी, मामायिकका काल जितं यह भावनवोनी ॥१३॥ मेरोहै इक आनम तामै ममन जु कौनो, और गो मम भिन्न जानि समनारमनीनी । मातपिता मुतबंध मित्रनिय आदिगो या. मानन्यारंजानि जथाग्य र कर्यो गह ॥१४॥ मैं अनादि जगजालमाहिमाम प न जाण्यो, पद्रिय दे आदि जनुकी प्राण हराण्यो । ते अब जीवसमूह मुनो मेगे यहारजी, भवभवको अपगध समा कोज्यों कर मरजी ॥१५॥ -farii for Til : t. ४-अथ चतुर्थ ग्लवन कर्म नमो ऋषभजिनदेव अजिजिनजीतकर्मको । संभव भवदुगहरणकरणअभिनंद शर्मको। सुमतिसुमति दातार तार भसिधु पारकर । पाप्रभपद्माभ मानिभव भौतिप्रीति धर ।१६ श्रीसुपाश्वं कृतपाश नाश भव जास शुद्धपार । श्रीचंद्रप्रभ चंद्रकातिसम देह कांतिधर । पुष्पदंत दमिदोषकोश भविपोप गेपहर । शीतन गीतल करणहरण भवताप दोपहर ।१७ श्रेयरूप जिनश्रेय धेय नित मेय भव्यजन । वासुपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभयहन । विमल विमलमतिदेनअंतगत हैअनंनजिन । धर्मशमंशिवकरणशांतिजिनशांतिविधायिन ।१८ कुंथुकुथुमुख जोवपालअग्नाथजाल हर । मल्लिमल्लसम मोहमल्लमारण प्रचार घर । मुनिसुनतवतकरण नमतसुरसंघहिं नमिजिन । नेमिनाजिननेमिधर्मरथमाहि जानधन १६ पार्श्वनाथ जिन पार्श्वउपलसम मोक्ष रमापति । वद्ध मानजिन नवम भवदुःख कर्मकृत। या विधि में जिन संघरूप चउवीस संख्याधर । स्तनमूहूं वारवार वंदू शिव सुखकर ।२० -इति ननु स्नयन गर्म ॥ ४ ॥-- [५२] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रीति प्राण-वायु सी है जिसमें जीवन का सबेरा है। ५-अथ पंचम वंदना कर्म वंदूं मैं जिनवीर धीर महावीर सु सन्मति, वर्द्धमानअतिवीर वंदि होमनवचतनकृत । त्रिशला तनुज महेश धीश विद्यापति वंदू, बंदू नित प्रति कनकरूपतनु पापनिकवू ।२१। सिद्धारथ नृप नंदद्वंददुख दोष मिटावन, दुरित दवानल ज्वलित ज्वालजगजीवउधारन । कुंडलपुर करि जन्म जगतजिय आनंदकारन, वर्ष बहत्तर आयु पाय सबही दुख टारन ।२२॥ सप्त हस्त तनु तुंग भंगकृत जन्म मरण भय, बालब्रह्ममय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञानमय । दे उपदेश उधारितारि भवसिंधु जीवधन, आप बसे शिव मॉहि ताहि वदो मनवचतन ॥२३॥ जाके वंदन थको दोष दुखदरिहिं जावै, जाके वंदन थकी मुक्तितिय सन्मुख आवै। जाके वंदन थकी वंद्य होव सुरगनके, ऐसे वीर जिनेश वन्दि हूं क्रमयुग तिनके ॥२४॥ सामायिक षट्कर्ममाहि बंदन यह पंचम, बंदे वीर जितेंद्र इंद्रशत वंद्य वंद्य मम । जन्म मरणभयहरो करो अघशांति शांतिमय,मै अघकोष सुपोषदोषको दोष विनाशय ।२५॥ इति पचम वदना कर्म ॥५॥ ६-अथ छहा कायोत्सर्ग कर्म कायोत्सर्ग विधान करूं अंतिम सुखदाई, कायत्यजनमय होय काय सबको दुखदाई। पूरब दक्षिण नमूं दिशापश्चिम उत्तरमै, जिनगृह वंदन करूं हरूं भवपापतिमिर मै ।२६। शिरोंनती मैं करूं नमूं मस्तककरधरिक, आवर्ताविक क्रिया करूं मनवच मद हरिक। तीनलोक जिनभवन माहिंजिन है जु अकृत्रिम, कृत्रिमहैद्वय अर्द्धद्वीप माहीं वन्दोजिम ॥२७॥ आठकोडिपरिछप्पन्नलाख जुसहससत्याण चारिशतपकरिअसीएकजिनमंदिरजाण । व्यंतर जोतिषिमाहि संख्यरहिते जिनमंदिर,जिनगृह वंदनकरूं हरहुममपाप संघकर ।२८। सामायिकसम नाहि औरकोउ वैरमिटायक,सामायिकसम नाहिंऔर कोउ मैत्री दायक । श्रावकअणुवत आदि अंत सप्तमगुणयानक, यह आवश्यक किये होयनिश्चयदुखहानक ॥ जे भवि आतमकाज-करण उद्यम के धारी, ते सब काज विहायकरो सामायिक सारी। राग दोषमदमोहक्रोध लोभादिक जे सब,बुधमहाचन्द्रविलाय जाय ताते कीज्यो अब ।३०॥ इति छठ्ठा कायोत्सर्ग कर्म ॥६॥ -इति सामायिक पाठ भाषा समाप्त [५३] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा समस्त सम्पत्तियों को आधार भूमि है। ___ श्री अमितगति सूरी कृत सामायिक पाठ सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, - क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम् । माध्यस्त भावं विपरीत वृत्तौ, - सदा ममात्मा विदधातु देव ॥१॥ शरीरतः कर्तु मनन्त शक्ति, - विभिन्न मात्मानम पास्त दोषम् । जिनेन्द्र कोषादिव खड्गष्टि, - तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः ॥२॥ दुःखे सुखे वैरिणि बन्धु वर्गे, - योगे वियोगे भवने वनेवा। निराकृता शेष ममत्व बुद्ध, - समं मनोमेऽस्तु सदापि नाथ ॥३॥ मुनीश! लीनाविव कोलिताविव, - स्थिरौ निषाताविव विम्बिताविव । पादौत्वदीयो मम तिष्टतां सदा, - तमोधुनानौ हृदि दोपकाविव ॥४॥ एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः, - प्रमादतः संचरता इतस्ततः । क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडिता, - तदस्तु मिथ्या दुर नुष्टितंतदा ॥५॥ विमुक्ति मार्ग प्रतिकूल वतिना, - मया कषायाक्षवशेन दुधिया । चारित्र शुद्ध र्यद कारिलोपन, - तदस्तु मिथ्या ममदुष्कृतं प्रभो ॥६॥ विनिन्दना लोचन गर्हणैरहं, - मनोवचः काय कषाय निर्मितम् । निहन्मि पापं भव दुःखकारणं, - भिषग्विषं मंत्र गुणैरिवा खिलम् ॥७॥ अतिक्रमंयं द्विमते य॑तित्रमं, - जिनातिचारं सुचरित्र कर्मण । व्यधादना चारमपि प्रमादतः, - प्रतिक्रमं तस्यं करोमि शुद्धये ॥८॥ क्षतिमनः शुद्धि विधेरतिक्रमम्, - व्यतिक्रमं शीलाते विलंघनम् । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्त्तनम्, - वदन्त्यनाचार मिहाति शक्तिताम् ॥९॥ यदर्थ मात्रा पद वाक्य होनम्, - मया प्रमादाद्यदि किंचनोक्तम् । तन्मक्षमित्वाविद्धातु देवी, - सरस्वती केवल बोधलब्धि ॥१०॥ बोधिः समाधिः परिणाम शुद्धिः, - स्वात्मोपलब्धि शिवसौख्य सिद्धिः । चिन्तामणि चितित वस्तु दाने, - त्वां वंद्य मानस्य ममास्तुदेवी ॥११॥ यः स्मर्यते सर्व मुनीन्द्रवृन्दै, - यः स्तूयते सर्व नरामरेन्द्रः । योगी यते वेद पुराण शास्त्र, - सदेव देवो हृदये ममस्ताम् ॥१२॥ [३४] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवारिक कलह प्राहस्थ्य सुलों को भस्म करती है। यो दर्शन ज्ञान सुख स्वभावः, - समस्त संसार विकार बाह्यः । समाधिगम्यः परमात्म संज्ञः, - सदेव देवो हृदये ममस्ताम् ॥१३॥ निषूदते यो भव दुःख जालम्, - निरीक्षते यो जगदन्तरालम् । योऽन्तर्गतो योगि निरीक्षणीयः, - सदेव देवो हृदये ममस्ताम् ॥१४॥ विमुक्ति मार्ग प्रतिपादको यो, - यो जन्म मृत्यु व्यसनाद्वयतीतः । त्रिलोक लोको विकलोऽकलंकः, - सदेव देवो हृदये ममस्ताम् ॥१५॥ कोड़ी कृताशेष शरीरिवर्गाः, - रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञान मयोऽनपायः - सदेव देवो हृदये ममस्ताम् ॥१६॥ यो व्यापको विश्व जनीन वृत्तः, - सिद्धो विबुद्धो धुत कर्म बन्धः । ध्यातो धुनीते सकलं विकार, - सदेव देवो हृदये ममस्ताम् ॥१७॥ न स्पृश्यते कर्म कलंक दोषः, - यो ध्वान्त संधैरिव तिग्मरश्मिः । निरंजनं नित्य मनेकमेकं, - तं देव माप्तं शरणं प्रपद्ये ॥१॥ विभासते यत्र मरीचि माली, - न विद्यमाने भुवनावभासी । स्वात्मस्थितं बोधमय प्रकाशम्, - तं देव माप्तं शरणं प्रपद्ये । १६॥ विलोक्य माने सति यत्र विश्वं, - विलोक्यते स्पष्टमिदं विविक्तम् । शुद्धं शिवं शान्त मनाद्यनन्तम्, - तं देव माप्तं शरणं प्रपद्ये ॥२०॥ ये नक्षता मन्मथमान मूर्छा, - विषाद निद्रा भय शोक चिन्ता। क्षयोऽनलेनेव तरू प्रपंच, - स्तं देव माप्तं शरणं प्रपद्ये ॥२१॥ म संस्तरोऽश्मान तृणं न मेदिनी, - विधानतो नोफल कोवि निर्मितम् । यतो निरस्ताक्ष कषाय विद्विषः, - सुधी भिरात्मैव सु निर्मलोमतः ॥२२॥ न संस्तरो भद्र समाधि साधनं, - न लोक पूजां नच संघ मेलनम् । य तस्तत्तोऽध्यात्मरतो भवानिशं, - विमुच्य समिपि बाह्य वासनाम् ॥२३॥ नसन्ति बाह्या मम केचनार्थाः, - भवामि तेषां न कदाच नाहम् । इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य वारं, - स्वस्थः सदात्वं भव भद्रमुत्तयै ॥२४॥ [५५ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय शून्य का शास्त्राध्ययन निरर्थक है। आत्मान - मात्मन्य विलोक्य मानस्त्वं,- दर्शन ज्ञान मयो विशद्धः । एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र, - स्थितोपि साधुर्लभते समाधिम् ॥२५॥ एकः सदा शाश्वति को ममात्मा, - विनिर्मलः साधिगमस्वभावः । वहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ताः, - नशाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः ॥२६॥ यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि सार्द्ध, - तस्यास्ति किं पुत्र कलत्र मित्रः । पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपाः, - कुतो हि तिष्टन्ति शरीर मध्ये ॥२७॥ संयोगतो दुःख मनेक - भेदं, - यतोऽश्रुते जन्म वने शरीरी। ततस्त्रि धासौ परिवर्ज नियो, - यियासुना निर्वृति मात्मनोनाम् ॥२८॥ सर्व निराकृत्य विकल्प जालं, - संसार कान्तार निपात हेतुम् । विविक्त मात्मान मवेक्ष्य मानो, - निलीय से त्वं परमात्म तत्त्वे ॥२६॥ स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, - फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, - स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥३०॥ निजाचितं कर्म विहाय देहिनो, - नकोपि कस्यापि ददाति किंचन । विचार यन्नेव मनन्य मानसः, - परोद दातीति विमुच्य शेमुषीम् ॥३१॥ यः परमात्माऽमित गति वन्धः, - सर्व विविक्तो भृशमनवद्यः । शश्व दधीते मनसि लभन्ते, - मुक्ति निकेतं विभव वरं ते ॥३२॥ इति द्वात्रिंशता वृत्तः, - परमात्मा न मीक्षते । योऽनन्य गत चेतस्को, - यात्यसौ पदमव्ययम् ॥३३॥ - इति सामायिक पाठ:-- [५६] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्योदय होने पर वज्रपात भी पुष्प सहश हो जाते है । का कल्याणालोचनां परमात्मानं वद्धितमति परमेष्ठिनं करोमि नमस्कारम् । स्वक परसिद्धि निमित्तं कल्याणालोचनां वक्ष्ये ॥१॥ रे जीव ! अनंतभवे संसारे संसरता बहुवारम् । प्राप्तो न बोधिलाभो मित्थात्व विजं भित प्रकृतिभिः ॥२॥ संसार भ्रमण गमनं कुर्वन् आराधितो न जिन धर्मः । तेन विना वरं दुःखं प्राप्तोऽसि अनंतवारम् ॥३॥ संसारे निवसन् अनंतमरणानि प्राप्तोऽसित्वम् । केवलिना विना तेषां संख्या पर्याप्तिन भवति ॥४॥ त्रीणि शतानि षट्त्रिंशानि षट्षष्टिसहसवार मरणानि । अन्त - मुहूर्त मध्ये प्राप्तोऽसि निगोद मध्ये ॥५॥ विकलेन्द्रिये ऽशीति षष्टि चत्वारिंशदेवजानीहि । पचेन्द्रिये चतुर्विंशति क्षुद्रभवान् अन्त - मुहूर्ते ॥६॥ अन्योन्यं अध्यन्तो जीवा प्राप्नुवन्ति दारुणं दुःखम् । न खलु तेषां पर्याप्तीः कथं प्राप्नोति धर्ममतिशून्यः ॥७॥ माता पिता कुटुम्बः स्वजनजनः कोऽपि नायाति सह । एकाकी भ्रमति सदा न हि द्वितीयोऽस्ति संसारे ॥८॥ आयुः क्षयेपि प्राप्तेन समर्थः कोपि आयुर्दाने च । देवोन्द्रो न नरेन्द्रः मण्योषध मन्त्रजालानि ॥६॥ सम्प्रति जिनवर धर्म लब्धोऽसित्वं विशुद्ध योगेन । क्षमस्व जीवान् सर्वान् प्रत्येकं समये प्रयत्नेन ॥१०॥ त्रीणिशतानि त्रिषष्टि मिथ्यात्वानिदर्शनस्य प्रतिपक्षाणि । अज्ञानेन अद्धितानि मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥११॥ मधु मांस मद्य द्यूत प्रभृतीनि व्यसनानि सप्त भेदानि । नियमो न कृतः च तेषां मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।।१२। 15 [५७] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप के उदय में पुण्य भी वनवत् दुःखदायी होता है। अणुव्रत महावतानि यानि यम नियमशीलानि साधुगुरुदत्तानि । यानि यानि विराधितानि खलु मिथ्यामे दुष्कृतं भवतु ॥१३॥ नित्येतर धातु सप्त, तरुदश विकलेन्द्रियेषु षट्चैव सुर नारक । निर्यक्षु चत्वारः चतुर्दश मनुष्ये शत सहस्त्राणि ॥१४॥ एते सर्वेजीवा श्चतुरशीतिलक्षयोनि वशे प्राप्ताः । ये ये विराधिताः खलु मिथ्यामे दुष्कृतं भवतु ॥१५॥ पृथ्वी जलाग्निवायु तेजो वनस्पतयश्व विकलत्रयाः। ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥१६॥ मल सप्तजिनोक्ता वृत विषये या विराधना विविधा । सामायिक क्षमादिका मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥१७॥ फलपुष्पत्वग्वल्ली अगालितस्नानं च प्रक्षालनादिभिः । ये ये विराधिताः खलु मिथ्यामे दुष्कृतं भवतु ॥१८॥ न शीलं नैवं क्षमा विनयस्तपो न संयमोपवासाः। न कृता न भावनी कृता मिथ्यामे दुष्कृतं भवतु ॥१६॥ कन्दफल मूल बीजानि सचित्तरजनी भोजनाहाराः । अज्ञानेन येऽपि कृता मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥२०॥ नो पूजा जिन चरणे न पात्र दानम् न चेर्या गमनम् । न कृता न भाविता मया मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥२१॥ बह्यारंभ परिग्रहसावधानि बहूनिप्रमाद दोषेण । जीवा विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥२२॥ सप्तति शत क्षेत्र भवा? अतीतानागत वर्तमान जिनाः । ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥२३॥ अर्हत्सिद्धाचार्यों उपध्याया साधवः पंचपरमेष्टिनः।। ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥२४॥ जिनवचनं धर्मः चैत्यं जिनप्रतिमा कृत्रिमा अकृत्रिमाः । ये ये विराधिताः खलु मिथ्यामे दुष्कृतं भवतु ॥२५॥ दर्शन ज्ञान चारित्रे दोषा अष्टाष्ट पंच भेदाः । ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥२६॥ [५८] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापोक्य के समय मित्र शत्रु बन जाते हैं। मतिः श्रुत अवधिः मनः पर्ययः तथा केवलं च पंचकम् । ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥२७॥ आचारादीन्यंगानि पूर्व प्रकीर्णकानि जिनः प्रणीतानि । ये ये विराषिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥२८॥ पंचमहावतयुक्ता अष्टादश सहनशील कृत शोभाः। ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥२६॥ लोके पितृसमाना ऋद्धिप्रपन्ना महागणपतयः। ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥३०॥ निप्रथा आयिकाः श्रावकाः श्राविकाः च चतुर्विषः संघः । ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥३१॥ देवा असुरा मनुष्या नारकाः तिर्यग्योनिगत जीवाः । ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥३२॥ क्रोषो मानं माया लोभः एते राग दोषाः । अज्ञानेन येऽपि कृता मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥३३॥ परवस्त्रं परमहिला प्रमादयोगेनाजितं पापम् । अन्येऽपि अकरणीया मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥३४॥ एकः स्वभाव सिद्धः स आत्मा विकल्प परिमुक्तः । अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥३५॥ अरसः अरूपः अगंधः अव्याबाधः अनन्तज्ञानमयः । अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥३६॥ जय प्रमाणं ज्ञानं समयेन एकेन भवति स्वस्वभावे । अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥३७॥ एकानेक विकल्पप्रसाधने स्वक स्वभाव शुद्धगतिः । अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥३८॥ देहप्रमाणः नित्यः लोकप्रमाणः अपि धर्मतो भवति । अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥३६॥ केवल दर्शनज्ञाने समये नैकेन द्वौ उपयोगौ । अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥४०॥ [५] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य जोड़ने से नहीं बढ़ता खर्च करने से बढ़ता है। स्वक रूप सहज सिद्धो विभाव गुण मुक्त कर्म व्यापारः । अन्यो न मम शरणं स एकः परमात्मा ॥४१॥ शून्यो नै वा शून्यो नो कर्म कर्म वजितं ज्ञानम् । अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥४२॥ ज्ञानतो यो न भिन्नः विकल्पभिन्नः स्वभावसुखमयः। अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥४३॥ अच्छिन्नोऽवच्छिनः प्रमेयरूपत्वं अगुरुलघुत्वं चैव । अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥४४॥ शुभा शुभ भाव विगतः शुद्ध स्वभावेन तन्मयं प्राप्तः। अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥४५॥ न स्त्री न नपुंसको न पुमान् “णेव पुण्ण याव मओ"। अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥४६॥ तव को न भवति स्वजनः त्वं कस्य न बंधुः सुजनो वा। अत्मा भवेत् आत्मा एकाकी ज्ञायकः शुद्धः ।।४७॥ जिनदेवो भवतु सदा मतिः सुजिनशासने सदा भवतु । सन्यासेन च मरणं भवे भवे मम सम्पत् ॥४८॥ जिनो देवो जिनो देवो जिनो देवो जिनो जिनः। दयाधर्मो दयाधर्मो दयाधर्मो दया सदा ॥४६॥ महासाधवः महासाधवः महासाधवो दिगंबराः । एवं तत्त्वं सदा भवतु यावन्न मुक्ति संगमः ॥५०॥ एव मेव गतः कालोऽनन्तो हि दुःखसंगमे । जिनोपदिष्ट सन्यासे न यत्नारोहणा कृता ॥५१॥ सम्प्रति एव सम्प्राप्ताराधना जिनदेशिता । का का न जायते मम सिद्धि सन्दोह सम्पत्तिः ॥५२॥ अहो धर्मः अहो धर्मः अहो मे लब्धिनिर्मला । संजाता सम्पत् सारा येन सुखं अनुपमम् ॥५३॥ एवमाराधयन् आलोचना वंदना प्रतिक्रमणानि । प्राप्नाति फलं च तेषां निर्दिष्टम जित ब्रह्मणा ॥५४॥ - इति कल्याणालोचना। - [६०] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्य के बिना चलना चरणों का अभिशाप है। AAM । ईर्यापथ शुद्धि हूँ निः संगोऽहंजिनानां सदनमनुपमं त्रिः परीत्येत्य भक्त्या। स्थित्वा गत्वा निषधोच्चरणपरिणतोन्तः शनैर्हस्तयुग्मम् ॥ भाले संस्थाप्य बुद्धया मम दुरितहरं कीर्तये शक्रवन्ध । निन्दादूरं सदाप्तं क्षयरहितममुं ज्ञानभानु जिनेन्द्रम् ॥१॥ श्रीमत्यवित्रमकलंक मनन्त कल्पं । स्वायम्भुवं सकल मंगलमादितीर्थम् ॥ नित्योत्सवं मणिमयं निलयं जिनानां । त्रैलोक्य भूषणमहं शरणं प्रपद्ये ॥२॥ श्रीमत्परमगम्भीर स्याद्वादामोघ लाञ्छनम् । ___ जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥३॥ श्री मुखा लोकनादेव श्रीमुखालोकनं भवेत् । - आलोकनविहीनस्य तत्सुखावाप्तयः कुतः॥४॥ अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य । देव त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलक प्रतिभासते मे । संसारवारिधिरयं चुलक प्रमाणं ॥५॥ अद्य मे क्षालितं गात्रं नेत्रे च विमले कृते । स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥६॥ नमोनमः सत्त्व हितंकराय । वीराय भव्याम्बुजभास्कराय ॥ अनन्तलोकाय सुरार्चिताय । देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥७॥ नमोजिनाय त्रिदशाचिताय । विनष्टदोषाय गुणार्णवाय ॥ विमुक्ति मार्ग प्रतिबोधनाय । देवाधि देवाय नमो जिनाय ॥८॥ देवाधिदेव परमेश्वर वीतराग । सर्वत्र तीर्थंकर सिद्ध महानुभाव ॥ त्रैलोक्यनाथ जिनपुंगव वर्द्धमान । स्वामिन्गतोऽस्मि शरणं चरणद्वयंते ॥६॥ जितमद हर्ष द्वेषा जितमोह परीषहा जितकषायाः । जितजन्म मरणरोगा जितमात्सर्या जयन्तु जिनाः ॥१०॥ जयतु जिनवर्द्धमान स्त्रिभुवनहितधर्मचक्र नीरज बन्धुः । त्रिदशपति मकुट भासुर चूडामणि रश्मि रंजितारुणचरणः ॥११॥ 16 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनीति तूफान का अंधेरा है। imamammmwarmammmmmmmmmmre जय जय जय त्रैलोक्य काण्ड शोभि शिखामणे, नुद नुद नुद स्वान्तध्वान्तं जगत्कमलार्क नः । नय नय नय स्वामिन् शांति नितान्तमनन्तिमां, नहि नहि नहि त्राता लोककमित्र भवत्परः ॥१२॥ चित्ते मुखे शिरसि पाणिपयोजयुग्मे, भक्ति स्तुति विनति मञ्जलि मजसैव । चक्रीयते चरिकरीति चरीकरोति, यश्चर्करीति तव देव स एव धन्यः ॥१३॥ जन्मोन्मायं भजतु भवतः पादपद्म न लभ्यं, तच्चेत्स्वैरं चरतु न च दुर्देवतां सेवतां सः । अश्नात्यन्नं यदिह सुलभं दुर्लभं चन्मुधास्ते, क्षुद्व्यावृत्त्य कवलयति कः कालकूटं बुभुक्षुः॥१४॥ रूपं ते निरुपाधि सुन्दर मिदं पश्यन् सहस्त्र क्षणः, प्रेक्षाकौतुककारि कोऽत्र भगवन्नोपैत्यवस्थान्तरम् । वाणी गद्गदयन्वपुः पुलकयन्नेत्रद्वयं सावयन्, मूर्धानं नमयन्करी मुकुलयंश्चेतोऽपि निर्वापयन् ॥१५॥ वस्तारातिरिति त्रिकालविदित त्राता त्रिलोक्या इति, श्रेयः सूतिरिति श्रियांनिधिरिति श्रेष्ठः सुराणामिति । प्राप्तोऽहं शरणं शरण्य मगतिस्त्वां तत्त्यजो पेक्षणं, रक्ष क्षेमपदं प्रसीद जिन कि विज्ञापितोपितैः ॥१६॥ त्रिलोक राजेन्द्र तिरीटकोटि प्रभाभिरालीढ पदारविन्दम् । निर्मूल मुन्मूलित कर्मवृक्षं, जिनेन्द्र चन्द्र प्रणमामि भक्त्या ॥१७॥ कर चरण तनु विघाता दटतो विहितः प्रमादतः प्राणी । ईर्या पथ मिति भीत्या मुञ्चे तद्दोष हान्यर्थम् ॥१८॥ ईर्यापथे प्रचलताऽद्य मया प्रमादा देकेन्द्रिय प्रमुख जीव निकाय बाधा । निर्वतिता यदि भवेद युगांतरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे ॥१६॥ [६२] Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपट रूपी कटार से गरीबो का गला मत काटो। पडिक्कमामि भत्ते । इरियावहियाये। विराहणाये। अगागुत्ते । अइग्गमणे। णिग्गमणे । ठाणे । गमणे। चक्कमणे । पाणुग्गमणे। बीजुग्गमणे । हरिदुग्गमणे । उच्चारपस्सवणखेलसिंघाणयवियडिपयिगवणाये । जे जीवा एइंदियावा बेइंदियावा । तिइंदियावा । चरिदियावा । पंच्च्येदिवा । णोल्लिदावा । पिल्लिदावा । संघटिदा वा । संवादिदा वा । ओदाविदा वा । परिदाविदा वा । किरिच्छिदा वा । लेस्सिदा वा । छिदिदा वा । भिदिदा वा । ठाणदो वा । ठाणचक्कमणदो वा। तस्स उत्तरगुणं । तस्स पायच्छित्त करणं । तस्स विसोहिकरणं। जावरहंताणं भयवंताणं । णमोकारं करेमि । तावकायं पावकम्मं दूच्चरियं वोस्सरामि । ॐ णमो अरहताणं । णमो सिद्धाणं। णमो आयरियाणं । णमो उवज्शायाणं । णमो लोये सव्वसाहूणं । ॥ जाप्य ॥ ॐ नमः परमात्मने । नमोऽनेकान्ताय शान्तये ॥ इच्छामि भंते ! इरयावहिमालोचेउ। पुव्वुत्तर दक्षिण पच्छिम चउदिसु विदिसासु विहरमाणेण। जुगुत्तरदिछिणा । “भन्वेण दळव्वा । डवडवचरियाये । पमाददोसेण, पाणभूदजीवसत्ताणं । एदेसि उवघादो कदो वा । कारिदो वा । किरंतो वा । समणमणुदो वा । तस्य मिच्छा मे दुक्कडं । पापिष्टेन दुरात्मना जडधिया मायाविना लोभिना । रागद्वष मलीमसेन मनसा दुष्कर्म यन्निमितम् ॥ त्रैलोक्याधिपते जिनेन्द्र भवतः श्रीपाद मूलेऽधुना। निन्दापूर्वमहं जहामि सततं निर्वये कर्मणाम् ॥१॥ - द्वित्रि चतुरिंद्रियाः प्राणा, भूतास्ते तखः स्मृताः ॥ जीवाः पंचेंद्रिया ज्ञया शेषाः सत्वाः प्रकीर्तिता॥ - इति [६३ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वास देके छलना सबसे बड़ा पाप है। ॥ श्री॥ ॥ श्री॥ प्रतिक्रमण जिनेन्द्र मुन्मूलित कर्म बन्ध, प्रणम्यसन्मार्ग कृतस्वरूपम् । अनंत बोधादि भवं गुणोघं, क्रियाकलापं प्रकटं प्रवक्ष्ये ॥१॥ अथाहत्पूजारम्भ क्रियायां पूर्वाचार्या नु क्रमेण सकल कर्म क्षयार्थभाव पूजा वन्दना स्तव समेतं श्रीमत्सिद्ध भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् ॥ ॐ णमो अरहताणं । णमो सिद्धाणं । णमो आयरिणाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणम् ॥१॥ चत्तारि मंगलं । अरहंत मंगलं ॥ सिद्ध मंगलं । साहू मंगलं ॥ केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं ।। चत्तारि लोगुत्तमा । अरहंत लोगुत्तमा । सिद्ध लोगुत्तमा । साहु लोगुत्तमा । केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा ॥ चत्तारि सरणं पन्वज्जामि । अरहंत सरणं पव्वज्जामि ॥ सिद्धसरणं पव्वज्जामि । साहुसरणं पवज्जामि ।। केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पन्वज्जामि ॥ ॥ सामायिकादि करितो असी प्रतिज्ञा करणे ॥ अढाइज्जदीव दोसमुद्देसु, पण्णारस कम्मभूमिसु, जाव अरहंताणं भववंताणं आदियराणं तित्थयराणं जिणाणं जिणोत्तमाणं, केवलियाणं सिद्धाणं बुद्धाणं परिणिब्बुदाणं अंतयडाणं पारयडाणं, धम्माइरियाणं, धम्मेद सियाणं, धम्मेणायगाणं धम्मवर चाउरंग चक्कवट्टीणं देवाहि देवाणं,णाणाणं,दसणाणं, चरित्ताणं सदा करेमिकिरियम्मं ॥ ॥ सामायिक ॥ करेमि भंते सामायियं, सव्वसावज्जजोगं पच्चक्खामि । जावज्जीवं तिविहेण मणसा, वचसा, कायेण ण करेमि, ण कारेमि, करतं पिण समणुमणामि । तस्सभंते अइचारं पडिक्कमामि जिंदामि, गरहामि जाव अरहताणं भयवंताणं पज्जुवासं करेमि तावकालं पावकम्म, दुचरियं वोसरामि ॥ ॥ जाप्य : णमोकार मंत्राचे करावे ॥ तदुक्त:- जीविय मरणे लाहालाहे संजोग विप्प जोगेय । बंधुरि सुह दुक्खादो समदा सामायियं णाम ।। [६४] Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन लोलुपता स्नेह का नाश करती है। -: चौबीस तीर्थकरांची स्तुति : त्थोस्सामिहं जिणवरे तित्थयरे केवली अणन्त जिणे । गरपवरलोयमहिए, विहुयरयमले महप्पण्णे ॥१॥ लोयस्सु ज्जोययरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे। अरहते कित्तिस्से, चउवीसं चेव केवलिणो ॥२॥ उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमईच। पउमप्पहुं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥३॥ सुविहिं च पुष्फयंतं, सीयल सेयं च वासुपुज्जं च । विमलमणंतं भयवंधम्म संति च वंदामि ॥४॥ कुंथु च जिणरिदं, अरं च मल्लि च सुव्वयं च मि । वंदाम्यरिढणेमि तह पासं वढ्ढमाणं च ॥५॥ एवं मम भित्थुया विहुयरयमला पहीण जरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥६॥ कित्तिय वंदिय महिया एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा। आरोग्गणाणंलाह, दितु समाहिं च मे बोहि ॥७॥ चंदेहि णिम्मलयरा, आइहि अहियपहा सत्ता। सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥८॥ [६५] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रस लोलुपता शरीर का नाश करती है। (सिद्ध भक्तिः सिद्धानुद्भूतकर्मप्रकृतिसमुदया, न्साधितात्मस्व भावान् । वंदे सिद्धिप्रसिध्धे तदनुपम, गुण प्रग्रहा कृष्टि तुष्टः ॥ सिद्धःस्वात्मोपलब्धिः प्रगुणगुण गणोच्छादि दोषापहारात् । योग्योपादानयुक्त्या दृषद इह यथा हेम भावोपलब्धिः ॥१॥ नाभावः सिद्धिरिष्टा न निजगुण हतिस्तत्तपोभिर्न युक्तेः । अस्त्यात्मानादिबद्धः स्वकृतजफलभुक् तत्क्षयान्मोक्षभागी॥ ज्ञाता दृष्टा स्वदेह प्रमिति रुप समाहार विस्तार धर्मा । प्रौव्योत्पत्ति व्ययात्मास्वगुणयुत इतो नान्यथा साध्य सिद्धिः ॥२॥ स त्वन्तर्बाह्यहेतु प्रभव विमल सद्दर्शन ज्ञान चर्या । संपद्धति प्रघात क्षत रित तया व्यजिता चिन्त्यसारैः॥ कैवल्यज्ञानदृष्टि प्रवरसुख महावीर्य सम्यक्त्व लब्धि । ज्योति तिायनादि स्थिरपरम गुणरै तै समानः ॥३॥ जानन्पश्यन्समस्तं सममनुपरतं संप्रतृप्यन्वितन्वन् । धुन्वन्ध्वान्तं नितान्तं निचितमनुसमं प्रीणयन्नीशभावम् ।। कुर्वन्सर्व प्रजानाम परमभिभवन् ज्योतिरात्मान मात्मा। आत्मन्ये वात्मनासौ क्षणमुपजनयन्सत्स्वयंभूः प्रवृत्तः ॥४॥ छिन्दन्शेषान शेषान्निगलबल कली स्तैरनन्तस्वाभावः । सूक्ष्मत्वान यावगाहागुरुलघुकगुणः क्षायिकः शोभमानः । अन्यैश्चान्यव्यपोह प्रवण विषय संप्राप्ति लब्धि प्रभावै । रुध्वं बज्यास्वभावात्समयमुपगतो धाम्नि संतिष्टतेऽनये ॥५॥ अन्याकाराप्तिहेतुर्न च, भवति परो येन तेनाल्पहीनः । प्रागात्मोपात्त देह प्रतिकृति रुचिराकार एव ह्यमूर्तः ॥ क्षुत्तृष्णाश्वासकास ज्वर मरण जरानिष्ट योग प्रमोह । व्यापत्यायु प्रदुःख प्रभव भवहतेः कोऽस्य सौख्यस्य माता ॥६॥ [६६] Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिवादी दिग्भ्रान्त पक्षी के समान शून्य में भमण करता है। आत्मोपादान सिद्धं, स्वय मति शय वद्वीत बाधं विशालं । वृद्धिन्हासव्यपेतं, विषय विरहितं निः प्रति द्वन्द्व भावम् ॥ अन्य द्रव्यान पेक्षं, निरुपम ममितं शाश्वतं सर्व कालं। उत्कृष्टा नंत सारं, परम सुखम तस्तस्य सिद्धस्य जातम् ॥७॥ नार्थः क्षुत्त विनाशा द्विविध रस, युतैरन्न पानर शुच्या । नास्पृष्टर्गन्ध माल्यन हि, मृदु शयनग्लानि निद्राद्य भावात् ।। आतंकातेर भावे तदुपशमन, सद्भष जानर्थ तावद । दीपा नर्थक्य वद्वा, व्यपगत तिमिरे दृश्यमाने समस्ते ।। तावसम्पत्समेता विवध नय, तपः संयम ज्ञान दृष्टि । चर्या सिद्धाः समन्ता, प्रविततयशसो विश्व देवाधि देवाः ॥ भूता भव्या भवंतः सकल, जगति, ये स्तूयमाना विशिष्टः । तान्सर्वान्नौम्य नंतान्नि, जिगभिषुररं, तत्स्वरूपं त्रिसन्ध्यम् ॥६॥ कृत्वा कायोत्सर्ग, चतुरष्ट दोष विरहितं, सुपरि शुद्धम् । अति भक्ति संप्रयुक्तो, यो वंदते, सलघु लभते परमसुखम् ॥१॥ - कायोत्सर्ग ३२ दोष टाकून करणे ते असे - घोडयल दाय खंभे कूडे मालेय सबरव धुणि गले । लंबुत्तरथणदिठ्ठी वायस खलिणे जुगक विळे ॥१॥ सीक्षप कंपिय मुइयं अंगुलि भूविकार वारुणी पेई । काउत्सग्ग मुठिठदो एदे दोसा परिहरिज्जो ॥२॥ आलोयणं दिसाणं गीवा उण्णामणं पणमणं च । णि वणं आमरिसं काउस्सग्गं व वज्जेज्जो ॥३॥ - आलोचना करणे ती असीइच्छामि भंते सिद्धभत्ति काउस्सग्गो को तम्सा लोचेउं । सम्मणाण सम्मदंसण सम्मचारित्त जुत्ताणं, अदिह कम्म विप्प मुक्काणं, अठगुण संपण्णाणं, उढ्ढलोयमच्छयम्मि पयळ्यिाणं, तब सिद्धाणं, णय सिद्धाणं, संजम सिद्धारणं, अतीताणागद वट्टमाण कालत्तय सिद्धाणं, सव्व सिद्धाणं सया णिच्च कालं अंचेमि, वंदामि, पूजेमि, पमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगईगमणं, समाहिमरणं, जिण गुण संपत्ति होउ मज्झं। * समाप्त * . [६७] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौतिकवादी पंखहीन फीट केवल मिट्टी मे रमण करता है। mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm अथ श्रुत भक्तिः ५ स्तोष्ये संज्ञानानि परोक्ष प्रत्यक्षभेद भिन्नानि । लोकालोक विलोकन लोलित सल्लोकलोचनानि सदा ॥१॥ अभिमुख नियमित बोधनमाभिनिवोधिक मनिद्रियेन्द्रियजम् । बह्वाधव ग्रहादिक कृतषट् त्रिंशत् त्रिशतभेदम् ॥ २॥ विविद्धिबुद्धि कोष्टस्फुट बीज पदानुसारि बुद्ध्यधिकं । संभिन्न श्रोतृतया सार्य श्रुतभाजनं वन्दे ॥ ३ ॥ श्रुतमपि जिनवरविहितं गणधररचितं द्वयनेकभेदस्थम् । अंगांगवाह्य भावित मनंत विषयं नमस्यामि ॥ ४ ॥ पर्यायाक्षर पदसंघात प्रतिपत्तिकानुयोग विधीन् । प्राभूतक प्राभृतकं प्राभूतकं वस्तुपूर्व च ॥५॥ तेषां समासतोऽपि च विशति भेदान्समथुवानं तत् । वन्दे द्वादश घोक्तं गंभीर वरशास्त्र पद्धत्या ॥ ६ ॥ णिच्च णिगोद अपज्जत्तयस्स जादस्स पढम समयहि । हवदिह सव्व जहण्णं णिच्चुग्घाडं गिरावरणं ॥ आचारं सूत्रकृतं स्थानं समवायनामधेयं च । व्याख्या प्रप्ति च ज्ञातृकथो पासकाध्ययने ॥ ७ ॥ वन्देऽन्तकृद्दश मनुत्तरोप पादिकदशं दशावस्थम् । प्रश्नव्याकरणं हि विपाकसूत्रं च विनमामि ॥ ८ ॥ परिकर्म च सूत्रं च स्तौमि प्रथमानुयोगपूर्वगते। सार्द्ध चुलिकयापि च पंचविधं दृष्टिवादं च ॥ ९ ॥ पूर्वगतं तु चतुर्दश घोदित मुत्पाद पूर्वमाद्य महम् । आग्राय णीयमोडे पुरुष वीर्यानु प्रवादं च ॥१०॥ संततमहम भिवंदे तथास्ति नास्ति प्रवादपूर्व च । ज्ञान प्रवाद सत्य प्रवाद मात्म प्रवादं च ॥११॥ कर्म प्रवाद मोडेऽथ प्रत्याख्यान नामधेयं च । दशमं विद्या धारं पृथुविद्यानु प्रवादं च ॥१२॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मवादी राजहंस तुल्य मानस पथ पर गमन करता है। कल्याण नामधेयं प्राणावायं क्रिया विशालं च। अथ लोक बिंदुसारं वंदे लोकानसार पदं ॥१३॥ दश च चतुर्दश चाष्टावष्टादश च द्वयोद्विषट्कं च । षोडश च विति च त्रिशतंमपि पंचदश च तथा ॥१४॥ वस्तूनि दश वशान्येष्वनुपूर्व भाषितानि पूर्वाणाम् । प्रतिवस्तु प्राभूतकानि विति विति नौमि ॥१५॥ पूर्वान्तं ह्यपरान्त ध्रुवम ध्रुव च्यवनलब्धिनामानि । अध्र वसंप्रणिधि चाप्यर्थ भौमावयाद्य च ॥१६॥ सर्वार्थकल्पनीयं ज्ञानमतोतं त्वनागतं कालम् । सिद्धिमुपाध्यं च तथा चतुर्दशवस्तूनि द्वितीयस्य ॥१७॥ पंचम वस्तु चतुर्थ प्राभूत कस्यानुयोगनामानि । कृतिवेदने तथैव स्पर्शन कर्म प्रकृतिमेव ॥१८॥ बंधन निबंधन प्रक्रमानुपक्रममथाभ्यु दयमोक्षोः । संक्रमलेश्ये च तथा लेश्यायाः कर्मपरिणामौ ॥१६॥ सातमसातं दीर्घ हस्वं भवधारणीय संज्ञं च । पुरुपुद्गलात्मनाम च निधत्तम निधत्तमभिनौमि ॥२०॥ सनिकाचितमनिकाचितमय कर्मस्थितिकपश्चिमस्कंधौ। अल्पबहुत्वं च यजे तद्वाराणां चतुर्विशम् ॥२१॥ कोटीनां द्वादश शतमष्टा पंचशतं सहस्त्राणाम् । लक्षत्यशीतिमेव च पंच च बंदे श्रुतपदानि ॥२२॥ षोडशशतं चतुस्त्रिशत्कोटीनां व्यशोतिलक्षाणि । शतसंख्याष्टा सप्ततिमष्टा शीति च पदवर्णान् ॥२३॥ सामायिकं चतुर्विशतिस्तवं वंदना प्रतिक्रमणं । वनयिक कृतिकर्म च पृथुदशवकालिकं च तथा ॥२४॥ वरमुत्तराध्ययनमपि कल्प व्यवहार मेवमभिवन्दे । . कल्पाकल्पं स्तौमि महाकल्पं पुण्डरीकं च ॥२५॥ परिपाट्या प्रणिपतितोऽस्म्यहं महापुण्डरीकनामव । निपुणान्य शीतिकं च प्रकीर्ण कान्यंग बाह्यानि ॥२६॥ [६] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता मृदु वीणा को झंकार है जो आत्म उन्माद को दूर करती है। पुद्गल मर्यादोक्त प्रत्यक्षं सप्रभेदमधि च । देशावधि परमावधि सविधि भेदमभिवंदे ॥२७॥ परमनसिस्थितमर्थ मनसापरिविद्य मंत्रिमहितगुणम् । ऋजु विपुलमति विकल्पं स्तौमि मनःपर्ययज्ञानम् ॥२८॥ क्षायिक मनन्तमेकं त्रिकाल सर्वार्थ युगपदवभासम् । सकलसुखधाम सततं वंदेऽहं केवलज्ञानम् ॥२६॥ एवमभिष्टुवंतो मे ज्ञानानि समस्तलोकचक्षूषि। लघु भवताज्जार्नाद्ध ज्ञानफलं सौख्यम च्यवनं ॥३०॥ कायोत्सर्ग करूण आलोचना करणे इच्छामि भंते ! सुदभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्य आलोचेउ । अंगोवंगपइण्णए पाहुडय परियम्म सुत्तपढमाणि ओगपुव्वगय चूलिया चेव सुत्तत्थय थुइ धम्म कहाइयं णिच्च कालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खवखओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपति होउ मज्झं । / समाप्तम् V OP अथ चारित्र भक्तिः OD OC श्री पूज्यपाद स्वामी विरचित.. येनेन्द्रान्भुवनत्रयस्य विलसत्केयूर हारांगदान्, भास्वन्मौलि मणिप्रभा प्रविसरोत्तुंगोत्तमांगान्नतान् । स्वेषां पादपयोरुहेषु मुनयश्चक्र : प्रकामं सदा, वंदे पञ्चतयं तमद्य निगदन्नाचारमयचितम् ॥१॥ अर्थव्यंजन तद्दवया विकलता कालोपधाप्रश्रयाः, स्वाचार्याधनपह्नवो बहुमतिश्चेत्यष्टधा व्हाहृतम् । श्रीमज्जातिकुलेन्दुना भगवता,तीर्थस्य कर्ताऽञ्जसा, ज्ञानाचारमहं त्रिधा प्रणिपताभ्युद्धूतये कर्मणाम् ॥२॥ [७०] Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान योग एक अनुपम पेय है जो अंतश्चेतना को पुष्टि देता है। शंकादृष्टि विमोह कांक्षण विधि, व्यावृत्ति सन्नद्धतां । वात्सल्यं विचिकित्सना दुपरति, धर्मोपबंह क्रियाम् ॥ शक्त्या शासनदीपन, हितपथाभ्रष्टस्य संस्थापनम् । वंदे दर्शन गोचरं सुचरितं मूर्ना नमन्नादरात् ॥३॥ एकान्ते शयनोपवेशन कृतिः संतापनं तानवम् । संख्या वृत्ति निबन्धना मानशनं विष्वाण मर्दोदरम् ॥ त्यागं चेन्द्रियदन्तिनो मदयतः स्वादो रसस्या निशम् । षोढ़ा बाह्य महं स्तुवे शिव गति प्राप्तयन्युपायं तपः ॥४॥ स्वाध्यायः शुभ कर्मणश्चुतवतः सं प्रत्यवस्थापनम् । ध्यानं व्यापृतिरा मयाविन गुरौवृद्धे च बाले यतौ ॥ कायोत्सर्जन सत्क्रिया, विनय इत्येवं तपः षड् विधं । वंदेऽभ्यंतर मन्तरंग वलवद्विद्वेषि विध्वंसनम् ॥५॥ सम्यग्ज्ञान विलोचनस्य, दधतः ऋद्धान महन्मते। वीर्यस्याविनिगृहनेन तपसि, स्वस्य प्रयत्नाद्यतेः ।। या वृत्ति स्तरणीव नौर विवरा, लघ्वी भवो दन्वतो। वीर्याचार महं तमूजित गुणं वंदे सतामचितम् ॥६॥ तिस्त्रः सत्तम गुप्तयंस्तनुमनो, भाषा निमित्तो दयाः । पंचेदि समाश्रयाः समितयः पंचवातानीत्यपि ॥ चारित्रो पहितं त्रयोदशतयं पूर्व न दृष्टं पर। राचारं परमेष्टिनो जिनपते ऊरं न मामो वयम् ॥७॥ आचारं सह पंच मंद मुदितं तीर्थ परं मंगलं । निग्रंथानपि सचरित्र महतो वंदे समग्रान्यतीन् । आत्माधीन सुखोदया मनुपमा, लक्ष्मीम विध्वंसिनीं। इच्छन्केवल दर्शनावगमन प्राज्य प्रकाशो ज्वलाम् ॥८॥ अज्ञानाद्य देवीवृतं नियमिनोऽवर्तीष्यहं चान्यथा । तस्मिन्नजित मस्यति, प्रतिनवं चैनो निराकुर्वति ॥ वृत्तेः सप्त नयी निधि सुतपसा, मृद्धि नयत्या तम् । तन्मिथ्या गुरु दुष्कृतं, भवतुमे स्वं निवतो निदितम् ॥९॥ [७१] Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन योग अन्तश्चक्ष को दिव्य दृष्टि देता है। संसार व्यसनाहति प्रचलिता नित्योदय प्रार्थिनः, प्रत्यासन्न विमुक्तयः सुमतयः शांतैनसः प्राणिनः । मोक्षस्यैव कृतं विशालमतुलं सोपानमुच्चस्तराम, आरोहन्तु चरित्र मुत्तममिदं जैनेंद्रमोजस्विनः ॥१०॥ कायोत्सर्ग करणे आलोचना। इच्छामि भंते चारित्तभत्ति काउस्सगो को तस्य आलोचेउ । सम्मण्णाण जोयस्य,सम्मत्ताहिठिठ्यस्स, सव्वपहाणम्स, णिव्वाणमग्गस्स, कम्मणिज्जरफलस्स, खमाहारस्य, पंचमहन्वय संपण्णस्स, तिगुत्तिगुत्तस्स,पंचसमिदिजुत्तस्य, गाणज्झा ण साहणम्स, समया इव पवेसयस्स, सम्मचारित्तस्स सया अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि । दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, वोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहि मरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। इति चारित्रभक्तिः समाप्त urd अथ योगिभक्तिः । जाति जरोरुरोगमरणातुर शोक सहस दीपिताः, दुःसह नरकपतनसन्त्रस्तधियः प्रति बुद्ध चेतसः । जीवितमंबु विदुचपलं तडिदभ्र समा विभूतयः, सकलमिदं विचिन्त्यमुनयःप्रशमायवनान्तमाश्रिताः ॥१॥ बत समिति गुप्ति संयुताः, शमसुखमाधाय मनसि बीतमोहाः । ध्यानाध्ययन वशंगताः, विशुद्धये कर्मणां तपश्चरन्ति ॥२॥ दिनकर किरण निकर संतप्त शिलानि चयेषु निःस्पृहा, मलपटला वलिप्ततनवः शिथिलीकृत कर्म बंधनाः । व्यपगत मदन दर्प रति दोष कषाय विरक्तमत्सराः, गिरि शिखरेषु चंडकिरणाभि मुखस्थितयो दिगंबराः ॥३॥ सज्जानामृतपायिभिः क्षान्तिपय सिच्यमानपुण्यकार्यः । धृत संतोषच्छत्रकः तापस्तीवोऽपि- सायते मुनीन्द्रः ॥४॥ [७२] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र योग आत्म साधना को तुष्ट करता है। शिखिगल कज्जलालिमलिन विबुधाधिपचापचित्रितः, भीमरवैविसृष्ट चण्डाशनिशीतलवायु वृष्टिभिः । गगनतलं विलोक्य जलदैः स्थगितं सहसा तपोधनाः, पुनरपि तस्तलेषु विषमाप्तु निशासु विशंकमासते ॥५॥ जलधाराशरताडिता न चलन्ति चरित्रतः सदा सिहाः । संसारदुःख भीरवः परोषहारातिघातिनः प्रवीराः ॥६॥ अविरत बहल तुहिन कण वारिभि रंघ्रिपपत्रपातन, रनवरतमुक्तसीत् काररवैःपरुषथानिलः शोषितगात्रयष्टयः । इह श्रमणा धृतिकंबलावृताः शिशिर निशाम्, तुषार विषमां गमयन्ति चतुः पथे स्थिताः ॥७॥ इति योगत्रयधारिणः सकलतपः शालिनः प्रवृद्धपुण्यकायाः । परमानन्दसुखैषिणः समाधिमग्र यं दिशं तु नो भदन्ताः ॥८॥ क्षेपक श्लोकगि गिरिसिहरस्था वरिसायाले रुक्खमूलरयणीसु । सिसरे बाहिरसयणा ते साहू वंदिमो णिच्चं ॥१॥ गिरि कंदर दुर्गेषु ये वसंति दिगंवराः । पाणिपात्रपुटाहारास्ते याँति परमां गतिम् ।।२।। कायोत्सर्ग आलोचना। इच्छामि भंते योगभक्तिकाउस्सग्गो को तस्सा लोचउ । अड्डाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमीसु आदावण रुक्खमूलअब्भोवासठाण मोणविरास कपास कुक्कुडासणच उछपक्खखवणादियोग जुत्ताणं सव्वसाहूणं वदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगईगमणं, समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झ। इति योगभक्ति. समाप्तम् । [३] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियों का दास समस्त जगत का दास है। 2. अथ आचार्य भक्तिः 0 सिद्धगुणस्तुतिनिरतानुद्धतं रुषाग्नि जालबहुलविशेषान् । गुप्तिभिरभिसम्पूर्णान् मुक्तियुतः सत्यवचनलक्षितभावान् ॥१॥ मुनिमाहात्म्यविशेषा जिनशासनसत्प्रदीपभासुरमूर्तीन् । सिद्धि प्रपिन्सुमनसो बद्धरजो विपुल भूलघातनकुशलान् ॥२॥ गुणमणिविरचितवपुषः षडद्रव्यविनिश्चितस्य धातॄन्सततम् । रहितप्रमादचर्यान्दर्शनशुद्धान् - गणस्य संतुष्टिकरान् ॥३॥ मोहच्छिदुग्न तपसः प्रशस्त परिशुद्ध हृदयशोभन व्यवहारान् । प्रासुकनिलयाननघानाशा विध्वंसि चेतसो हतकुपथान् ॥४॥ धारितविलसन्मुण्डान्वजित, बहुदंडपिंड मंडलनिकरान् । सकलपरीषहजयिनः क्रियाभिरनिशं प्रमादतः परिरहितान् ॥५॥ अचलान्व्ये पेतनिद्रानस्थान युतान्कष्टदुष्ट लेश्याहीनान् । विधिनानाश्रित वासानलिप्त देहान्विनिजितेद्रिय करिणः ॥६॥ अतुलानुत्कुटिका सान्विविक्त चित्तानखंडित स्वाध्यायान् । दक्षिणभाव समग्रान्व्यपगतमद रागलोभशठ मात्सर्यान् ॥७॥ भिन्नातरौद्र पक्षान्संभावित धर्मशुक्ल निर्मल हृदयान् । नित्यं पिनद्धकुगतीन्पुण्या नगण्यो क्यान्विलीन गारवचर्यान् ॥८॥ तरुमूलयोग युक्तानवकाशा तापयोगराग सनाथान् । बहुजनहितकर चर्यानभयाननधान्महानुभाव विधानान् ।।६।। ईदृशगुणसंपन्नान्युष्मान्भक्त्या विशालया स्थिरयोगान् । विधिनानारतमम्यान्मुकुलिकृतहस्तकमलशोभितशिरसा ॥१०॥ अभिनौमि सकलकलुषप्रभवोदयजन्मजरामरणबन्धनमुक्तान् । शिवमचलमनघमक्षयमव्याहंतमुक्तिसौख्यमस्त्विति सततम् ॥११॥ - कायोत्सर्ग आलोचना .इच्छामि भंते! आयरियभत्तिकाउस्सग्गो को तत्सालोचेउ । सम्मणाण सम्मदंसणसम्मचारित्त जुत्ताणं पंचविहाचाराणं आयरियाणं आयारादिसुदणाणो वंदेसयाण उवज्झायारणं, तिरयणगुणपालणरयाणं, सव्वसाहूणं, सया अंचेमि, पूजेमि, वंदामि,णमंसामि, दुक्खरखओ, कम्मक्खओ, वोहिलाहो सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। ( इति आचार्य भक्ति समाप्त) [७४] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियाधीन रहने वाला मानव चोर कहलाता है। = अथ पंचगुरु भक्तिः 3D श्रीमदमरेन्द्र मुकुट प्रघटित, मणि किरण वारि धाराभिः । प्रक्षालित् पद युगला प्रणमामि, जिनेश्वरान्भक्त्या ॥१॥ अष्ट गुणैः समुपेतान्प्रण वृदुष्टाष्ट, कर्मरिपुसमितीन् । सिद्धान्सतत मनन्तान, नमस्करोमीषतुष्टि संसिद्धये ॥२॥ साचारभुत जलधी, प्रतीर्य शुद्धो रु चरण निरतानाम् । आचार्याणां पदयुग कमलानि, दधे शिरसिमेऽहम् ॥३॥ मिथ्यावादि मदोन ध्वान्त, प्रध्वंसि वचन संवर्भान् । । उपदेश कान्प्रपद्य, मम दुरितारि प्रणाशाय ॥४॥ सम्यग्दर्शन'दीप प्रकाशका, मेय बोध संभूताः । भूरि चरित्र पताकास्ते, साधु गणास्तु मां पातु ॥५॥ जिन सिद्धसूरि देशक साधु वरानमल गुण गणोपेतान् । पंच नमस्कार पदस्त्रि संध्यमभि नौमि मोक्षलाभाय ॥६॥ एष पंच नमस्कारः सर्व पाप प्रणाशनः । मंगलानां च सर्वेषां प्रथमं मंगलं भवेत् ॥७॥ अर्हसिद्धाचार्योपाध्यायाः सर्व साधवः । कुर्वन्तु मंगलाः सर्वे निर्वाण परमश्रियम् ॥८॥ सर्वाजिनेन्द्र चन्द्रान्सिद्धाना, चार्य पाठकान्साधून् । रत्नत्रयं च वंदे, रत्नत्रय 'सिद्धये भक्त्या ॥९॥ पान्तु श्री पादपद्मानि पंचानां परमेष्ठिनां । लालितानि सुराधीश चूडामणि मरीचिभिः ॥१०॥ प्रातिहार्य जिनान्सिद्धान्गुणः सूरीन्स्वमातृभिः। । पाठकान्विनयः साधुन्यो गांगैरष्टभिः स्तुवे ॥११॥ [७५] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसने इन्द्रियों को वश किया उसने सारे जगत को वश किया। कायोत्सर्ग आलोचना इच्छामि भंते ! पञ्चमहागुरुभत्तिकाउसग्गो को तस्सालोचेउ। अट्ठमहापाडिहेरसंजुत्ताणं अरहताणं। अट्ठगुणसंपण्णाणं उढ्ढलोयमत्थयम्मि पइठियाणं सिद्धाणं । अपवयणमउसंजुत्ताणं आइरियाणं । आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं । तिरयणगुणपालणरयाणं सव्वसाहूणं । णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिरणगुणसंपत्ति होउ मज्झं । -इति पचगुरु भक्ति समाप्त ine अथ तीर्थकर भक्तिः rd अथ देवसिय पडिक्कमणाए, सव्वाइच्चार विसोहि णिमित्तं । पुवाइ रियकमेण, चउवीसतित्थयर भत्तिकाउस्सग्गं करेमि ॥ ___ णमो अरहंताणं, मंत्रव धोस्सामीति० (पाठ म्हणावा नतर पुढील श्लोक ह्मणावेत) चउवीसं तित्थयरे उसहाईवीर पच्छिमे वंदे । सम्वेसि मुणिगण हरसिद्धे सिरसा गमंसामि ॥१॥ ये लोकेऽष्ट सहस्त्र लक्षणधरा, ज्ञेयार्णवांतर्गता। ये सम्यग्भव जालहेतु मथनाश्चंद्रार्क तेजोधिकाः ।। ये साध्विद्र सुराप्सरो गणशतैर्गीत प्रणुत्याचिताः । तान्देवान्वृषभादि वीरचरमान्भक्त्या नमस्याम्यहम् ॥२॥ नाभेयं देवपूज्यं जिनवरमजितं सर्वलोकप्रदीपम् । सर्वज्ञं संभवाख्यं मुनिगणवृषभं नंदनं देवदेवम् ॥ कर्मारिघ्नं सुबुद्धि वरकमलनिभं पद्मपुष्पाभिगंधम् । क्षान्तं दांतं सुपार्श्व सकलशशिनिभं चन्द्रनामानमीडे ॥३॥ विख्यातं पुष्पदंतं भवभयमथनं शीतलं लोकनाथम् । श्रेयांसं शीलकोषं प्रवरनरगुरुं वासुपूज्यं सुपूज्यम् ॥ मुक्तं दान्तेन्द्रियाश्वं विमलमृषिपति सिंहसैन्यं मुनीन्द्रम् । धर्म सद्धर्मकेतुं शमदमनिलयं स्तौमि शान्ति शरण्यम् ॥४॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय लंपटी इहपर लोक में दुःख का भाजन बनता है। कुंथु सिद्धालयस्थं, श्रमणपतिमर त्यक्त भोगेषु चक्रम् । मल्लि विख्यातगोत्रं, खचरगणनुतं सुअतं सौख्यराशिम् ।। देवेन्द्राय॑ नमीशं हरिकुल तिलकं, नेमिचंद्र भवान्तम् । पार्श्व नागेन्द्र वन्ध, शरणमहमितो वर्द्ध मानं च भक्त्या ॥५॥ - कायोत्सर्ग आलोचना --- इच्छामि भंते ! चउवीसतित्थयर भत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं । पञ्चमहाकल्लाण संपण्णाणं अळमहापाडिहेरसहियाणं, चउतीस अतिसय विसेस संजुत्तणं, बत्तीसदेविदमणिमउडमत्थयमहियाणं, बलदेव वासुदेव चक्कहर रिसि मुणि जइअणगारोव गूढाणं, थुइसयसहस्सणिलयाणं, उसहाइ-वीरपछिम मंगल महापुरिसाणं, णिच्च कालं अंचेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खो , कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिण गुण संपत्ति होउ मझं। ANAMAMINMAMNNIMO - इति तीर्थकर भक्ति समाप्त - NMMANMAMNNAMMA WwwwwwVVVVVVV GE अथ शान्ति भविन: 240 श्री पादपूज्य स्वामी याना नेत्र बिंदु वगैरे रोग झाले होते त्यांचे नाशाप्रत्यर्थ शान्तिनाथ जिनाचे स्तोत्र रचिले ते याप्रमाणे - न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवत्पादद्वयं ते प्रजाः। हेतुस्तत्र विचित्र दुःख निचयः संसार घोरार्णवः ॥ अत्यन्त स्फुरदुनरश्मि निकरव्याकीर्ण भूमंडलो। प्रमः कारयतीन्दु पाद सलिलच्छायानुरागं रविः ॥१॥ क्रुद्धाशीविषदष्टदुर्जयविष ज्वाला वली विक्रमो। विद्याभेषज मंत्र तोय हवनर्याति प्रशॉति यथा ।। तद्वते चरणारुणॉबुज युगस्तोत्रोन्मुखानां नृणाम् । विघ्नाः कायविनायकाश्चसहसा शाम्यन्त्यहो विस्मयः ॥ २ ॥ [७७] 20 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय पगंगत प्राणी हेपोपादेय को भूल जाता है। संतप्तोत्तम कांचनक्षितिधर श्रीस्पद्विगीरा ते, पुंसां त्वच्चरण प्रणामकरणात्पीडाः प्रयान्ति क्षयं ।। उद्यद्भास्करविस्फुरत्कर शतव्याघातनिष्कासिता, नानादेहि विलोचन ध तिहरा शीघ्र यथा शर्वरी ॥१॥ त्रैलोक्येश्वर भन्गलब्ध विजया दत्यंतरोद्रात्मकान, नानाजन्मशतांतरेषु पुरनो जीवस्य संसारिणः । को वा प्ररम्पलतोह फेन विधिना कालोनदावानलान्, नम्याच्चत्तव पादपद्म युगलस्तुत्या पगावारणम् ॥४॥ लोकालोक निरंतरप्रवितत जानकमूने विभी, नानारत्नपिनद्ध दंचिर श्वेतातपत्रत्रय । त्वत्पादद्वयपूतगीतरन्तः शीघ्र द्रवन्या मया, दध्मात मृगेंद्रभीम निनदाहन्या यथा कंजगः ॥५॥ दिव्यस्त्री नयनाभिराम विपुलश्रो मेर चूडामणे, भारवद् बालदिवाकर तिहर प्राणीप्टभामंडल । अव्यावाधर्माचन्त्य सारमतुलं त्यक्तोपमं शाश्वतं, सौरयंत्वच्चरणार विदयुगल स्तुन्यव संप्राप्यते ॥६॥ यावन्नोदयते प्रभापरिकरः श्रीभास्करो भासयं, स्तावद्धारयतीह पंकजवनं निद्राति भारश्रमम् । यावत्त्वच्चरण द्वयस्य भगवन्न स्यात्प्रसादोयस्तावज्जीवनिकाय एपवहित प्रायेण पापमहत् ॥७॥ शांति शांतिजिनेन्द्र शांतमनसस्त्वत्पाद पद्माश्रयात्, संप्राप्ताः पृथिवीतलेप बहवः शान्त्यार्थिनः प्राणिनः । फारुण्यान्मम भक्तिकस्य च विभो दृष्टि प्रसन्नां कुरु, त्वत्पाद द्वय देव तस्य गदतः शांत्यष्टकं भक्तितः ।।८।। शांति जिनं शशि निर्मल वक्त्रं, शील गुण व्रत संयम पात्रं । अष्टशताचित लक्षण गात्रं, नौमि जिनोत्तममंबुज नेत्रम् ॥६॥ पंचम मीप्सित चक्रधराणां पूजितमिन्द्र नरेन्द्रगणैश्च । शांतिकरं गण शांतिम भीप्सुः पोड़श तीर्थकरं प्रणमामि ॥१०॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचेद्रिय विषयाभिलाषा सर्प से भी अधिक भयंकर है। दिव्यतरुः सुरपुष्प सुरवृष्टि दुंदुभिरासन योजनघोषौ । आतपवारण चामरयुग्मे यस्य विभाति च मंडलतेजः ।। तं जगचित शांति जिनेंद्र शांतिकरं शिरसा प्रणमामि । सर्वगणाय तु यच्छत शांति मामरं पठते परमां च ॥११॥ येयचिंता मुकुट कुंडल हाररत्नैः शक्रादिभिः सुरगणैः स्तुतपादपद्माः। ते में जिनाः प्रवरवंश जगत्प्रदीपाः तीर्थकराः सततशांतिकरा भवंत ॥१२॥ संपूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र सामान्य तपोधनानां । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांति भगवान् जिनेन्द्रः ॥१३॥ क्षेमं सर्व प्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमि पालः । काले काले च सम्यग्वर्षतु मधवा व्याधयो यांतु नाशं ।। दुभिक्षं चौरमारिः क्षणमपि जगतां मात्मभूज्जीवलोके । जैनेद्रं धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्व सौख्य प्रदायि ॥१४॥ तद् द्रव्य मव्य यमुदेत शुभः सदेशः, सन्तन्यतां प्रतपतां सततं सकालः । भावः स नन्दतु सदा यदनुग्रहेण, रत्नत्रयं प्रतपतीह मुमुक्ष वर्गे ॥१५॥ प्रध्वस्त घाति कर्माणः केवल ज्ञान भास्कराः। ___कुर्वन्तं जगतां शान्ति वृषभाधा जिनेश्वराः ॥१६॥ शांतिः शिरोधृत जिनेश्वर शासनानां । शॉति निरन्तर तपोऽमावितानम् ॥ शॉतिः कषाय जय जुभित वैभवानां । शांति स्वभावमहिमानमुपागतानम् ॥ जीवंतु संयम सुधारस पान तृप्ता । नंदंतु शुद्ध सहसोदय सु प्रसन्ना ॥ सिध्यंतु सिद्धि सुख संग कृताभियोगा। तीनं तपतुं जगतां त्रितपेऽहदाज्ञाः ।। शॉतिशं तनुतां समस्त जगताः संगच्छामिकः श्रेयः । श्री परिवर्धतॉ नयतां धुएँ धरित्री पतिः॥ सद्विद्यारस मुद् गिरन्तु कवयो नामाप्य धस्याष्तु मा । प्राकियेदक ऐवशिव कृद्धर्मो जयत्व हर्ताम् ॥ कायोत्सर्ग आलोचना इच्छामि भंते शान्तिभत्ति काउस्सग्गो को तस्सा लोचेउं । पंच महाकल्लाण संपण्णाणं, अढमहापाडिहेर सहियाणं, चउतीसा तिसय विसेस संजुतारणं, वत्तीस देवेंद मणि मउड मत्थयमहियाणं, बलदेव वासुदेव चक्कहर रिसिमुणि जवि अणगारो व गूढाणं, थुइसय सहस्सणि लयाणं, उसहाइवीर पच्छिम मंगल महा पुरिसाणं, णिच्च कालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिण गुण संपत्ति होउ मज्झं। -इति शान्ति भक्ति समाप्त झाली - [७९] Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्यवान रत्न के समान मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। अथ समाधि भक्तिः । स्वात्माभि मुखसंवित्ति लक्षणं श्रुतचक्षुषा ।। पश्यन्पश्यामि देवत्वां केवलज्ञान चक्षुषा ॥१॥ शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदायैः । सवृत्तानां गुणगण कथा दोषवादे च मौनम् ।। सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्वे । संपद्यतां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्गः ॥२॥ जैन मार्गरुचिरन्यमार्ग निर्वगता जिनगुणस्तुतौ मतिः ।। निष्कलंकविमलोक्तिभावनाः संभवन्तु मम जन्मजन्मनि ॥ ३ ॥ गुरुमूले यतिनिचिते चैत्यसिद्धांत वाघिसद्घोषे । मम भवतु जन्मजन्मनि सन्यसन समन्वितं मरणम् ॥ ४ ॥ जन्मजन्म कृतं पापं जन्मकोटि समाजितम् । जन्ममृत्यु जरामूलं हन्यते जिनवंदनात् ॥ ५ ॥ आबाल्याज्जिनदेवदेव भवतः श्रीपादयोः सेवया । सेवासक्तविनय कल्पलतया कालोद्यया वद्गतः ।। त्वां तस्याः फलमर्थये तदधुना प्राण प्रयाण क्षणे । त्वन्नाम प्रतिबद्ध वर्णपठणे कण्ठोरत्व कुण्ठो मम ॥ ६ ॥ तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वये लोनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद्यावन्निर्वाण संप्राप्तिः ॥ ७ ॥ एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥ ८ ॥ पंच सु अ दीवणामे पंचम्मिय सायरे जिणे वंदे। पंच जसोयर णामे पंचम्मिय मंदरे वंदे ॥ ९॥ रयणत्तयं च वंदे, चवीस जिणे च सव्वदा वंदे । पंचगुरूणं वंदे चारणचरणं सदा वंदे ॥१०॥ अहमित्यक्षर ब्रह्म वाचकं परमेष्टिनः । सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणिदध्महे ॥ [१०] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य भव पाकर विषय वासनाओ पर विजय प्राप्त करना चाहिये । कर्माष्टक विनिर्मुक्तं मोक्ष लक्ष्मी निकेतनम् । सम्यक्त्वादि गुणोपेतं सिद्धचक्र नमाम्यहम् ॥११॥ आकृष्टि सुरसंपदांविदधते मुक्तिश्रियो वश्यतां । उच्चाट विपदां चतुर्गतिभुवॉविद्वषमात्मनसाम् ॥१२॥ स्तंभं दुर्गमनं प्रति प्रयततोमोहस्य सम्मोहनम् । पायात्पंच नमास्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता ॥१३॥ अनंतानन्त संसार संततिच्छेद कारणम्,जिनराज पदाम्भोज स्मरणं शरणं मम ॥१४॥ अन्यथा शरणं नास्तित्वमेव शरणंमम,तस्मात्कारुण्य भावेन रक्षरक्ष जिनेश्वर ॥१५॥ नहि त्राता नहि त्राता न हि त्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति ॥१६॥ जिने भक्तिजिने भक्तिजिने भक्ति दिने दिने । सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे ॥१७॥ याचेहं याचेहं जिन तव चरणारविन्दयोर्भक्तिम् । याचेहं याचेहं पुनरपि तामेव तामेव ॥१८॥ कायोत्सर्ग आलोचना इच्छामि भंते ! समाहि भत्ति काउस्सग्गो को तस्सालोचेउं । रयणत्तय परूव परमप्पज्झाणलक्खणं समाहिभत्तीये णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, वोहिलाहो, सुगईगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं । - इति समाधि भक्ति समाप्तम् - चतुः दिशि वन्दना प्राग्दिग्वी दिगन्तरि केवलि जिन सिद्ध साधु गण देवा । ये सर्वर्द्धि समृद्धा योगि शास्तांऽहं वन्दे ॥१॥ दक्षिण दिग्वी दिगन्तरि केवलि जिन सिद्ध साधु गणदेवा । ये सर्वर्द्धि समृद्धा योगि शास्तॉऽहं वन्दे ॥२॥ पश्चिम दिग्वी दिगन्तरि केवलि जिन सिद्ध साधु गण देवा । ये सर्वर्द्धि समृद्धा योगि शास्तांऽहं वन्दे ॥३॥ उत्तर दिग्वी दिगन्तरि केवलि जिन सिद्ध साधु गण देवा । ये सर्वद्धि समृद्धा योगि शास्ताऽहं वन्दे ॥४॥ [१] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार, संयोग-वियोग, सुख-दुःख और हर्ष-विपाद का संगम स्थान है। wwwwwwwwwwwww अथ निर्वाण भक्तिः नि विबुधपति खगपति नरपति धनदोरग भूतयक्षयपति महितम् । अतुल सुख विमल निरुपम शिवमचलमनामयं संप्राप्तम् ॥१॥ कल्याणः संस्तोष्ये पंचभिरनघं त्रिलोक परम गुरुम् । भव्य जन तुष्टि जननैर्दुरवापैः सन्मति भक्त्या ॥२॥ गर्भ कल्याणिक वर्णन आषाढ़ सु सित षष्ठयां हस्तोत्तर मध्य माश्रिते शशिनि । आयातः स्वर्गसुखं भुक्त्वा पुष्पोत्तराधीशः ॥३॥ सिद्धार्थ नृपति तनयो भारतवास्ये विदेह कुडपुरे । देव्या प्रियकारिण्यां सुस्वप्ना-संदर्य विभुः ॥४॥ जन्म कल्याणिक वर्णन चैत्र सित पक्षफाल्गुनि शशांक योगे दिने त्रयोदश्याम् । जज्ञे स्वोच्चस्थेषु ग्रहेषु सौम्येषु शुभलग्ने ॥५॥ हस्ताश्रिते शशांके चैत्रज्योत्स्ने चतुर्दशी दिवसे । पूर्वाण्हे रत्न घटै विवुधेन्द्राश्चवरुरभिषेकम् ॥६॥ . दीक्षा कल्याणिक वणन भुक्त्वा कुमारकाले त्रिंशद्वर्षाण्यनंतगुणराशिः। अमरोपनीत भोगान्सहसा भिनि बोधि तोन्येच ः ॥७॥ नानाविध रूपचितां विचित्रकूटोच्छिता मणिविभूषाम् । चंद्र प्रभाख्य शिविका माला पुराद्विनः क्रान्तः ॥८॥ मार्गशिर कृष्णदशमी हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते सोमे । षष्टेन त्वपराह्न भक्तन जिनः प्रवनाज ॥६॥ केवल ज्ञान कल्याणिकाची प्राप्ति ग्रामपुर खेट कर्वटमटंब घोषाकारा प्रविजहार । उग्रस्तपोविधान दश वर्षाण्य मर पूज्यः ॥१०॥ [२] Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म निर्मलता से शांति की प्राप्ति होती है। W ऋजुकूलायास्तीरे शालद्र म संश्रिते शिलापट्ट । अपराह्लषष्ठे नास्थितस्य खलु भिकानामे ॥११॥ वैशाख सित दशम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चंद्रे । क्षपकश्रेण्या रूढस्योत्पन्नं केवलज्ञानम् ॥१२॥ अथ भगवान् संप्रापद्दिव्यं वैभारपर्वतं रम्यम् । चातुर्वर्ण्य सुसंघस्त त्राभूद्गौतम प्रभृति ॥१३॥ छत्राशोको घोषं सिंहासन दुंदुभी कुसुमवृष्टिम् ।। वरचामर भामण्डल दिव्यान्यन्यानि चावापत् ॥१४॥ दशविधमनगाराणामेकादश धोत्तरं तथा धर्मम् । देशयमानो व्यहत्रिश द्वर्षाण्यथ जिनेन्द्रः ॥१५॥ पद्मवन दीपिकाकुलुविविध द्रुमखण्डमण्डिते रम्ये । पावानगरोद्यानेव्युत्सर्गेण स्थितः स मुनिः ।।१६॥ कार्तिक कृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरजः । अवशेषं संप्रापद्व्य जरामरमक्षयं सौख्यम् ॥१७॥ परिनिर्वृतं जिनेन्द्र ज्ञात्वा विबुधायथाशुचागम्य । देवतररक्तचन्दन कालागुरु सुरुभिगोशोषैः ॥१८॥ अग्नीन्द्रान्जिनदेहं मुकुटानल सुरभिवूपवरमाल्यैः। अभ्यर्च्य गणधरानपि गता दिवं खं च वनभवने ॥१६॥ इत्येवं भगवति वर्धमानचंद्रे यः स्तोत्र पठति सुसध्ययो योहि । सोऽनंतं परमसुखं नृदेवलोके भुक्त्वांते शिवपदमक्षयं प्रयाति ॥२०॥ यत्राहतां गणभृतां श्रुतपारगाणा, निर्वाणभूमिरिह भारतवर्ष जानाम् । तामद्य शुद्धमनसा क्रियया वचोभिः, संस्तोतुमुद्यतमतिः परिणौमिभक्त्या ॥२१॥ कैलासशैलशिखरे परिनिवृतोऽसौ, शैलेशिभावमुपपद्य वृषो महात्मा । चंपापुरे च वसुपूज्यसुतः सुधीमान, सिद्धि परामुपगतो गतरागबंधः ॥२२॥ यत्प्राय॑ते शिवमयं विबुधेश्वराय , पाखंडिभिश्च परमार्थ गवेष शोलैः । मष्टाष्टकर्मसमये तदरिष्टनेमिः, संप्राप्तवान् क्षितिधरे बृहद्र्जयन्ते ॥२३॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपत्तियों को दूर करने का उपाय निर्भीकता है। पावापुरस्य बहिन्नत भूमिदेशे, पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये । श्रीवर्द्धमानजिनदेव इति प्रतीतो, निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूतपाप्मा ॥२४॥ शेषास्तु ते जिनवरा जितमोहमल्ला, ज्ञानार्कभूरिकिरणैरवभास्य लोकान् । स्थानं परं निरवधारितिसौख्यनिष्ठं, सम्मेद पर्वत तले समवापुरीशाः ॥२५॥ आद्यश्चतुर्दश दिन विनिवृत्त योगः, षष्ठेन निष्ठितकृतिजिनवर्द्धमानः । शेषा विधूत घनकर्म निवद्ध पाशाः, मासेन ते यतिवरास्त्वभवन्वियोगाः ॥२६॥ माल्यानि वास्तुतिमयः कुसुमै सुदृब्धा,न्यादाय मानसकरैरभितः किरतः । पर्येम आदृतियुता भगवन्निषद्याः, संप्रार्थिता वयमिमे परमां गति ताः ॥२७॥ शत्रुजये - नगवरे मितारिपक्षाः, पंडोः सुताः परम निवृतिमभ्युपेताः। तुंग्यां तु संगरहितो बलभद्रनामा, नद्यास्तटे जितरिपुश्च सुवर्णभद्रः ॥२८॥ द्रोणीमति प्रवलकुंडलमेंद्रके च, वैभारपर्वत तले वरसिद्धकूटे। ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रिबलाहके च, विध्ये च पौदनपुरे बृषदीप के च ॥२६॥ सहाचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे, दंडात्मके गजपथे पृथुसारयष्टौ । ये साधवो हतमलाः सुगति प्रयाताः, स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूवन् ॥३०॥ इक्षोविकार रसपृक्तगुणेन लोके, पिष्टोऽधिकं मधुरतामुपयाति यद्वत् । तद्वच्च पुण्यपुरुषैःरुषितानि नित्यं, स्थानानि तानि जगतामहि पावनानि ॥३१॥ इत्यर्हतां शमवतां च महामुनीनां, प्रोक्ता मयात्र परिनिवृतिभूमिदेशाः । ते मे जिना जित भया मुनयश्च शांताः, विश्यासुराशु सुर्गात निरवद्यसौख्याम् ॥३२॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु का बिगाड़ना जितना सरल है उतना बनाना सरल नहीं है। क्षेपक - कैलासाद्रो मुनींद्रः पुरुरपदुरितो मुक्तिमाप प्रणतः । चंपायां वासुपूज्यस्त्रिदशपतिनुतो नेमिरप्यूर्जयंते ।। पावायां वर्धमानस्त्रिभुवनगुरवो विशतिस्तीर्थनाथा. । सम्मेदाग्ने प्रजग्मुर्दवतु विनमतां निर्वृति नो जिनेंद्राः ॥३३॥ चिन्ह चौबीस तीर्थकर गौर्गजोश्वः कपिः कोकः, सरोजः स्वस्तिकः शशी। मकरः श्रीयुतो वृक्षो गंडो महिष सूकरो ॥ सेधा वज्र मृगच्छागाः पाठीनः कलशस्तथा । कच्छप श्चोत्पलं शंखो नागराजश्च केसरी ॥३४॥ वश चौवीस तीर्थकर शांति कुन्थ्वर कौरव्या यादवौ नेमि सुबतौ । उग्रनाथौ पार्श्ववीरौ शेषा इक्ष्वाकु वंशजाः ॥३५॥ कायोत्सर्ग आलोचना इच्छामि भंते ! परिणिवाणभत्ति काउस्सगो को तस्सालोचे। इमम्मि अवसप्पिणीये, चउत्थसमयस्स पच्छिमे भाए, आउळगासहीणे, वासचउक्कम्मि सेसकालम्मि। पावाये गयरीए कत्तियमासस्स किण्ह चउदसिए । रत्तीए सादीए णक्खत्ते, पच्चूसे, भयवदो महदि महावीरो वढ्ढमाणो सिद्धि गदो। तिसुविलोएसु, भवणवासिय वाणवितरजोयिसिय कप्पवासियत्ति चउन्विहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुष्पेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण वासेण, दिव्वेण पहाणेण, णिच्चकालं, अच्चंति, पूजंति, वंदति, णमंसंति, परिणिव्वाण, महाकल्ला गपुज्जं करंति अहमवि इह संतो तत्थ संताइयं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वदामि, मंसामि, दुक्खक्खओ, कम्क्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। इति निर्वाण भक्ति। 00000 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करणा की शाखा में आनन्द के फल लगते हैं। छ, अथ नंदीश्वर भक्तिः पर VVV VYAY त्रिदशपति मुकुट तटगत मणिगण, - करनिकर सलिल धारा धौत । क्रमकमल युगल जिनपति रुचिर, - प्रतिबिब विलय विरहितनिलयान् ॥१॥ निलयान हमिह महसाँ सहसा प्रणिपतन पूर्वमवनौम्यवनौ । अय्यां त्रय्या शुद्धया निसर्ग शुद्धान्वि शुद्धये धनरजसाम् ॥ २॥ भावनसुर भवनेषु द्वासप्तति शत सहस्त्र संख्याभ्य धिकाः । कोट्यः सप्त प्रोक्ता भवनानां भूरि तेजसाँभुवनानाम् ॥ ३ ॥ त्रिभुवन भूत विभूनॉ संख्याती तान्य संख्यगुण युक्तानि । त्रिभुवन जनन नयमनः प्रियाणि भवनानि भौमबिबुधनुतानि ॥ ४ ॥ यावन्ति सन्ति कान्तज्योतिर्लोकाधि देवता भिनुतानि । कल्पेऽनेक विकल्प कल्पातीतेऽहमिन्द्र कल्पानल्पे ॥ ५ ॥ विशतिरथ त्रिसहिता सहसगुणिता च सप्तनवतिप्रोक्ता । चतुरधिकाशीतिरतः पंचकशून्येन विनिह तान्यनघानि ॥६॥ अष्टा पंचाशदतश्चतुः शतानीह मानुषे च क्षेत्रे । लोका लोक विभाग प्रलोक नालोक संयुजाँ जयभाजाम् ॥ ७ ॥ नव नव चतुः शतानि चसप्त चनवतिः सहस्त्रगुणिताःषट्च । पंचाशत्पंच वियत्प्रहताः पुनरत्र कोटयोऽष्टौ प्रोक्ताः ॥८॥ एतावत्येव सताम कृत्रिमाण्यथ जिनेशिनां भवनानि । भुवनत्रितये त्रिभुवन सुरसमिति समय॑ मानसत्प्रतिमानि ।। ९॥ वक्षार रुचक कुंडल रौप्य नगोत्तर कुलेषु कारनगेषु । कुरुषु च जिनभवनानि त्रिशतान्य धिकानि तानि षड्विशत्या ॥१०॥ नन्दीश्वर सद्वीपे नन्दीश्वर जलधि परिवृते धृतशोभे । चन्द्रकर निकर संनिभरन्द्र यशो विततदिङ मही मंडलके ॥११॥ तत्रत्यांजन दधिमुख रतिकर पुरनगवराख्य पर्वत मुख्याः । प्रतिदिशमेषा मुपरि त्रयो दशेन्द्रा चितानि जिन भवनानि ॥१२॥ [६] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो दूसरो के लिये गड्ढा खोदता है वह कूवे मे गिर जायेगा। आषाढ़ कार्तिकाख्ये फाल्गुन मासे च शुक्ल पक्षे ऽष्टम्याः । आरम्याष्ट दिनेषु च सौधर्म प्रमुख बिबुधपतयो भक्त्या ॥१३॥ तेषु महामहमुचितं प्रचुराक्षतगंध पुष्पधूपैदिव्यः । सर्वज्ञ प्रतिमानांमप्रतिमानां प्रकुर्वते सर्वहितम् ॥१४॥ भेदेन वर्णना का सौधर्मः स्नपनकर्तृतामापन्नः । परिचारकभावमिताः शेषेन्द्रा रुन्द्र चन्द्र निर्मल यशसः ॥१५॥ मंगल पात्राणि पुनस्तद्देव्यो बिम्रति स्म शुभ्रगुणाढ्याः । अप्सरसो नर्तक्यः शेषसुरास्तत्र लोकनाव्याधियः ॥१६॥ वाचस्पति वाचामपि गोचरतांसं व्यतीत्य यत्क्रममाणम् । विबुध पति विहित विभवं मानुष मात्रस्य कस्य शक्तिः स्तोतुम् ॥१७॥ निष्टापित जिनपूजाश्चूर्णस्नपनेन दृष्ट विकृत विशेषाः । सुरपतयो नंदीश्वरजिनभवनानि प्रदक्षिणीकृत्य पुनः ॥१८॥ पंचसु मंदरगिरिषु श्रीभद्रशालनंदन सौमनसम् । पांडुकवनमिति तेषु प्रत्येकं जिनगृहाणि चत्वार्ये ॥१६॥ तान्यथ परीत्य तानि च नमसित्वा कृत सुपूजना स्तत्रापि । स्वास्पदमीयुः सर्वे स्वास्पदमूल्यं स्वचेष्टया संगृह्य ॥२०॥ सहतोरण सद्व दीपरीत वनयाग वृक्ष मानस्तंभ । ध्वज पंक्ति दशक गोपुर चतुष्टय त्रितयशालमंडप वयः ॥२१॥ अभिषेक प्रेक्षणिका क्रीडन संगीत नाटका लोकगृहैः । शिल्पिविकल्पित कल्पन संकल्पातीत कल्पनैः समुपुतैः ॥२२॥ वापीसत्पुष्करिणी सुदीर्घिकाद्यम्बु संसृतैः समुपेतैः । विकसित जलरुह कुसुमैर्नभस्यमानः शशिग्रहःः शरवि ॥२३॥ भुंगाराब्दक कलशाच पकरणैरष्ट शतक परिसंख्यानः । प्रत्येकं चित्रगुणः कृतझण झणनि नद वितत घंटाजालैः ॥२४॥ प्रधाजते नित्यं हिरण्मयानीश्वरेशिनां भवनानि । गंधकुटोगतमृगपतिविष्टररुचिराणि विविध विभवयुतानि ॥२५॥ येषु जिनानां प्रतिमाः पंचशतशरासनोच्छ्रिताः सत्प्रतिमाः । मणिकनकरजत विकृता दिनकर कोटिप्रभाधिक प्रभदेहाः ॥२६॥ [७] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन और घोड़ा यह दोनों चंचल हैं। तानि सदा वंदेऽहं भानु प्रतिमानि यानि कानि च तानि । यशसा महसां प्रतिदिश मतिशय शोभा विभाजि पापविभंजि ॥२७॥ सप्तत्यधिकशत प्रिय धर्म क्षेत्र गत तीर्थकर वर वृषभान् । भूत भविष्य संप्रतिकाल भवान्भव विहानये विनतोऽस्मि ॥२८॥ अन्याम वसपिण्यां वृषर्भाजनः प्रथमतीर्थकर्ता भर्ता । अष्टापद गिरि मस्तक गतस्थितो मुक्तिमाप पापान्मुक्तः ॥२६॥ श्रीवासुपूज्यभगवान् शिवासु पूजासु पूजितस्त्रि दशानां । चम्पायां दुरितहरः परम पदं प्रापदापदामन्त गतः ॥३०॥ मुदित मति बलमुरारि प्रपूजितो जित कषाय रिपुरथजातः । वृहकर्जयन्तशिखरे शिखामणि स्त्रि भुवनस्य नेमिभगवान ॥३१॥ पावापुर वरसरसां मध्यगतः सिद्धि वृद्धि तपसां महसां । वीरो नीरदनादो भूरिगुण श्चारुशोभमा स्पदमगमत् ॥३२॥ सम्मदकरि वनपरिवृत सम्मेद गिरीन्द्रमस्तके विस्तीर्णे । शेषा ये तीर्थकराः कीतिभृतः प्रार्थितार्थसिद्धिमवापन् । ३३॥ शेषाणां केवलिनां अशेणमत वेक्षिण भृतां साधूनां । गिरितल विवरदरी सरिदुरुवन तरु विटपिजलधिदहन शिखासु ॥३४॥ मोक्ष गति हेतु भूत स्थानानि सुरेन्द्र रुन्द्र भक्तिनुतानि । मंगल भूतान्येतान्यंगो कृत धर्म कर्मणा म स्माकम् ॥३॥ जिनपतयस्तत्प्रतिमा स्त दालयातन्निषधका स्थानानि । ते ताश्च ते चतानि च भवन्तु भव घात हेतवो भव्यानाम् । ३६॥ संध्यासु तिसृषु नित्यं, पठेद्यदि स्तोत्रमेत दुतमयशसाम । सर्वज्ञानां सार्व लघु लभते श्रुतधरेडितं पदममितम् ॥३७।। नित्यं निःस्वेदत्वं निर्मलता क्षीरगौररुधिरत्वं च । स्वाधाकृति संहनने सौरुप्यं सौरभं च सौलक्ष्यम् ॥३८॥ अप्रमित वीर्यता च प्रिय हित वादित्व मन्य दमित गुणस्य । प्रथिता दशख्याताः स्वतिशय धर्माः स्वयंभुवो देहस्य ॥३६॥ गव्यूतिशत चतुष्टय सुभिक्षता गगन गमनम प्राणिवधः । भुक्त्युपसर्गाभाव श्चतुरास्यत्वं च सर्व विद्ये श्वरता ॥४०॥ [८] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ही आत्मा का स्वभाव है। अच्छायत्व मपक्ष्पस्पंदश्च सम प्रसिद्धनख केशत्वं । स्वतिशयगुणा भगवतो घातिक्षयजा भवंति तेपि दर्शव ॥४१॥ सावर्धिमागधीया भाषा मैत्री च सर्वजनता विषया। सर्वतु फलस्तबक प्रवालकुसुमोप शोभित तर परिणामा ॥४२॥ आदर्शतल प्रतिमा रत्नमयी जायते महोच मनोज्ञा । विहरण मन्वेत्यनिलः परमानंदश्च भवति सर्वजनस्य ॥४३॥ मरुतोऽपि सुरभिगंधव्यामिश्रा योजनांतरं - भूभागं । व्युपशमितधूलि कंटक तृण कीटक शर्करोपलं प्रकुर्वन्ति ॥४४॥ तदनु स्तनितकुमारा विद्युन्माला विलासहास विभूषाः । प्रकिरन्ति सुरभिधि गंधोदक वृष्टिमाज्ञया त्रिदशपतेः ॥४५॥ वरपद्मराग केसर मतुलसुख स्पर्श हेममय दलनिचयम् । पादन्यासे पद्मं सप्तपुरः पृष्ठतश्च सप्त भवंति ॥४६॥ फलभार नम्नशालिग्रीह्यादि समस्तसस्य धृतरोमांचा । परिहृषितेव च भूमिस्त्रि भुवननाथस्य वैभवं पश्यंती ॥४७॥ शरदुदयविमलसलिलं सरइव गगनं विराजते विगतमलम् । जहति च दिशस्तिमिरिकॉ विगतरजःप्रभृतिजिह्मताभावं सद्यः॥४८॥ एतेतेति त्वरितं ज्योतिर्व्यतरदिवौ केसाममृत भुजः । कुलिशभूदाज्ञापनया कुर्वन्त्यन्ये समन्ततो व्याह्वानम् ।।४६॥ स्फुरदरसहसरुचिरं विमल महारत्नकिरणनिकर परीतम् । प्रहसित किरणसहस्त्र धुति मंडलमग्रगामि धर्मसुचक्रम् ॥५०॥ इत्यष्टमगलं च स्वादर्शप्रभृति भक्तिराग परीतः । उपकल्प्यन्ते त्रिदर्शरेतेपि निरुपमाति विशेषाः ॥५१॥ वैडूर्यरुचिरविटप प्रवाल मृदुपल्लवो पशोभितशाखः । श्रीमानशोक वृक्षो वरमरकत पत्रगहन बहलच्छायः ॥५२॥ मंदारकुंद कुवलयनी लोत्पल कमलमालती बकुलाद्यः । समद भ्रमर परीतामिश्रा पतति कुसुमवृष्टिर्नभसः ॥५३॥ कटककटि सूत्र कुंडल केयूर प्रभृतिभूषितांगो स्वंगौ। यक्षौ कमलदलाक्षौ परिनिक्षिपतः सलील चामर युगलम् ॥५४॥ [६] Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय वासना रूपी बन्दर से संयम रूपी खेत की रक्षा करनी चाहिये । आकस्मिकमिव युगपद्दिवसकर सहस्त्रमपगत व्यवधानम् । भामंडल मवि भावित रात्रिदिव भेद मतित रामाभाति ॥५५॥ प्रबल पवना भिघात प्रक्षुभित समुद्र घोषमन्द्र ध्वानम् । वंध्वन्यते सुवीणा वंशादि सुवाद्य दुन्दुभिस्ताल समम् ॥५६॥ त्रिभुवन पतिता लांछनमिदुत्रय तुल्यमतुल मुक्ताजालम् । छत्रत्रयं च सुबृहद्वैडूर्य विक्लृप्त दंडमधिक मनोज्ञम् ॥५७॥ ध्वनिरपि योजनमेकं प्रजायते श्रोत्रहृदय हारिगंभीरः । ससलिल जलधर पटल ध्वनितमिव प्रविततान्तराशावलयम् ।।५८॥ स्फुरितांशु रत्नदीधिति परिविच्छुरितामरेंद्र चापच्छायम् । प्रियते मृगेंद्रवयः, स्फटिशिलाघटित सिंहविष्टरमतुलम ॥५६॥ यस्येह चतुस्त्रिशत्प्रवरगुणा प्रातिहार्य लक्ष्म्यश्चाष्टौ । तस्मै नमो भगवते त्रिभुवनपरमेश्वराह ते गुणमहते ॥६०॥ - कायोत्सर्ग आलोचनाइच्छामि भंते ! गंदीसरभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं । गंदीसरदीवम्मि, चउदिसि विदिसासु, अंचणदधिमुहरदिकरपुरणगवरेसु जाणि जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि तिसुवि लोएसु भवणवासिय वाणवितरजोइसिगकप्पवासि यत्ति चउविहा देवा सपरिवारा दिव्वेहि गंधेहि, दिव्वेहि पुष्फेहि, दिव्वेहि धुव्वेहि, दिव्वेहि चुण्णेहि, दिव्वेहि वासेहि, दिव्वेहि ण्हाणेहि, आसाढकत्तिय फागुणमासाणं अमिमाईकाउण जाव पुण्णिमंति णिच्चकालं अंचति, पूजंति, वंदंति, णमंसंति। गंदीसरमहाकल्लाणं करंति अहमवि इह संतो तत्थ संताई णिच्च कालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिण गुण संपत्ति होउ मज्झं। - इति नदीश्वर भक्ति. समाप्त - [e.] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीति मानसून है जिसमें बरसात का बसेरा है। चैत्य भक्तिः ओं नमः सर्वज्ञाय । श्रीगौतमादि पदमद्भुत पुण्यबंध, मुद्योतिता खिलम-मोघमघ प्रणाशम् । वक्ष्ये जिनेश्वरमहं प्रणिपत्य तथ्यं, निर्वाण कारण मशेष जगद्धि तार्थम् ॥ जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृम्भिता । वमरमुकुटच्छायोद्गीर्ण प्रभापरि चुम्बितौ ॥ कलुषहृदया मानोद्धान्ताःपरस्परवैरिणः । विगतकलुषाः पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसुः ॥१॥ तदनु जयति श्रेयान्धर्मः प्रवृद्धमहोदयः, कुगति विपथ क्लेशाद्योसौ विपाशयति प्रजाः । परिणत नय स्यांगी भावाद्विविक्त विकल्पितम्, भवतु भवत स्त्रात्रेघा जिनेद्रवचोऽमृतम् ॥२॥ तदनु जयताज्जैनी वित्तिः प्रभंगतरंगिणी, प्रभव विगम ध्रौव्यद्रव्य स्वभाव विभाविनी । निरुपमसुखस्येदं द्वारं विघट्य निरर्गलम्, विगतरजसं मोक्ष देयान्निरत्य यमव्ययम् ॥३॥ अर्हत्सिद्धाचार्यो पाध्यायेभ्यस्तथाच साधुभ्यः । सर्वजद्वंदेभ्यो नमोस्तु सर्वत्र सर्वेभ्यः ॥४॥ मोहादि सर्व दोषारि घातकेन्य. सदाहतरजोभ्यः । विरहित रहस्कृतेभ्यः पूजाहेभ्यो नमोऽहंदभ्यः ॥५॥ क्षान्त्याजवादिगुणगणसुसाधनं सकललोकहितहेतुं । शुभधामनि धातारं वंदे धर्म जिनेन्द्रोक्तम् ॥६॥ मिथ्याज्ञानतमोवृतलोककज्योतिर मितगमयोगि । सांगोपांगमजेयं जैनं वचनं सदा वंदे ॥७॥ भवनविमानज्योतिव्यंतरनरलोकविश्वचैत्यानि । त्रिजगदभिवंदितानां त्रेधा बंदे जिनेन्द्राणाम् ॥८॥ [११] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा का ध्यान मोक्ष महल को सीढ़ी है। भुवनत्रयेऽपि भुवन त्रयाधिपाभ्यर्च्य तीर्थ कर्तृणां । वन्दे भवाग्नि शान्त्यै विभवानामालयालीस्ताः ॥६॥ इति पंचमहापुरुषाः प्रणुता जिनधर्म वचन चैत्यानि । चैत्यालयाश्च विमलां दिशन्तु बोधि बुध जनेष्टाम् ॥१०॥ अकृतानि कृतानि चाप्रमेय द्युतिमंति यु तिमत्सु मंदिरेषु। मनुजामरपूजितानि वन्दे,प्रतिबिवानि जगत्त्रये जिनानाम् ॥११॥ धु ति मण्डल भासुरान्गयष्टीः, प्रतिमा अप्रतिमा जिनोत्त मानाम् । भुवनेषु विभूतये प्रवृत्ता, वपुषा प्राञ्जलिरस्मि वन्दमानः ॥१२॥ विगतायुध विक्रि या विभूषाः, प्रकृतिस्थाः कृतिनां जिनेश्वराणां । प्रतिमाः प्रतिमा गृहेषु कान्त्या, प्रतिमाः कल्मष शान्तयेऽभिवंदे ॥१३॥ कथयन्ति कषाय मुक्ति लक्ष्मी, परया शांततया भवान्तकानाम् । प्रणमाम्य भिरूप मूर्ति मन्ति, प्रतिरूपाणि विशुद्धये जिनानाम् ॥१४॥ यदिदं मम सिद्ध भक्ति नीतं, सुकृतं दुष्कृत वर्मरोधि तेन । पटुना जिनधर्म एव भक्ति, भवताज्जन्मनि जन्मनि स्थिरामे ॥१५॥ अर्हतां सर्वभावानां दर्शनज्ञान संपदाम् । कीर्तयिष्यामि चैत्यानि यथाबुद्धि विशुद्धये ॥१६॥ श्रीमड़ावन वासस्था स्वयं भासुर मूर्तयः । वन्दिता नो विधेयासुः प्रतिमाः परमां गतिम् ॥१७॥ यावंति संति लोकेऽस्मिन्न कृतानि कृतानि च । तानि सर्वाणि चैत्यानि वन्दे भूयाँसि भूतये ॥१८॥ ये व्यंतर विमानेषु स्थयांसः प्रतिमागृहाः । ते च संख्यामति क्रान्ताः संतु नो दोष विच्छिदे ॥१६॥ ज्योतिषामथ लोकस्य भूतयेत संपदः । गृहा स्वयंभुवः संति विमानेषु नमामि तान् ॥२०॥ वंदे सुर किरीटा प्रमणिच्छयाभि षेचनम् । याः क्रमेणैव सेवन्ते तदर्चाः सिद्धि लब्धये । २१॥ इति स्तुति पथातीत श्रीभृतामहतां मम । चैत्यानामस्तु संकीतिः सर्वासव निरोधिनी ॥२२॥ [२] Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महं भक्ति संसार नाशक परमौषधि है। अर्हन्महानदस्य त्रिभुवन भव्यजनतीर्थ यात्रिक दुरितम् । प्रक्षालनक कारण मतिलौकिक कुहकतीर्थ मुत्तमतीर्थम् ।।२३।। लोका लोक सुतत्व प्रत्यवबोधनसमर्थ दिव्यज्ञान । प्रत्यहवहत्प्रवाहनतशीला मल विशाल कूल द्वितयम् ॥२४॥ शुक्ल ध्यानस्तिमितस्थितराजद्राज हंसराजितम सकृत् । स्वाध्यायमंत्रघोषं नानागुणसमिति गुप्तिसिकतासुभगम् ॥२५॥ क्षान्त्यावर्त सहा सर्वदयाविक च कुसुमविल सल्लतिकम् । दुःसह परीषहाख्य द्रुत तररगत्तरंग भंगुर निकरम् ॥२६॥ व्यपगत कषाय फेन रागद्वेषादि दोषशैवलरहितं । अत्यस्तमोह कई ममति दूरनिरस्तमरण मकरप्रकरम् ॥२७॥ ऋषिवृषभ स्तुति मंद्रोद्रेकित निर्घोष विविध विहगध्वानं । विविधतपोनिधिपुलिनं सासवसंवरणनिर्जरानिःशवणम् ॥२८॥ गणधरचक्रधरेन्द्र प्रभूति महाभव्य पुंडरीकैः पुरुषः।। बहुभिः स्नातं भक्त्या कलिकलुषमलापकर्षणार्थममेयम् ॥२६॥ अवतीर्णवतः स्नातुं ममापि दुस्तरसमस्तदुरितं दूरम् । व्यवहरतु परम पावन मनन्यजय्य स्वभाव भाव गंभीरम् ॥३०॥ पृथ्वी छन्द.आतामनयनोत्पलं सकल कोप वन्हे यात । कटाक्षशर मोक्ष होनम विकारतोद्रे कतः ।। विषादमहानितः प्रहसितायभान सदा। मुखं कथयतीव ते हृदय शुद्धिमात्यन्तिकोम् ॥३१॥ निराभरण भासुरं विगतरागवेगोदयात् । निरंबरमनोहरं प्रकृति रूप निर्दोषतः ।। निरायुध सुनिर्भयं विगहिस्य हिंसक्रमात । निरामिष सुत प्तिम द्विविधवेदनानां क्षयात् ॥३२॥ मितस्थितनखांगजं गतरजोमल स्पर्शनम् । नवांबुरुह चंदन प्रतिमदिव्यगंधोदयम् ॥ रबीन्दुकुलिशादि दिव्य बहुलक्षणालंकृतम् । दिवाकर सहरा भासुरम पीक्षणानां प्रियम् ॥३३॥ 24 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हद् भक्ति चितित फल देने के लिये चिन्तामणि है। हितार्थपरिपंथिभिः प्रबलराग मोहादिभिः, कलंकितमना जनोयदभिवीक्ष्य शोशुध्यते । सदाभिमुखमेव यज्जगति पश्यतां सर्वतः, शरद्विमल चन्द्रमण्डल मिवोत्थितं दृश्यते ॥३४॥ तदेतदमरेश्वर प्रचलमौलि माला मणि, स्फुरत्किरण चुंबनीयचरणार विन्दद्वयम् । पुनातु भगवज्जिनेन्द्र तब रूपमन्धीकृतम्, जगत्सकल मन्यतीर्थ गुरुरूप दोषोदयः ॥३५॥ मानस्तम्भाः सरॉसि प्रविमलजलसत्खातिका पुष्पवाटी। प्राकारो नाट्यशाला द्वितयमुपवनं वेदिकांतर्ध्वजाद्याः ॥ शालःकल्प द्रमाणाँ सुपरिवृतवनं स्तूपहम्यविली च । प्राकारः स्फाटिकोन्त सुरमुनिसभा पीठिकाने स्वयंभूः ॥३६॥ वर्षेषु वर्षान्तर पर्वतेषु नंदीश्वरे यानि च मंदरेषु । यावन्ति चैत्यायतनानि लोकेसर्वाणि वंदे जिनपुंगवानाम् ॥३७॥ अवनित लगतानों कृत्रिमाऽकृत्रिमाणा, वनभवनगतानॉ दिव्यवैमानिकानां । इह मनुजकृताना, देवराजाचितानां जिनवर निलयानां भावतोऽहं स्मरामि ॥३॥ जम्बू धातकि पुकरार्द्ध वसुधा क्षेत्र त्रये ये भवाः । चंद्रांभोज शिखंडि कंठ कनक प्रावृड्धनाभा जिनाः ।। सम्यग्ज्ञान चरित्र लक्षणधरा दग्धाष्ट कर्मेन्धनाः । भूतानागत वर्तमान समये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ॥३६॥ श्रीमन्ममेरौ कूलाद्रौ रजतगिरिवरे शाल्मलौ जंबुवृक्षे। वक्षारे चैत्यवृक्षे रतिकर रुचके कुंडले मानुषांके । इष्वाकारेंजनाद्रौ दधिमुख शिखरे व्यंतरे स्वर्गलोके । ज्योतिर्लोकेऽभि वंदे भवन महितले यानि चैत्यानि तानि ॥४०॥ देवासुरेन्द्र नरनाग समचितेभ्यः, पापप्रणाशकर भव्य मनोहरेभ्यः । घंटाध्वजादिपरिवार विभूषितेभ्यो नित्यं नमो जगति सर्वजिनालयेभ्यः ।।४१॥ कायोत्सर्ग आलोचना। इच्छामि भंते ! चेइयभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सा लोचेउं । अहलोयतिरियलोयउढ्ढलोयम्मि किट्टिमाकिट्टिमाणि जाणि जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि तिसुवि लोएसु भवणवासियवाणवितरजोइसिय कप्पवासियत्ति चउविहादेवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण वासेण, दिव्वेण ण्हाणेरण, णिच्चकालं अंति, पुज्जति वंदंति, णमंसंति । अहमवि इह संतो तत्थ संताई णिच्चकालं अंधेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण संपत्ति होउ मज्झं। -इति चैत्य भक्ति समाप्सम् - [१४] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंदू भक्ति संसार ताप के लिये अमृत कुंभ है। MERNAMANENTENT WHENAENIENEVEMENTER श्री स्वामी समन्तभद्राचार्य विरचितम् बृहत्स्वयम्भू स्तोत्रम् Cococcccccc स्वयम्भुवा भूतहितेन भूतले, समञ्जसज्ञान विभूति चक्षुषा । विराजितं येन विधुन्वता तमः, क्षपाकरेणेव गुणोत्करः करैः॥१॥ प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः, शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः। प्रबुद्धतत्त्वः पुनर तोदयो, ममन्वतो निर्विविदे विदांवरः ॥२॥ विहाय यः सागरवारि वाससं, वधूमिवेमां वसुधाबधू सतीम् । मुमुक्षरिक्ष्वाकु कुलादि रात्मवान्, प्रभुः प्रवशाज सहिष्णुरच्युतः ॥३॥ स्वदोष मूलं स्वसमाधि तेजसा, निनाय यो निर्दय भस्मसात्क्रियाम् । जगाद तत्त्वं जगतेथिनेऽजसा, बभूव च ब्रह्मपदा मृतेश्वरः॥४॥ स विश्वचक्षुर्वषभोऽचितः सतां, समग्रविद्यात्म वपुनिरञ्जनः । पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो, जिनो जित क्षुल्लक वादि शासनः ॥ ५ ॥ इत्यादि जिन स्तोत्रम् ॥१॥ यस्य प्रभावात्रि दिवच्युतस्य, क्रीडास्वपि क्षीवमुखार विन्दः । अजेयशक्तिभुवि बन्धुवर्ग, श्चकार नामाजित इत्यवन्ध्यम् ।। ६ ॥ अद्यापि यस्याजित शासनस्य, सतां प्रणेतुः प्रतिमंगलार्थम् । प्रगृह्यते नाम परं पवित्रं, स्वसिद्धि कामेन जनेन लोके ॥७ यः प्रादुरासीत्प्रभुशक्ति भूम्ना, भव्या शयालीन कलंक शान्त्य । महा मुनिमुक्तघनो पदेहो, यथारविन्दाभ्यु दयाय भास्वान् ॥ ८ ॥ येन प्रणीतं पृथु धर्म तीर्थ, ज्येष्टं जनाः प्राप्य जयन्ति दुःखम् । गांग हृदं चंदन पंक शीतं, गज प्रवेका इव धर्मतप्ताः ॥६॥ स ब्रह्मनिष्टः सममित्रशत्रु, विद्या विनिर्वान्त कषायदोषः । लब्धात्म लक्ष्मी रजितोऽजितात्मा, जिनः श्रियमे भगवान् विधत्ताम् ॥१०॥ इत्याजित जिन स्तोत्रम् ॥२॥ ' [१५] Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंदु भक्ति यम रूपी सिंह के मुख से बचाने के लिये अष्टापद है। त्वं शम्भवः संभवतर्षरोगैः, संतप्यमानस्य जनस्य लोके । आसीरिहाकस्मिक एव वैद्यो, वैद्यो यथा नाथ रुजां प्रशान्त्यै ॥११॥ अनित्यमत्राण महं क्रियाभिः, प्रसक्त मिथ्या ध्यवसाय दोषम् । इदं जगज्जन्मजरान्तकात, निरञ्जना शान्तिमजीगमस्त्वम् ।।१२।। शतहृदोन्मेषचलं हि सौख्यं, तृष्णामयाप्यायनमात्रहेतुः । तष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजस्, तापस्तदायासयतीत्यवादीः ॥१३॥ बंधश्च मोक्षस्च तयोश्च हेतु, बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तेः। स्याद्वादनो नाथ तवैव युक्त, नैकान्तदृष्टेस्त्वमतोऽसि शास्ता ॥१४॥ शक्रोऽप्यशक्तस्तव पुण्यकीर्तेः, स्तुत्या प्रवृत्तः किमु मादृशोऽज्ञः । तथापि भक्त्या स्तुतपादपद्मो, ममार्य देयाः शिवतातिमुच्चैः ॥१५॥ इति शभव जिन स्तोत्रम् ॥३॥ गुणाभिनन्दादभिनन्दनो भवान्, दयावधूं क्षान्तिसखीमशिश्रियत् । समाधितन्त्रस्तदुपोपपत्तये, द्वयेन नैनन्थ्यगुणेन चायुजत् ॥१६॥ अचेतने तत्कृतबन्धजेऽपि, ममेदमित्या भिनिवेशकग्रहात् । प्रभंगुरे स्थावरनिश्चयेन च, क्षत जगत्तत्त्वमजिग्रहद्भवान् ॥१७॥ क्षुदादि दुःख प्रतिकारतःस्थिति, नचेन्द्रियार्थप्रभवाल्पसौख्यतः । ततो गुणो नास्ति च देहदेहिनोरितीदमित्थं भगवान् व्यजिज्ञपत् ॥१८॥ जनोऽतिलोलोऽप्यनुबन्धदोषतो भयादकार्येष्विह न प्रवर्तते । इहाप्यमुत्राप्यनुवन्धदोषवित्कथं सुखे संसजतीति चाब्रवीत् ॥१६॥ सचानुबन्धोऽस्य जनस्यताप, कृत्त षोऽभिवृद्धिःसुखतो न च स्थितिः। इति प्रभो लोकहितं यतोमतं, ततो भवानेव गतिः सतां मतः ॥२०॥ इत्यभिनन्दन जिन स्तोत्रम् ॥४॥ अन्वर्थसंज्ञः सुमति,निस्त्वं, स्वयंमतं येन सुयुक्ति नीतम् । यतश्च शेषेषु मतेषु नास्ति, सर्वक्रिया कारक तत्त्वसिद्धिः ॥२१॥ अनेममेकं च तदेव तत्त्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् । मषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे, तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ।।२२।। [६] Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहं भक्ति मिथ्यातम को नाश करने के लिये सूर्य तुल्य है। सतः कथंचित्तदसत्वशक्तिः, खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम् । सर्वस्वभाव च्युतमप्रमाणं, स्ववाग्विरुद्धं तव दृष्टितोन्ज्यत् ॥२३॥ न सर्वथा नित्य मुदेत्य पैति, न च क्रियाकारकमत्र युक्तम् । नेवासतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तमः पुद्गल भावतोऽस्तिः ॥२४॥ विधिनिषेधश्च कथंचि दिष्टो, विवक्षया मुख्यगुण व्यवस्था । इति प्रणीतिः सुमते स्तवेयं, मतिप्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ ॥२५॥ इति सुमति जिन स्तोत्रम शा। पद्मप्रभः पद्मपलाशलेश्यः, पद्मालयालिगित चार मूर्तिः । बभौ भवान् भव्य पयोहाणां, पद्माकराणामिव पम बन्युः ॥२६॥ बभार पद्मा च सरस्वती च, भवान्पुरस्तात्प्रति मुक्ति लक्ष्म्याः । सरस्वतीमेव समग्न शोभा, सर्वज्ञ लक्ष्मी ज्वलितां विमुक्तः ॥२७॥ शरीर रश्मि प्रसरः प्रभोस्ते, बालार्क रश्मिच्छ विरालिलेप। नरामराकीर्णसभा प्रभा व, च्छलस्य पद्माभमणेः स्वसानुम् ॥२८॥ नभस्तलं पल्लव यन्निव त्वं, सहस्र पत्राम्बुज गर्भ चारैः । पादाम्बुजैः पातित मार दर्पो, भूमौ प्रजानां विजहर्ष भूत्यै ॥२६॥ गुणाम्बुधे विषमप्य जसं, नाखण्डल स्तोतुमलं तवर्षेः । प्रागेव माहक्किम ताति भक्ति, र्मा बाल माला पयतीद मिल्थम् ॥३०॥ इति पद्मप्रभ जिन स्तोत्रम् ॥६॥ स्वास्थ्यं यदात्यन्तिक मेष पुंसां, स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा। त षोऽनुषंगान्न च ताप शांति, रितीद माल्यगवान् सुपार्श्वः ॥३१॥ अजंगमं जंगमनेय यन्त्रं, यथा तथा जीवधृत शरीरम् । बीभत्सु पूति क्षयि तापकं च, स्नेहो वृथात्रेति हितं त्वमाख्यः ॥३२॥ अलंध्य शक्ति भवितव्य तेयं, हेतुद्वया विष्कृत कालिंगा। अनीश्वरो जन्तुरहं क्रियातः, संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥३३॥ विभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो, नित्यंशिवं वाञ्छतिनास्य लाभः । तथापि बालो भय काम वश्यो, वृथा स्वयं तप्यत इत्यवादीः ॥३४॥ [७] 25 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंद भक्ति विभाव भाव रूपी वादलों को नाशक प्रलय काल की वायु है। सर्वस्य तत्त्वस्य भवान् प्रमाता, मातेव बालस्य हितानुशास्ता। गुणावलोकस्य जनस्य नेता, मयापि भक्त्या परिणूयसेऽद्य ॥३५।। इति सुपार्श्वजिन स्तोत्रम् ॥७॥ चन्द्रप्रभं चन्द्रमरीचि गौरं, चन्द्र द्वितीयं जगतीव कान्तम् । वन्देऽभिवन्ध महतामृषीन्द्र, जिनं जितस्वान्त कषायबन्धम् ॥३६॥ यस्यांग लक्ष्मी परिवेष भिन्नं, तमस्तमोरेरिव रश्मि भिन्नम् । ननाश वाह्यं बहुमानसं च, ध्यान प्रदीपाति शयेन भिन्नम् ॥३७॥ स्वपक्ष सौ स्थित्य मदावलिप्ता, वाकसिंह नादविमदा बभूवुः । प्रवादिनो यस्य मदा गण्डा, गजा यथा केशरिणो निनादैः ॥३॥ यः सर्वलोके परमेष्टितायाः, पदं वभूवाद्भुत कर्म तेजाः । अनन्त धामाक्षरविश्व चक्षुः, समेतदुःख क्षय शासनश्च ।।३६॥ स चन्द्रमा भव्य कुमुद्वतीनां, विपन्न दोषाभ्र कलंकलेपः । व्याकोशवांगन्याय मयूखमालः, पूयात् पवित्रो भगवान्मनो मे ॥४०॥ इति चन्द्रप्रभ जिन स्तोत्रम् ॥८॥ एकान्त दृष्टि प्रतिषेधि तत्त्वं, प्रमाणसिद्धं तद तत्स्वभावम् । त्वया प्रणीतं सुविधे स्वधाम्ना, नैतत्स मालीढपदं त्वदन्यैः ॥४१॥ तदेव च स्यान्न तदेव च स्या, तथा प्रतोतेस्तब तत्कयंचित् । नात्यन्तम न्यत्व मनन्यता च, विनिषेधस्य च शून्यदोषात् ॥४२॥ नित्यं तदे वेदमिति प्रतीतेन, नित्य मन्य प्रति पत्तिसिद्धेः । न तद्विरुद्व बहिरन्तरंग, निमित्त नैमित्तिक योगतस्ते ॥४३॥ अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं, वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या। आकांक्षिणः स्यादिति वै निपातो, गुणानपेक्षे नियमेऽपवादः ॥४४॥. गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्यं, जिनस्य ते तद्विषतामपथ्यम् । ततोऽभिबन्ध जगदीश्वराणां, ममापि साधोस्तव पादपद्मम् ॥४५॥ इति सुविधि जिन स्तोत्रम् ॥६॥ [8] Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंद भक्ति आत्मा का परम हितकारी मित्र है। wimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww न शीतलाश्चन्दन चन्द्र रश्मयोः न गॉगमम्भो न च हारयष्टयः । यथा मुनेस्तेऽनघ वाक्यरश्मयः, शमाम्बुगर्भाः शिशिराविपश्चितां ।।४६।। सुखाभिलाषा नलदाह मूच्छितं, मनो निजं ज्ञानमयामृताम्बुभिः । विदिध्यपस्त्वं विषदाह मोहितं, यथा भिषग्मन्त्रगुणैः स्वविग्रहं ॥४७॥ स्वजीविते कामसुखे च तृष्ण्या, दिवा श्रमार्ता निसिशेरते प्रजाः । त्वमार्य नक्त दिवमप्रमत्तवान, जागरेवात्म विशुद्ध वत्मनि ॥४८।। अपत्य वित्तोत्तर लोक तृष्णया, तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान्पुनर्जन्म जराजिहासया, त्रयी प्रवृति शमधीर वारुणात् ॥४९॥ त्वमुत्तम ज्योतिरजः क्वनिर्वृतः, क्व ते परे बुद्धिलवोद्ध वक्षताः । ततः स्वनिश्रेयस भावना पर, बुंध प्रवेजिन शीतलेढ्यसे ॥५०॥ इति शीतलेजिनस्तोत्रम् ॥१०॥ श्रेयान् जिनःश्रेयसि वमनीमाः, श्रेयः प्रजाः शासद जेयवाक्यः । भवॉश्चकासे भुवनत्रये ऽस्मिन्नेको, यथा वीतघनो विवस्वान् ॥५१॥ विधिविषक्त प्रतिषेध रूपः, प्रमाण मत्रान्य तरत्प्रधानम् । गुणो परो मुख्य नियाम हेतुर्नयः, सदृष्टांत समर्थ नस्ते ॥५२॥ विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो, गुणो विवक्षो न निरात्म कस्ते । तथारि मित्रानुभयादिशक्ति, ई यावधिः कार्यकरं हि वस्तु ॥५३॥ दृष्टांत सिद्धा वुभयोविवादे, साध्यं प्रसिद्ध्येन्न तु तादृगस्ति । यत्सर्वथैकान्त नियाम दृष्ट, त्वदीय दृष्टिविभवत्य शेषे ॥५४॥ एकान्त दृष्टि प्रतिषेध सिद्धि, न्यायेषु भिर्मोहरिपुं निरस्य । असि स्म कैवल्य विभूति सम्राट, ततस्त्व महन्नसि मेस्तवाहः ॥५५॥ इति श्रेयास जिन स्तोत्रम् ॥११॥ शिवासु पूज्योऽभ्युदय क्रियासु, त्वं वासुपूज्य स्त्रिदशेन्द्र पूज्यः । मयापि पूज्योऽल्पधिया मुनोन्द्र, दीपार्चिषाकि तपनो न पूज्यः ॥५६॥ न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तबरे। तथापि ते पुण्यगुण स्मृतिनः, पुनातु चित्तं दुरिताजनेभ्यः ॥५७॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंदू भक्ति कोष मान माया लोभादि पिशाचो से पीड़ित मानव के लिये महामंत्र है। पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य, सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ । दोषाय नालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ ॥१८॥ यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूते, निमित्तमभ्यन्तर मूलहेतोः । अध्यात्म वृत्तस्य तदंगभूत, मभ्यन्तर केवलमप्यलं ते ॥५९॥ बाहोतरोपाधि समग्रतेयं. कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां, तेनाभिवन्धस्त्वमषिबुधानाम् ॥६०॥ इति वासुपूज्य जिन स्तोत्रम् ॥१२॥ । य एव नित्यक्षणिकादयो नया, मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः, परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ॥६१॥ यथैकशः कारकमर्थसिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्यविशेष मातृका, नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः ॥६२।। परस्परेक्षान्वय भेद लिंगतः, प्रसिद्ध सामान्य विशेषयोस्तव । समग्रतास्ति स्वपरावभासकं, यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् ॥६॥ विशेषवाच्यस्य विशेषणं ववो, यतोविशेष्यं विनियम्यते च यत् । तयोश्च सामान्यमतिप्रसज्यते, विवक्षितात्स्यादितितेऽन्यवर्जनम् ॥६४॥ नयास्तव स्यात्पदसत्यलाञ्छिता, रसोपविद्धा इव लोह धातवः । भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणिताहितैषिणः ॥६५॥ इति विमल जिन स्तोत्रम् ॥१३॥ अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो, विषंग वान्मोहमयश्चिरं हृदि । यतो जितस्तत्त्वरुचौ प्रसीदता, त्वया ततोभूभगवाननन्तजित् ॥६६।। कषायनाम्नां द्विषता प्रमाथिनाम, शेषयन्नाम भवानशेषवित् । विशोषणं मन्मथदुर्मदामयं, समाधिभषज्य गुणळलोनयन् ॥६७॥ परिश्रमाम्बुर्भयवीचिमालिनी, त्वया स्वतृष्णासरिदार्थ शोषिता। असंगधर्मार्क गभस्ति तेजसा, परं ततो निवृतिधाम तावकम् ॥६॥ सुहृत्त्वयि श्रीसुभगत्वमश्नुते, द्विषत्वयिरं प्रत्यय वत्प्रलीयते । भवानुदासी नत मस्त योरपि, प्रभो प चित्रमिदं तवेहितम् ॥६६॥ त्वमीदृशस्तादृश इत्ययं मम, प्रलापलेशो ऽल्पमतेमहामुने । अशेषमाहात्म्यमनीर यन्नपि, शिवाय संस्पर्श इवामृताम्बुधेः ॥७०॥ इतिअनन्त जिन स्तोत्रम् ।।१४॥ [१००] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान संपदा है, अज्ञान विपदा है। धर्म तीर्थ मनघं प्रवर्तयन्, धर्म इत्यनुमतः सतॉ भवान् । कर्म कक्ष महत्तपोऽग्निभिः, शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः । ७१॥ देवामानव निकाय सत्तमै, रेजिषे परिवृतो वृतो बुधैः । तारका परिवृत्तोऽतिपुष्कलो, व्योमनीव शशलाञ्छनोऽमलः ।।७२॥ प्रातिहार्य विभवः परिष्कृतो, देहतोऽपि विरतो भवानभूत । मोक्ष मार्गमशिषन्नरामरान्नापि, शासन फलेषणातुरः ॥७३॥ काय वाक्य मनसां प्रवृत्त यो, नाऽभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नासमीक्ष्यभवतः प्रवृत्तयोधीर, तावकमचिन्त्य मीहितम् ।।७४॥ मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वपि च देवता यतः । तेन नाथ परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष प्रसीद नः ॥७॥ इति धर्म जिन स्तोत्रम् ॥१५॥ विधाय रक्षां परतः प्रजानां, राजा चिरंयोऽप्रतिमप्रतापः । व्यधात्पुरस्तात्स्वत एव शान्ति, निर्दया मूर्तिरिवाध शान्तिम् ॥७६॥ चक्रेण यः शत्रुभयं करेण, जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्र चक्रम् । समाधि चक्रेण पुजिगाय, महोदयो दुर्जयमोह चक्रम् ॥७७॥ राजश्रिया राजसु राजसिंहो, रराज यो राजसु भोगतन्त्रः । आर्हन्त्यलक्ष्म्या पुनरात्मतन्त्रो, देवासुरो दारसभे रराज ॥७॥ यस्मिन्न भूबाजनि राजचक्र, मुनौ क्यादीधिति धर्म चक्रम् । पूज्ये मुहुः प्राञ्जलि देवचक्र, ध्यानोन्मुखे ध्वंसिकृतान्तचक्रम् ॥७९॥ स्वदोषशान्त्याविहितात्मशांतिः, शान्तेविधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव क्लेश भयोपशान्त्य, शान्तिजिनो मे भगवान् शरण्यः ॥५०॥ इति शाति जिन स्तोत्रम् ॥१६॥ कुन्थुप्रभृत्य खिलसत्त्वदर्यकतानः, कुन्थुजिनो ज्वरजरामरणोपशान्त्य । त्वं धर्म चक्रमिह वर्त यसिस्म भूत्ये, भूत्वा पुरा क्षितिपतीश्वरचक्रपाणिः ॥११॥ तृष्णाचिषःपरिवहन्ति न शांतिरासा, मिष्टेन्द्रियार्थविभवः परिवृद्धिरेव । स्थित्यवकाऽयपरितापहरंनिमित्त,मित्यात्मवान्विषयसौख्यपराङ मुखोऽभूत ॥२॥ [१०१] 26 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर द्रव्य का स्वामी सबसे बड़ा चोर है। बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्व, माध्यात्मिकस्य तपसः परिवहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन्, ध्यानद्वये ववृतिषेतिशयोपपन्ने ॥३॥ हुत्वा स्वकर्मकटुक प्रकृतीश्चतस्त्रो, रत्नत्रयातिशय तेजसि जातवीर्यः । विभाजिषे सकलवेद विविनेता, व्यः यथा वियति दीप्तरुचिर्विवस्वान् ॥५४॥ यस्मान्मुनीन्द्र तव लोकपितामहाद्या, विद्याविभूतिकणिकामपि नाम्नुवन्ति । तस्माद् भवन्तमजम प्रतिमेय मार्याः, स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितकतानाः ॥१५॥ ___ इति कुन्थु जिन स्तोत्रम् ॥१७॥ गुणस्तोकं सदुल्लंघ्य तद्बहुत्वकथा स्तुतिः । आनन्त्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥१६॥ तथापि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामापि कीर्तितम् ।। पुनाति पुण्यकीर्तेर्नस्ततो ब्रूयाम किञ्चन ॥७॥ लक्ष्मी विभव सर्वस्वं मुमोक्षोश्चक्र लाञ्छनम् ।। साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरतृणमिवाभवत् ॥१८॥ तव रूपस्य सौन्दर्य दृष्ट्वा तृप्तिमनापिवान् ।। द्वयक्षः शक्रः सहस्त्राक्षो बभूव बहुविस्मयः ॥६॥ मोहरूपो रिपुः पापः कषाय भट साधनः । दृष्टि सम्पदुपेक्षा स्त्रस्त्वया धीर पराचितः ॥६॥ कन्दर्प स्योद्वरो दर्पस्त्र लोक्य विजयाजितः । हेपयामास तं धीरे त्वयि प्रतिहतोदयः ॥९१॥ आयत्यां च तदात्वे च दुःखयोनिनिरुत्तरा। तृष्णानदी त्वयोत्तीर्णा विद्यानावा विविक्तया ॥२॥ अन्तकः क्रन्दको नृणां जन्मज्वरसखा सदा । त्वामन्तकान्तकं प्राप्य व्यावृत्तः कामकारतः ॥६३॥ भूषावेषा युधत्यागि विद्यादम दया परम् । रूपमेव तवाचष्टे धीर दोष विनिग्रहम् ॥६४॥ समन्ततोऽगभासां ते परिवेषेण भूयसा । तमो बाह्यमपाकीर्णम ध्यात्म ध्यान तेजसा ॥६५॥ [१०२] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर प्रत्य का ममत्व ही ससार का कारण है। w सर्वज्ञ ज्योतिषोद् भूतस्तावको महिमोदयः । कं न कुर्यात् प्रणम ते सत्त्वं नाथ सचेतनम् ॥६६॥ तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाम् भाषा स्वभावकम् । प्रणीयत्यमृतं यद्वत् प्राणिनो व्यापि संसदि ॥६७॥ अनेकान्तात्म दृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्वं मुषोक्तं स्यात्तदयुक्त स्वघाततः ॥६॥ ये परस्पर खलितोन्निद्राः स्वदोषे नि मीलनः । तपस्विनस्ते कि कुर्युरपात्रं त्वन्मत श्रियः ॥६६॥ ते तं स्वघातिनं दोषं शमीकर्तु मनीश्वराः । त्वद्विषः स्वहनो बालस्तत्त्वावक्त व्यतां श्रिताः ॥१०॥ सदेकनित्य वक्तव्यास्त द्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहिते ॥१०१॥ सर्वथा नियमत्यागी यथा दृष्टम पेक्षकः । स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्म विद्विषाम् ।।१०२॥ अनेकान्तोऽप्य नेकान्तः प्रमाण नय साधनः । अनेकान्तः प्रमाणान्ते तदेकान्तोऽपि तान्नयात् ॥१०॥ इति निरुपम युक्तिशासनः प्रियहितयोग गुणानुशासनः । अरजिन दमतीर्थ नायकस्त्वमिव सतां प्रतिबोधनायकः ॥१०॥ मतिगुण विभवानुरूप तस्त्वयि वरदागम दृष्टि रूपतः। गुणकृशमपि किञ्चनोदितं मम भवतादुरिता शनोदितम् ॥१०॥ इत्यरजिन स्तोत्रम् ।।१८।। यस्य महर्षेः सकल पदार्थ प्रत्यवबोधः समजनि साक्षात् । सामरमर्त्य जगदपि सर्व प्राञ्जलि भूत्वा प्रणिपततिस्म ॥१०॥ यस्य च मूर्तिः कनकमयीव स्वस्फुर दाभाकृत परिवेषा । वागपि तत्त्वं कथयितुकामा स्यात्पदपूर्वा रमयति साधून् ॥१०७॥ यस्य पुरस्ताद्विगलितमाना न प्रतितीर्थ्या भुवि विवदन्ते । भूरपि रम्या प्रतिपदभासोज्जात विकोशाम्बुज मृदुहासा ॥१०८।। [१०३] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर द्रव्य का ममत्व ससार बंधन की बेड़ी है। यस्य समन्ताज्जिन शिशिरांशोः शिष्यक साधुग्रह विभवोऽभूत् । तीर्थमपि स्वं जनन समुद्र त्रासित सत्त्वोत्तरण पथोऽनम् ॥१०६॥ यस्य च शुक्लं परम तपोऽग्निान मनंतं दुरित मधाक्षीत् । तंजिनसिंहं कृतकरणीयं मल्लिम शल्यं शरण मितोऽस्मि ॥११०॥ इति मल्लिजिन स्तोत्रम् ॥१६॥ अधिगत मुनिसुवात स्थिति, निवृषभो मुनिसुव्रतोऽनघः । मुनिपरिषदिनिर्वभौ भवानुडुपरिषत्परिवीतसोमवत् ॥१११॥ परिणत शिखि कण्ठ राग याकृतमदनिग्रहविग्रहाभया । भव जिन तपसः प्रसूतया ग्रह परिवेष रुचेव शोभितम् ॥११२॥ शशि रुचिशुचि सुक्तलोहितं सुरभितरं विरजो निजं वपुः । तव शिवमति विस्मयं यते यदपि च वाङ मन सोऽय मोहितम् ।।११३॥ स्थिति जनन निरोध लक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम् । इति जिन सकलज्ञ लाञ्छनं वचनमिदं वदतां वरस्यते ॥११४॥ दुरितमल कलंक मष्टकं निरुपम योगबलेन निर्दहन् । अभव दभव सौख्यवान् भवान् भवतु ममापि भवोप शांतये ॥११॥ इति मुनि सुन्नत जिन स्तोत्रम् ॥२०॥ स्तुतिः स्तोतुः साधोःकुशलपरिणामाय सतदा, भवेन्मा वास्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य चसतः किमेवं स्वाधीनाज्जगति सुलभे श्रायसपथे, स्तुयान्न त्वां विद्वान्सततमपि पूज्यं नमिजिनम् त्वया धीमन् ब्रह्मपरिणधिमनसा जन्मनिगलं, समूलं निभिन्नं त्वमसि विदुषां मोक्षपदवी त्वयि ज्ञानज्योतिविभव किरण ति भगवन्नभूवन् खद्योता इव शुचिरवावन्यमतयः विधेयं बार्य चानुभयमुभयं मिश्रमपि तत्, विशेषैः प्रत्येकं नियम विषयश्चा परिमितैः सदान्योन्यापेक्षः सकलभुवन ज्येष्ठगुरुणा, त्वया गीतं तत्त्वं बहुनय विवक्षेतरवशात् अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परम, न सा तत्रारम्भोस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ततस्तत्सिध्द्यर्थ परमकरणो ग्रन्थमुभयं, भवानेवात्वाक्षीन्न च विकृतवेषो पधिरतः वपुर्भूषावेष व्यवधिरहितं शान्तिकरणं, यतस्ते संचष्टे स्मरशरविषातंक विजयम् विना भीमैः शस्त्रैरदय हृदयामर्ष विलयं, तत्स्त्वं निर्मोहः शरण मसि नः शान्ति निलयः इति नमिजिन स्तोत्रम् ॥२१॥ [१०४] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर द्रव्य का ममत्व संसार कारागृह में डालने वाला है। wrommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm भगवानृषिः परमयोगदहन हुतकल्मषेन्धनम् । ज्ञानविपुलकिरणः सकलं प्रतिबुध्य बुद्धःकमलायतेक्षणः ॥१२१॥ हरिवंश केतुरनवद्यविनय दमतीर्थ नायकः । शीलजलधिर भवोविभस्त्वमरिष्टनेमि जिनकुञ्जरोऽजरः ।।१२२॥ त्रिदशेन्द्र मौलि मणि रत्नकिरण विसरोप चुम्बितम् । पादयुगलममलं भवतो विकसित् कुशेशयदलारुणोदरम् ॥१२३।। नखचन्द्र रश्मि कवचाति रुचिर शिखराँगुलिस्थलम् । स्वार्थनियत मनसः सुधियः प्रणमन्ति मन्त्रमुखरा महर्षय ॥१२४॥ धु तिमद्रथांग रविबिम्ब किरणजटिलांशु मण्डलः । नील जलज दलराशि वपुः सह बन्धुभिर्गरुड केतुरीश्वरः ॥१२५॥ हलभृच्च ते स्वजन भक्तिमुदित हृदयो जनेश्वरौ । धर्मविनय रसिकौ सुतरां चरणारविन्द युगलं प्रणेमतुः ॥१२६॥ ककुदं भुवः खचरयोषिदुषित शिखररलंकृतः । मेघपटल परिवीततटस्तव लक्षणानि लिखितानि वज्रिणा ॥१२७॥ वहतीति तीर्थमृषिभिश्च सततमभिगम्यतेऽद्य च। प्रीति विततहृदयःपरितो भृशमूजयन्त इति विश्रुतोऽचलः ॥१२॥ वहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नाथकृर्ता । नाथ युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलामलकवद्विवेदिय ॥१२६॥ अत एव ते बुधनुतस्य चरित गुण मद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसःस्थिता वयं ॥१३०॥ इत्यरिष्टनेमि जिन स्तोत्रम् ॥२२॥ तमालनीलः सधनुस्तडिद्गुणः, प्रकीर्ण भीमाशनिवायुवृष्टिभः । बलाह कैरिवशरुपद्र तो, महामना यो न चचाल योगतः ॥१३१॥ वृहत्फणा मण्डल मण्डपेन, यं स्फुरत्तडिपिगरुचोपसर्गिणाम् । जुग्रह नागो धरणो धराधरं, विरागसन्ध्यातडिदम्बुदो यथा ॥१३२।। स्वयोगनिस्त्रिश निशातधारया,निशात्य यो दुर्जय मोहविद्विषम् । आवापदार्हन्त्यम चित्यमद्भुतं, त्रिलोकपूजातिशयास्पदं पदम् ॥१३३॥ [१०५] Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर द्रव्य का ममत्व कर्म बन्धन का जाल है। यमीश्वरं वीक्ष्य विधूत कल्मषं, तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । वनौकसः स्वश्रमबन्ध्यबुद्धयः, शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥१३४॥ स सत्यविद्या तपसां प्रणायकः, समगधीरुन कुलाम्बरांशुमान् । मया सदा पार्श्वजिनः प्रणम्यते, विलीन मिथ्यापथदृष्टिविभ्रमः ॥१३॥ इति पार्श्वजिन स्तोत्रम् ॥२३॥ कीर्त्या भुवि भासि तया वीर, त्वं गुणसमुच्छ्या भासितया। भासोडुसभासितया सोम इव, व्योम्नि कुन्द शोभासितया ।।१३६॥ तव जिन शासन विभवो, जयतिकलावपिगुणानुशासनविभवः । दोषकशासन विभवः स्तुवंति चैनं, प्रभाकृशासन विभवः ॥१३७॥ अनवद्यः स्याद्वादस्तव, दृष्टेष्टा विरोधतः स्याद्वादः । इतरो न स्याहादो सद्वितय विरोधान्मुनीश्वराऽस्याद्वादः ।।१३।। त्वमसि सुरासुरमहितो ग्रन्थिक सत्त्वाशय प्रणामामहितः । लोकत्रय परम हितोऽनावरण ज्योति रुज्वलद्धा महितः ।।१३९।। सन्यानामभिरुचितं दधासि गुण भूषणं श्रिया चारु चितम् । मग्नं स्वस्यां रुचिरं जयसि च मृगलांछनं स्वकान्त्या रुचितम् ॥१४०॥ त्वं जिन गतमदमायस्तव भावानां मुमुक्षुकामदमायः । श्रेयान् श्रीमदमायस्त्वया समादेशि सप्रयामदमायः ॥१४१॥ गिरभित्त्यवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः श्रवद्दानवतः । तव शमवादानवतो गतमूर्जितमपगत प्रमादानवतः ।।१४२॥ बहुगुण संपद सकलं परमतमपि मधुरवचन विन्यासकलम् । नय भक्त्यवतं सकलं तव देव मतं समन्तभद्र सकलम् ॥१४३।। इति वीर जिनस्तोत्रम् ॥२४॥ यो निःशेष जिनोक्त धर्म विषयः श्रीगौतमाद्यः कृतः, सूक्तार्थैरमलः स्तवोयमसमः स्वल्प प्रसन्न पदैः। सव्याख्यानमदो यथाझवगतः किञ्चित्कृतं लेशतः, स्थेयांश्चन्द्र दिवाकरावधि बुधप्रह्लादचेतस्यलम् ॥१४४॥ इति बृहत्स्वयम्भू स्तोत्रम् समाप्तम् । [१०६]] Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर द्रव्य का ममत्व आत्मध्यान को नाश करने के लिये कालकूट विष है। wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य विरचिता द्वादशानुप्रेक्षा COOOD Coo नत्वा सर्व सिद्धान् ध्यानोत्तम क्षपित दीर्घ संसारान् । दश दश द्वौ द्वौ च जिनान् दश द्वौ अनुप्रेक्षा वक्ष्ये ॥१॥ अघ्र वम शरण मेकत्व मन्य संसारे लोकम शुचित्वं । आसव संवर निजरा धर्म बोधि च चिन्तयेत ॥२॥ पर भवन यान वाहन शयनासनानि देव मनुजराज्ञाम् । मातृ पितृ स्वजन भृत्य सम्बन्धिमश्च पितृव्योऽनित्याः ॥३॥ समन्द्रिय रूपं आरोग्यं यौवनं बलं तेजः। सौभाग्यं लावण्यं सुरधनुरिव शाश्वतं न भवेत् ॥ ४ ॥ जलबुबुद शक्र धनुःक्षरणरुचिघन शोभेवस्थिर नभवेत् । अहमिन्द्र स्थानानि बलदेव प्रभृति पर्यायाः ॥ ५॥ जीव निबद्धं देहं क्षीरोदक मिव विनश्यति शीघ्रम् । भोगोपभोग कारण द्रव्यं नित्यं कथं भवति ॥ ६ ॥ परमार्थेन तु आत्मा देवासुर मनुज राज विभवे । व्यतिरिक्तः स आत्मा शाश्वत इति चिन्तयेत् नित्यं ॥ ७॥ - इत्य घ्र वानुप्रेक्षा ॥११॥ - मरिण मन्त्रौषध रक्षाः हय गज रथाश्च सकल विद्याः । जीवानों न हि शरणं त्रिषु लोकेषु मरण समये ॥८॥ स्वर्गो भवेत् हि दुर्ग भृत्या देवाश्च प्रहरणं वज्र । ऐरावणो गजेन्द्रः इन्द्रस्य न विद्यते शरणं ।।। नवनिधिः चतुर्दश रत्नं हयमत्त गजेन्द्र चतुरंग बलम् । चक्र शस्य न शरणं पश्यत कदिते कालेन ॥१०॥ जाति जरा मरण रोग भयतः रक्षति आत्मनं आत्मा । तस्मादात्मा शरणं बन्धोदय सत्त्व कर्म व्यति रिक्तः ॥११॥ [१०७] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर द्रव्य का ममत्व जीव के स्वरूप को भुलाने के लिये मोहनी चूर्ण है। अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपध्यायाः साधवः पञ्च परमेष्टिनः । ते पि हि तिष्टन्ति आत्मनि तस्मात् आत्मा हि मे शरणम् ॥१२॥ सम्यक्त्वं सद्ज्ञानं सच्चारित्रं च सत्तपश्चैव । चत्वारि तिष्टन्ति आत्मनि तस्मात् आत्मा हि मे शरणम् ॥१३॥ - इत्यशरणानुप्रेक्षा ॥२॥ - एकः करोति कर्म एकः हिण्डति च दीर्घ संसारे । एकः जायते प्रियते च तस्य फलं भुंक्ते एकः ॥१४॥ एकः करोति पापं विषयनि मित्तेन तीन लोभेन । नरक तिर्यक्षु जीवो तस्य फलं भुंक्ते एकः ॥१५॥ एकः करोति पुण्यं धर्म निमित्तेन पात्र दानेन । मानव देवेषु जीवो तस्य फलं भुंक्ते एकः ॥१६॥ उत्तम पात्रं भणितं सम्यक्त्व गुणेन संयुतः साधुः।। सम्यग्दृष्टि: श्रावको मध्यम पात्रं हि विज्ञेयः ॥१७॥ निर्दिष्टः जिनसमये अविरत सम्यक्त्व जघन्यपात्र इति । सम्यक्त्व रत्न रहितः अपात्र मिति संपरीक्षः ॥१८॥ दर्शन भ्रष्टा भ्रष्टा दर्शन भ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् । सिद्धयन्ति चरित्र भ्रष्टादर्शनभष्टानसिद्धयन्ति ॥१६॥ एकोऽहं निर्ममः शुद्धः ज्ञान दर्शन लक्षणः । शुद्ध कत्व मुपादेयं एवं चिन्तयेत संयतः ॥२०॥ ___ इत्येकत्वानुप्रेक्षा ॥३॥ मातृ पितृ सहोदर पुत्र कलत्रादि बन्धु सन्दोहः । जीवस्य न सम्बन्धो निज कार्य वशेन वर्तन्ते ॥२१॥ अन्यः अन्यं शोचति मदीयोस्तिममनायकइति मन्यमानः। आत्मनं न हि शोचतिसंसार महार्णवेपतितम् ॥२२॥ अन्यदिवं शरीरादिकं अपियत् भवति बाह्यं द्रव्यम् । ज्ञानं दर्शनमात्मा एवं चिन्तय अन्यत्त्वम् ॥२३॥ - इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा ॥४॥[१०]. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुभूति ही आत्म सपत्ति है। पंच विधे संसारे जाति जरा मरण रोग भय प्रचुरे । जिन मार्गम पश्यन् जीवः परिभ्रमति चिरकालम् ॥२४॥ सर्वेऽपि पुद्गलाः खलु एकेन भुक्तोझिताहि जीवेन । असकृदनंत कृत्वः पुद्गल परिवर्त संसारे ॥२५॥ सर्वस्मिन् लोक क्षेत्रे क्रमशः तन्नास्ति यत्र न उत्पन्नः । अवगाहनेन बहुशः परिभामितः क्षेत्र संसारे ॥२६॥ अव सपिण्युत्सर्पिणी समया वलिकासु निरवशेषासु । जातः मृतः च बहुशः परिभ्रमितः काल संसारे ॥२७॥ नरकायुर्जघन्यादिषु यावत् तु उपरितनानि ग्रेवेयिकाणि । मिथ्यात्व संश्रितेन तु बहुशः अपि भव स्थितौ भमित ॥२८॥ सर्वाः प्रकृति स्थितयोऽनुभाग प्रदेश बन्धस्थानानि । जीवः मिथ्यात्व वशात् भमितः पुनः भाव संसारे ॥२६॥ पुत्रकलत्रनिमित्तं अर्थ अर्जयति पाप बुद्धया। परिहरति दया दानं सः जीवःमति संसारे ॥३०॥ मम पुत्रो मम भार्या मम धन धान्य मिति तीन कांक्षया। त्यक्त्वा धर्म बुद्धि पश्चात् परिपतति दीर्घ संसारे ॥३१॥ मिथ्यात्वोदयेन जीवः निदन् जैन भाषितं धर्ममं । कुधर्म लिगं कुतीर्थ मन्य मानः नमति संसारे ॥३२॥ हत्वा जीव राशि मधु मांसं सेवित्वा सुरापानम् । पर द्रव्य पर कलत्रं गृहीत्वा च नमति संसारे ॥३३॥ यत्नेन करोति पापं विसयनिमितं च अहर्निशं जीवः। मोहान्धकार सहितः तेन तु परिपतति संसारे ॥३४॥ नित्येतर धातु सप्त च तरुदश विकलेन्द्रियेषुषट् चैव । सुरनारक तिर्यक्चतस्त्रः चतुर्दश मनुजेशत सहस्त्राः ॥३५॥ संयोग विप्रयोगं लाभानाभं सुखं च दुःखं च । संसारे भूतानां भवति हि मानं तथावमानं च ॥३६॥ कर्म निमित्तं जीवः हिंडति संसारे घोर कांतारे। जीवस्य न संसारः निश्चय नय कर्म निर्मुक्तः ॥३७॥ [१०] 28 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षणिक चमचमाने वाली माया पर मोहित होकर मत फूलो। संसार मति कान्तः जीव उपादेय इति विचिन्तयनीयम् । संसार दुःखा क्रान्तः जीवः सहेय इति विचिन्तनीयम् ॥३६॥ - इति ससारानुप्रेक्षा ॥५॥ - जीवादि पदार्थानां समवायः स निरुच्यते लोकः । त्रिविधः भवेत् लोकः अधोमध्य मोर्ध्व भेदेन ॥३६॥ नरका भवंति अधस्तनै मध्ये द्वीपाम्वुराशयाः असंख्या । स्वर्गः त्रिषष्टि भेद एतस्मात् उर्ध्वं भवेत मोक्षः ॥४०॥ एकत्रिंशत् सप्त चत्वारि द्वौ एकैकं षट्कं चतुः कल्पे। त्रित्रिकमेककेन्द्र कनामानि ऋज्वादि त्रिषष्टिः ॥४१॥ अशुभेन नरक तिर्यचं शुभोपयोगेन दिविज-नर सौख्यम् । शुद्धेन लभेत सिद्धि एवं लोकः विचि न्तनीयः ॥४२॥ - इति लोकानुप्रेक्षा ॥६॥ - अस्थिभिः प्रतिबद्ध मांस विलिप्तं त्वचा अवच्छन्नम् । क्रिमि संकुलः भरितं अप्रशस्तं देहं सदाकालम् ॥४३॥ दुर्गधं वीभत्सं कलि मल भृतं अचेतनं मूर्त्तम् ।। स्खलन पतन स्वभावं देहं इति चिन्तयेत् नित्यम् ॥४४॥ रस रुधिर मांस मेदास्थिमज्जा संकुलं मूत्र पूय कृमि बहुलम् । दुर्गन्धं अशुचि चर्ममयं अनित्यं अचेतनं पतनम् ॥४५॥ देहात् व्यति रिक्तः कर्म विरहितः अनन्त सुख निलयः । प्रशस्तः भवेत् आत्मा इति नित्यं भावनां कुर्यात् ॥४६॥ - इति अशुचित्वानु प्रेक्षा ॥७॥ - मिथ्यात्वं अविरमणं कषाय योगाश्च आसवा भवन्ति । पंच पंच चतुःत्रिक भेदाः सम्यक् प्रकीर्तिता समये ॥४७॥ एकान्त विनय विपरीत संशयं अज्ञानं इति भवेत् पञ्च । ___ अविरमणं हिंसादि पञ्च विधं तत्भवति नियमेन ॥४८॥ क्रोधः मानः माया लोभः अपि च चतुर्विधः कषायः खलु । मनोवच कायेन पुनः योगः त्रिविकल्प इति जानीहि ॥४६॥ अशुभेतर भेदेन तुएकैकं वर्णितं भवेत् द्विविधम् ।। आहारादि संज्ञा अशुभ मनः इति विजानीहि ॥५०॥ कृष्णादितिस्त्रः लेश्याः करणज सौख्येषु गद्धि परिणामः । ईर्षा विषाद भावः अशुभ मन इति च जिना ब्रुवन्ति ॥५१॥ [११०] Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानुभूति मे स्व पर विवेक को ज्योति चमकने लगती है। रागः द्वषः मोहः हास्यादि नोकषाय परिणामः । स्थूलः वा सूक्ष्मः वा अशुभ मन इति च जिना ब्रुवन्ति ॥५२॥ भक्तस्त्रीराज चौरकथाः वचनं विजानीहि अशुभमिति । बन्धन छेदन मारण क्रिया सा अशुभकाय इति ॥५३॥ मुक्त्वा अशुभ भावं पूर्वोक्त निर वशेषतः द्रव्यम् । त समिति शील संयम परिणामं शुभ मनः जानीहि ॥५४॥ संसारच्छेद कारण वचनं शुभ वचन मितिजिनोद्दिष्टम् । जिनदेवादिषु पूजा शुभ कायमिति च भवेत् चेष्टा ॥५५॥ जन्म समुद्रे बहुदोष वीचिके दुःख जल चरा कीर्णे। जीवस्य परिभ्रमणं कर्मासव कारणं भवति ॥५६॥ कर्मारावेण जीवः ब्रूडति संसार सागरे घोरे । "या ज्ञानवशा क्रिया मोक्ष निमित्तं परम्परया ॥५॥ आसव हेतोः जीवः जन्म समुद्र निमज्जतिक्षिप्रम् । ___ आसव किया तस्मात् मोक्ष निमित्तं न चिन्तनीया ॥५॥ पारम्पर्येण तु आस्रव क्रियया नास्ति निर्वाणम् । संसार गमरण कारण मिति निन्द्य आसवं जानीहि ॥५६॥ पूर्वोक्तासव भेदाः निश्चयनयेन न सन्ति जीवस्य । उभयाराव निर्मुक्त आत्मानं चिन्तयेत् नित्यं ॥६०॥ - इत्यारावानुप्रेक्षा ||८|| - चलमलिनम गाढं च वर्जयित्वा सम्यक्त्व दृढ कपाटेन । मिथ्यात्वास्तव द्वारनिरोधः भवति इतिजिनः निर्दिष्टम् ॥६१॥ पंचमहागत मनसाअविरमण निरोधनं भवेत् नियमात् । क्रोधादि आत्रवाणां द्वाराणि कषाय रहित परिणामः ॥६२॥ शुभयोगेषु प्रवृत्तिः संवरणं करोति अशुभ योगस्य । शुभयोगस्य निरोधः शुद्धोपयोगेन सम्भवति ॥६३॥ शुद्धोपयोगेन पुनः धर्म शुक्लं च भवति जीवस्य । तस्मात् संवर हेतुः ध्यानमिति विचिन्तयेत् नित्यम् ॥६४॥ जीवस्य न संवरण परमार्थ नयेन शुद्ध भावात् । सवर भाव विमुक्त आत्मानं चिन्तयेत् ॥६॥ - इति सवरानुप्रेक्षा ।। - [१११] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्सर्य भावना से समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं । बन्ध प्रदेश गलनं निजरणं इति जिनः प्रज्ञप्तं । येन भवेत्संवरणं तेन तु नि रण मिति जानीहि ॥६६॥ सा पुनः द्विविधा ज्ञेया खकालपक्वा तपसा क्रियमाणा । चतुर्गति कानां प्रथमा बत युक्तानां भवेत् द्वितीया ॥६७॥ --इति निर्जरानुप्रेक्षा ॥१०॥एकादश दश भेदो धर्मों सम्यक्त्व पूर्वको भणितः। सागारा नगाराणां उत्तम मुख सम्प्रयुक्तः ॥६॥ दर्शन बात सामायिक प्रोषध सचित्त रात्रि भुक्ताः च ।। ब्रह्मारंभ परिग्रहानुमतोद्दिष्टा देश विरतस्यते ॥६६॥ उत्तम क्षमा मार्दवार्जवसत्यशौचं संयमःच तपस्त्यागं । आकिञ्चन्यं ब्रह्म इति दशविधं भवति ॥७०॥ क्रोधोत्पत्तेः पुनः बहिरंग यदि भवेत् साक्षात् ।। न करोति किञ्चिदपि क्रोधं तस्य क्षमा भवतिधर्मइति ॥७१॥ कुल रूप जाति बुद्धिषु तप श्रुत शीलेषु गर्व किञ्चित् । यः नैव करोति श्रमणो मार्दव धर्मों भवेत् तस्य ।।७२॥ मुक्त्वा कुटिल भावं निर्मल हृदयेन चरति यः श्रमणः । आर्जव धर्मः तृतीयः तस्य तु संभवति नियमेन ॥७३॥ पर संतापक कारण वचनं मुक्त्वा स्वपरहित् वचनम् । यः वदति भिक्ष : तुरीयः तस्य तु धर्म भवेत् सत्यम् ॥७॥ कांक्षा भाव निवृत्ति कृत्वा वैराग्य भावना युक्तः । यः वर्तते परम मुनिः तस्य तु धर्मः भवेत् शौचम् ॥७॥ बत समिति पालनेन दण्ड त्यागेन इन्द्रिय जयेन । परिणम मानस्य पुनः संयम धर्मः भवेत् नियमात् ॥७॥ विषय कषायविनिग्रह भावं कृत्वा ध्यान स्वाध्या येन । यः भावयति आत्मनं तस्य तपः भवति नियमेन ॥७॥ निर्वगत्रिकं भावयेत् मोहं त्यक्त्वा सर्व द्रव्येषु । यः तस्य भवेत् त्याग इति भणितं जिन वरेन्द्रः ॥७॥ [११२]] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन पचन काय की कुटिलता फर्म बध का जाल है। भूत्वा च निस्सङ्ग निज भावं निगृह्य सुख दुःख दम् । निन्देन तु वर्तते अनागारः तस्याकिञ्चन्यम् ॥७६॥ सर्वाङ्ग पश्यन् स्त्रीणां तासु मुञ्चति दुर्भावम् । स ब्रह्मचर्यभावं सुकृती खलु दुर्द्धरं धरत्ति ॥२०॥ श्रावक धर्म त्यक्त्वा यति धर्मे यः हि वर्तते ओवः । सन च वर्जतिमोक्ष धर्ममिति चिन्तयेत् नित्यम् ।।८१॥ निश्चय नयेन जीवः सागारा नागार धर्मतः भिन्नः । मध्यस्थ भावनया शुद्धात्मानं चिन्तयेत् नित्यम् ।।२।। इति धर्मानुप्रेक्षा ॥११॥ उत्पद्यते सद्ज्ञानं येन उपायेन तस्योपायस्य । चिन्ताः भवेत् बोधिः अत्यन्तं दुर्लभं भवति ॥१३॥ कर्मोदय जपर्याया हेयं क्षायोपशमिकज्ञानं खलु। स्वकद्रव्य मुपादेयं निश्चितः भवतिः सद्ज्ञानम् ॥४॥ मूलोत्तर प्रकृतयः मिथ्यात्वादयः असंख्य लोकपरिमारणाः । परद्रव्यं स्वकद्रव्यं आत्मा इति निश्चयनयेन ॥५॥ एवं जायते ज्ञानं हेयोपादेयं निश्चयेन नास्ति । चिन्तयेत् मुनिः बोधि संसारविरमणार्थ च ॥१६॥ इति' बोध्यनुप्रेक्षा ॥१२॥ द्वादशानुप्रेक्षाः प्रत्याख्यानं तथैव प्रतिक्रमणम् । आलोचनं समाधिः तस्मात् भावयेत् अमुप्रेक्षाम् ॥१७॥ रात्रि दिव प्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं समाधि सामायिकम् । आलोचनां प्रकुर्यात् यदि विद्यते आत्म नः शक्तिः ॥८॥ मोक्ष गता ये पुरुषा अनादिकालेन द्वादशानुप्रेक्षाम् । __ परिमाव्य सम्यक् प्रणमामि पुनः पुनः तान् ॥६॥ कि प्रलपिते न बहुना ये सिद्धा नरवरा गते काले। सेत्स्यन्ति येऽपि भविकाः तद् जानीहि तस्याः माहात्म्यम् ॥६॥ इति निश्चय व्यवहारं यत् भणितं कुन्दकुन्दमुनिनाथेन । ____यः भावयति शुद्धमनाः स प्राप्नोति परमनिर्वाणम् ॥६१॥ इति कुन्दकुन्दाचार्य विरचिता द्वादशानुप्रेक्षा || 29 [११३] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप कर्मों में बुद्धि का प्रवेश बिना प्रयत्न होता है। KANIMATE ANTEAVITANEVENEVERMA आचार्य श्रीमदुमास्वामि विरचितं तत्त्वार्थाधिगम मोक्ष शास्त्रम् तत्त्वार्थ सूत्रं मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वाना, वन्दे तत्गुणलव्धये ॥१॥ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥ तत्त्वार्यश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥ तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ जीवा जीवासव बन्ध संवर निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम् ॥४॥ नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ॥५॥ प्रमाणनयैरधिगमः ॥६॥ निर्देशस्वामित्वसाधनाऽधिकरण स्थितिविधानतः ॥७॥ सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ll मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥६॥ तत्प्रमाणे ॥१०॥ आद्य परोक्षम् ॥११॥ प्रत्यक्षमन्यत् ॥१२॥ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनन्तरम् ॥१३॥ तदिन्द्रियानिन्द्रयनिमित्तम् ॥१४॥ अवग्रहेहावायधारणाः।।१५।। बहुबहुविधक्षिप्राऽनिःसृताऽनुक्तध्र वाणा सेतराणाम् ॥१६॥अर्थस्य ॥१७॥व्यञ्जनस्यावग्रहः।।१८॥न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्।।१६॥श्रुतं मतिपूर्व द यनेकद्वादशभेदम् ॥२०॥ भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम् ॥२१॥ क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥२२॥ ऋजुविपुलमती मनःपयर्यः ॥२३॥ विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥२४॥ विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्ययोः ॥२५॥ मतिश्रु तयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥२६॥ रूपिण्ववधेः ॥२७॥ तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥२८॥ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥२६॥ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकरिमन्नाचतुर्थ्यः ॥३०॥ मतिश्रु तावधयो विपर्ययश्च ॥३१॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत् ॥३२॥ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जु सूत्रशब्दसमभिदैवंभूता नयाः ॥३३॥ इति तत्त्वार्थधिगमे मोक्षशास्त्रो प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च ॥१॥ द्विनवाष्ठादर्शकविंशति त्रिभेदा यथाक्रमम् ॥२॥ सम्यक्त्वचारित्रे ॥३॥ ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥ ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्र संयमासंयमाश्च ॥५॥ गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाऽज्ञाना[११४] Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी मिथ्या रूप बादल के नाश के लिए यायु तुल्य है । ऽसंयताऽसिद्ध लेश्याश्चतुश्च तुरत्येकककक षड् भेदाः ॥६॥ जीव भव्याऽभव्यत्वानि च ॥७॥ उपयोगो लक्षणं ॥८॥ स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥६॥ संसारिणो मुक्ताश्च ॥१०॥ समनस्काऽमनस्काः ॥११॥ संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥१२॥ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥१३॥ द्वींद्रियादयस्त्रसाः ॥१४॥ पंचेंद्रियाणि ॥१५॥ द्विविधानि ॥१६॥ निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येद्रियं ॥१७॥ लब्ध्युपयोगो भावेंद्रियं ॥१८॥ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥१६॥ स्पर्शरस गंधवर्ण शब्दास्तदर्थाः ॥२०॥ श्रुतनिद्रियस्य ॥२१॥ वनस्पत्यंतानामेकं ॥२२॥ कृमिपिपीलिका भ्रमर मनुष्यादीना मेककवृद्धानि ॥२३॥ संजिनः समनस्काः ।।२४॥ विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥२५॥ अनुश्रोणि गतिः ॥२६॥ अविनहा जीवस्य ॥२७॥ विग्रहवती च संसारिणः प्राकचतुर्म्यः ॥२८॥ एकसमयाऽविग्रहा ।।२६। एकं द्वौ बोन्वानाहारकः ॥३०॥ संमूर्छनगर्भोपपादा जन्म ॥३१॥ सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥३२॥ जरायुजाण्डजपो तानां गर्भः ।।३३।। देवनारकाणामुपपादः ॥३४॥ शेषाणां संम्मूर्छनं ॥३५॥ औदारिक वैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥३६॥ परं परं सूक्ष्मं ॥३७॥ प्रदेशतोऽसंख्येय गुणं प्राक्तजसात् ॥३८॥ अनंतगुणे परे॥३६॥ अप्रतीघाते ।'४०॥ अनादि संबंधे च ।।४१॥ सर्वस्य ॥४२॥ तदादीनि भाज्यानि युगपदे कस्मिन्नाचतुर्म्यः ॥४३॥ निरुपभोगमंत्यं ॥४४॥ गर्भसंमूर्छनजमा ॥४५॥ औपपादिकं वैक्रियिकं ॥४६॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४७॥ तैजसमपि ॥४८॥ शुभं विशुद्धमव्याधाति चाहारकं प्रमत्त संयतस्यैव ॥४६॥ नारकसंमूछिनो नपुंसकानि ॥५०॥ न देवाः ॥५१॥ शेषास्त्रिवेदाः ॥५२॥ औपपादिक चरमोत्तम देहाःसंख्येय वर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५३॥ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षणास्त्रे द्वितीयोऽध्याय ॥२॥ रत्नशर्करावालुकापंक धूमतमो महातमः प्रभा भूमयो घनांबुवाताकाशप्रतिष्टाः सप्ताऽधोऽधः ॥१॥ तासु त्रिशत्पंचविंशति पंच दशदश त्रिपंचोनैकनर कशत सहस्त्राणि पंच चैव यथाक्रमं ॥२॥ नारका नित्याशुभतर लेश्या परिणाम देह वेदनाविक्रियाः ॥३॥ परस्परोदीरित दुःखाः ॥४॥ संकिल्ष्टासुरो दीरित दुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥५॥ तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्त दशद्वाविंश तित्रयस्त्रिशत्सागरोपमा सत्वानां परा स्थितिः ॥६॥ जंबूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥७॥ द्विद्धिविष्कंभाः पूर्वपूर्वपरिक्षे पिणो वलयाकृतयः ॥ तन्मध्य मेरुनाभिर्वृत्तो योजन शत सहस्त्रविष्कभो जंबूद्वीपाद [११५] Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराधी व्यक्तियो को उचित दण्ड देना राजाओ का श्रृंगार है। भरत हैमवत हरिविदेह रम्यक हैरण्य वर्तरावत वर्षाः क्षेत्राणि ॥१०॥ तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिम वन्निषधनील रुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥११॥ हेमार्जुनतपनीयवैडूर्य रजतहेममयाः ॥१२॥ मणिविचित्रपार्श्व उपरि मूले च तुल्य विस्ताराः ।।१३॥ पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेसरि महापुण्डरीकपुण्डरीका हदास्तेषामुपरि ॥१४॥ प्रथमो योजनसहस्त्रायामस्त दद्ध विष्कम्भो हृदः ॥१५॥ दशयोजनावगाहः ॥१६॥ तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ॥१७॥ तद्विगुणद्विगुणा हृदा पुष्कराणि च ॥१८॥ तन्निवासिन्योदेव्यः श्रीहीधृतिकोति बुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिक परिषत्काः ।।१६।। गंगासिन्धुरोहिद्रोहितास्या हरिद्धरिकान्ता सीतासीतोदानारीनरकान्तासुवर्ण रूप्यकूलारक्तारक्तोदाः सरिस्तन्मध्यगाः ॥२०॥ द्वयो योः पूर्वाः पूर्वगाः ॥२१। शेषास्त्वपरगाः ॥२२॥ चतुर्दश नदी सहस्त्र परिवृता गंगासिन्ध्वादयो नद्यः ॥२३॥ भरतः षड्विंशति पञ्चयोजनशत विस्तारः षट्चकोनविंशतिभागा योजनस्य ॥२४॥ तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः ॥२५॥ उत्तरा दक्षिणतुल्याः ॥२६॥भरतरावतयोवृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सप्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ॥२७॥ ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ॥२८॥ एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतक हारि वर्षकदेव कुरुवकाः ॥२६॥ तथोत्तरा ॥३०॥ विदेहेषु संख्येयकालाः ॥३१॥ भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः ॥३२॥ द्वितिकोखण्डे ॥३३।। पुष्कराद्धे च ॥३४॥ प्राङ मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥३५॥ आर्या म्लेच्छाश्च ॥३६॥ भरतरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः ॥३७॥ नृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तमुहूर्ते ॥३॥ तिर्यग्योनिजानां च ॥३६॥ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्र तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ देवाश्चतुर्णिकायाः ।।१।। आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः ॥२॥ दशाष्टपञ्चद्वादश विकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥३॥ इन्द्रसामानिकत्रास्त्रिशत्पारिषदात्मरक्षलोकपा लानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्बिषिकाश्चैकशः ॥४॥ त्रास्त्रिशलोकपालवाव्यन्तरजोतिष्काः ॥५॥ पूर्वयोर्दीन्द्राः ॥६॥ कायप्रवीचारा आऐशानात् ॥७॥ शेषाः स्पर्शरूप शब्दमनः प्रवीचाराः ॥८॥ परेऽप्रवीचाराः ॥६॥ भवन वासिनोसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीप दिक्कुमाराः ॥१०॥ व्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुष महोरगगन्धर्वयक्षराक्षस भूतपिशाचाः ।।११॥ ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥१२॥ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥१३॥ तत्कृतः कालविभागः ॥१४॥ बहिरवस्थिताः ॥१५॥ वैमानिकाः ॥१६॥ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥१७॥ [११६] Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्जन अग्नि के समान अपने आश्रित को ही जला देता है। उपर्युपरि ॥१८॥ सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्टशुक्रमहा शुक्रशतारसहस्त्रारेष्वानत प्रारणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु वेयकेषु विजयवैजन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥१९॥ स्थितिप्रभावसुखद्य तिलेश्या विशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥२०॥ गति शरीरपरिग्रहाभिमानतो होनाः ॥२१॥ पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥२२॥ प्राग्न वेयकेभ्यः कल्पाः ॥२३॥ ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः ॥२४॥ सारस्वादित्यवह्नयरुणगर्दतोयतुषिता व्यावाधारिष्टाश्च ॥२५।। विजयादिषु द्विचरमाः ॥२६॥ औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥२७॥ स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्धहीनमिताः ॥२८॥ सौधर्मशानयोः सागरोपमे ऽधिके ॥२६॥ सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥३०॥ त्रिसप्तनवकादशत्रयोदशपञ्चदभिरधिकानि तु ॥३१॥ आरणाच्युतादूद्ध मेकेकेन नवसु ग्रेवेयकेष विजियादिषुसर्वार्थसिद्धौ च ॥३२॥ अपरा पल्योपममधिकम् ॥३३॥ परतः परतः पूर्वा पूर्वानन्तराः ॥३४॥ नारकाणां च 'द्वितीयादिषु ॥३५॥ दशवर्षसहस्त्राणि प्रथमायाम् ॥३६॥ भवनेषु च ॥३७॥ व्यन्तराणां च ॥३८॥ परापल्योपममधिकं ॥३६॥ ज्योतिष्काणां च ॥४०॥ तदष्ट भागोऽपरा ॥४१॥ लोकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ॥४२॥ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोभशास्त्र चतुर्थोऽध्याय ॥४॥ अजीवकायाघधिकिाशपुद्गलाः ॥१॥ द्रव्याणि ॥२॥ जीवाश्च ॥३॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥४॥रूपिणः पुद्गलाः ॥५।आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥६॥ निष्क्रियाणि च ॥७॥ असङ्ख्याः प्रदेशाः धर्माधम्मकजीवानान् ।।८।। आकाशस्यानन्ताः ॥६॥ संययासङ्ख्ययाश्च पुद्गलानाम् ॥१०॥नाणोः ॥११॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥१२॥ धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥१३॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥१४॥ असङ्खचय भागादिषुजीवानाम् ॥१५॥ प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥१६॥ गतिस्थित्युपग्रहो धमाधम्र्मयोरुपकारः ॥१७॥ आकाशस्यावगाहः ।१८॥ शरीरवाछ मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥१६॥ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥२०॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥२१॥ वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य ॥२२॥ स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला ॥२३॥ शब्दबन्धसोक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च ॥२४॥ अगवस्कन्धाश्च ॥२५॥ भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते ॥२६।। भेदादणुः ॥२७॥ भेदसंघाताम्यां चाक्षुषः ॥२८।। सद्व्यलक्षणम् ॥२६॥ [११७] ||४|| 30 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त प्राणियो के साथ सद्व्यवहार करो। उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्त सत् ।।३०॥ तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥३१॥ अप्पितानपितसिद्धेः ॥३२॥ स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः ॥३३॥ न जघन्यगुणानाम् ॥३४॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥३५॥ द्वयधिकादिगुणानां तु ॥३६॥ बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च ॥३७॥ गुणपर्ययवद्रव्यम् ॥३८॥ कालश्च ॥३९॥ सोऽनन्तसमयः ॥४०॥ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥४१॥ तद्भावः परिणामः ॥४२॥ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्र पंचमोऽध्यायः ॥५॥ कायवाङ मनः कर्म योगः ॥१॥ स आसवः ॥२॥ शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥३॥ सकषायाकषाययोः साम्परायिकेापथयोः ॥४॥ इन्द्रियकषायावतक्रियाः पञ्चचतुः पञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्यभेदाः ॥५॥ तीजमन्दज्ञाता ज्ञात भावाधिकरण वीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥६॥ अधिकरणं जीवाऽजीवाः ॥७॥ आद्य संरम्भ समारम्भा रम्भयोगकृत कारिता नुमतकषाय विशेषस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥॥ निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्वित्रिभेदाः परम् ॥६॥ तत्प्रदोषनिह्न वमात्सर्यान्तराया सादनोप घाताज्ञानदर्शनावरणयोः ॥१०॥ दुःखशोकतापादन वधपरि देवनान्यात्मपरोभयस्था नान्यसदद्यस्य ॥११॥ भूतवृत्यनु, कम्पादान सरागसंयमा दियोगः शान्तिः शौचमिति सद्व यस्य ॥१२॥ केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥१३॥ कषायोदयात्ती अपरिणामश्चारित्र मोहस्य ॥१४॥ वह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥१५॥ माया तैर्यग्योनस्य ॥१६॥ अल्पारम्भ परिग्रहत्वं मानुषस्य ॥१७॥ स्वभावमार्दवं च ॥१८॥ निःशीलवतत्वं च सर्वेषाम् ।।१६॥ सरागसंयमसंयमा संयमाऽकामनिर्जरा लतपसि देवस्य ॥२०॥ सम्यक्त्वं च ॥२१॥ योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥२२॥ तद्विपरीतं शुभस्य ॥२३॥ दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागतपसीसाधु समाधियावृत्त्यकरणमर्हदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यका परिहाणिमार्ग प्रभावना प्रवचन वत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥२४॥ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥२५॥ तद्विपर्ययो नोचैव त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥२६॥ विघ्नकरण मन्तरायस्य ॥२७॥ - इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्ष शास्त्रं षष्ठोऽध्यायः ॥६॥हिंसा नृतस्तेया ब्रह्मपरिग्रहेन्यो विरतिर्गतं ॥१॥ देश सर्वतोऽणुमहती ॥२॥ तत्स्थर्यार्थ भावनाः पंच पंच ॥३॥ वाङमनो गुप्तीर्यादान निक्षेपणसमित्या लोकितपान भोजनानि पंच॥४॥ क्रोधलोभ भीरुत्व हास्य प्रत्याख्यानान्यनुवीचि भाषणं च पंच ॥५॥ [११८] Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन से किसी का बुरा विचार मत करो। शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभक्ष्यशुद्धिसधाविसंवादाः पञ्चः ॥६॥ स्त्रीरागकथाश्रवण तन्मनोहराङ्गनिरीक्षण पूर्वरतानुस्मरण वृष्येष्टरसस्वशरीर संस्कारत्यागाः पञ्च ॥७॥ मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥८॥ हिसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनं ॥६॥ दुःखमेव वा ॥१०॥ मैत्रीप्रमोद कारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेष ॥११॥ जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥१२॥ प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिसा ॥१३॥ असदभिधानमनृतं ॥१४॥ अदत्तादानं स्तेयम् ।।१५॥ मैथुनमब्रह्म ॥१६॥ मूर्खापरिग्रहः ॥१७॥ निःशल्यो व्रती ॥१८|| आगार्यनगारश्च ॥१६॥ अणुव्रतोऽगारी ॥२०॥ दिग्देशानर्थ दण्ड विरतिसामायिक प्रोषधोपवासोपभोग परिभोग परिमारणातिथि संविभागअतसम्पन्नश्च ॥२१॥ मारणान्तिको सल्लेखनां जोषिता ॥२२॥ शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥२३॥ वृतशीलेषु पंच पंच यथाक्रमम् ॥२४॥ बन्धबधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ॥२५॥ मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेराः ॥२६॥ स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्ध राज्यासिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥२७॥ परविावहकरणे त्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनाङ्गक्रीड़ाकामतीवाभिनिवेशाः ॥२८॥ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्य दासी दास कुप्यप्रमाणतिक्रमाः ॥२६॥ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥३०॥ आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥३१॥ कन्दर्पकौत्कुच्यमौखासमीक्षाधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥३२॥ योगदुःप्रणि धाना नादर स्मृत्य नुपस्था नानि ॥३३॥ अप्रत्य वेक्षिता प्रमाज्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥४॥ सचित्तसम्बन्धसन्मिश्राभिषवदुःपक्वाहाराः ॥३५॥ सचित्तनिक्षेपापिधानपख्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ॥३६॥ जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥३७॥ अनुग्रहार्य स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥३८॥ विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ।।३६।। इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रो सप्तमोऽध्याय ॥७॥ मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवाः ॥१॥ सकषायत्याजीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः ।।२॥ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः ॥३॥ आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥४॥ पञ्चनवद्ध यष्टाविंशतिचतुद्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥५॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानां ॥६॥ चारचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रबलाप्रचलास्त्यानगद्धयश्च।।७।। [१६] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी से कटु वचन मत बोलो। सदसवैये ८॥ दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यस्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यऽकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः ॥६॥ नारकर्यग्योनमानुषदेवानि ॥१०॥ गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसंघात संस्थानसंहननस्पर्शरसमन्धवर्णानुपूाऽगुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतो च्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशःकोतिसेतराणि तीर्थकरत्वं च ॥११॥ उच्चैर्नीचश्च ॥१२॥ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥१३॥ आदित स्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटोकोटयः परास्थितिः ॥१४॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ विशतिर्नामगोत्रयोः ॥१६॥ त्रस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥१७॥ अपरा द्वादश मुहुर्ता वेदनीयस्य ॥१८॥ नामगोत्रयोरष्टौ ॥१६॥ शेषाणामन्तर्मुहूर्ता ॥२०॥ विपाकोऽनुभवः ।।२१। स यथानाम ॥२२॥ ततश्च निर्जरा ॥२३॥ नामप्रत्यया सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥२४॥ सद्व घशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥२५॥ अतोऽन्यत्पापम् ॥२६॥ इति तत्वार्थविगमे मोक्षशास्त्रोऽष्टमोऽध्यायः ।।८।। आसवनिरोधः संवरः ॥१॥ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रः ॥२॥ तपसा निर्जरा च ॥३॥ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४॥ ई-भाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥ उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचाणि धर्मः ॥६॥ अनित्याशरणसंसारकत्वान्यत्वाशुच्यासवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचितनमनुप्रेक्षाः ॥७॥ मार्गाच्यवननिर्जरार्थपरिषोढव्यः परी षहाः ।।। क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाच्चालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानाऽदर्शनानि ॥६॥ सूक्ष्मसाम्परायच्छप्रस्थवीतरागयोश्चतुर्दश॥१०॥एकादजिने।।११॥वादरसाम्परायेसा॥१२॥ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञान।।१३॥ दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥१४॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाच्चासत्कारपुरस्काराः ॥१५॥ वेदनीये शेषाः ॥१६॥ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नकोनविंशतिः ॥१७॥ सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम् ॥१८॥ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥१६॥ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥ नवचतुर्दशपञ्चद्विभेश यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥२१॥ [१२०] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय से किसी का घात मत करो। आलोचनप्रतिक्रमणतदुभय विवेकयुत्सर्गत पश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ।।२२।। ज्ञानदर्शन चारित्रोपचाराः ।।२३।। आचार्योपाध्यायतपस्विशक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम् ॥२४॥ वावनापृच्छनानुप्रक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ॥२५॥ बाह्याभ्यन्तरोपथ्योः ॥२६॥ उत्तमसंहननस्यैकाग्र चिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहुर्तात् ।।२७॥ आर्त रौद्रधयंशुक्लानि ॥२८॥ परे मोक्षहेतू ॥२६॥ आर्तममनोज्ञस्य सम्प्र योगे तद्विप्रयोगायस्मृतिसमन्वाहारः ॥३०॥ विपरीतं मनोज्ञस्य ॥३१॥ वेदनायाश्च ॥३२॥ निदानं च ॥३३॥ तदविरत देश विरतप्रमत्त संयतानाम् ॥३४॥ हिसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेश विरतयो ।॥३५॥ आज्ञापायविपाफसंस्थान विचयाय धर्म्यम् ॥३६॥ शुक्ले चाद्ये पूर्व विदः ॥३७॥ परे केलिनः ॥३८॥ पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरत क्रियानिवर्तीनि ॥३६॥ येकयोगकाययोगायोगानाम् ॥४०॥ एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥४१॥ अवीचारं द्वितीयम् ॥४२॥ वितर्कः श्रुतम् ॥४३॥ वीचारोऽर्थव्यजनयोगसंक्रान्तिः ॥४४॥ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशम कोपशान्त मोहक्षपकक्षीणमोह जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुण निर्जराः ॥४५॥ पुलाकवकुश कुशीलनिग्रंथस्नातका निम्र थाः ॥४६॥ संयमश्रुतप्रतिसेवनातीलिंगलेश्योपपादस्थान विकल्पतः साध्याः ॥४७॥ इति तत्वार्थाधिगमे मोक्ष शास्त्रो नवमोऽध्यायः । मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ॥१॥ वन्धहेत्वभावनिर्जरा भ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥ औपशमिकादिभव्यत्वानां च ॥३॥ अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञान दर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥४॥ तदनन्तरमूद्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ॥५॥ पूर्वप्रयोगादसन्गत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागति परिणामाच्च ॥६॥ आविद्धकुलालचक वयपगतले पालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ॥७॥ धर्मास्तिकामावभावात् ।।८।। क्षेत्रकालगतिलिंग तीर्थचारित्र प्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः : ॥६॥ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्ष शास्त्र दशमोऽध्याय. ॥१०॥ अक्षरमात्रपदस्वरहीनं व्यञ्जनसन्धि विवजितरेफम् साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्र समुद्र ॥१॥ दशाध्याये परिच्छन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनि पुंगवः ॥२॥ तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्ध - पिच्छोऽपिलक्षितम् । वन्दे गणीन्द्र संजातमुमास्वामि मुनीश्वरम् ॥३॥ इति तत्वार्थ सूत्रम् परनाम तत्वार्थाधिगम मोक्ष शास्त्र समाप्तम् ।। 31 [१२१] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन बचन काय की सरलता संसार नाशक है। 00oooooooooooon ॐ () श्रीमत्पंडिताशाधर विरचिता ह्रीं () कल्याण-माला cle पुरुदेवादि वीरान्त जिनेन्द्राणं ददातु नः। श्रीमद्गर्भादि कल्याण श्रेणी निश्रेयसः श्रियम् ॥१॥ शुचौ कृष्णे द्वितीयायां बृषभो गर्भमाविशत् । वासुपूज्यस्तथा षष्ठ्यामष्टम्यां विमलः शिवम् ॥२॥ दशम्यां जन्म तपसी नमेः शुक्ले तु सन्मतेः । षष्ठयां गर्भोभवन्नेमेः सप्तम्यां मोक्षमाविशत् ॥३॥ सुनतः श्रावणे कृष्णे द्वितीयायां दिवच्युतः । कुन्थुर्दशम्यां शुक्ले तु द्वितीये सुमतिस्थितौ ॥४॥ जन्म निष्क्रमणे षष्ठ्यां नेमेः पावः सुनिर्वृतः । सप्तम्यां पूर्णिभायां तुश्रेयान्निः श्रेयसं गतः ॥५॥ भाद्र कृष्णस्य सप्तम्यां गर्भ शान्तिरवातरत् । गर्भावतरणं षष्ठ्याँ सुपार्श्वस्य सितेऽभवत् ॥६॥ पुष्पदन्तस्य निर्वाणं शुक्लाष्टम्यामजायत । श्रितः शुक्लचतुर्दश्यां वासुपूज्यः परं पदम् ॥७॥ अश्विनेऽभद्वितीयायां कृष्णे गर्भो नमः सिते। नेमे प्रतिपद्विज्ञानं सिद्धोष्टम्यां च शीतलः ।।८।। अनन्तः कातिके कृष्णे गर्भेऽभूत्प्रतिपद्दिने । चतुर्थ्या शंभवाधीशः । केवलज्ञानमापिवान् ॥६॥ पद्मप्रभ स्त्रयोदश्यां प्राप्तो जन्माते शिवम् । दर्श वीरो द्वितीयायां कैवल्यं सुविधिः स्थितः ॥१०॥ षष्ठ्याँ गर्भोऽभवन्नेमेादश्यां केवलोद्भवः । अरनाथस्य पक्षान्ते संभवेशस्य जन्म च ॥११॥ मार्गे दशम्या कृष्णेऽगाद्वीरोवोक्षां जनिव्रते। सुविधेः पक्षान्ते शुक्ले दशम्यांवर दोक्षणम् ॥१२॥ [१२२] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्म स्वरूप अनंत मानन्द मात्मा के द्वारा साध्य है। एकादश्यां जनुर्दोक्षे मल्लेर्ज्ञानं नमेस्तथा। अरजन्म चतुर्दश्यां पक्षान्ते सम्भवं नतम् ॥१३॥ पौष कृष्णे द्वितीयायाँ मल्लिः केवल्यमासदत् । चन्द्र प्रभस्तथा पार्श्व एकादश्यां जनिवते ॥१४॥ शीतलस्तु चतुर्दश्यां कैवल्य मुदमी मिलत् । शान्तिनाथो दशम्यान्तु शुक्ले कैवल्य मापिवान् ॥१५॥ एकादश्यान्तु कैवल्यमजितेशो ऽभिनन्दनः । चतुर्दश्यां पूर्णिमायां धर्मश्चलभते स्म तत् ॥१६॥ माघे पद्मप्रभः कृष्णे षष्ठ्यां गर्भमवातरत् । शीतलस्य जनुक्षि द्वादश्यां वृषभस्य तु ॥१७॥ मोक्षोऽभवच्चतुर्दश्यां दर्श श्रेयांस केवलम् । शुक्लपक्षे द्वितीयाया वासुपूज्यस्य केवलम् ॥१८॥ चतुर्थ्या विमलो जन्मदीक्षे षष्ठ्यां च केवलम् । नवम्यामजितो दीक्षां दशम्यां जन्म चासदत् ॥१६॥ अभिनन्दन नाथस्य द्वादश्यां जन्म निष्क्रमौ । धर्मस्य जन्मतपसी त्रयोदश्यां बभूवतुः ॥२०॥ चतुर्था फाल्गुने कृष्णे मुक्ति पद्मप्रभोगतः । षष्ठ्यांसुपावः कैवल्यं सप्तम्यां चापनिर्वृतिम् ॥२१॥ सप्तम्यामेव कैवल्य मोक्षौ चन्द्रप्रभोऽभजत् । नवन्यां सुविधिर्गर्भमेका दश्यांतु केवलम् ।।२२।। वृषो जन्मवते तद्वच्छ यान्मुक्ति तु सुवृतः । द्वादश्यां वासुपूज्यस्त चतुर्दश्यां जनिवाते।॥२३॥ अरः शुक्ले तृतीयायां गर्भ मल्लिस्तु निर्वृतिम् । पंचम्यां प्रापदण्टम्याँ गर्भ श्रीसंभवोऽपि च ॥२४॥ चत्र चतुर्थ्या कृष्णेऽभूत्पार्श्वनाथस्य केवलम् । पंचम्यां चन्द्रप्रभो गर्भमष्टम्यां शोतलोऽश्रयत् ॥२५॥ नवम्यां जन्म तपसी वृषभम्य वभूवतुः । फैवल्यंमप्य मावास्यां मोक्षोऽनन्तस्य चाभवत् ।।२६॥ [१२३] Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि तुम किसी की प्रशंशा नहीं कर सकते हो तो निन्दा तो मत करो। शुक्ल प्रतिपदा गर्भमल्लिः कुन्थुस्तृतीयया। ज्ञाने जितोऽभूत्पंचम्यां मोक्षोषष्टयां च सम्भवः ।।२७॥ एकादश्यां जनिनिमोक्षान्सुमति रुद्भवम् । वीरः प्राप्तस्त्रयोदश्यां पद्माभोंत्येन्हि केवलम् ॥२८॥ पार्श्वः कृष्णे द्वितीयायां वैशाखे गर्भमाविशत् ॥ नवम्यां सुबतो ज्ञानं दशम्यां च जनियते ॥२६॥ धर्मो गर्भ त्रयोदश्यां चतुर्दश्यां नमिः शिवम् ॥ शुक्ल प्रतिपदि प्राप कुन्थुर्जन्मतपः शिवम् ॥३०॥ प्राप्तोऽभिनन्दनः पष्ठयां शुक्लायां गर्भमोक्षणम् ॥ नवम्यां सुमतिवीरोदशम्यां ज्ञानमक्षयम् ॥३१॥ श्रेयान् ज्येष्ठे सिते षष्ठयां दशम्यां विमलोऽपि च ।। गर्भ समाश्रितोऽनन्तो द्वादश्यां जन्मनिष्क्रमौ ॥३२॥ शान्तिः श्रितश्चतुर्दश्यां जन्मदीक्षाशिव श्रियः॥ अमावश्या दिने गर्भमवतीर्णो जितेश्वरः ॥३३॥ शुक्ल चतुर्या निर्वाणं प्राप्तो धर्मो जिनेश्वरः ।। सुपार्श्वनाथो द्वादश्यां जनि प्रवृजिते स्थितः ॥३४॥ इतिमां वृषभादीनां पुष्यत्कल्याणमालिकां ॥ करोति कण्ठे भुषां यः स स्यादाशाघरे पंडितः ॥३५॥ इत्याशाधर विरचिता कल्याणमाला समाप्ता ॥ - श्री शान्ति ने नमः [१२४] Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परि किसी को अमृत नहीं पिता सकते तो पिप मिलाकर मारने की चेप्टा तो मत पगे। wwwwwwwwwwwwwwwwwww coc0 अथ श्री चन्द्रकृता वैराग्य मणिमाला ()000 चितय परमात्मानं देवं, योगिसमूहैः कृत पदसेवं । संसारार्णववर जलयानं, केवल बोध सुधारसपानं ॥१॥ जीव जहीहिधनादिकतृष्णा, मुंच ममत्वं लेश्यां कृष्णां । घर चारित्रं पालय शीलं, सिद्धिवधूक्रीडावर लोलं ॥२॥ अध्र वमिदमाकलय शरीरं, जननीजनक धनादि सदारं । वांछा कुरुषे जीव नितांतं, कि न हि पश्यसि मूढ़ कृतांतं ॥३॥ बाल्ये वयसि क्रीडा सक्त, स्तारुण्ये सति रमणीरक्तः । वृद्धत्वेऽपि धनाशाकष्ट, स्त्वं भवसीह नितांतं दुष्टः ॥४॥ फा ते आशा यौवन विषये, अध्र वजल बुदबुदसमकाये । मृत्वा यास्यास निरय निवासं, न जहसि तदपि धनाशापाशं ॥५॥ भ्रातमें वचनं कुरु सारं, चेत्त्वं वांछसि संसृतिपारं। मोह त्यक्त्वा काम क्रोधं, त्यज भजत्वं संयमवरबोधं ॥६॥ का ते कांता कस्तव तनयः, संसारोऽपि च दुःखमयो यः । पूर्व भवे त्वं कोहग्भूतः, पापास्त्रव कर्मभि रभि भूतः ॥७॥ शरणम शरणं भावय सतत मर्थ मनर्थ चितय नियतं । नश्वरकाय पराक्रम वित्त, वांछा कुरुषे तस्यहि चित्ते ॥८॥ एको नरके याति वराकः, स्वर्गे गच्छति शुभस विवेकः । राजाप्येकः स्याच्च धनेशः, एकः स्याद् विवेको दासः ॥६॥ एको रोगी शोको एको, दुःख विहीनो दुःखी एकः। व्यवहारी घ दरिद्री एक, एकाको भ्रमतीह वराकः ॥१०॥ अथिरं परिजन पुत्र कलत्रं, सर्व मिलितं दुःखा मत्रं । चेतसि चितय नियतं मातः, काते जननी कस्तव तातः ॥११ भातर्भूत गृहीतोऽसि त्वं, दार निमित्त हिंससि सत्त्वं । तेनाऽर्थेन च यास्यसि नरकं, तत्र सहिष्यसि घोरातकं ॥१२॥ [१२५] Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराधी व्यक्तियों के प्रति शान्त व्यवहार करना साधु का अलंकार है। विषय पिशाचासंगं मुंच, क्रोध कषायौ मूलाल्लुच । कंदर्प प्रभोर्मानं कंच, त्वं लुपेन्द्रिय चौरान पंच ।।१३॥ कुत्सित कुथित शरीर कुटीरं, स्तननाभी मांसादिविकारं । रेतः शोणित पूयापूर्ण, जघनच्छिद्र त्यजरे ! तूर्ण ॥१४॥ संसाराब्धी कालमनंतं, त्वंवसितोऽसि वराक ! नितातं । अद्याऽपि त्वं विषयाऽऽसक्तः, भवतेषु त्वं मूढ़ ! विरक्त ॥१५॥ दुर्गति दुःख समूहै भग्न, स्तेषां पृष्ट पुनरपि लग्नः । विकलो मत्तो भूताविष्टः, पापाचरणे जंतो ! दुष्टः ।।१६॥ सप्त धातुमय पुद्गलपिडः, कृमिकुल कलितामय फणिखंडः । देहोऽयं तव निंदित कुंडः, तदपि हिमूनि पतति यमदंड ॥१७॥ मा कुरु यौवन धन गृहगर्व, तव कालस्तु हरि यति सर्व । इंद्र जाल मिदमफलं हित्वा, मोक्षपदं च गवेषय मत्वा ॥१८॥ नीलोत्पल दलगतजल चपलं, इन्द्रचाप विद्य त्सम तरलं । कि न वेत्सि संसारमसारं, चांत्या जानासि त्वं सारं ।।१९॥ शोक वियोग भयैः संभरितं, संसारारण्यं त्यज दुरितं । कस्त्वा हस्ते दृढमिव धृत्वा, बोधिष्यति कारुण्यं कृत्वा ॥२०॥ मुंच परिग्रह वृन्दमशेषं, चारित्रं पालय सविशेषं । काम क्रोधनिपीलनयंत्र, ध्यानं कुरु रे जीव ! पवित्रं ॥२१॥ मुंच विनोदं कामोत्पन्न, पश्य शिवं त्वं शुभसंपन्न । यास्यसि मोक्ष प्राप्यसि सौख्यं, कृत्वा शुक्लं ध्यानं सख्यं ॥२२॥ आशा वसन वसानो भूत्वा, कामोपाधिकषायान् हित्वा । गिरिकंदर गहनेषु स्थित्वा, कुरु सध्यानं ब्रह्म विदित्वा ॥२३॥ यय नियमासन योगाभ्यासान, प्राणायाम प्रत्याहारान् । धारण ध्येय समाधीन धारय, संसाराब्धेर्जीवं तारय ॥२४॥ अर्हत्सिद्ध मुनीश्वर साक्ष, चारित्रं यदुपात्तं दक्ष । तत्त्वं पालय यावज्जीवं, संसारार्णव तारण नावं ॥२५॥ सावधि वस्तु परित्यजनंयत्, रक्षय शुद्धमनाः शुद्धं तत् । औदास्यं शाम्यं संपालय, आशा दासी संगं वारय ॥२६॥ [१२६] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुसी जनो का आदर करना ही अपनी उन्नति का पारण है। पर्यकादि विधेरभ्यास, यत्नतया कुरु योगाऽभ्यासं । दुर्धर मोह महासित सर्प, कोलय वोधय मर्दय दर्प ॥२७॥ पूरक कुंभक रेचक पवनः, संसारेंधन टाहन दहनैः । कृत्वा निर्मल कार्य पूर्व, त्वं लभसे केवल बोधमनंतं ॥२८॥ घ्राण विनिर्गत पवन समूह, रुधित्वा स्फोटय कलि निवहं । दशम द्वारि विलीनं कुरु, त्वं लभसे केवल वोध मनतं ॥२६॥ हृदयादानीय च नाभिप्रति, वायुतदनु च तं पूरयति । योगाभ्यास चतुर योगीन्द्रा, पूरक लक्षण माहुरतन्द्राः ॥३०॥ नाभि सरोजे पवनं रुध्वा, स्थिर तरमत्र नितात वध्वा । पूर्ण कुंभवन्निभर रूपं, कथयति योगी कुभक रूपं ॥३१॥ निस्सारयति शनैस्त कोष्ठात्, पवनयो योगीश्वर वचनात् । रेचक वातं योगी कथयति, यो जीवान् मोक्ष प्रापयति ॥३२॥ नासामध्ये नगर चतुष्टय, मस्ति नितात मूढ ! विचारय । तत्रोत्पत्तेर्वात चतुर्णा, संचरणां च कलय संपूर्णा ॥३३॥ चक्षुविषये अवसि ललाटे, नाभी तालुनि हत्कजनिकटे । तत्रैकस्मिन् देशे चेतः, सद्ध्यानी धरतीत्यति शांत ॥३४॥ योजन लक्ष प्रमितं कमलं, संचित्यं जांवून दविमलं । कोशदेश मंदिर गिरि सहित, क्षीरसमुद्र सरोवर सहितं ॥३५॥ तस्यो परि सिंहासन मेकं, तत्रस्थित्वा कुरु सध्यानं । चेतय सिद्ध स्वरूपम मान, प्राप्स्यसि जीव! शिवामृतपानं ॥३६॥ तदनंतर माध्येयं रम्यं, नाभी मध्ये कमलं सौम्यं । षोडश पत्र प्रमित सारं, स्वर मालान्वित पत्राऽऽधारं ॥३७॥ रेफकला विन्दु भिरानद्वं, तन्मध्ये संस्थाप्यं शुद्धं । शून्यं वर्ण सत्वंतव्यं, तेजोमय माशं संदिव्यं ॥३॥ तम्मान्निन्तिो धूमाली, पश्चादग्नि कणानामाऽऽली। संचित्यानु ज्वाला श्रेणी, भव्यानां भवजलधे - ोणी ॥३६॥ ज्वालानां निकरण ज्वाल्यं, कर्म कजाप्टक पत्रं गल्यं । अवतानं हृदयस्यं चित्य, मोक्षं यास्यसि मानय सत्यं ॥४०॥ [१७] Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस घर में गुणी जनों का सत्कार है वहाँ देवता का वास है। कोणत्रितय समन्वितकुंडं, वन्हिबीज वर्णं रविखंडम् ॥ दग्धय मध्ये क्षिप्त्वा पिंडं, पश्यसि सिद्धिवधूवरतुंडं ॥४१॥ आकाशं सम्पूर्ण व्याप्य, पृथ्वीवलयं सर्व प्राप्य ॥ वातं वातं हृदि संभारय, परमानंदं चेतसि धारय ॥४२॥ तेन वातवलयेनोड्डाप्यं, भस्म दमनुदिनमास्थाप्यं ॥ द्वादशांतमध्ये सद्धयानं, कुरु सिद्धानां परमं ध्यानं ॥४३॥ आकाशे संगजितमुदिरं, सेन्द्रचापमासार सुसारं ।। नीरपूरसंप्लावितसूरं, संरोध्येति घनाघननिकरं ॥४४॥ अर्धचंद्र पुट समसंराध, वारणपुर संचित्यमबाधं ॥ अमृत-पूरवर्षण शशिसारं, तुष्ट योगिवप्पीहकनिकरं ॥४५॥ कांत्या स्नापितदश दिग्वलयं, दर्शनवोध वीर्यशिवनिलयं ॥ चिन्मयपिंडं वर्जितवलयं, स्मर निजजीवं निर्मलकायं ॥४६॥ भामण्डल निजितरविकोटि, शुक्लध्यानाऽमृत संपुष्टि ॥ तीर्थकर परमोत्तमदेवं, स्वात्मानं स्मरकृतसुरसेवं ॥४७॥ कुभवातेन च तं संचित्यं, अर्ध्वरेफ संयुक्त नित्यं ॥ __ सकलबिदुनाना हतरूपं, स्थापय चित्ते छेदितपापं ॥४८॥ कमलमेक मारोपय चान, आरोग्य स्मर तद्दलवर्गे ॥ सर्व मंत्र बीजं हृदि नितरां, काम क्रोध कषायै विरतं ॥४६॥ शरदिदो निर्गच्छंतं संतं, मंत्र राज माराधय सततं । तालु सरोरुह मागच्छंतं, मेघाऽमृत धारा वर्षतं ॥५०॥ भूल तयोर्मध्ये चाऽऽरोप्यं, उड्डाप्य प्राणाने स्थाप्यं ॥ पुनरुद् साम्य च हृदये, धार्य नेत्रोत्पल विषये तत्कार्य ॥५१॥ सोमदेव सूरेरुपदेशः, कार्यश्चित्ते शुभ संवेशः ॥ लंबीजाक्षरमारोप्यांते, विद्वद्भिर्मुक्तचं नासांते ॥५॥ एवमादिमंत्राणां स्मरणं, कुरु जीव ! त्वं तेषां शरणं ।। यत् सामर्थ्याद्विजहसि भरणं, संसाराब्धेः कुरुसे तरणं ॥३॥ अविचल चित्तं धारयबंधो ! यास्यसि पारं संसृति सिंधोः॥ त्वं च भविष्यसि केवल बोधो, हंसत्वं प्राप्स्यसि शिवसिंधो ॥५४॥ [१२८] Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सराचार में आत्मा और समाज का विकास होता है। शुद्ध रूप चिन्मय चित् पिडं, चिज्ज्योति श्चिच्छक्त्योर्नोडं । चिद्रम्यं चित्कौमुदि चंद्र, स्मर बोधाधिपति गुण सांद्र ॥५५॥ निर्मल चिद्रू पा मृसिंधु, शुक्लध्यानांवुजकज बंधुम् । सिद्धि वधू सरसीवर हंस, पश्य शिवंशांतं च निरंशं ॥५६॥ ज्ञानार्णव कल्लोल कलापे, क्रीडति योजस् शिव रूपे । नव केवल लब्धिभिरापूर्णः, सेव्यते मुनिभिर्गतवर्णः ॥५७॥ केवलकरविरणीविप्रेशं, मुक्तिकामिनी कर्णावतंसं । त्रिभुवनलक्ष्मी भाल विशेषं, लब्धि सोध रत्नानां कलशं ॥५॥ शिवहंसी संगम सस्नेह, अष्टगुणोपेतं च विदेहं । बोधि सुधारस पान पवित्रं, साम्य समुद्र त्रिभुवन नेत्रं ॥५६॥ अनाद्य खंडा चलसद्वेद्य, योगि वृद वदारक वंद्य । हरिहर ब्रह्मादि भिरभिवंद्य, केवल कल्याणोत्सवहृद्य ॥६०॥ श्रुतशवलिनी सुरगिरिविधुरं, निःश्रेयसलक्ष्मीकरमुकुरं । कर्म महोघर भेदनभिदुरं, श्याम श्री ग्रीवालंकारं ॥१॥ व्योमाकारं पुरुषमरूपं, निर्वापित संसृति संतापं । वजित कामदहन संपातं, त्रिभुवन भव्य जीव हिततातं ॥२॥ इत्यादिक गुणगण संपूर्ण, चितय परमात्मानं तूर्ण। अप्ट प्रवचन मातुः पितरं, पारी कृता जवं जव पारं ॥६३।। निज देहस्थं स्मररेमूढ, त्वं नो चेद् भ्रमिष्यसि गूढः । मूर्खाणा मध्ये त्वं रूढः, त्वं च भविष्यस्यग्ने पंढः ॥६४॥ एक मनेकं स्वंसंभारय, शुद्धमशुद्ध स्वं संतारय । लक्ष्यमलक्ष्यं स्वं संपारय, कर्म कलंकं त्वं संदारय ॥६॥ बद्धमबद्धं रिक्तमरिक्तं, शून्यमशून्यं व्यक्ताऽव्यक्त । रुप्टमरुष्टं दुष्टादुष्टं, शिष्टमशिष्टं पुष्टाऽपुष्टं ॥६६॥ अंतर्भेदज्ञान विचारः, व्यवहार व्यवहारा सारः। वर्ण्यते देहस्यं पुरुष, विषय विरक्तर्ज्ञान विशेषः ॥६७॥ विरम विरम बाह्यादि पदार्थ, रम रम मोक्ष पदे च हितार्थे । फुर फुरु निजकार्य च वितंद्रः,भव भव केवल वोध यतीन्द्रः ॥६॥ . [१] Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचार से धर्म को प्रभावना होती है। मुच मुंच विषयाऽमिष भोगं, लूप लुंप निज तृष्णा रोगं । रंध रुध मानस मातंग, धर धर जीव विमल तरयोगं ॥६६॥ चितय निज देहस्थं सिद्धं, आलोचय कायस्थं बुद्धं । स्मर पिडस्थ परम विशुद्ध, कल केवल केली शिव लब्धं ॥७०॥ वैराग्यमणि मालेयं, रचिता सप्ततिप्रमा। ब्रह्म श्रुताब्धि शिष्येण, श्री चंद्रण मुमुक्षणा ॥७१॥ - समाप्तेय श्री चन्द्रकृता वैगग्य मणिमाला - श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री देव वंदना, गुरु वंदना, स्वाध्याय वगेर कृत्ये करावयाची असतां त्या वेली कोणत्या भनिह्मणा व्यालागतात या चे वर्णन y -: जिनेन्द्र वंदन :सर्वव्या संग निर्मुक्तः संशुद्धकरण त्रयः । धौत हस्त पद द्वन्द्वः परमानंद मंदिरम् ॥ चैत्य चैत्यालयादीनां स्तवनादी कृतोद्यमः । भवेदनन्त संसार संतानोच्छित्तये यतिः ॥१॥ यथा निश्चेतना श्चिन्तामणि कल्प मही रुहाः । कृत पुण्यानुसारेण तदभीष्ट फल प्रदा॥ तथाईदादय श्वास्त रागद्वेष प्रवृत्तयः । भक्त भक्त्यनु सारेण स्वर्ग मोक्षफल प्रदाः ॥२॥ गराप हारिणी मुद्रा गरुडस्य यथा तथा । जिनम्याप्येन सो हंत्री दुरिताराति पातिनः ॥३॥ सुमनः संगमादंगगतीह सूत्रं पवित्रताम् । पिष्टः प्रकृष्टमाधुर्य प्रकृष्टे क्षुरसाद्यया ।। चंपापावादि निर्वाण क्षेत्रादीनि पवित्रता । वंद्यतां च बजन्त्येव वन्द्यसंगमस्तया ॥४॥ मत्वेति जिनगेहादि त्रिः परीत्य कृतॉजलिः । प्रकुर्वस्तच्चतुदिक्षु सत्यावर्ता शिरोन्नतिम् ।। घोर संसार गंभीर वारिराशी निमज्जताम् । दत्तहस्ता वलंबस्य जिनस्यार्थिमाविशेत् ॥५॥ प्रतिक्रमण व आलोचनाम्हणून देवता स्तवने भक्तो चेत्य, पंचगुरु भयोः ।।६।। [१३०] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह मानय नियनीय है जिसका हृदय दुराचार यो दुर्गन्धि से प्याप्त है। ___ आचार्य बन्दना विधि लघ्व्या सिद्ध गणि स्तुत्या गणी वंद्यो गवसनात् । सद्धान्तोऽन्त श्रुत स्तुत्या तथान्यस्तति विनां ।। ७॥ सि.आ. सि आ.शु सि श्रु २+१: स्वाध्याय वेली स्वाध्यायं लघुभक्त्यात्तं श्रुत सूर्योरहनिशे । पूर्वेऽपरेऽपि चाराध्य श्रुतस्यैव क्षमापयेत् ॥ ८॥ श्रुपा लघ. व समाप्तीनंतर ध्रुत. प्रत्याग्न्यान व निष्टापन - उपोपणाचे हेयं लघ्व्या सिद्ध भक्त्याश नादौ । प्रत्याख्यानाद्याशु चादेय भन्ते ।। सूरौ तादृग्योगिभक्त्यग्रया तद् ।ग्राह्यं वन्द्य, सूरि भक्त्या सलध्व्या ॥६॥ लघुसिद्ध. आहारानतरसि. आचार्यपुढेकरणेसर. यो.ति. ___ चतुर्दशीच्यादिवशी घिसमयवंदने भक्तिद्वयमध्ये श्रुतनुति चतुर्दश्याम् ।। प्रादुस्तक्तित्रय मुखतियोः केपि सिद्धांतिनूतो ॥१०॥ चै. श्रु. पच. चतुर्दशीचे दुसरे मत सिद्धे चैत्ये श्रुते भक्तिस्तथा पंचगुरुस्तुतिः ॥ शांतिभक्तिस्तथा कार्या धतुर्दश्यामिति क्रिया ॥११॥ मित्र.अ.पं.गो. नाहीतन्दुसरेदिव. [११] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुराचार आत्मा का और समाज की उन्नति का विघातक है। चतुर्दशोदिने धर्म व्यांसगादिना क्रिया कर्तुं न लभ्येत चेत्पाक्षिकेष्टभ्याक्रिया कर्तव्या ॥ अष्टमीऽथवापोर्णिमा किंवा आमावश्येस राहि ल्यास करणे * अष्टान्हिक पर्वात कुर्वतु सिद्धनंदीश्वरगुरु शांतिस्तवः क्रियामष्टौ ॥ शुच्यूर्जतपस्यसिताण्टम्यादि दिनानि मध्याह्न ॥१२॥ सि.नं.पं.शा. सिद्धप्रतिमा, तीर्थंकर जन्म व अपूर्व जिन प्रतिमा दर्शनी सिद्धभक्त्यकया सिद्धप्रतिमायाँ क्रियामता ॥ तीर्थकृज्जन्मनि जिनप्रतिमायां च पाक्षिकी ॥१३॥ ३ सिद्धप्र.दर्शनी.सि.।इतर.चे.पंच श्रुत. १ ११ १-३ अपुर्व चैत्यवन्दना व नित्यवन्दना अष्टमी चतुर्दशीरोजी आल्यास दर्शन पूजा त्रिसमयवंदन योगोष्टमीक्रियादिषु चेत् ॥ प्राक्तहि शान्तिभक्त प्रयोजयेच्चत्य पंचगुरु भक्ती ॥१४॥ चैत्य पंचगुरु.शॉतिभक्ति. - अभिषेकसमयी :अभिषेकवंदनायाः सिद्धचत्य पंचगुरुशान्तिभक्तयः ॥१५॥ १ १ १ १४ स्थिर व चल जिनबिम्ब प्रतिष्टेत चतुर्थ महाअभिषेक समयी स्यात्सिद्ध शान्तिभक्तिः स्थिरचल जिनबिंबयोः प्रतिष्ठायां ॥ अभिषेक वंदना चल तुर्य स्नानेऽस्तुपाक्षिकी त्वपरे ॥१६॥ सि.शॉ.सि.चै.प.शॉ. स्थिर.चवथेदि.सि.चा.भो.आलो.शो. १ ११११११- ४ १ १ १ १ (४) - पञ्चकल्याणक :स्याद्यत सिद्धशांति स्तुति जिन गर्भ जनुषोः स्तुयाद तम् ।। [१३२] Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुराचार अविश्वाम पा कारण है। निष्क्रमणे योग्यन्तं विदि श्रुताद्यपि शिवे शिवांतमपि ॥१७॥ गर्भ, जन्म, मि.चा गां । दीक्षाक सि चा यो गा. । नानक सि.श्रु चा यो शा. । निर्वा माग बनि भनि । ११ १(३) ११ १ १ (४) १ १ १ १ १ (५) ५+१= (१) - महावीर निर्वाण वेली - योगान्ते फेदिये सिद्ध निर्वाण गुरु शांतयः ।। प्रणत्या वीरनिर्वाणे कृत्यातो नित्य वंदना ॥१६॥ वयोग सपवूनसुर्योदयीमि.नि पशां. म्हणून नंतर नित्य वंदना मुनी व श्रावकानी करणे - - श्रुतपञ्चमी :बहत्या श्रुतपंचम्यां भक्त्या सिद्धश्रु तार्थया । श्रतस्कंधं प्रतिष्ठाप्य गृहीत्वा वाचनां बृहत् ।। क्षम्यो गृहीत्वा स्वाध्यायः कृत्या शान्तिनुतिस्ततः ।। यतिनां गहिरणां सिद्धश्रुतशान्तिस्तवाः पुनः ।।१६॥ जेष्टशु ५ रोजीसि श्रु कथा सांगून श्रु आ. व गॉ श्रावका सि श्रु.गां - सिद्धान्तवाचन - सिद्धान्तवाचना ग्रहणे सिद्धश्रु तभक्ती कृत्वा तदनु श्रुताचार्य भक्तीकृत्वा गृहीत स्वाध्याय. तन्निष्टापने श्रुतशान्तिभक्तो करोतु । अधिकाराणा समाप्ता वेककं कायो त्सर्ग कुर्यात् ! क्रमेण षटकायोत्सर्गा भवन्ति ॥२०॥ सन्यासमरणे संन्यासस्य क्रियादी सा शान्तिभक्त्या विनासह ।। अन्तेऽन्यदा वहद्धपत्या स्वाध्याय स्थापनोसने। योगेपि ज्ञेयं तत्रात्तस्वाध्यायः प्रतिचारकः।। स्वाध्यायाग्राहिणां प्राग्वत् तदाद्यन्तरिने क्रिया ॥२१॥ [1] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुराचार नरक का द्वार खोलने की कुंजी है। श्रुता प्रभाते सन्यासस्थापन करुण सि.श्रु.करणे सं. स्वर्गवासा नतर शांति स्वाध्याय करणारामे रात्री सन्यासघेनारा पासो रहावे वर्षायोग ग्रहण व त्याग ततश्चतुर्दशी पूर्वरात्रे सिद्धमुनिस्तुती । चतुर्दिक्षु परीत्याल्पाश्चैत्यभक्ति गुरुस्तुतिम् । शान्ति भक्ति च कुर्वाणवर्षायोगस्तु गृहाताम् ॥ उर्जशुक्लकृष्ण चतुर्दश्योपश्चाद्वरात्रौ च मुच्यताम् ।।२२।। मुनीनीआपाढशु.१४ प्रथमरात्रंसि यो.च.पं.शां.ग्र.त्या. कार्तिक शु. १४ माग-चे रात्री समदर प्रमानेभक्ती करणे चारीदिशे प्रती दोन दोन स्वंयभूस्तात्र म्हणुनस्तंडुलक्षेपक करणे। आचार्य पद ग्रहण सिद्धाचार्यस्तुती कृत्वा सुलग्ने गुर्वनुज्ञया । लात्वाचार्य मदं शान्ति स्तुयात्साधुः स्फुरद् ॥२३॥ सि.आ.नतरगां. प्रतिमायोग धारण करणारे मुनीचा आदर लधीयसोऽपि प्रतिमायोगिनो योगिनः क्रियाम् ॥ कुर्यु: सर्वेऽपि सिर्षि शान्ति भक्तिभिरादरात् ॥२४॥ सि.यो शां. दिनासमयी लोचकरणे नेव्हां सिद्धयोगि बृहद्भक्ति पूर्वक लिङ्गमर्यताम् । लुञ्चाख्यानाग्न्य पिच्छात्म क्षम्यता ११ सिद्धि भक्तितः ॥२५॥ सि.यो.सि. - केशलांच - लोचो द्वित्रि चतुर्मासर्वरौ मध्योऽधमः क्रमात् ॥ लघु प्रारभक्तिभिः कार्यः सोपवासप्रतिक्रमः ॥२६॥ लघु.सि.यो.प्रतिक्र.उपवास.सि. [१३४] Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपा में माना जानता है। wriwarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrmam प्रतिक्रमण. रात्रियोग ग्र० त्यारा भवत्या सिद्धप्रतिक्राति वीर द्विादशाहताम् ।। प्रतिक्षामेन्मलं योगं योगिभक्त्या भनेत त्यजेत् ॥२७॥ प्रमि.प्रनि वीर नीर्थ । ग योगग त्या योगिभ । अतिचार वन्दनादि नियेत जनाधियय विशुद्धयर्थ सर्वत्र प्रिय भक्तिकाः ॥२८॥ ममा. निपिद्धिका स्थानाची व शरीराची क्रिया समयी सामान्यों मते- सिद्धयोगि शांति । सिद्धांतवदि साधूना-सिद्ध श्रुत योगि शान्ति भक्तयः संत्रांतोत्तर योगिनासिद्ध चारित्र योग शांति भक्तयः । आचार्यस्य-सिद्धयोगाचार्यशांति भक्तयः सद्धांताचार्यस्य सिद्धश्रुतयोगाचार्य शांति भक्तयः ।। उत्तरयोगिनामाचार्याणां सिद्धचारित्र योगाचार्य शांति भक्तयः उत्तर योगिनः सिद्धाताचार्यस्य मिद्धभुतयोगाचार्य शांति भक्तयः ।। उत्तरयोगिनां सिद्ध चारित्र योगि शांति भक्तयः । अनंतरोक्ता अप्टोक्रियाः शरीररय निषधास्थानस्य च ॥२६॥ पानिक चातुर्मासिक वगैरे प्रतिक्रमणे पाक्षिक चातुर्मासिक सांवत्सरिक प्रतिक्रमणे सिद्ध चारित्र प्रतिक्रमण निष्ठित फरण चनुविशति तोर्यकर भक्तिचारित्रा लोचना गुरु भक्तयो बृहदा लोचन गुरुभक्तिलंधीयप्याचार्यभक्तिश्च फरणीयाः ॥३०॥ पा.चा मा.मि चा प्र चनु.चा आलो.गुरु यो आ. - जाप्यकरण कायोत्सर्ग पुर्वक - अष्टशतं देवमिर कल्येधं पाक्षिकं च त्रीणि शतानि ।। उच्छ्वासाः फर्तव्या नियमांते अप्रमत्तेन ॥३१॥ ई.प्रा. गती पाभिके उ.जा प्रत्येकभक्ती उ.जाप्य नमोकार 100 ५3D%300-800 [१] Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत तप ध्यान से मानव योगो बनता है। मंत्राचा जाप तीनश्वासोस्वासामधे १ पुरा करणे चातुर्मासिक सांवत्सरिक चातुर्मासिके चत्वारि शतानि संवत्सरे च पंचशतानि ॥ कायोत्सर्गोच्छ्वासाः पंचसु स्थानेषु ज्ञातव्याः ॥३२॥ चा. प्र. उ. जा. सा. प्र.उ. जा. प्राणिवधे मषावादे ४००-१३४ ५००-१६७ अदत्ते मैथुने परिग्रहे जैव ।। अष्टशतं उच्छ्वासाः कायोत्सर्गे कर्तव्याः ॥३३॥ पं. अतिचार उ.जा. भक्त पाने ग्रामांतरे च अर्हतश्रमणशय्यायाम् ।। उच्चारे प्रसवणे १०८-३६ पंचविशतिः भवंति उच्छ्वासाः ३४॥ उ.जा. सर्वत्र- उद्देशे निर्देशे स्वाध्याये वंदनायां प्रणिधाने । सप्तविशतिरुच्छ्वासाः कायोत्सर्गे कर्तव्याः ॥३५॥ ग्रन्यादि प्रारम्भ कायो. स्वा. जा.। १ गंधोदकं च शुद्धयर्थं शेषां संतति वृद्धये ॥ तिलकार्य च सौगंध्यं गृह्यात् स्यान्नहिदोष भाक् ।।११। संहिता वाक्य है ॥ १ निर्माल्य मनसा वचसा कायेनापितं यत् प्रभोः पुरः ॥ गृहाति तेनचात्मा वै पतितो नरको दरै ॥२॥ उमा स्वामी० १ पुष्प कोटि सम स्तोत्रं, स्तोत्र कोटिसमं जपः ।। जपकोटि समं ध्यान, ध्यान कोटि समं क्षमा ॥३॥ ॐ ह्रां अहंदभ्यो नमः मोक्ष-स्थान-एकांत-शांती देवालयांत-दुष्टकार्य-स्मशानांत+++ ॐ ह्री सिद्धेभ्यो नमः | पल्लव-१ स्वाहाः होममंत्र २ स्वधाः पोष्ठीक. ३हूंफटः द्वेष. ॐ ह्र आचार्योभ्यो नमः ४ हूं वषटः आकर्षरण. ५ वषट : वशीकरण.६० - स्तंभन ॐहों पाठकेभ्यो नमः ७ घे घेः मारण. ॐ ह्रः सर्वसाधुभ्यो नमः! [१३६] Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुराधार स्वर्ग के द्वार को बन्द करने की अर्गला है। MARATSWASTIMATED श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव विरचितः बृहद्रव्य संग्रहः जीवम जीवं दव्वं जिणवर वसहेण जेण णिद्दिठ्ठं । देविद विद वंदं वंदे त सव्वदा सिरसा ॥१॥ गाथा भावार्थ--मै (नेमिचन्द्र) जिस जिनवरों में प्रधान ने जीव और अजीव द्रव्य का कथन किया, उस देवेन्द्रादिकों के समूह से वंदित तीर्थकर परम देव को सदा मस्तक से नमस्कार करता हूं ॥१॥ जीवो उव ओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेह परिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्स सोड्ढगई ॥२॥ अर्थ-जो उपयोग मय है, अमूर्त है, कर्ता है, निज शरीर के बराबर है, भोक्ता है, संसार में स्थित है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊवं गमन करने वाला है, वह जीव है। तिक्काले चदुपाणा इंदिय बल माउ आण पाणो य । ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ॥३॥ अर्थ--तीन काल में इन्द्रिय, बल, आयु, और आनपान इन चारों प्राणों को जो धारण करता है वह व्यवहार नय से जीव है और निश्चय नय से जिसके चेतना है वही जीव है ॥३॥ उनओगो दुवियप्पो दंसणणाणं च दंसणं च दुधा। चक्खु अचक्खू ओही दसणमध केवल णेयं ॥४॥ गाथार्थ--दर्शन और ज्ञान इन भेदों से उपयोग दो प्रकार का है। उनमें चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन इन भेदों से दर्शनोपयोग चार प्रकार का जानना चाहिये ॥४॥ णाणं अट्ठ वियप्पं मदिसुदिओही अणाणणा गाणि । मण पज्जव केवलमगि पच्चक्ख परोक्ख भेयं च ॥५॥ गाथार्थ--कुमति, कुछ त, कुअवधि मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल [१३७]] 35 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुराचार से आत्मा का पतन होता है। ऐसे आठ प्रकार का ज्ञान है। इनमें कुअवधि, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल ये चार प्रत्यक्ष हैं और शेष चार परोक्ष हैं ॥५॥ अट्ठ चदु णाण सण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं । ववहारा सुद्धणया सुद्ध पुण दंसणंणाणं ॥६॥ गाथार्थ-आठ प्रकार के ज्ञान और चार प्रकार के दर्शन का जो धारक है वह जीव है। यह व्यवहार नय से सामान्य जीव का लक्षण है और शुद्ध नय से शुद्ध जो ज्ञान, दर्शन है वह जीव का लक्षण कहा गया है ॥६॥ वण्ण रस पंच गधा, दो फासा अट्र णिच्छया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो, ववहारा मुत्ति बंधादो ॥७॥ निश्चय से जीव में पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध और आठ स्पर्श नहीं है इसलिये जीव अमूर्त है और बंध से व्यवहार की अपेक्षा करके जीव मूर्त है ॥७॥ पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। चेदणकम्माणादा, शुद्धणया मुद्ध भावाणं ॥८॥ गाथार्थ:--आतमा व्यवहार से पुद्गल कर्म आदि का कर्ता है, निश्चय से चेतन कर्म का कर्ता है। और शुद्ध नय से शुद्ध भावों का कर्ता है ॥८॥ ववहारा सुहदुक्खं, पुग्गलकम्मप्फलं प जेदि । आदा णिच्छयणयदो, चेदणभावं खु आदस्स ॥६॥ गाथार्थ---आत्मा व्यवहार से सुख दुःखरूप पुद्गल कर्मों का भोगता है और निश्चय नय से आत्मा चेतन स्वभाव को भोगता है ॥६॥ अणु गुरु देह पमाणो, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा।। असमुहदो ववहारा, णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥१०॥ गाथा भावार्थ-व्यवहार नय से समुद्घात अवस्था के बिना यह जीव संकोच तथा विस्तार में छोटे और बड़े शरीर के प्रमाण रहता है और निश्चय नय से जीव असंख्यात प्रदेशों का धारक है ॥१०॥ पुढविजलतेयवाऊ, वणप्फदी विविहथावरेइंदी। विगतिगचदुपचक्खा, तसजीवा होंति संखादि ॥११॥ गाथा भावार्थ---पृथिवी, जल तेज, वायु और वनस्पति इन भेदों से नाना प्रकार के स्थावर जीव हैं और ये सब एक स्पर्शन इंद्रिय के ही धारक है, तथा शंख आदिक दो तीन, चार और पांच इन्द्रियों के धारक त्रस जीव होते है ॥११॥ [१३८] Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसके वचन में मधुरता है उसका कोई शत्रु नहीं है। समणा अमरणा गेया, पंचिदिय णिम्मरणा परे सव्वे । बादरसुहमेइंन्दी, सन्वे पज्जत्त इदरा य ॥१२॥ गाथा भावार्थः-पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी और असंज्ञी ऐसे दो प्रकार के जानने चाहिये और दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय चौइंद्रिय ये सब मनरहित(असंज्ञो)है एकेन्द्रिय बादर और सूक्ष्म दो प्रकार के हैं और ये पूर्वोक्त सातों पर्याप्त तथा अपर्याप्त है, एसे१४ जीव समास हैं ॥१२॥ मग्गणगुणठाणेहि य, चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विण्णेया संसारी, सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ॥१३॥ गाथा भावार्थ:-संसारी जीव अशुद्ध नय से चौदह मार्गरणा स्थानों से तथा चौदह गुण स्थानों से चौदह चौदह प्रकार के होते हैं औरशुद्ध नय से तो सब संसारी जीव शुद्ध हो है ॥१३॥ णिक्कम्मा अढगुणा, किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पादवएहि संजुत्ता ॥१४॥ जो जीव ज्ञानावरणावि आठ कर्मो से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों के धारक है तथा अन्तिम शरीर से कुछ कम हैं वे सिद्ध है और उर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाग में स्थित है, नित्य है तथा उत्पाद और व्यय इन दोनों से युक्त है॥१४॥ अज्जीवो पुण णेओ, पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं । कालो पुग्गल मुत्तो, रूवादिगुणो अमुत्ति सेसा हु ॥१५॥ गाथार्थः-और पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल इन पांचों को अजीव द्रव्य जानना चाहिये इनमें पुद्गल तो मूर्तिमान् है क्योंकि, रूप आदि गुणों का धारक है, और शेष (बाकी) के चारों अमूर्त है ॥१५॥ सद्दो बन्धो सुहुमो, थूलो संगण भेद तम छाया। उज्जोदादवसहिया, पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ॥१६॥ • गाथार्थः-शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आतप इन करके सहित जो है वे सब पुद्गल द्रव्य के पर्याय है ॥१६॥ गइपरिणयाण धम्मो, पुग्गलजीवाण गमणसहयारी। तोयं जह मच्छाणं, अच्छंताणेव सो णेई ॥१७॥ [१३]] Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही मामब सर्वोत्कृष्ट है जिसका हृदय सदाचार की सुगन्धि से सुवासित है। गाथा भावार्थः-गति (गमण में) परिण जो पुद्गल और जीव हैं उनके गमन में धर्म द्रव्य सहकारी है, जैसे मत्स्यों के गमन में जल सहकारी है और नहीं गमन करते हुये पुद्गल और जीवों को वह धर्म द्रव्य कदापि गमन नहीं कराता है ॥१७॥ ठाण जुदाण अधम्मो पुग्गल जीवाण ठाण सहयारी ॥ छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई ॥१८॥ __ गाथा भावार्थः-स्थिति सहित जो पुद्गल और जीव हैं उनको स्थिति में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है जैसे पथिकों (बटोहियों) की स्थिति में छाया सहकारी है और गमन करते हुये जीव तथा पुद्गलों को वह अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता है ॥१८॥ अवगा सदारण जोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं ॥ जेण्हं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥१६॥ गाथार्थ:-जो जीव आदि द्रव्यों को अवकाश देने वाला है उसको श्री जिनेन्द्र करके कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो । वह लोकाकाश और अलोकाकाश इन भेदों से दो प्रकार का है ॥१९॥ धम्माऽधम्मा कालो पुग्गल जीवा य संति जावदिये ।। आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्ति ॥२०॥ गाथार्थः-धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव ये पांचों द्रव्य जितने आकाश में हैं वह तो लोकाकाश है और उस लोकाकाश के आगे अलोकाकाश है ॥२०॥ ___दव परिवट्ट रूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो । परिणामा दी लक्खो वट्टण लक्खो य परमट्ठो ॥२१॥ गाथार्थः-जो द्रव्यों के परिवर्तन रूप, परिणाम रूप देखा जाता है वह तो व्यवहार काल है और वर्त्तना लक्षण का धारक जो काल है वह निश्चय काल है ॥२१॥ लोयायास पदेसे इक्किक्के जे ठियाहु इक्किक्का ।। रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंख दव्वाणि ॥२२॥ गाथार्थः-जो लोकाकाश के एक एक प्रदेश में रत्नों की राशि के समान परस्पर भिन्न होकर एक एक स्थित है वे कालाणु है और असंख्यात द्रव्य है ॥२२॥ [१४०] Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांसारिक भोगो में शहद की मक्खी के समान नहीं फंसना चाहिये। एवं छन्भेयमिदं, जीवाजीवप्पभेददो दव्वं ॥ उत्तं कालविजुत्तं, णादव्वा पञ्च अत्थिकाया दु ॥२३॥ गाथा भावार्थः-इस प्रकार एक जीव द्रव्य और पांच अजीव द्रव्य ऐसे छह प्रकार के द्रव्य का निरूपण किया। इन छहों द्रव्यों में से एक काल के बिना शेष पांच अस्तिकाय जानने चाहिये ॥२३॥ संति जदो तेणेदे, अथिति भणंति जिणवरा जमा ॥ काया"इव बहुदेसा, तह्मा काया य अस्थिकाया य ॥२४॥ ' पूर्वोक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश ये पांचों द्रव्य विद्यमान हैं, इसलिये जिनेश्वर इनको 'अस्ति' (है) ऐसा कहते हैं और ये काय के समान बहु प्रदेशों को धारण करते हैं इसलिये इनको 'काय' कहते हैं। अस्ति तथा काय दोनों को मिलाने से ये पांचों 'अस्तिकाय' होते है ॥२४॥ हति असंखा, जीवे, धम्माधम्मे अणंत आयासे ॥ - मुत्ते तिविहि पदेसा, कालस्सेगो ण तेण सो काओ ॥२५॥ गाथार्थः-जीव, धर्म तथा अधर्म द्रव्य में असंख्यात प्रदेश है और आकाश में अनन्त है । मूर्त (पुद्गल) में संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेश हैं और काल के एक ही प्रदेश है, इसलिये काल काय नहीं है ॥२५॥ एयपदेसो वि अण, णाणाखंघप्पदेसदो होदि ॥ ___ बहुदेसो उवयारा, तेण य काओ भणंति सन्वण्हु ॥२६॥ गाथार्थः-एक प्रदेश का धारक भी परमाणु अनेक स्कन्ध रूप बहुत प्रदेशों से बहु प्रदेशी होता है इस कारण सर्वज्ञ देव उपचार से पुद्गल परमाणु को काय कहते हैं ॥२६॥ जावदियं आयासं, अविभागी पुग्गलाणु उदृद्धं ॥ तं खु पदेसं जाणे, सव्वाणुटाण दाण रिहं ॥२७॥ गाथार्थः-जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणु से रोका जाता है, उसको सब परिमाणुओं को स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो ॥२७॥ प्रयमऽधिकार समाप्त ॥१॥ परिणामि-ज-व-मुत्तं, सपदे एय-खेत्त-किरिया य ।। णिच्चं कारण-कत्ता, सव्वगदमिदरहि यप वेसे ॥१॥ दुणिय एवं एयं, पंच-त्तिय एय दुण्णि चउरो य । पंच य एवं एयं, एदेसं एय उत्तरं णेयं ॥२॥युग्मम्।। [१४१] 36 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शहद को मक्खी के समान भोगों में लीन न होकर उदासीन वृत्ति से रहना चाहिये। गाथा भावार्थः-पूर्वोक्त षट् द्रव्यों में से परिणामी द्रव्य जीव और पुद्गल ये दो हैं । चेतन द्रव्य एक जीव है, मूर्तिमान् एक पुद्गल है, प्रदेश सहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश ये पांच द्रव्य है, एक संख्या वाले धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य है, क्षेत्रवान् एक आकाश द्रव्य है क्रिया सहित जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य हैं, नित्य द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार है, कारण द्रव्य-पुद्गल, धर्म अधर्म, आकाश और काल ये पांच हैं, कर्ता द्रव्य--एक जीव है, सर्वगत (सर्व में व्यापने वाला) द्रव्य-एक आकाश है, और ये छहों द्रव्य प्रवेश रहित है अर्थात् एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का प्रवेश नहीं होता है ॥२७॥ आसव बंधण संवर णिज्जर मोक्खो सपुण्णपावा जे ॥ जीवाजीवविसेसा तेवि समासेण पभणामो ॥२८॥ गाथार्थः-अब जो आसव, बंध, संवर, निर्जरा मोक्ष, पुण्य तथा पाप ये सात जीव, अजीव के भेद रूप पदार्थ है, इनको भी संक्षेप से कहते हैं ॥२८॥ आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विण्णेओ॥ भावासवोजिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि ॥२६॥ गाथार्थः-जिस परिणाम से आत्मा के कर्म का आसव होता है उसको श्री जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ भावास्तव जानना चाहिये । और भावासव से भिन्न ज्ञानावरणादि रूपकर्मों का जो आसव है सो द्रव्याराव होता है ॥२६॥ मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओद्य विष्णेया ॥ पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स ॥३०॥ गाथार्थ:-अब प्रथम जो भावासव है उसके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग और क्रोध आदि कषाय ये पांच भेद जानने चाहिये । और मिथ्यात्वादि के क्रम से पांच, पांच, पन्द्रह, तीन, और चार भेद समझने चाहिये। अर्थात् मिथ्यात्व के पांचभेद, अविरति के पांच भेद, प्रमाद के पन्द्रह भेद, योग के तीन भेद और क्रोध आदि कषायों के चार भेद जानने चाहिये ॥३०॥ [१४२] Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम में सर्वश्रेष्ठ प्रेम माता का है। wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwm पाणावरणादोरणं जोग्गंजं पुग्गलं समासवदि । दव्वासवो स णेओ अणेय भेओ जिणक्खादो ॥३१॥ गाथार्थः-ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो पुद्गल आता है, उसको अव्यासव जानना चाहिये । वह अनेक भेदों सहित है ऐसे जिनेन्द्र ने कहा है ॥३१॥ यन्झदि कम्मं जेण दु चेदण भावेण भाव बंधो सो॥ कम्माद पदेसाणं अण्णोण्ण पवेसणं इदरों ॥३२॥ गाथार्थः-जिस चेतना भाव से कर्म बंधता है वह तो भाव बंध है, और कर्म तथा आत्मा के प्रदेशों का परस्पर प्रवेशन रूप अर्थात् कर्म और आत्मा के प्रदेशों का एकाकार होने रूप दूसरा द्रव्य बंध है। पडिटि दि अणुभाग पदेश भेदादु चहु विधो बंधो॥ जोगा पयडिप देसा ठिदिमण भागा कसायदो होति ॥३३॥ गाथार्थ-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन भेदों से बंध चार प्रकार का है। इनमें योगों से प्रकृति तथा प्रदेशबंध होते है । और कषायों से स्थिति तथा अनुभाग बंध होते है ॥३३॥ चेदणपरिणामो जो फम्मस्सासवरिणरोहणे हेदू ॥ सो भाव संवरो खलु दव्वासव रोहणे अण्णो ॥३४॥ गाथार्थ:-जो चेतन का परिणाम कर्म के आसव को रोकने में कारण है, उसको निश्चय से भाव संवर कहते है। और जो द्रव्याराव को रोकने में कारण है सो दूसरा अर्थात् द्रव्य संवर है ॥३४॥ वसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसह जो य॥ चारित्तं बहु मेया गायव्वा भाव संवर विसेसा ॥३५॥ गाथार्थ-पांच व्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाइस परीषहों का जय तथा अनेक प्रकार का चारित्र इस प्रकार ये सब भाव संवर के भेद जानने चाहिये ॥३॥ जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्म पुग्गलं गेण ॥ भावेण सउदि णेयातस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा ॥३६॥ [१४३] Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंकार नष्ट होने से ज्ञान का अंकुर प्रस्फुटित होता है। गाथार्थः- जिस आत्मा के परिणामरूप भाव से .कर्मरूपी पुद्गल फल देकर नष्ट होते है वह तो भाव निर्जरा है और सविपाक निर्जरा की अपेक्षा से यथाकाल अर्थात्, काल लब्धिरूप काल से तथा अविपाक निर्जरा की अपेक्षा से तप से जो कर्म रूप पुद्गलों का नष्ट होना है सो द्रव्य निर्जरा है ॥३६॥...... सव्वस्स कम्मणो जो, खयहेतू अप्पणो हु परिणामो यो स भावमुक्खो, दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावो ॥३७॥ · गाथार्थः- सब कर्मों के नाश का कारण जो आत्मा का परिणाम हैं उसको भाव मोक्ष जानना चाहिये । और कर्मों की जो आत्मा से सर्वथा भिन्नता है वह द्रव्य मोक्ष है ॥३७॥ सुहअसुह भावजुत्ता, पुणे पावं हवंति खलु जोवा । सादं सुहाउ णाम, गोदं पुण्णं पराणि पावं च ॥३८॥ गाथार्थः- शुभ तथा अशुभ परिणामों से युक्त जीव पुण्य और पापरूप होते हैं। सातावेदनी, शुभ आयु, शुभ नाम तथा उच्च गोत्र नामक कर्मों की जो प्रकृतिये है वे तो पुण्य प्रकृतिये है शेष सब पाप प्रकृतिये हैं ॥३८॥ इति द्वितीयोऽधिकारः सम्मई सणणाणं, चरणं मुक्खस्सं कारणं जाणे । - ववहारा णिच्छयदो, तत्तियमइओ रिणओ अप्पा ॥३६॥ गाथार्थः- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों के समुदायको व्यवहार से मोक्ष का कारण जानो । तथा निश्चय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र स्वरूप जो निज आत्मा है उसको मोक्ष का कारण जानो ॥३६॥ . रयणत्तयं ण वट्टइ, अप्पाण मुइत्तु अण्णदवियसि । तह्मा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारण आदा ॥४०॥ गाथार्थः- आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्यों में रत्नत्रय नहीं रहता इस कारण उस रत्नत्रयमयी जो आत्मा है वही निश्चय से मोक्ष का कारण है ॥४०॥ [१४४] Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नति की जड़ नम्रता है। जोवादी - सद्दहणं, सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु । दुरभिणिवेशविमुक्कं, गाणं सम्म खु होदि सदि जहि ॥४१॥ - गाथार्थः- जीव आदि पदार्थो का जो श्रद्धान करना है वह सम्यक्त्व है और वह सम्यक्त्व आत्मा का स्वरूप है । और इस सम्यक्त्व के होने पर संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय इन तीनों दुरभिनिवेशों से रहित होकर सम्यग्ज्ञान कहलाता है ॥४१॥ संसयविमोहविन्भय - विवज्जियं अप्पपरसरूस्स । गहणं सम्भणाणं, सायार - मणेयभेयं तु ॥४२॥ गाथा भावार्थ :- आत्म स्वरूप और पर पदार्थ के स्वरूप का जो संशय, विमोह (अनध्यवसाय) और विभ्रम (विपर्यय) रूप कुज्ञान से रहित जानना है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है यह आकार (विकल्प) सहित है और अनेक भेदों का धारक है ॥४२॥ जं सामण्णं गहणं, भावाणे णेव कटुमायारं । अविसेसिदूण अट्ठ, दंसणमिवि भण्णए समए ॥४३॥ गाथार्थः- यह शुक्ल है, यह कृष्ण है इत्यादि रूप से पदार्थो को भिन्न-२ न करके और विकल्प को न करके जो पदार्थों का सामान्य से अर्थात सत्तावलोकन रूप से ग्रहण करना है उसको परमागम में दर्शन कहा गया है ॥४३॥ दंसणपुव्वं गाणं, छदमत्थाणं ण दोणि उवउग्गा। जुगवं जला केवलि-णाहे जुगवं तु ते दोवि ॥४४॥ गाथार्थः-छमस्थ जीवों के दर्शन पूर्वक ज्ञान होता है, क्योंकि छमस्थों के ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग एक समय में नहीं होते। तथा जो केवली भगवान हैं उनके दर्शन और ज्ञान एक ही समय में दोनों उपयोग होते है ॥४४॥ असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वदसमिदिगुत्तिरूवं, ववहारणयादु जिणभणियं ॥४॥ गाथार्थ:- जो अशुभ (बुरे) कार्य से दूर होना और शुभ कार्य में प्रवृत्त होना अर्थात लगना है उसको चारित्र जानना चाहिये । श्री जिनेन्द्र देव ने व्यवहार नय से उस चारित्र को ५ गत ५ समिति और ३ गुप्ति स्वरूप कहा है ॥४५॥ [१४५] Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसको दृष्टि स्वयं अंधकार को नाश करने वाली है उसे वीपक की क्या आवश्यकता है। बहिरभंतर किरियारोहो भवकारणपणासटुं॥ गाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारित्तं ॥४६॥ गाथार्थः- ज्ञानी जीव के जो संसार के कारणों को नष्ट करने के लिये बाह्य और अन्तरङ्ग क्रियाओं का निरोध है, वह श्री जिनेन्द्र से कहा हुआ उत्कृष्ट सम्यकचारित्र है ॥४६॥ दुविहं पि मुक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुरणी णियमा ॥ तह्मा पयत्तचित्ता जूयं शाणं समन्भसह ॥४७॥ गाथार्थः- मुनि ध्यान के करने से जो नियम से निश्चय और व्यवहार इन दोनों स्वरूप मोक्ष मार्ग को पाता है। इस कारण से हे भव्यो ! तुम चित्त को एकाग्र करके ध्यान का अभ्यास करो॥४७॥ मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्टणिअट्ठसु ॥ थिर मिच्छहि जह चित्तं विचित्त झाणप्प सिद्धोए ॥४८॥ गाथार्थः- हे भव्यजनो ! यदि तुम नाना प्रकार के ध्यान अथवा विकल्प रहित ध्यान की सिद्धिके लिये चित्त को स्थिर करना चाहते हो इष्ट तथा अनिष्ट रूप जो इन्द्रियों के विषय है उनमें राग द्वेष और मोह को मत करो ॥४॥ पण तीस सोल छप्पण चउद्गमेगं च जवह ज्झाएह ।। परमेट्ठि वाचयाणं अण्णं च गुरूवएसेण ॥४६॥ गाथार्थः- पंच परमेष्टियों को कहने वाले जो पैतीस, सोलह, छह, पांच, चार, दो और एक अक्षररूप मन्त्रपद है उनका जाप्य करो और ध्यान करो इनके सिवाय अन्य जो मन्त्रपद है उनको भी गुरू उपदेशानुसार जपो और ध्यावो ॥४६॥ णटचदुघाइ कम्मो दंसरण सुहणाण वीरियम इओ ।। सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचितिज्जो ॥५०॥ गाथार्थः-चार घातिया कर्मों का नष्ट करनेवाला, अनंत दर्शन, सुख, ज्ञान और वीर्य का धारक, उत्तम देह में विराजमान और शुद्ध ऐसा जो आत्मा है वह अरहंत है उसका ध्यान करना चाहिये ।।५।। [१४६] Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देह-रूपी-गेह का नेह प्रलय का मेह है। णट्ट कम्मदेहो लोया लोयस्स जाणओ दहा ॥ पुरिसायारो अप्पा सिद्धो झाएह लोयसिह रत्थो ॥५१॥ गाथार्थः- नष्ट हो गया है अष्टकर्म रूप देह जिसके, लोकाकाश तथा अलोकाकाश का जानने देखने वाला, पुरुष के आकार का धारक- और लोक के शिखर पर विराजमान ऐसा जो आत्मा है वह सिद्ध परमेष्टी है इस कारण तुम उसका ध्यान करो ॥५१॥ दसणणारण पहाणे वौरिय चारित्त वरत वायारे ॥ अप्पं परं च जुंजइ सो आयरिओ मुरणी झेओ ॥५२॥ गाथार्थः- दर्शनाचार १ ज्ञानाचार २ वीर्याचार ३ चारित्राचार ४ और तपश्चचरणाचार ५ इन पांचों आचारों में जो आप भी तत्पर होते है और अन्य शिष्यों को भी लगाते हैं ऐसे आचार्य मुनि ध्यान करने योग्य है ॥५२॥ जो रयणत्तय जुत्तो णिच्चं धम्मो वदेसणे जिरदो ॥ सो उवज्झाओ अप्पा जदिवर वसहो णमो तस्स ॥५३॥ गाथार्थ:- जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रय से सहित हैं, निरन्तर धर्म का उपदेश देने में तत्पर है, वह आत्मा मुनीश्वरों में प्रधान उपाध्याय परमेष्ठी कहलाता है । इसलिये उसके अर्थ मैं नमस्कार करता हूं ॥५३॥ दसणणाण समग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं ॥ साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ॥५४॥ गाथार्थ:- जो दर्शन और ज्ञान से पूर्ण, मोक्ष का मार्ग भूत, और सदाशुद्ध ऐसे चारित्र को प्रकट रूप से साधते है वे मुनि साधु परमेष्ठी हैं उनके अर्थ मेरा नमस्कार हो ॥५४॥ जं किचिवि चितंतो गिरीहवित्ती हवे जदा साहू ॥ लणय एयत्तं तदाहु तं तस्स णिच्छयं झाण ॥५५॥ गाथा भावार्थ:- ध्येय पदार्थ में एकाग्र चित्र होकर जिस किसी पदार्थ को ध्यावता हुआ- साधु जब निस्पृह वृत्ति (सब प्रकार की इच्छाओं से रहित) होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय ध्यान है ऐता आचार्य कहते है ॥५५॥ [१४७] Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देह का स्नेह मात्म स्वभाव का विधातक है। मा चिट्ठह मा जंपह मा चितह किंवि जेण होइ थिरो॥ अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ॥५६॥ गाथार्थः हे ज्ञानी जनो! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो अर्थात् काय के व्यापार को मत करो। कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो। जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में तल्लीन स्थिर होवे, क्योंकि जो आत्मा में तल्लीन होना है वही परम ध्यान है ॥५६॥ तवसुदवदवं चेदा, झाणरह धुरंधरो हवे जम्हा ॥ तह्मा तत्तियणिरदा, तल्लद्धीए सदा होह ॥५७॥ गाथार्थः-क्योंकि तप, श्रुत और अत का धारक जो आत्मा है वही ध्यान रूपी रथ की धुरा को धारण करने वाला होता है , इस कारण हे भव्य जनो ! तुम उस ध्यान की प्राप्ति के अर्थ निरन्तर तप, श्रुत और बत इन तीनों में तत्पर होवो ॥५७॥ . दन्वसंगहमिणं मुणिणाहा, दोससंचयचुदा सदपुण्णा ॥ सोधयंतु तणुसुत्तधरेण, गेमिचंदमुणिणा भरिणयं जं ॥५॥ गाथार्थः-अल्प झान के धारक मुझ (नमिचन्द्र मुनी) ने जो यह द्रव्य संग्रह कहा है इसको दोषों रहित और ज्ञान से परिपूर्ण ऐसे आचार्य शुद्ध करै ॥५॥ इति श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्ति देव विनिर्मिती बृहद् द्रव्य सग्रहः समाप्तः [१८] Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लू प्रकाशमय सूर्य से द्वेष करता है। WWM अथ लघु तत्वार्थ सूत्र में ॐ नमः सिद्ध भ्यः wwwm त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नव पदसहितं जीवषट्काय लेश्याः । पंचान्ये चास्ति काया वतसमितिगति ज्ञान चारित्रभेदाः ॥ इत्येतन्मोक्षभूतं त्रिभुवन महितः प्रोक्त मर्हद्भिराप्तः। प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान्यः सर्वशुद्ध दृष्टिः ॥१॥ सिद्धे जयप्पसिढे चउन्विहाराहणाफलं पत्ते ॥ वंदिता अरहते वोच्छं आराहणं कमसो ॥२॥ उज्जोवण मुज्जोवण णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं ॥ दसण गाण चरित्तं तवाण माराहणाभणिदा ॥३॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः दृष्टा चराचरं येन केवलज्ञान चक्षुषा । प्रणमामि महावीरं वेदिकांते प्रवक्ष्यते ॥४॥ -अथातोऽर्हत्प्रवचने तत्वार्थ सूत्रो व्याख्यास्यामःतत्रे मे षट् जीवनिकायाः ॥ पंचमहां बतानि ॥ पंचाणु प्रतानि ॥ त्रीणि गुणवतानि ॥ चत्वारिशिक्षा प्रतानि ॥ तिस्त्रो गुप्तयः ॥ पंच समितयः । दशविधो धर्मः ॥ षोडश भावनाः ॥ द्वादशानुप्रेक्षाः ॥ द्वाविंशति परिषहाः॥ इति तत्वार्थ सूत्रे अहं प्रवचने प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ __सप्ततत्वानि ॥ नव पदार्थाः॥ चतुर्विधोन्यासः ॥ द्विविधाः सप्तनयाः ॥ चत्वारिप्रमाणानि ॥ पंचास्तिकायाः ॥षद्वाणि ॥ द्विविधोगुणाः ॥ पंच ज्ञानानि । त्रीणिज्ञानाणि ॥ चत्वारि दर्शनानि द्वादशाङ्गानि ॥ चतुर्दशपूर्वाणि ॥ द्विविधतपः॥ द्वादश प्रायश्चित्तानि ॥ चतुर्विधी विनयः ॥ दश वैयावृत्यानि ।। पंचविधः स्वाध्यायः ॥ चत्वारि ध्यानानि ।। द्विविधोव्युत्सर्गः ॥ ॥ इति तत्वार्थसूत्रे अर्हत्प्रवचने द्वितीयोऽध्याय. ॥२॥ त्रिविधःकालः ॥ षट्विधःकाल समयः ॥ त्रिविधो लोकः ॥ अर्ध तृतीया द्वीपसमुद्रामनुष्यक्षेत्राः ॥ पंचदश क्षेत्राणि ॥ चतुस्त्रिंश दूर्षधर पर्वताः ॥ पंचदश ३८ 1 १४६] Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वी प्राणी की मति विपरीत हो जाती है। कर्मभूमयः ॥ त्रिंशद्भोग भूमयः॥ सप्ताधोभूमयः ॥ सप्त व महानरकाः॥ चतुर्दश कुलकराः॥ चतुर्विशति तीर्थकराः ।। नव वासु देवाः ॥ नवबलदेवाः ॥ नव प्रतिवासु देवाः॥ द्वादश चक्रवर्तिनः॥ एकादश रुद्राः ॥ नव निधयः ॥ चतुर्दश रत्नानि॥ द्विविधिः पुद्गलः॥ ॥ इति तत्त्वार्थ सूत्रो अर्ह प्रवचने तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ देवाश्चतुर्णिकायाः॥ भुवन वासिनो दशविधाः।। व्यंतराअष्टविधाः॥ जोतिष्काः पंचविधाः। द्विविधा वैमानिका कल्पांतिका द्वादशविधाः। अहमिद्राश्चेति आत्मसद्भाव। पंचधा जीवगतिः ।। षट् पुद्गल गतयः ।। अष्टविध आत्मसद्भावः ॥ पंच विधानिशरिराणि ॥ पंचेन्द्रियाणि अष्टगुणाः सिद्धानाम ।। षट्लेश्याः॥ द्विविधं शीलम् ।। ॥ इति तत्त्वार्थ सूत्रे अर्हत्प्रवचने चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥ त्रिविधोयोगः॥ चत्वारः कषायाः॥ त्रयोदोषाः, पंचऽसवाः ॥ द्विविधः संवरः॥ द्विविधा निर्जरा । पंच लब्धयः ॥ चतुर्विधो बंधः ॥ पंच बंध हेतवः ॥ अष्टौ कर्माणि ॥ द्विविधो मोक्षः ॥ चत्वारोमोक्षहेतवः॥ त्रिविधो मोक्ष मार्गः॥ पंचविधा निन थाः ॥ द्वादशसिद्धस्यानुयोगद्वाराणि ।। द्विविधाः सिद्धाः ॥ वैराग्यंचेति ॥ इति तत्वार्थ सूत्रो अर्हत्प्रवचने पचमोऽध्यायः ॥५॥ मोक्षमार्गस्यनेतारं भेत्तारं कर्म भूभृतां ॥ हातारं विश्व तत्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥१॥ ॥ अथो नमोस्तु ॥ श्री आचार्य वंदना पूर्वाचार्यानुक्रमेण ॥ सकल कर्मक्षयार्थ ॥ भावपूजा वन्दना स्तव समेतं ॥ श्री श्रुतज्ञानभक्ती ॥ कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।। ॐ नमो अरहताण इत्यादि। कोटिशतं द्वादश चैव कोटयो, लक्षाण्यशिति सयधिकानि चैव । पंचाशदष्टौ च सहस्त्र संख्या मेतच्छ्रतं पंच पदं ममामि ॥१॥ अरहंत भासियंपुण गणहरवेवेहि गुंथियं सम्मं । पणमामि भत्तिजत्तो, सुअणाणमहोवयं सिरसा ॥२॥ अक्षरमात्रपदस्वरहीनं व्यंजन संधि विवर्जितरेफम् । साधुभिरत्र मम क्षमितन्यं को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्र ॥३॥ [१५०] Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व का वेदन करने वाले को आत्म हितकारी उपदेश कर प्रतीत होता है। दशाध्याये परिच्छन्ने तत्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनि पुंगवैः ॥४॥ तत्वार्थ सूत्रकरिं गद्धपिच्छो पलक्षितम् । वंदे गणीन्द्र संजात मुमास्वामि मुनीश्वरम् ॥५॥ जं सक्कइ तं किरई, ज्जं चण सक्केइ तंच सद्दहणं । सदहमाणो जीवो पावई, अजरामरं ठाणं ॥६॥ तव यरणं वयधरणं, संयमसरणं च जीवदयाकरणं । __अंते समाहिमरणं, चउगई दुक्खं णिवारेई ॥ ७॥ पढम घउक्के पढमं पंचमे पुद्गल ज्ञानं । छह सप्तमे सु आश्रवः अमे तह बंधणायव्वा ॥ ८ ॥ णवमे संवर निज्जरा, दसमे मोकं पोहाणेइ ॥ इह सत्त तत्त्व भणियं, जिण परिणतं वह सुत्ते॥६॥ - तत्त्वार्थ सिद्धात लघु सूत्र सम्पूर्णम् - 5 जिन बिम्ब निर्मापणं विधि भी वीरं देव देवाच्यं, स्वर्ग मोक्ष सुख प्रदं । प्रणम्य बिम्ब निर्माण, पद्यार्थान्सं लिखाम्यहम् ॥१॥ अथ विम्बं जिनेन्द्रस्य, कर्त्तव्यं लक्षणान्वितम् । ऋज्वायत सुसंस्थानं, तरुणांगं विगम्बरम् ॥२॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान का प्रतिबिम्ब सरल लम्बा सुन्दर समचतुरस्त्र संस्थान तरुण अवस्थाधारो नग्न जात लिंग पारी सर्वलक्षण संयुक्त करणां योग्य है ॥२॥ श्री वत्स भूषितोर एकं, जानु प्राप्त कराग्न जं। निजांगुल प्रमाणेन, साष्टांगुल शतायुतम् ॥३॥ अर्थ-श्री वत्स चिन्ह करि भूषित है उर स्थल जाका और गोडा पयंत लम्बाय मान है भुजा जाकी ऐसा निनांगुल के प्रमाण से १०८ भाग प्रमाण जिन बिम्ब करणा चाहिये ॥३॥ [१५१] Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्त ज्वर वाले को मधुर दूध कडवा लगता है। मानं प्रमाण मुन्मानं चित्रलेप शिलादिषु । प्रत्यंग परिणा होर्द्ध यथा संख्य मुदीरितम् ॥४॥ अर्थ-जिनेन्द्र की प्रतिमा चित्र को लेपको शिला की धातु की वणावै उसके अंग अंग की गुलाई तथा ऊंचाई तथा चौड़ाई यथा क्रम कहते हैं । उनका मान प्रमाण उन्मान भी कहते हैं ॥४॥ उक्त च ॥ न मृत्तिका काष्ठ विलेप नादि, जातं जिनेन्द्र ः प्रति पूज्य मुक्तम् ॥५॥ अर्थ-मृत्तिका, काष्ठ विलेपनादि की प्रतिमा पूज्य नहीं ॥५॥ कक्षादि रोम होनांगं श्मश्रु रेखा विवर्जितं ।। ऊर्द्ध प्रलंबकं दत्वा समात्पंतंच धारयेत् ॥६॥ अर्थ-कांख आदि स्थानों के रोमों करि रहित तथा मूंछ डाढी के केश रहित प्रारम्भ से अंत तक प्रलंबक अर्थात ऊंचाई को लिये हुये प्रतिबिंब वरणावै ॥६॥ उक्तंच। वृद्धत्व बाल्य रहितांग मुपेत शांति, श्री वृक्ष भूषित् हृदं नख केश हीनं ॥ सद्धानु चित्र हृषदां समसूत्र भाग, वैराग्य भूषित गुणं तपसि प्रशक्त ॥७॥ अर्थ-वृद्ध बाल अंग करके रहित शान्त मुद्रा श्री वृक्ष करके हिरदै शोभायमान नख केश रहित धातु चित्र विचित्र पाषाण वैराग्य करके भूषित तपश्चरण में तत्पर जिन बिम्ब वणावै ॥७॥ तालं मुख वितस्तिः स्यादेकार्थ द्वादशांगुलं । तेन मानेन तद् बिबं नवधा प्रविकल्पयेत् ।।।। अर्थ-ताल मुख वितस्ति द्वादशांगुल ये शब्द एकार्थी हैं, इस मान करिये जिन बिम्ब ६ भागों में कल्पना करण ॥८॥ १०८ भाग का कथन ताल मात्रं मुखं तन ग्रीवाश्चतुरंगुला। कंठतो हृदयं यावदं तरं द्वादशां गुलम् ॥६॥ अर्थ-तहां १०८ भाग में १२ भाग मुख रखें ४ भाग ग्रीवा रखे, ग्रीवासों हृदय पर्यत बारह भाग रखे ॥९॥ ताल मात्रं ततो नाभि नाभि मेंद्रांतरं मुखं । मेद्र जान्वंतरंतज्ञ हस्त मात्रं प्रकीर्तितम् ॥१०॥ [१५२] Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्जन सन्जन से द्वेष करता है। wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm अर्थः-हृदय से १२ भाग प्रमाण नाभी रखै । नाभी से लिंग का मूल गुदा पर्यंत १२भाग पडू रक्खे,लिंगका मूल से गोडा तक जंघा २४भाग काअंतर रखे ॥१०॥ वेदांगुलं भवे जानु । जानु गुल्फां तरं करः ॥ वेदांगुलं समाख्यातं । गुल्फ पाद तलां तरं ॥११॥ अर्थ.-४ भाग प्रमाण गोडा रखे, गोडा से टिकूण्यां तक २४ भाग का अन्तर रखे । टिकूण्यां से पाद तल पर्यत ४ भाग का रखे । ऐसे ६ स्थान १०८ भाग प्रमाण करै ॥११॥ द्वादशांगुल विस्तीर्ण । मायतं द्वादशां गुलं ॥ मुखं कुर्यात्स्व के शांतं । त्रिधातच्च यथा क्रमम् ॥१२॥ अर्थः-डाढी से मस्तक के केश पर्यन्त १२ भाग ऊंचा १२ भाग ही चौडा मुख कर, ऊंचाई के यथा क्रम से ३ विभाग करै ॥१२॥ वेदॉगुलायतं कुर्या । ल्लालटं नासिका मुखं । घोरणारंध्र यवाण्टार्द्ध । घोणा पाली चतुर्यवा ॥१३॥ अर्थः-उन १२ भागों में चार भाग प्रमाण ललाट रख ४ भाग नासिका कर । नासिका से ठोडी तक ४ भाग करै । नासिका का रंध्र ४ यव अर्थात आधा भाग करें। इसी प्रकार नाशिका पाली अर्थात रंधा का ऊपरला भाग भी ४ यव प्रमाण कर ॥१३॥ ललाट का कथन किंचि लिम्नोन्नतं कुर्या । दिन कोटिं च नाम येत् ॥ तिर्यग ष्टांगुलायाम । भाल मद्धेदु सन्निभम् ॥१४ । अर्थः-ललाट ४ भाग ऊँचा ८ भाग चौड़ा अर्ध चन्द्राकार बणावै । वह ललाट किंचित निचा व ऊँचा दीखता हुवा कर और ललाट की अग्न कोटि नमन अर्थात नैती हुई रखे ॥१४॥ केश का कथन केश स्थानं जिनेन्द्रस्य । प्रोक्तं पंचांगुलायतं ॥ उल्मीषं च ततो शेव । मंगुल द्वय मुन्नतम् ॥१५॥ अर्थः-ललाट के ऊपर केश स्थान ५ भाग रखै उत्पीष भी ५ भाग रखे । तिस ऊपर चोटी २ भाग क्रम रूप चूडा उतार रखे। ऐसे ललाट से चोटो तक १२ भाग [१५३] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुज तन पाकर विषय विष खाकर नहीं मरना चाहिये। रखे, पिछाडी ग्रीवा के केश से भी चोटी पर्यन्त १२ भाग रखे ॥१५॥ शंखौ वेदी गुलायामौ भ्रूलेते चतुरंगले ।। मध्यास्थूले कृशाने च स्वारोपित धनुनिभे ॥१६॥ अर्थ-मस्तक के दोउ पार्श्व में शंख नाम २ हाड ४ भाग चौड़ा रखे । भंवारे ४ भाग लंबे, मध्य में मोटा दोउ अग्न में कृश चढ़ाये हुये धनुष के आकार शोभनीक करै ॥१६॥ भवारा और नेत्र का कथन पादांगुलं प्रविस्तीर्ण, स्वार्धा गुलम थोत्तरं । भ्रू चाप मध्य केशांत, स्यांतरं द्वयं गुलं मत्तं ॥१७॥ अर्थ-भवारा डेढ़ भाग चौडा आदि में पाव भाग चौड़ा अंत में रखे बाकी शोभनीक बनावै दोउ भंवारा के मध्य में केशनिका अन्तर २ भाग रखे ॥१७॥ कर वीर युतायामस्त्रयंगुलो नेत्रयो भवेत् । केवलो द्वयंगुलः कुर्यान्नेत्रे पद्मदला कृती ॥१८॥ अर्थ-नेत्रनि कोलंबाई सफेदी सहित ३ भाग कर तथा केवल सफेदी का प्रमाण द्वयंगुल अर्थात २ भाग कर दोनू हो नेत्र कवल पुष्प के दल समान मनोहर कर ॥१८॥ नेत्र मध्ये गेलं व्यास स्त्रिभागः कृष्न तारिका ।। नेत्रांधः पक्ष्मणीयावद्भूमध्यं व्यंगुलं मतं ॥१६॥ अर्थ--नेत्रनि की सफेदी के मध्य में श्याम तारा १ भाग रखै इसके बीच तारिका जो छोटी कनिका गोल श्याम १ भाग का तीसरा हिस्सा चौडी रखे भ्रुकुटी के मध्य से नीचली बांफणी तक ३ भाग चौड़े नेत्र रखे ॥१६॥ अन्तर नासिका मूले नेत्रयोदयं गुलं मतं ॥ उत्तरोष्ठोपिता वांस्तु तथैकांगुल मुछितः ॥२०॥ अर्थ-नासिका के मूल में दोउ नेत्रनि के बीच २ भाग अन्तर रखै। ऊपर का होठ २ भाग लंबा १ भाग ऊंचा रखै ॥२०॥ मुखस्य विवरं तिर्यग् निर्दिष्टं चतुरंगुलं ।। अर्धा गुलाय तागो जी निभगांगुल विस्तृता ॥२१॥ [१५४] Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयाभिलापा रूपी अग्नि को संयम रूपी जल से शान्त करना चाहिये। अर्थः-मुह फाड तिरछी ४ भाग लम्बी रखै। उपरले होठ के नासिका के नीचली अपरली गोजी अर्थात् प्रणाली अर्ध भाग लम्बी और १ भाग का तीसरा हिस्सा चौडी रखै ॥२१॥ एकॉगुल विस्तीर्णस्तथैकांगुल मुछितः। आयनो द्वयं गुलस्तओरधरः परि कीर्तितः ॥२२॥ अर्थः--नीचे का होठ १ अंगुल मोटा १ अंगुल विस्तीर्ण अर्थात् चौडा २ अंगुल लम्बा रखे ॥२२॥ सृक्विणी वांगुलायामा विज्ञेया झुगुलं पृथुः ॥ चिबुकं द्वयं गुलं ज्ञेय विस्ताराया मतस्तथा ॥२३॥ अर्थः-सृविवरणी अर्थात ओष्ट की वाम दक्षिण बगल १ भाग लम्बी अर्ध भाग मोटी रखै चिबुक अर्थात अधरोष्ट के नीचला भाग २ भाग चौडा २ भाग लम्बा रखे ॥२३॥ अन्तर हनुमूला त्स्याच्चिवुक स्यांगुलाष्टकं । हनुद् नयस्य विस्तारो द्वयंगुलस्यात्पृथक् पृथक् ॥२४॥ अर्थः- हनूकामूल से चिवुकके ८ भाग अन्तर रखे हनूगाल के नीचे कानों के नजीक के हाड का नाम है वो हाड दो दो भाग मोटा रख ॥२४॥ हृयं गुलं च पृथुत्वे न दीर्घत्वं चतुरंगुलं ॥ कर्णयोः लंवितौ पाशावंगु लानां चतुष्टयम् ॥२५॥ अर्थः--कान २ भाग चौडा ४ भाग लम्बा कान को विचली करडी नस नेत्र के अन्त को सीध में पर नाली रूप खाल का नाम पाश है वो ४ भाग लम्बी रखे ॥२५॥ अर्धागुल प्रविस्तीणों कुर्याच्छोभान्वितौ श्रुम्मै ॥ कर्णपूरोंगुलार्द्धस्यात्पादं करणोद्धं वत्तिका ॥२६॥ अर्थः--दोनों पाश अर्धागुल चौडी शोभनीक करै। कर्णपूर अर्धागुल प्रमाण करे परनाली रूप पाश की ऊपर की वत्तिका कहिए गोट सो. १ भाग का चतुर्थांश चौडी रखे ॥२६॥ कर्णशष्कुलिकारंध मर्धागुल मुदीरितं ॥ कर्ण नेत्रांतर सार्धमंगु लानां चतुष्टयम् ॥२७॥ [१५५] Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविक सुख अपने भीतर ही है बाहिर नहीं है। अर्थः--कर्ण के मध्य छिद्र जवकी नाली समान अर्ध भाग रखै कर्ण के और नेत्र के साढ़े ४ भाग का अन्तर रखै ॥२७॥ उक्तंच कणौचषड् भागयुतौ प्रलंबौ । वेदांगुल व्यासयुतौ तदंतः ॥ छिद्रे तु नाली यवनालिकामा । त्वर्धागुलं चांतर मुच्यतेथ ॥२८॥ अर्थः--कर्ण छ भाग लंबे ४ भाग चौडे कर बीच में छिद्र की नाली यव की नाली - समान करै। इसका अन्तर अर्धागुल प्रमाण करै ॥२८॥ उछ यस्य समत्वेन, कर्णवत्तिनियो जयेत् ॥ तथा नेत्रांत तुल्येन, कर्णपूरौ सरंधाको ॥२६॥ अर्थः--नेत्रों को ऊँचाई अर्थात् भंवारे की ऊँचाई के सीध में कर्ण वत्तिका वणाव वैसे ही नेत्रों के अंत्य भाग की सीध में छिद्र रहित कर्ण पूर बनावै ॥२६॥ ॥ नासिका कयन ॥ करवीर समं कुर्यान्नासापुट निबंधनं ॥ तस्य पर्यंत तुल्येन तारिके विनयो जयेत् ॥३०॥ अर्थः-कर वीर अर्थात नेत्र की सफेदी के समान नासा पुटको रचना कर । नासिका के पर्यन्त भाग के तुल्य तारिका बनावै ॥३०॥ अष्टा दशांगुलं ज्ञेयं, कर्णयोः पूर्व मंतरं ।। चतुर्दशा परे भागे, द्वात्रिंशन्मिलितं भवेत् ॥३१॥ अर्थः-दोउ कर्णनि के अंतर १८ भाग अगाडी सें रखै । १४ भाग पिछाडी से रखे । ऐसे दोनू मिले ३२ भाग होते हैं ॥३१॥ ' शिरसः परिणा होयं ग्रीवा या द्वादशांगुलः ॥ विस्तारः कर्पूर स्योक्तः सत्यंशांगुल पंचकं ॥३२॥ अर्थः-कोहनी की परिधि १६ भाग की रखै । कोहनी से पौंछा तक क्रम से हानि रूप चूडा उतार रखे ॥३२॥ भुजा कथन परिणाहः पुनस्तस्य विज्ञ यः षोडशांगुलः ॥ कुर्या स्कूपर तो हानि मणि बंधा धिक्रमात् ॥३३॥ अर्थ:-कोहनी की परिधि १६ भाग की रखै । कोहनी से पौछा तक क्रम से हानि रूप चूडा उतार रखे ॥३३॥ [१५६] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगों का रोग असाध्य है, उसकी दवा संयम है। wwwwww पंचागुलं विभागोनं प्रवाहो मध्य विस्तरः । परिणाहो भवेतस्य त्वंगुलानि चतुर्दश ॥३४॥ अर्थ:-कोहनी के नीचे भुजा का मध्य १ भाग का त्रिभाग घाटि ५ भाग रखे । परिधि १४ भाग रखे ॥३४॥ मणि बंधस्य विस्तारो विज्ञेयश्चतुरंगुलः। परिणाहः पुनस्तस्य कौतितो द्वादशांगुलः ॥३५॥ अर्थ-पौंछा का विस्तार ४ भाग रखे । परिधि १२ भाग रखे ॥३॥ अगुली कथन तस्य मध्यांगुला प्रस्य चॉतरं द्वादशांगुलं । अंगुली मध्य माहस्ते ज्ञेया पंचांगुलायता ॥३६॥ अर्थ-पौछा से मध्य अंगुली का अग्न भाग तक १२ भाग रखे । हाथ के मध्य को अंगुली ५ भाग रखे ॥३६॥ अनामिकापि तत्रैव हीना मध्या पर्वणा। अनामिका समाकार्या स्वाया मेन प्रदेशिनी ॥३७॥ अर्थ-अनामिका अर तर्जुनी वोऊ अंगुली मध्यमा से अर्ध पर्व घाटि रखे ॥३७॥ कनीयस्यापि विज्ञेया पर्व होनात्व नामिका । मणि बंधात्कनिष्टाया मूलं पंचागुलं भवेत ॥३८॥ अर्थ-कनिष्टिका अनामिका से १ पोरवा घाटि रखे । पौछा से कनिष्टिका के मूल के पांच भाग अन्तर रखे ॥३८॥ तर्जुनी मध्यमा नाम मानतोऽर्धागुलामता। कनिष्ठिका विशेषोन त्रिगुणा परिणाहतः ॥३६॥ अर्थ-तर्जनी तथा मध्यमा का प्रमाण से कनिष्टा मुटाई में अर्ध भाग घाटि रखे। __चौड़ाई में त्रिगुरणी करै ॥३६॥ आयामतो विनिर्दिष्टा बंगुष्टौ चतुरंगुलौ । विस्तारेण समाख्यातौ सधिकं चैक मंगुलं ॥४०॥ अर्थ-अंगुष्ट ४ भाग लम्बा रखै विस्तार १ भाग से कुछ अधिक रखै ॥४०॥ अंगुष्ट को द्वि पर्वः स्याद्वेष्ट तं चतुरंगुलं । समांसलाः प्रकर्तव्या शेषां गुल्य स्त्रिपविकाः ॥४१॥ [१५७] Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन के संग्रह में आनन्द नहीं-उसके त्याग में आनन्द है। लिंग का कथन दूसरा द्वयंगुलो मेद्रविस्तारो मूलेमध्येगुलं भवेत् ॥ अग्नेऽगुंल चतुर्भागो व्यासान्नाहस्त्रिसंगुलः ॥५४॥ अर्थ-लिंग का विस्तार मूल में २ भाग मध्य में १ भाग अन भाग में चतुर्थ भाग रखै तिसको गुलाई त्रिगुणी करै ॥५४॥ उक्तच लिंग पंचागुलायामं द्वयंगुलातत्ततिर्भवेत् ॥५५॥ अर्थ-लिंग ५ भाग लंबा २ भाग चौडा बरगावै ॥५५॥ समांसलौ समौकार्यों, पोत्रौ पंचागुलायतौ ।। आमास्थि सन्निभौयुक्तौ, विस्तृतौ चतुरंगुलौ ॥५६॥ अर्थ-दोउ पोता पुष्ट व समान ५ भाग लंबा ४ भाग चौडा आम की गुठली समान करै ॥५६॥ जंघा कथन चरण तक वितस्ति द्वितयायास्त मुरु युग्मं समांसलं ॥ एकादश प्रविस्तीर्ण मूलेमध्ये नवांगुलं ॥७॥ अर्थ-२४ भाग लंबा दोउ जंघा पुष्ट करै ११ भाग तो मूल में ६ भाग मध्य में विस्तार रूप करै ।।५७॥ सप्तजानुद्वये नाहः स्वक व्यासस्त्रिसंगुणः । गूढे वृत्तेसुसंश्लिष्टेमांसले जानुनीसमे ॥५॥ अर्थ-७ भाग गोडा के पास चौडा कर इनकी परिधि त्रिगुरणी कर गोडा दोउ समान गोल जंघा से मिले हुए पुष्ट बणावै ॥५८॥ ततो जंघा द्वये वृत्तं वितस्ति द्वितयायतं ॥ जंघायाः पिडिका मध्ये बिस्तारः स्यात्षडंगुलः ।।५६ ॥ अर्थ-गोडा से नीचे जंघा अर्थात् पीडीगोल २४ भाग लंबी कर जंघा के मध्य पीडी का विस्तार छ भाग प्रमाण करे ॥५६॥ पंचांगुलस्त्रिभागोनो गुल्फदेशे च विस्तरः ।। उभयोः परिधी ज्ञेयोस्वविस्तारास्त्रि संगुणौ ॥६॥ [१६०] Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह को डोरी से मानव वधता है। अर्थः-और टिकूण्यां के पास ५ भाग १ भाग का त्रिभाग घाटि ५ भाग रखे इनकी गुलाई विस्तार से त्रिगुरणी करै ॥६०॥ अंगुलं गुल्फविस्तारः सत्यंगुलः परिधिर्भवेत् ॥ पादौ चतुर्दशायामौ गूढगुल्फो सुलक्षणौ ॥६१॥ अर्थ-दोउ टिकूण्यां एक भाग रख इनकी गुलाई विस्तार में त्रिगुणी करै घरणपण थली ऐडी से गूठा तक १४ भाग लंबी शुभ लक्षण सहित करै ।।६१॥. गुल्फादंगुष्टकानंच विज्ञेयं द्वादशांगुलं ॥ गुल्फयो पश्चिमे भागे चंगुला पाक्षिका भवेत् ॥६२।। अर्थ-टिकूण्यां से अंगुष्ठका अग्नपर्यन्त १२ भाग रख टिकूण्यां के पीछे एडी २ भाग रखै इनकी गुलाई विस्तार से त्रिगुणी करै ॥६२॥ तलं निम्नोन्नतं तस्या द्वयं गुलं विस्तृतमतं ॥ कार्य समांसलं तस्य परिणाहः षडंगुलः ॥६३॥ अर्थ-एडी नीचे से २ भाग बल में किंचित न्यून मध्य में ऊंचो गोल रख तिसको गुलाई छै भाग रखे ॥३॥ अंगुष्टस्त्यं गुलायामस्तावतीच प्रदेशिनी ।। षोडशाष्टाष्ट भागेनशेषा होनास्त्वनुक्रमात् ॥६॥ अर्थ-अंगुष्ट और प्रदेशिनी ३ भाग लंबी करै प्रदेशिनी से मध्यमा १ भाग का सौ भाग लंबा छोटो कर मध्यमा से अनामिका १ भाग का आठवां भाग छोटी रखे अनामिका से कनिष्टका भी १ भाग का आठवां भाग छोटो रखे ॥६॥ अंगुल द्वितयं मध्ये विस्तारोंगुष्ठकस्य च ॥ मूलेग्रेन्यूनकः किंचिच्छेषांगुल्योंगुलः प्रभाः ॥६५॥ अर्थ-अंगुष्ट मध्य में २ भाग चौडा रख मूल में तथा मध्य में किंचित् न्यून कर बाकी च्यारूं ही अंगुली १ भाग चौडी रखे ॥६५॥ सर्वासांत्रिगुणो नाहो यथाशोभं निरूपयेत् ॥ पर्वद्वितयमंगुष्टे शेषांगुल्यस्त्रि पविका ॥६६॥ अंगुलं नखमंगुष्टे शेषाणां तद्दल प्रभं ॥ किंचित्ल्यूनं कनिष्टां तमुत्तरोत्तरमीरितं ॥६७॥ [१६१] Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह जीवन-पानी के बुलबुले के समान क्षण ध्वंसी है। अर्थ-अंगुष्ट का नख १ भाग रखै प्रदेशिनी का नख १ भाग का आधा भाग रखे वाकी तीन अंगुलियों का नख अनुक्रम से किंचित् किंचित्न्यून करे ॥६॥ तलेपादस्य विस्तारः पायाः स्याच्चतुरंगुलः ॥ मध्ये पंचांगुलस्तस्य पादस्यांते षडंगुल ॥६॥ अर्थ-पादतल एडी के पास ४ भाग मध्य में ५ भाग अन्त में ६ भाग चौडा रखे ॥६॥ पादयुग्मं सुसंश्लिष्टं कार्यनिच्छिद्र सुस्थितं ।। शंख चक्रांकुशांभोजय व छत्राचलंकृतं ॥६६॥ अर्थ-चरण युगल पुष्ट इकसार छिद्र रहित सुंदर शंख चक्र अंकुश कमलयवछत्र आदि शुभ चिन्ह युक्त करै ॥६६॥ पद्मासन प्रतिमा कथन ऋज्वाय तस्य रूपस्यत्वेषमार्गो निरूपितः ॥ शेष स्थान विकल्पेषु यथाशोभं विकल्पयेत् ॥७०॥ अर्थ-इस प्रकार कायोत्सर्ग प्रतिमा बनावे बाकी के उपांग शोभनोक पुष्ट करै ॥७॥ कायोत्सर्गा स्थितस्यैव लक्षणं भाषितंबुधः ।। पर्यकस्थस्य चाप्येकिंतु किंचिद्विशिष्यते ॥७१॥ अर्थ-इस प्रकार कायोत्सर्ग प्रतिमा के लक्षण है पद्मासन के भी कितने क भाग ये ही है किंतु जहाँ भेद है सो विशेषकरि कहिए हैं ।।७१॥ ऊर्धनस्तस्यमानार्धमुत्सेधं परि कल्पयेत् ॥ पर्यकमपिता वत्कं तिर्यगायामसंस्थितं ॥७२॥ अर्थ- कायोत्सर्ग के १०८ भाग कोण्ये तिनके अर्ध ५४ भाग पद्मासन प्रतिमा के करें पलोठी दोनों गोडा पर्यन्त चौडाई रख आयाम अर्थात् चौडाई तिरछी गोडे के बीच से खवे के बीच तक नापै पलोठी के उपर से शिर के केश तक ५४ भाग नापै । भावार्थ चारू भाग ५४ नाप शोभनीक बनावै प्रक्षालका जल निकलने का स्थान चरण चोकी के ऊपर रखे लिंग ८ भाग नाभी से नीचा बणावैगा जब पाणीका निकास चरण चौकी के नीचे आवेगा। लिंग के मुख के नीचे कर पाणी का निकास करना। तब प्रतिमा शुद्ध बणैगी ॥७२॥ [१६२] Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृष्णा के वशीभूत होकर संकल्प विकल्प के आधीन मत बनो। बाहुयुग्मांतरुद्देशे भासयेच्चतुरंगुलं ।। प्रकोष्टात् कूपरयावद्वयं गुलं वर्द्धयेत्सदा ॥७३।। अर्थ- दोनों हाथों की अंजुली के ओर पेडू के अन्तर ४ भाग का रखे पौंछा से कोहनी पर्यन्त यथा शोभित हानि रूपी अन्तर रखे कोहनी के पास २ भाग का उदर से अन्तर रखे ॥७३॥ प्रातिहार्याष्टकोपेतं संपूर्णावयवशुभं ॥ ___ भावरूपानुविद्धांगंकारयेद् बिबमर्हतः ॥७४॥ अर्थ--ऐसे कायोत्सर्ग तथा पद्मासन रूप प्रतिमा अरहंत की अष्ट प्रातिहार्ययुक्त संपूर्ण अवयवनि करिपूर्ण शुभभावनि करियुक्त कर ॥७४॥ प्रातिहाविना शुद्ध सिद्ध बिबमपीदृशं ॥ सूरीणां पाठकानां च साधूनां च यथागमं ॥७५॥ अर्थ-पूर्वोक्त लक्षण संयुक्त प्रातिहार्य रहित होय सो सिद्ध प्रतिमा है आचार्य उपाध्याय साधू की भी प्रतिमा आगम प्रमाग सुन्दर कर ॥७॥ ___यक्ष की प्रतिमा कथन यक्षाणां देवतानांच सालंकार भूषितं । सुवाहनायुधोपेतं कुर्यात्सर्वाग सुन्दर ॥७॥ अर्थ-ऐसे ही यक्ष देवता आदि को भी संपूर्ण अलंकार करिभूषितसवारी शस्त्रायुधादिकरि संयुक्त सर्वाग सुन्दर प्रतिमा बनावै ॥७॥ प्रतिमा जी के शुभाशुभ कयन लक्षणोरपि संयुक्त बिबंदृष्टिविजितं । नशोभते यतस्तस्मा स्कुर्यादृष्टि प्रकाशनं ॥७७॥ अर्थ-संपूर्ण लक्षणों करि संयुक्त जिन बिबदृष्टि करके रहित नहीं शोभा पावै तात दृष्टि को प्रकाशन करै ।।७७॥ नात्यंतोन्मीलितास्तब्धा न विस्फारितमीलिता ॥ तिर्यगूर्धमधो दृष्टि वर्जयित्वा प्रयत्नतः ॥७॥ अर्थ--न तो अत्यन्त उघडी कर न मोंची करे अर्धोन्मीलित शान्ति रूप दृष्टि कर तिरछी ऊंची नीची न करै ॥७॥ [१६३] Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। अपने हित की बात को नहीं सुनने वाला बहरा है। , नाशाग्रनिहिताशाता प्रसन्ना निर्विकारिका ॥. वीतरागस्य मध्यस्था कर्तव्या चोत्तमातथा ॥७६।। अर्थ-नासिका की अणीपर दृष्टि पड़ती शांत प्रसन्न निर्विकार मध्यस्थ ऐसी उत्तम । 'प्रतिमा बनावै ॥ अर्थ नाशं विरोधं चतिर्यग्दृष्टिर्भयं तथा ।। . अधस्तात्पुत्र नाशं च भार्यामरण मूर्द्धगा ।।८।। अर्थ-जोतिरछो दृष्टि होय तो अर्थ का नाश विरोध कर नीचि दृष्टि रहै तो पुत्र का - नाश होय ऊंची दृष्टि रहै तो भार्या का नाश होय ॥५०॥ ' ' ' । शोक मुद्वेग संतापंस्तब्धा कुर्याद्धन क्षयं ॥ शॉता सौभाग्य पुत्रार्था शांतिवृद्धि प्रदाभवेत् ।।८१॥ अर्थ-स्तब्ध कहिए गुम्म दृष्टि होय तो शोक उद्वेग संताप धन का क्षय करे शांत दृष्टि होय तो सौभाग्य पुत्र धन आदि शांति की वृद्धि कर्ता होय ॥८१॥ सदोषा चन कर्त्तव्यायतः स्यात शुभावहा ॥ कुर्या द्रौद्राप्रभो शिं कृशांगी द्रव्य संक्षयं ॥२॥ अर्थ-सदोष प्रतिमा नहीं करणा कि जो अशुभ की देने वाली है जो रौद्र रूप प्रतिमा .., होय तो राजा जा नाश कर दुर्वल अंगयुक्त होय तो द्रव्य का नाश कर ।।८२॥ संक्षिप्ताँगीक्षयं कुर्याच्चिपिटा दुःख दायिनी ॥ विनेत्रा नेत्र विध्वंसं हीन वक्रात्व शोभिनी ॥३॥ अर्थ-सूक्ष्म अंग को धारक होय तो क्षय करै चिपटा मुख को होय तो दुःख को दाता होय नेत्र रहित होय तो नेत्र विध्वंस कर छोटा मुख को होय तो अशो 1, “भित होय ॥३॥ व्याधि महोदरी कुर्यात हृद्रोगं हृदये कृशा ॥ अंश हीनातु जंहन्यात् श्रुष्कं जंघा नरेंद्रहा ॥१४॥ भर्थ-बड़ा उदर होय तो उदर रोग करै । कृश उदर को होय तो हृदय रोग करें 3. -"कांधा हीन होय तो पुत्र को नाश कर शुष्क जंघा होय तो नरेंद्र का नाश कर ॥४॥ [१६४] Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयानुसार प्रिययचन नहीं बोलने वाला मुक है। पादहिना जनहन्यात्कटिहिनां च वाहन ।। ज्ञात्वै वकारये ज्जैनी प्रतिमा दोप वर्जितां ॥५॥ अर्थ-पादहीन होय तौ प्रजा को हन कटिहीन होय तो वाहन को हन इस प्रकार दोष जानि अर्हत को प्रतिमा दोष वर्जित कर ॥१५॥ सामान्येनेदमा ख्यात प्रतिमा लक्षणा मया । विशेषत. पुनर्जेयं श्रावकाध्ययने स्फुट ॥८६।। अर्थ-सामान्यतया ये प्रतिमा का लक्षण मंने कहा है। विशेषतया श्रावकाचारादि ग्रन्थों में स्फुटतया वर्णित है वहां से देख लेगा ॥८६॥ चिन्ह कथन ऋषहादीनं चिन्हं, गोपति गज तुरंग वानरा ।। कोक पद्मनंद्यावा, अर्धशशीमगर श्रीवृक्षम् ॥१७॥ गंडा महिषवराह, सेईवज हिरणा छगरायं ॥ मोनचिन्हयुगकलशंकच्छ कमलशंखअहिसिंह ।।८८॥ प्रतिमा के वर्ण कथन। द्वौ कुंदेंदु तुषाहार धवलौ द्वाविन्द्र नील प्रभौ द्वौबंधूक सम प्रभौ जिन वृषौ द्वौच प्रियंगु प्रभौ ।। शेषाः षोडश जन्ममृत्यु रहिताः संतप्त हेमप्रभा ।। स्ते संज्ञान दिवाकराः सुरनुताः सिद्धि प्रयछंतुनः ॥६॥ उक्त च तत्तद्वर्णा विधेयास्युस्तीर्थ कृत्प्रतिमा. समाः॥ पाणी पादतले धर्म चक्र रेखा प्रकल्पयेत् ॥६॥ अर्थ-प्रतिमा जिस वर्ण को तीर्थकर की होवे,उसी रंग की प्रतिमा बनाबना चाहिए। पाद् तल में धर्म चक्र रेखाकी कल्पना करना ।। पैर के दाहेंगूठे पर भी चिन्ह बणाव और नीचे को चौको पर चिन्ह बनवाब ॥६॥ [१६५] Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमरूपी निधि को नाश करने वाले विषय भोग शत्रु हैं । WW वर्तमान काल के तीर्थंकरों के नाम, वंश, चिन्ह तथा वर्ण का कथन अनु० नाम वंश चिन्ह वर्ण अनु० नाम वंश चिन्ह वर्ण १. आदिनाथ इक्ष्वा बैल सुवर्ण १३. विमलनाथ इक्ष वराह सुवर्ण २. अजितनाथ इक्ष्वा हाथी सुवर्ण १४. अनंतनाथ इक्ष सेहरा सुवर्ण ३. शंभवनाथ इक्षु घोड़ा सुवर्ण १५. धर्मनाथ इक्ष वज्र सुवर्ण ४. अभिनंदन इक्ष वानर सुवर्ण १६. शांतिनाथ कौरव्य हिरण सुवर्ण ५. सुमितिनाथ इक्षु चकवा सुवर्ण १७. कुंथुनाथ कौरव्य बकरा सुवर्ण ६. पद्मप्रभ इक्षु अष्टपांखुडी लाल १८. अरनाथ कौरव्य मांछला सुवर्ण ७. सुपार्श्वनाथ इक्ष साथिया हरित १६. मल्लिनाथ इक्ष कलश सुवर्ण ८. चंद्रप्रभ इक्ष चंद्रमा सफेद २०. मुनिसुव्रतनाथ यादव कछवा श्याम ६. पुष्पदंत इक्षु मगर सफेद २१. नमिनाथ इक्षु शतपत्र सुवर्ण १०. शीतलनाथ इक्ष श्रीवक्ष सवर्ण २२. नेमिनाथ यादव शंख श्याम ११. श्रेयांशनाथ इक्षु गेडा सवर्ण २३. पार्श्वनाथ उर्ग सर्प हरित १२. बासपुज्य इक्षु भैसा लाल २४. महावीरस्वामी नाथ सिंह सुवर्ण एकादशांगुलं बिबं सर्वकामार्थसाधकं ॥ एतत् प्रमाणमाख्यातं यत उद्धं न कारयेत् ॥११॥ अर्थ-गृहस्थी अपने गृह चैत्यालय में ११ अंगुल से अधिक जिन बिब न करावं उणे नाप से बणावै ॥ ११॥ उक्तंच। भालनाशाहनुग्रोवाहृन्नाभीगुह्यमूरुके ।। जानुजंघांनिचैत्येकाद शांक स्थानकानितु ॥१२॥ अर्थ-भाल १ नाशा २ हनु ३ ग्रीवा ४ हृत् ५ नाभि ६ नयन ७ गुह्यांग ८ अरु ___ जानु १० जंघा ११ चरण १२ कर्ण १३ हस्त १४ ॥ १२ ।। उर्ध्वा घोर युतं सबिंदु सपरं ब्रह्मा स्वरावेष्टितं । घर्गापूरित दिग्ग ताम्बूज दलं तत्संधि तत्त्वान्वितम् ॥ अन्तः पत्र तटेष्व नाहत युतं ह्रींकार संवेष्टितं । देवं ध्यायति यत्समुत्ति सवगौ वरीभ कंण्ठीरव ॥ अनाहत स्वरूप [१६६] Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद और आलस्य आत्मा का वैरी है । श्री प्रतिमा जी खड़गासन वा पद्मासन की नाप की सूचनिका शरीर के भाग लम्बाई चौडाई गोलाई विशेप खुलासा १२ १२ केश स्थान दोनो नेत्रों ठोडी तक अन्त तक ललाट के ऊपर १२ भाग में केश स्थान व चोटी रखै अर्थात १० भाग परै २ भाग प्रमाण चोटी का स्थान बणे ललाट से चोटी का स्थान तक क्रम से २ भाग ऊंचाई दिखावै और चोटी के स्थान से पिछाड़ी १० भाग में केश स्थान बरणाव १८ भाग तौ कानो के आगे १४ भाग कानों के पीछे रखे। अर्ध चंद्राकार। ८ ललाट ४ नाक ४ ३ . । ऊंची शोभनीक ढलाऊ। कर्ण ६४० नेत्र मुह फाड ४ लम्बी होठ २ भाग कानों के ऊपर वत्तिका भंवारे की ऊंचाई के सीध में बीच में करडी नस नेत्र के अन्त को सीध में कर्ण का अन्त भाग मुख की फाड की सीध में बणावे ।। नेत्रों में सफेदी २ भाग श्याम तारा १ भाग रखे विचतारोका गोल o० भाग नेत्र १ भाग मिर्च १ भाग खुला रख भवारे दोनों ४ भाग लम्चे मध्य मोटा मूल में १॥ भाग तीच में २भाग अन्तमें भाग [१६७] ३ भंवारे ३ . वाफणी Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण समय आ जाने पर भी मूखों की संगति नहीं करना चाहिये। प्रीवा ग्रीवा से वक्ष स्थल के नीचे हृदय तक ४ १२ वक्ष स्थल के बीच श्रीवत्स का चिन्ह कर वक्ष स्थल २४ भाग चौड़ा बरणावे जिसमें दोनों चंची के बीच १२ भाग दोनों चूंची से बगल छ-छ भाग चौड़ाई रखे दोनों भुजा छै-छ भाग चौड़ी कर इस भुजा से उस भुजा तक ३६ भाग चौड़ाई नाप। कमर १८ भाग चौड़ी ४८ भाग गोल बास का हाड स्कन्ध से गुदा तक ३६ भाग लंबा करे। नाभी का मुख एक भाग चौड़ा गोल शंख का मध्य भाग समान उंडा दक्षिण वर्त मनोहर कर नीचे ८ भाग में ८ रेखा बरगावै। हृदय से नाभि तक १२ . . नाभि से लिग तक . . . लिंग से गुदा ८ . तक भुजा कंधे से बोच को अंगुली तक कोहनी ५॥ भाग चौडी गुलाई खड़गासन प्रतिमा में १६ भाग पद्मासन में १८ भाग कर पोछा ४ भाग चौडा १२ भाग गोल पंजा ७ भाग लंबा व ५ भाग चौड़ा बीच की अंगुली ५ भाग दोनों बगल की ४॥ भाग कनिष्ठा ३॥ भाग ३ पेरू रखै नख ०॥० पेरू प्रमाण करें। लिंग की चौड़ाई मूल से २ भाग मध्य में १ भाग अन में चतुर्थ लिंग ५ २ . [१६८] Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूढता ही महा निद्रा है। पोता ५ ४ . ० कूला २४ ० जंघा गोडे से ऊपर गोडा ० ० गोडा से टिकूण्या भाग रख तिसको गुलाई त्रिगुणी करें। दोउ पोता पुष्ट आम की गुठली समान करें। बैठक का हाड त्रिकोण प भाग लंबा करै। चौडाई मूलमें ११ भाग मध्यम ६ भाग गोडा के पास ७ भाग करें। दोउ गोडा समान गोल जंघा से मिले हुये पुष्ट बणावै। मूल में गोडा के पास ७ भाग मध्य में ६ भाग टिकण्यां के पास ५ भाग चौडा करै। टिकूण्यां १ भाग रखे चौड़ाई त्रिगुणी करै एड़ो २ भाग प्रमारण कर पग थलो एडी से अंगुष्ठ तक १४ भाग लवी, चौड़ी एडो के पास ४ भाग बीच में ५ भाग पंजे पर ६ भाग बणावै। अंगुष्ट का नख १ भाग प्रमाण करें। अंगुष्ठ से अंगुलियाँ और नख क्रम से घाटि घाटि बरणावै । २४ . ४ . टिकण्यां से ऐड़ी तक अंगुली ३ २ . अंगुष्ठ ३ २ . कुल १०८ भाग खड़गासन प्रतिमा के कल्पना कर उक्त लेखानुसार हर १ अंग प्रत्यंगी नाप करै । और जहाँ नाप नहीं लिखी है वहाँ यथा संभव सुन्दर उत्तमोत्तम वणाना चाहिए। यहाँ १०८वा भाग का ही नाम १ अंगुल है । अंगुल और भाग १ ही [१६९ ४३ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणियों के प्राण ही सबसे प्यारी वस्तु है। समझना चाहिए। दोनों चरणों के बीच ४ भाग अन्तर रखै। खड्गासन प्रतिमा में पद्मासन प्रतिमा की नाप ५४ भाग प्रमाण इस तरह है (चरण चौको के ऊपर से मस्तक के केश स्थान तक), बाम गोडे के बीच से दक्षिण गोडे के बीच तक)। (बाम गोडे के बीच से दक्षिण भुजा के स्कन्ध के बीच तक)। (दक्षिण गोडे के बीच से वांम भुजा के स्कंध के बीच तक)। इस प्रकार ५४ भाग प्रमाण नाप करै। दोनों हाथों की अंगुली और पेडू का अन्तर ४ भाग रखे। कोहनी पास २ भाग का उदर से अंतर रखै। पौछा से कोहनी पर्यन्त यथाशोभित हानि रूप अंतर रखै । नाभी से लिंग ८ भाग नीचा ५ भाग लंबा बरगावै । लिंग के मुख के नीचे से प्रक्षाल के जल का निकास दोनों पैरों के नीचे से चरण चौको के ऊपर कर ॥श्री शुभं ॥ * समाप्त समय सार के अंतिम सवैया पं० जयचन्द कृत जीव अजीव अनादी संयोग मिल लखिमूढ न आतम पावें ॥ सम्यक् भेद विज्ञान भये बुध भिन्न गहै निज भाव सुदावें ॥ श्री गुरु के उपदेश सुनैरु भलै दिन पाय अग्यान गमावै ॥ ते जगमाँहि महंत कहाय वसे शिव जाय सुखी नित थावें ॥१॥ जीव अनादि अज्ञान वसाय विकार उपाय वर्ण करता सौ। ताकरि बंधन आन तणूं फल ले सुख दुःख भवाश्रम वासो॥ ज्ञान भये करता न वणे तब बंध न होय खुले परपासो । आतममाहि सदा सुविलास कर सिव पाय रहै निति थासो ॥२॥ माधव कारण रूप सवादसुं भेद विचारि गिने दोऊ न्यारे। पुण्य और पाप शुभाशुभ भावनि बंध भये सुख दुःख करा रे ॥ ज्ञान भये दोऊ एक लखै बुध आश्रय आदि समान विचारे । बंध के कारण हैं दोऊ रूप इन्हें तजि श्री जिन मुनि मोक्ष पधारे ॥३॥ योग कषाय मिथ्यातव असंयम आसव द्रव्य ते आगम गाये। राग विरोध विमोह विभाव अज्ञानमयी यह भावि तजाये ॥ [१७०] Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नत्रय रूपी हथोड़ी से ससार संतति का छेद करना चाहिये। जे मुनिराज कर इनि पाल सुरिद्धि समाजलये सिव थाये। काय नवाय नमूं चित लाय कहूं जय पाय लहूं मन भाये ॥४॥ भेव विज्ञान कला प्रगटै तब शुद्ध स्वभाव लहै अपनाही । राग द्वेष विमोह सबही गलि जाय इमै झुठ कर्म रुकाही ॥ उज्वल ज्ञान प्रकाश करै बहुतोष धरै परमातममाहो। यो मुनिराज भली विधि धारत केवल पाय सुखी शिव जाही ॥५॥ सम्यकवंत महंत सदा समभाव रहै दुख संकट आये। कर्म नवीन बंधे न तवे पर पूरव बंध झडे बिन भाये ॥ पूरण अंग सुदर्शन रूप धरै निति ज्ञान बड़े निज पाये। यो शिवमारग साधि निरंतर आनन्द रूप निजातम थाये ॥६॥ जो नर कोय पर रजमाहि सचिक्कण अंग लगे वह गाढे । त्यो मतिहीन जुराग विरोध लिये विचरे तव बंधन वाढ ॥ पाय समै उपदेश यथारथ राग विरोध तजे निज चाट। नाहिं बंधै तब कर्म समूह जु आप गहै परभावनि काट ॥७॥ ज्यों नर कोय परयो दृढ़ बंधन बंधस्वरूप लख दुखकारी। चित कर निति केम कट यह तौऊ छिदै नहिं नै कटिकारि ।। छेदनकू गहि आयुधधाय चलाय निशंक कर दुय धारि । यों बुध बुद्धि घसाय दुधाकरि फर्मरु आतम आप गहारी ॥ सर्वविशुद्धज्ञानरूप सदा चिदानन्द करता न भोगता न परद्रव्यभाव को। मूरत असूरत जे आनद्रव्य लोकमांहि तेभी ज्ञानरूपनाहिं न्यारेन अभावको ॥ यहै जानि ज्ञानी जीव आपकू भजै सदीव ज्ञानरूप सुखतूप आन न लगावको। कर्म कर्म फलरूप चेतनाकू दूरि टारी ज्ञानचेतना अभ्यास कर शुद्धधावको ॥६॥ दोहाः-समयसार अविकारका, वर्णन कर्ण सुनन्त । द्रव्यभाव नोकर्म तजि, आतम तत्त्व लखंत ॥१०॥ ॥ समाप्त ॥ [१७१] Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण थालों की संगति से ज्ञान वृद्धिगत होता है । चर्चा शतक --श्री द्यानतराय कृत जय सर्वज्ञ, अलोक लोक एक उड्डुवत देखे । हस्तामल ज्यों, हातलोक ज्यों सरव विशेष ।। छहों द्रव्य गुण, परज कालत्रय, वर्तमान सम। दर्पण जेम प्रकाश, नाशिमल कर्म महातम ।। परमेष्ठी पांचों विधन हर मंगलकारी लोक में । मन वचन काय, सिर लाय भुव, आनंद सों धो धोक मैं ॥१॥ ॥ स्तुति सिद्ध वर्णन ॥ लोक ईश तनु बात शीस, जगदीश विराजै। एक रूप, वसु रूप गूण अनंतातम छाजै ।। अस्ति वस्तु परमेय, अगुरुलघु द्रव्य प्रदेशी। चेतन अमतिक, आठ गुण अमल सुदेशी ॥ उत्कृष्ट जघन्य अवगाहना, पदमासन खड्गासन लसै। सब ज्ञायक लोक अलोक विधी, नमो सिद्ध भवभय बसै ॥२॥ आचारिज उवझाय साध, तीनों मन ध्याऊं। गुण छत्तीस पचीस बीस अरु आठ मनाऊं ॥ तीन को पद साध, मुगति को मारग साधे । भवतन भोग विराग, राग सिव ध्यान अराधै ॥ गुण सागर अविचल मेरु सम, धीरज सों परिषह सहै। मैं नमों पाय जुगलाय मन, मेरो जिव वांछित फल लहै ॥३॥ सम्यग्दर्शन वर्णन तिह-काल, षट द्रव्य, पदार्थ नव, तुम भाषै । सप्त नत्व, पंचास्ति काय षट कायक राखे । [१७२] Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपस्वियो को सगति से ध्यान अग्नि प्रज्वलित होती है। www आठ करम, गुण आठ भेद, लेश्या षट् जाने । पंच, पंच व्रत, समित चरितगति ज्ञान बखाने ।। सरधे प्रतीत रुचि मन धरै मुकतिमूल समकित यही । पद नमो जोर कर सीसधर धन्य सर्वज्ञ यह विधि कही ॥४॥ काल, ६ सहनन, १४ गुण स्थान, वर्णन प्रथम द्वितिय अरु तृतिय काल में पहिला जानों। चौथे षट संहनन पंच में तीन बखानों ।। करम भूमि तिय तीन, एक छट्ट के माहीं। बिकल चतुष्कयेक इन्द्रिक नाहीं ॥ षट कहे सात गुण, स्थान लग, तीन अग्यारेलौ लहै । इक क्षपक श्रेणी गुण ते रहै, धन जिन वाणी में कहे ॥ ॥ सह० गती ॥ छहौ तिसरे जाई, पांच चौथे, पंचमलग। चारि संहनन छटे इक सात नरक मग ॥ छहौ आठमें स्वर्ग, पंच बारस सुर जावे । चारि सोलमें लोक तीन नौ ग्रेवेक पावै ॥ दो संहनन नउनउत्तरे, इक पंच पंचोत्तरे। इक चरम शरीरी शिवलहै, बंदी जैन बचन खरे ।।६।। १६६ पुण्य पुरुप चौबीसौ जिनराय पाय वंदौ सुख दायक । काम देव चौवीस ईश सुमरो शिव नायक ॥ भरतआदि चक्रश दुदश, दुहसुर नरक स्वामी। नारद पद्म मुरारि और प्रति हरि जगनामी ॥ जिनमात तात कुलकर पुरुष शंकर उत्तम जिय घरो। कुछ तदभव कुछ भव धरत मुकति रूप वंदन करी ॥७॥ प्रसिद्ध पुरुप ॥ वंदी पारसनाथ, नमो बलि रामचन्द्र वर । कामदेव हनुमंत, प्रगट रावण मानीनर । [१३] Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवार की संगति से मोह को उद्भूति होती है। दानेश्वर श्रेयांस, शील में सीता नामी। तप बाहूबली नाम, भाव भरतेश्वर स्वामी ॥ जग महादेव है रुद्र पद कृष्ण नाम हरि जानिये । द्यानत कहे, कुलकर में नाभि नृप भीमवली भुज मानिये ॥८॥ ॥तीर्थकर वणं ।। पुष्पदंत प्रभुचंद, चंदसम सेत विराजे । पारिसनाथ सुपार्श्व, हरित पन्नामय छाजै॥ वासुपूज्य अरुपदम, रकत माणिक ध्रुति सोहै। मुनिसुव्रत अरु नेमि, स्याम सुन्दर मन मोहे ।। बाकी सोले कंचन वरण, यह व्यवहार शरीर युत । निहचे अरूप चेतन विमल, दरसन ज्ञान चरित जुत ॥६॥ ॥चौ० तीर्थकरों के अंतर ॥ पचास, तीस, दस, नौ, करोर लाख, निब्बै, नौ सहसकोर, निब्बै, नौकोर है । सो सागर वर्ष लाख छयासठ सहस छबीस घाटि को, सागर चौवन, तीस, और है । ब,चारि तीनघाट पौणपल्ल, अर्द्ध पाप घाट, लाखलाख वर्ष लाखेलाख वर्ष लाखेलाख जोर है।। बौवन, छ पांच लाख, सहस पौने चौरासो पांव अंतरा जीनेश गावै नीसिभोर है ॥१०॥ ॥ निगोदनाही, ४ सासादन नाही, तीर्यकर सत्तानाही वर्णन ॥ भूमी, नीर, आगि, पौन, केवली, औ आहारक । नर्क स्वर्ग आठमें नौगोद नहीं पाईये । सूक्ष्म, नरक, तेज, वाय में न सासादन, भौन त्रीक पशू में न तीर्थंकर पाईये ॥ सबही सूक्षम अंग कहै हैं कापोत रंग, कारमान देह को सूपेद रंग गाईये ॥ विपूल मतिमनः पर्यय परमावधि, ठीक लहै मोक्ष ईतै सोस को नमाईये ॥११॥ ॥ इन्द्रिय विषय मर्यादा वर्णन ॥ स्पर्श चार सै धनुष्य, असैनीलो दुगुना गिनी । रसना चौसठ धनुष, घाणसो तेइन्त्रीभनि ॥ लख योजन उनतीस शतक चौवन परबानो । कान आठसे धनुष्य सुने, सैनीसो जानो ।। नव योजन घाण, रसना स्पर्श कान दुवादश योजना। चख संतालिस सहस दुस तेसठि देखे जिनभणा ॥१२॥ [१७४] Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन की लालसा से सोनानल पविगत होता है। ॥ उत्कृष्ट आयुष्य वर्णन ॥ मृदु भूमी वारे, खरभू बाईस, जल सात, वात तीन, तर काय को दस हजार है ।। पंखो की बहत्तर सहस, बीयालीस साप, आगदीन तोन, वे इन्द्री वरष वार है ।। ते इन्द्रि दीन उनपचास, चौइंद्री छमास, सोरी सर्प पूरवांग नव आयु धार है ।। मच्छ कोटि पूरव, मनुष्य, पशु तीन पल्ल, सागर तेतीस देव नारको सार है ॥१३॥ ॥अल्प आयुष्य वर्णन ॥ भू जल पावक पौन साधारण पंच भेद, सूक्षम वादर दस परतेक ग्यार है । छ हजार बार बार जामन मरन घार, वेते चौइंद्री अस्सि साठ चालिस धार है ॥ चोवीस पंचेन्द्रि सब छयासठ सहस तीन से छत्तीस सेतीस से तेहत्तर सास है। छत्तीसस पिचासि स्वास अधिक तीजा अंस, नमोनाथ योही सब दूख सौ उधारे है ॥१४॥ ॥८४ लक्ष जाती वर्णन ॥ सात लाख पृथ्वी काय, सात लाख आपकाय, सात लाख तेजकाय, सात लाख वात है। सात लाख नित्य, और इतर सात, साधारण दस लाख प्रत्येक, एके इन्द्रि गात है ।। बेते चव, इंद्रि दोदो, मानूष चौदह लाख, नर्क, स्वर्ग, पशू चार-चार लाख जात है ॥ चवरयासी लाख जाति मो उपरि क्षमा करो, हमहू ने क्षमाकरी वर कीये घात है ॥१५॥ ॥ कुल वर्णन ॥ पृथ्वी काय बीस दोय, जल सात, तेज तीन, वात सात, तर वीस आठ वखानिये ॥ बेते चव इंद्रि सात, आठ नव, खग बार, जलचर, साडे बारे, पशु दस जानिये ॥ सोरि सर्प नव, नारको पचीस, नर चौदे, देवता छबीस लाख कोटि कूल मानीये ।। दोय कोडा कोड माहि आधलाख कोड नाहि सबको निहारकंजु दया भाव आनीये ॥१६॥ ॥आलोका काश वर्णन ॥ अमल अनादि अनंत अकृत अनयित अखंड सब। अचल अजीव अरूप पंचनहि, इक अलोक नभ ।। निराकार अविकार, अनंत प्रदेश विराज । शुद्ध सगुण अवगाह, दसौदिशि अनंत पाजै ।। ज्या मध्ये लोक नभ तीन विधि, अकृत अनमिट अन ईससे । अविचल अनादि अनन्त, सब भाषो श्री आदिश्वरो ॥१७॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय लपटी मानव इह लोक परलोक मे दुःख का भाजन होता है। तीन लोक वर्णन ॥ पूरब पश्चिम सात नर्क तले राजु सात अग, घटा मध्य लोक राजु एक रहा है । ऊंचे बढिगया ब्रह्मलोक राजु पांच भया आगै घटा अंत एक राजु सर दहा है । दक्षिण उत्तर आदि मध्ये अन्त राजु सात ऊंचा चौदे राजु पट दरव से भरा है। असंख्यात परदेश मुरतीक कियो भेष करै धरै हरै कौन स्वयं सिद्ध कहा है ॥१८॥ तीनों लोक तीनौ वात वले वेढे सब ठोर वृक्ष छाल अंड जाल तन चाम देखिये ॥ अधो लोक वेत्रासन मध्य लोक थालिभन उरध मृदंग घन ऐसोहि विशेखिये ।। करकटि धारि पाउौं पसारि नराकार डेढ मूरज आकार अविनासी पेखिये ।। घर मांहि छीको जैसें लोक है अलोक बीच छोकेको आधार यह निराधार लेखिये ॥१६॥ ॥ धन ३४३ ॥ तीनस वेताल राजु धनाकार सबलोक घनोदधि धन तनु वात के आधार है ॥ तामै चौदे चौकूटि त्रसनालि त्रसथावर परै तीन से उनतीस थावर सदा रहै । दक्षिण उत्तर डोरि बीयालीस राजु सब पूरब पश्चिम उनताल को विचार है । राजू अंस विसासौ तेतालीस अधिक है लोक सोस सिद्धन। मेरा नमस्कार है ॥२०॥ उखल में छेक वंशनाल लोक त्रसनालि उंचि चौदे चौरि एक राजु त्रस भरि है ॥ या में त्रस बाहिर थावर आउ बांधिकहु मरण सो आगा गयो त्रस चाल करि है । बाहीर थावर कोय त्रस आवबांधि होय मरण समै कारमाण त्रस रीति धरि है ॥ केवलसमुदघात त्रसरूप तहां जात तीनौ भांति ऊहा त्रस जैन वानि खरी है ॥२१॥ पूर्व पश्चिम तलसात मध्य एक बखानी, पंच स्वर्ग में पांच अंत में एक प्रवानी ॥ चहुं मिलाय चहूं अंश तीन साढे परमानो, दक्षिण उत्तर सातसाढे चौबीस बखानो ॥ ऊंचा चौदे राजू गुण) अधिक तेतालीस तीनसै ॥ यह घनाकार तिहुलोकमें केवल ज्ञानविषे लसै ॥२२॥ पूरब पश्चिम तलै सात, मध्य एके गाई, उभय मिले से आठ अर्ध करि चारि बताई। दक्षिण उत्तर सात गुणौ, अंठाइस राजू, उंचा राजू सात, सतक छयानवै भयाजू ॥ यह अधोलोक का सब कहा घनाकार जिन धरम में । ... मति परो नरक में पाप करी रहो सुमारग परम में ॥२३॥ L१७६] to de deste. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसने पर संवेदन को स्व सवेदन समझा वही सच्चा वीर है। उर्ध्व लोक वर्णन॥ मध्य लोक इक ब्रह्म पांच दुहुमिली भये षट । पूरब पश्चिम दिशा अर्ध करि तीन राजु रट ॥ दक्षिण उत्तर सात गुणो इकइस बखानी । ऊंचा साढे तीन साढ तिहतरी जानी ॥ साढ तिहत्तर विधि यही लोक अन्तसौ ब्रह्मलग। राजू इकसो सैतालिस धरम करै पावै सुमग ॥२४॥ छियालीस चालिस, और चौतीस, अढाई । बाईस, सौले, दस, उनीस साढे बतलाई ॥ साढे सतीस, साढे सोला, साढे सोलह भनो । आगे दो दो हीन अंत ग्यारा राजू गिनी ॥ इस सात नरक आठौ जुगल ऊपरि, सोलैथानमे। राजू तेतालिस तीन से घनाकार है कहि ज्ञानमें ॥२४॥ ॥त्रय वातवलय ॥ तले वात वलै मोटे योजन सहस साठ उंचा एक राजुली साठि सहस धारने । आगे सात पांच चार तीनु सोला जोजन के मध्य पांच चार तीन बारके विचारने ॥ ब्रह्म लोक तीनौ सोल अंतमाहि तीनों बार सीस दोय कोश एक कोशके बिचारनै । तनुवात धनूष पौने सोलेसै ताकै भाग पंद्रह से सिद्धयेक भाग में निहारनै ॥२६॥ ॥ जंबूद्वीप ॥ जंबूद्वीप एक लाख मेरू दस ही हजार भद्रशाल वन दो सहस छीयालीस के ॥ वाको छोयालीस आघोआध दोन्ही विदेही देवारण्यवन ऊनतीससै बाईस के ॥ तीनू नदी पौने चारसत चारोही वक्षार दो हजार आनेही विदेह वच ईस के ।। सतरै सहस सात सत तीन योजन के नमौ चार तीर्थकर स्वामी जगदीश के ॥२७॥ जंबुद्वीप दक्षिण उत्तर लाख योजन को, भाग येकसो निव्वे, येक भरत भाईयो॥ दोय होमवान शैल, चार हेमवत खेत महा होमवान आठ, सौले हरि गाईयो । बत्तीस नीषध है ये 'सठ, उध त्रेसठ बीचि में विदेह भाग चौसठ बताईयो ।। भाग पांचसै छब्बीस, कलाछह, उन्नीस कि अठत्तर चैना लेहै सदासीस नमाईयो ॥२६॥ [१७७] 45 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्भय वही होगा जो दुख से नहीं घबरायेगा। ॥ लवण समुद्र ॥ मेरू लाख एक जड, उंचा निन्यानौ हजार, चूलिका चालीस बाल अंतर विमान है। नीचे भद्रशाल वन दिशाचारि जिन भवन, पांचसै पै नंदन चैत्याले चार वान है ।। साढे सासठ हजार है सौमनस बन चौ चैत्याले उंचे सहस छत्तीस बखान है ।। तहां बन पांडुक चैत्याले चार सब सोल मन वच काय सेति वंदौ पाप हानि है ॥२६॥ ॥ मेरु वर्णन ॥ मेरु गोल जड तले दस हजार निचेको, भूपै है हजार दस, नंदप लहा है । नौ हजार नौसे चौवन भाग कहै, तहां सौमनस बीयालिससै बहत्तरी रहा है । पांडुक हजार एक, बीचे बारह चूलिका, चारोसै चौरानु बन, पांडुक सर्दहा है ।। सौमनस नंदन है, पांचसे के भद्रशाल, बाईस हजार पूर्व पश्चिम में कहा है ॥३०॥ ॥जोतिप मडल ॥ सातशतक अरु निवे तास पर तारे राजे । ताऊपर दस भान, असीपरचंद बिराजे ॥ चार नखत, बुधचार, तीन परशुक्र बतायो । तीन गुरू कुजतीन, तीन पर शनी ठरायो॥ इम नौसे योजन भूमिते जोतिष चक्र बखानिये । इकसौ दसजोजन गगन में फैलि रह्यो परमानिये ॥३१॥ ॥ अडीच द्विपातील ज्योतिष मडल ॥ इक चन्द इकसूर्य अठासीग्रह, अठाईस नक्षत्र बखान । छयासठ सहस नवसे पिचहत्तर कोडाकोडी तारे जान ।। इकसौ बत्तिस चंद इही विधी ढाई द्वीप मध्ये परवान । सब चैताले प्रतिमा मंडित बंदन करौ जोरि जुगपान ॥३२॥ ॥ चन्द्र सख्या ॥ जंबु द्वीप दोय, लवणांबुधी में चारचंद, धातुखण्ड बारै कालो दधि वीयालीस हैं ।। पुष्कर के भाग दोय इधर बहत्तरि हैं, उधै बारे से चौसठ भाख जगदीस हैं ॥ पुष्कर जलधिसार दोसत, ग्यारै हजार, ____ आगे आगे चौगुने बखाने जगदीस हैं । जेते लाख तेते वले दूने दूने अधिक हैं, सब असंख्य चैताले बंदत मुनीश हैं ॥३३॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव दु:खों के संघर्ष को सहन कर महान बनता है। वडवानल वर्णन लवणोदधि बीच चारि दिशामाहि चार कूप कहे मृदंग जेम तीन को प्रमान है। पेट और उचे येक-येक लाख जोजन के, नीचे ऊचे मूखाको दस हजार मान है । चारि विदीशा में चार, पेट है उंचे दश हजार येक नीचे उंचे मूखको बखान है। अंतर दीशा हजार, पेट उंचे हैं हजार नीचे उंचे मूख सौ को धन्य जैन ज्ञान है ॥३४॥ मानुषोत्तर पर्वत मानुषोत्तर पर्वत चौराई भूपर एक सहस बाईस । मध्य सातस तेईस जोजन, उपर चार शतक चौबीस ॥ सत्तरहसे इकवीस उचाई, जडा चारस पावरुतीस । ऋजुविमान कहि भांति मिल्यो है जोजन लाख कह्यो जगदीस ॥३५॥ नंदीश्वर द्वीप वर्णन रतिकर रतिकर दधिमुख रतिकर, रतिकर दधिमुख अंजनगिरि दधिमुख रतिकर रतिकर रतिकर वाघमुख रतिकर इकसो सठ कोडि चवरासि लाख जोडि जोजन का चौडा दीप पावन पहाड़ हैं। दिशाचारि अंजन हजार चवरयासि, सोलह दधिमूख योजन हजार दस ऊंचे हैं। रतीकर है बत्तीस योजन हजार एक, लंबे चौडे उंचे सब ढोल के आकार हैं। सव परि जीनभवन वावन विराजत हैं, वर्ष तीन बार देव कर जयजय कार हैं ॥३६॥ अवो लोक मदिर चौसठ लाख असुर जिनमंदिर, लाख चौरासी नाग कुमार । हेमकुमार के लाख बहत्तर छहविधिकेलख छिहत्तर धार । लाख छानवै वात कुमार हैं, पाताल लोक भवन दससार । सात कोटि अरु लाख बहत्तर जिनचत्यालये बंदी सुख कार ॥३७॥ [१७६] Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं वह मार्ग है । ॥मध्य लोक के अकृत्रिम जिन मन्दिर ॥ पंचमेरु के असी असो वक्षार विराजे, । गजदंतन ५ वीस, तोस कुल पर्वत छाज।। सौसत्तर वैताढय धार, कुरु भूमि दसोत्तर। इक्ष्वाकार पहाड़ चार, चार मानुषोत्तर पर ॥ नदिश्वर बावन रुचकमें चार, चार कुंडल सिखर ।। इम मध्यलोक में चारसे ठावन बंदी विघ्न हर ॥३६।। ॥ नक्षत्र विमान में मन्दिर वर्णन ॥ षट, पांच, तीन, एक, षट,तीन, षट, चार,दो, दो, दो, पांच, एक,एक, चौसट, तिन, लहै । नव, चौ, चौ तीन, तीन, पांच, एकसी, ग्यारह, होय दोय, बत्तीस, पांच तारे तिन लहै । कृत्तिकादी ठाईस के सब दौसे इकताल, ईक ईक के ग्याराग्यारह में सरद है। दोय लाख सतसठ हजार नवसे व्यानु, है चैताले प्रतिबिंव जोनवानी में कहै ॥३६॥ ॥ उर्ध्व लोकांनील चैत्यालय ॥' प्रथम बत्तीस, दूजे अठ्ठावीस, तीज बारें, चौथे आठ, पांचै छट्ट चौलाख विख्यात है ।। सातें आठमें पच्चास नौमे दसमें चालिस, ग्यारे बारें छहजार चार सत सात हैं । आधो एक सत ग्यारे, मध्ये एक सतासत, उरघ इक्यानु नव नऊ जरे जात है ॥ पंच पंचोत्तरें चवयासि लाख सत्यानु हजार तेईस चैत्याले बंदी अघ घात हैं ॥४०॥ सात किरोड. बहत्तर लाख पाताल विष जिन मन्दिर जानो। मध्यहि लोक में चारसे ठावण, व्यंतर ज्योतिक के अधिकानो ।। लाख चौरासि हजार सत्तानवे, तेईस उरघ लोक बखानो ॥ ... ईकी कमे प्रतिभाशत आठ, नमै तिहु जोग त्रिकाल शहानो ॥४१॥ वंदौ आठ किरोड़ लाख छप्पन सत्यानौ, सहस चारसे असि येक जिन मंदिर जानौ ।। नवस पचीस कोटि लाख वेपन, सताईस, बंदी प्रतिमा सवै सहस नौसे अठतालिस ॥ व्यंतर ज्यौतिक अगणित सकल चैत्याले प्रतिमा नमौ ॥ आनंदकार दुःखहार सब फेर नहीं भववन भभौ ॥४२॥ [१८०] Show Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुरुष जो कुछ कहते हैं वह शाला है। W www W त्रैलोक्य पटल एक तीन पन सात और नवग्यार तेर जिय । इकतीस सायसु चार दोय इक-इक तीन तीय ॥ तीन-तीन अरु तीन एक इक पटल बताये । इक सौ बार सरब थानक के गाये ॥ सब सात नरक आठौ जुगल त्रय ग्रोवक द्वय उत्तरे। उनचास नरक, त्रेसठ सुरग धन दोन्यौ समकित भरै ॥४३॥ पाताल वर्णन सात नर्क भूमि उनचास पाथडे नीवास इन्द्रकभि उनचास बीचमाहि बोले है । पहले सोमंतक चारि दीसा सेनि ऊनचास चारि वीदिशामे आठतालीस बोले है। आठ दीशा श्रेरिणबद्ध तीनसे अव्यासी भये आगे घट आठ-आठ अंति चार मीले है। सब छयानवैसे चारि जोजन असंख्य धारि दया धर्म करै तोन्है नर्क दुःख टले है ॥४४॥ स्वर्ग वर्णन उरध तोरेसठ पटल कहे आगम में सटहि इन्द्रक विमान बीचि जानीये । पहलो जूगलताके पहले है ऋजुनाम जाके चारि दीसा श्रेणी बासट प्रवानीये ।। चारी दौसे आठ ताल आगै छटै चार-चार अंत रहै चार उंचे चार ठीकठानीये। श्रेणीवद्ध ठंतरसै सोले, जोजन असंख्य सिद्ध बार जोजन पै ध्यान महि आनीये ॥४॥ पैतालीस लाख को है इन्द्रक ऋजुविमान, सर्वारथ सिद्धि अंतंको एक का कहा। चवालीस घटे है तेसठमे, बासठठोर उंचे-उंचे एक-एक केता घटतो लहा॥ सत्तरह हजार नौसे सतसहि योजना है तेईस अधीक भाग इकतीसका गहा । त्रेसठ इन्द्रक नाम सहि जिनधाम वंदौ मन बच काय तीनकि शोभा महा ।।४।। इन्द्र की सेना वर्णन इन्द्रसेना सात, हाथि, घोरे, रथ, प्यादे, बैल, गंधरव, नति सात-सात परकार हैं। आदि चौरासी हजार, आगै षट् दूने-दूने एक कोटि छह लाख अडसठ हजार हैं । येते गज तेते-तेते छह भेद सबके ते, सातूकोट छीयालीस लाख निरधार है। सहस छिहत्तर है और एक अवतार न्योम पुण्य कर्म भोगि मोक्ष को सीधारे हैं ॥४७॥ देव भोग वर्णन दोय सुरगमें काय भोग है, दोय सुरग में स्परस निहार । चार सुरगमें रूप निहारे, चार सुरग में शब्द विचार ॥ [१८१] 46 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमावस्था में ही ऐसा काम करो जिससे बुढ़ापे में सुख हो । stio stw चार सुरग में मन को विकलप, आगे सहजशोल निरधार । अहमिन्द्र सब महा सुखी हैं, वंदौ सिद्ध मुखी अविकार ॥४८॥ ॥स्वर्ग नरक मे गमणागमण वर्णन ।। साततै नीकले पशु छट्टनरवत नाहि, पांच महावत, चौथेसेति मोक्षोत्तर है । तीजै दूज पहिले ते आय जीनराय होय, भुवनत्रक सुर्ग दोय येकेन्द्रि धार है ।। द्वादशम स्वर्ग ताई पंचेद्रि पशु होय उपर को आयो येक नर को औतार है। दक्षिणेद्र सोधर्मराणि, लोकपाल, लौकांतीक सर्वार्थ सिद्धि मोक्षलहै नमस्कार है ॥४६॥ ॥कर्म प्रकृति वर्णन-स्तुति ॥ । वंदो नेमिजिनंद चंद सबको सुखदाई । बल नारायण वंदि मुकुट मणि शोभा पाई ॥ ध्यंतर इंद्र बत्तीस भुवन चालीसूं आवै । रवि शशिचक्रो सिंह स्वर्ग चौबीसौ ध्याय । सब देवनि के सिरदेव जिन सुगुरुनि के गुरुराय हो । हजो दयाल मम हाल पै गुण अनंत समुदाय हो ॥५०॥ इंद फणिद पूजि, नमि भगति बढावै । बल नारायण बंदि मुकुट मणि शोभा पावै ॥ बिन जाने जगवन भमै, जानिछिन सुर्ग बसावे। ध्यान आन रिधवान अमर पद आप कहावै ॥ सब देवनि के सिरदेव जिन, सुगुरुनिके गुरुराय हो । हूजौ दयाल मम हाल पै, गुण अनन्त समुदाय ही ॥५१॥ एक समै माहि एक समै परबद्ध बंध, एक समै एक समै परबद्ध झरे है। वर्गना जघन्य में अभव्य सो अनन्त गणि, उत्किष्ट सिद्ध को अनंत भाग धरे है। जैसे एक गास खाय सात धात होय जाय, तैसे एक सात कर्म रूप अनुसरे है । यौन लहै मोक्ष कोई जाके उर ग्यान होई, एक समै बहु खोई, सोई सीव वर है ॥५२॥ देव पै परयो है पट रूप को न ज्ञान होय, जैसे दरबान भूप देखनौ निवारे है। सहेत लपेटि असिधार सूख दुःख कारा, मदिराज्यों जीवनीको मोहनि विधारे है । काठमें दीयो है पाव कर थोतिको सुभाव, चित्रकार नाना नाम चित्र को समारे है ।। चकी ऊंच नीच कर, भूप दीयो मना कर, येहि आठ कर्म हरै सोहि हमें तारे है ॥५३॥ [१२] Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाय स्पी आताप को दूर करने के लिये आत्म ध्यान को धापा हितकारी है। ॥कर्म भेद ।। ज्ञानवरणकि पांच, दर्शनावरणो नौविधी। दोय वेदिनी जानि, मोहनी अट्ठावीसी मिली ॥ आय चार परकार, नामकि प्रकृती तिरानौ। तथा येकसोतीन गोत्र दोय भेद प्रवानो । कही अंतराय को पांच, सबसौ अठताल जानिये । ____ इम आठ करम अठतालसौ, भिन्न रूप निज मानिये ॥५४॥ मति, श्रुति, अवधि, मनपर्यय, केवल ज्ञान पांच आवरण ज्ञानावणिय पंच भेद है। चक्षु औ अचक्षु, अवधि, केवल, दरस चार, आवरण चार निद्रा निद्रा निद्रा खेद है। प्रचला प्रचला प्रचला यानगृद्ध नौ भेद, दरसनावर्णी, मोह अठाईस भेद है । दान, लाभ, भोग, उपभोग, बल, अंतराय पांच, सब सैतालिस घातिया निषेध है ॥५५॥ मिथ्यात, सममिथ्या, समं प्रकृति मिथ्यात, तीनों दरसन मोह दर्शन को चौभ है । अनंतानुवंधि औ अप्रत्याल्यानि, प्रत्याख्यानि, संज्वलन चारौ क्रोध, मान, मायालोभ है। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नारिनर, पंड, ये पचीस चारीतको छोभे है । अठाईस मोहनि जीवनीको मोहत है, नाश यथा ख्यात संजम क्षायकको शोभे है ॥५६॥ ॥सोला कपाय ।। पारि को रेख, थंभ पाथरको, बास वीडा, ऋमिरंग, समचारौ नर्क मांहि ले धरे।। हल लोक, हाड थंभ, मेसिंग, गाड़ीमल, क्रोध, मान, माया, लोभ, तोरजंच में परे। रथलोक, काठयंभ, गोमूतर, देहमल, से कषाय भरे जोव मानुष में औतरे ॥ जलरेखा, वेतदंड, खूरपा, हलदरंग, द्धानत ये चारि भाव सुगं सिद्धो को करे ॥५७॥ साता औ असाता दोय, वेदनि, नरक, पशु, नर, सुर, अउ, चार, उंच. नीच गोत हैं ।। नाम कि, तीरानु, एकसत एक अघातीया, आदि तीन अंतराय थीति तीस होत है ।। नाम गोत बीस, मोहकि सत्तरि कोडाकोडि दधि, आउ कि सागर तेतीस उदोत है ।। वेदनि चौवीस घडि सोल नाम, गोत, पांची, अंतर मुहरत, विनास ज्ञान जोत है ॥५६॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोग वियोग रूपी अग्नि से संतप्त संसार-मरुस्थल में जीव अफेला भमण करता है। तन बंधन संघात, वरण, रस, जाति, पंच, संस्थान, संहनन, षट आठ फास है। गति आनुपूर विहेचार, दो विहाय गंध तीन पैसठ्येत्रस, थूल भास है। पर्यापति, थोर, सूभ सूभग, प्रत्येक, जस, सुस्वर, आदर दो-दो, नोरमान स्वास हैं। अपघात परघात, अगुरु लघु, आताप, उदोत, तीर्थकर को वंदी अघनाग है ॥५६॥ वरणादिक बीस, संस्थान संहनन बार बंधन संघात देह आंगोपांग ठार है। अगुरु लघु, आताप, अपघात, परघात, नीरमान, परतेक साधारण सार है। अथीर उद्योत थोर सूभ अशूभ, वासठ पुग्गल विपाकि भौविपाकी भाइचार है। क्षेत्र विपाकी है चार अनुपूरवि अठत्तर वाकी जीव विपाको धारे अव टार है ॥६०॥ केवल दरस ज्ञान आवरण बाकि दोय मिथ्यात समै मिथ्यात निद्रा पांच भानिये । तीनौ चौकरीकि बारै सर्वघाति ईकइस संज्वलन चार नव नोकपाय मानिये ॥ ज्ञानावरण चार दरसनावर्ण तीन अंतराय पाँच सम्यक मिथ्यात ठानीये । देश घातीया छब्बीस बाकि ईकसी अघाति तीनो धानकर्म घात आप शुद्ध जानोये ॥६१।। १०० पाप प्रकृति वर्णन घाति सैतालीस दुःख, नोच, नरक आयु पंच संख्यान, संहनन, वर्ण, रस, मानीये। नर्क पशुगति, अनुपूरवि, फरस आठ, गंध दोय, इन्द्रि चार बूरि चाल ठानीये ।। अधीर, अपर्यापत, सूक्ष्म और साधारण परिघात, थावर अशुभ पर मानीये । दुर्मग, दु.श्चर औ अनादर, आजसरूप, पाप प्रकृती सौ भेद त्याजि धर्म जानीये ॥६२॥ पुण्य प्रकृति वर्णन सूर नर पशु आव साता, उंच भालचाल, सुरनर आनुपूर्वि निरमान खास है। बंधन, संघात, देह. वरण, रसन पंच, तोन अंग, शूभ गंध दोय आठ फास है ।। अगुरु लघु, पंचेंद्रि, संस्थान, संहन, बादर, प्रतेक, थोर पर्यापत जस त्रास है। आताप, उद्यौत, परघात, सुस्वर, सुभघ आदर तीर्थंकर को बंदी अघनाश है ।।६३॥ कर्म वध, उदय, सत्ता वर्णन बंध एकसौ बीस, उदय सो बाईस आवै । सत्ता सौं अठताल पापको सौ कहिलावै ॥ पुण्य प्रकृती अठसठि अठत्तर जीव विपाकी । वासट देह विपाकि खेतभव चवचव बाकी ।। इकईस सर्वघाति प्रकृति देशघाति छब्बीस है। बाकी अघात इकशत भिन्न सिद्ध सिव ईस है ॥६४॥ [१४] Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मध्यान पोग से मोहम्पी गम का नाम दिया जाता है। वर्णादि चार, सोलनाहि, देहादीक पांच, दसनाहि मिथ्यात एक दोय बंधनाही है। सोले दस दोय बीना बंध एक रात बीस मिथ्या उदं तीन दोय बड़े उदं याही है । उदै औ उदीरना एक शत बाईस कि आठ ताल विशेष सत्ता नाना जाव ठाही है। मिथ्या गुण सो छियाल काहु सत सत्ताईस पांचो तोर भंगि सौ असंगि आपमाही है ॥६५ बध के १० प्रकार जीव कर्म मिलि बंध, देय रस ताम, उदै मनि । उदोरणा उपाय, रहे जबलौ सत्तागिणी ॥ उत्कर्षण तिथि बढ़े, घटै अपकर्षण कहियत । संक्रमण परूपण उदीरन विन उपशम मत ॥ संक्रमण उदीरण विन निधत, घटि बधि उदीरण संक्रमन । चह विना निः काचित बंधदस, भिन्न आप पर जानि मन ॥६६॥ आउ अंस पंससि इकसठि-इकइससे सित्यासी जानि । सात शतक उनतीस दोयसै तेतालिस इक्यासि मानि ।। सताईस और नौ, तोन-एक आठवा भेद बखान । नोमि अंतकाल में बांध अगली गति को आठ निदान ॥६७॥ पच परावर्तन भाव परावर्तन अनंतु ते कर जीव एक भावसी अनंत भवके परावर्त है। एक भौति अनंत काल परावर्त कर फालते अनंत खेत परावर्त कर्त है ।। एमततं अनंत पुग्गल परावर्तन पंच फेरा वीर्ष आप मिथ्यावस वर्ते है । सातको विनाश जोन सम्यक प्रकाशतेइ दर्प खेत काल भव भावते निकर्त है ॥६८। भाव परावर्तन अनंत भाग भव काल, भव परावर्तन अनंत भाग काल है। कालपरावर्तन अनंत भाग क्षेत्र कहो, खेतको अनंत भाग पुगल विशाल है ।। ताको आधो नाम अर्थ पुग्गल परावर्तन, फिरनो रह्यो है योहि नानी भाल है। ताहि समं सम्यक उपजवे को जोग भयो, और कहां सम्यकत लरकाको स्याल है ॥६६॥ कंचन मान वर्णन नरक पशुगति, आनुपूरवि प्रकृति चार पंचेंद्रि बीनाचार, आताप उद्योत है। माघारण मृक्षम, पावर प्रकृति, तेरे नर आव बोना तीन मोलि सोलह होत है ।। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयाभिलाषा रूपी अग्नि की दाह से मूच्छित मन आत्म ध्यान रूपी अमृत के सिंचन से शान्त हो जाते हैं। सैतालीस घातियाकि वेसठ प्रकृति सर्वनाम भये तीर्थकर ज्ञानमई जोत है ॥ देवनिके देव अरहंत हैं परम पूज्य तीन होको बिब पूजि होहि ऊंच गोत है ॥७०॥ ॥ गुण स्थान वर्णन स्तुति ॥ बंदी नेमि जिनंद, नमो चोबीस जिनेश्वर, महावीर वंदामि, बंदौ सब सिद्ध महेश्वर ।। शुद्ध जीव प्रणमामि, पंच पद प्रणमो सुख अति । गोमट सार नमामि नेमिचंद आचार जनिति ॥ जिन, सिद्ध शुद्ध अकलंक वर, गुण मणि भूषण उदयधर। कहूं वीस परूपणा भवसौ यह मंगल, सब विधन हर ॥७१॥ ॥१४ मार्गणा ॥ जीव समास, परजापत, मनवचश्वास, इंद्रि काय मांहि आड गति में बखानिये ॥ क्रोधमांहि भय अरु वेदमाहि, मैथुन है ज्ञानमाहि दर्श दर्शमाहि जानिये ॥ कामबल, जोगमाहि इंद्रि पांच प्राण माहि आहारक, परिग्रह, लोभ में बखानिये ॥ पांचौ परूपणा इह चौवह में गभित है, गुण ठाण मारगणा दोय भेद मानिये ॥७२॥ ॥जिवसमास ॥ भू जल, पावक, वाड, नीत, ईतर साधारण । सूक्ष्म, वादर, करत होत द्वादश उच्चारण । सुप्रतिष्ठ अप्रतिष्ठ मिलि चौदे परवानो ।' परज अपरज, अलब्ध, गुणीब्यालीस बखानो ॥ गुणवे,ते, चो, इंद्री,त्रिविधि,सर्व एक पच्यास भनी। मन रहित तिहुं भेदसू सत्तावन घरि दया मनी ॥७३॥ ॥१८ जिव समास ॥ इक्कावन थान जान थावर विकल त्रयक, गर्भज दोय तीन सम्मूर्छन गाये हैं । पांच सैनि औ असैनि जल, थल, नभचर, भोग भूमि भूचर खेचर दो दो पाये हैं। दो दो नारकि हैं देव, नवविध मनुष हैं, चव भौग भू म्लेछ बताये हैं ।। दोय दोय दोय तीन आरजमें राजत हैं, अठाणवै दयाकर, साधुते कहाये हैं ॥७४॥ ॥५३ भाव ॥ चौतिस बत्तिस तेतिस छत्तिस इकतिस इकतिस जान ॥ [१८६] Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम म्पो रोग को दूर करने के लिये माम ध्यान ही परमौषधि है । अठाईस अठाईस बाईस बाईस बीस बार में थान ॥ तेरे चौदे अंत में स्थानक पंचभाव सिद्धाले जान ।। सम्यक् ज्ञान दरस बल जीवित निहचे सो तूं आप पिछान ॥७॥ पहले मिथ्यात अभव्य, दूसरे विभंग तीन, लेश्या तीन नकं अवत देव चार में ।। पशु पाचं, लेश्या दोय सात लोभ दसैलग, क्रोध मान माया तोन वेदनौ विचार में। सेस तेरे, नरभव्व जीवित असिद्ध चौदे पंचलब्धि, अज्ञान चख अचख वार में । चवतोसो भाव कहे चौदे गूण थानक में, वे उनीस बारहम हो अविकार में ॥७६॥ ॥ १२ गुण घटे १६ ॥ उपशम चौथे ग्यारे, वेदक चौथे सात, क्षायक चौथे चोदहै, देशविरत पांचमे । ज्ञान तीन तीजै बार, मन पर्यय छट्टे वारे, चारीतसराग, छट्टे दसै को साचमे ।। अवधि तो वार, उपशम चारोत ग्यारेहि, क्षायिक चारीत बार चोदे कर्म वाचमे ॥ पंच लब्धि क्षायोक दर्श ज्ञान तेरे चौदे नमो भाव उनइस छूट नरक आवमै ॥७७॥ ॥ ४ गती ५३ ॥ साततो स्वभाव पंच भाव सिद्ध बंदत हो, तीनों गति वीना नरक पचास दोस है ।। क्षायक आठवीना, मन परज, चारित है दोय ग्यारे वीना पशु ऊनतालीस है। शुभ लेश्या तीन अर नर नारि वेद देशवत छही भाववीना. नारक तेतीस है। हीन तीन लेश्या खंड वेदचारो भाववोना, शुभ लेश्या नरनारि सूरि के चौतीस है ।।७८॥ ॥ आनन ॥ पचपन पचास तेतालिस छियालिस सेतीस चोवीस जाना ।। बाईस सोल दस अरु नव नव सात अंत बखाना ।। चौदे गुण थानक में इह विधि आश्रव द्वार कहै भगवाना ।। मूल चार उत्तर सत्तावन नाश करौ धरि संवरजाना ॥७६।। पहिले पांच मिथ्यात, दूजे अनंतानु वंघि, ग्यारह अविरत प्रत्याख्यानि पांच गहै । वक्रियक औ अप्रत्याख्यानि सवध चौथे, आहारक छट्टोपट हास्य आठ लोल है ।। तीन वेद तीन संज्वलन नौमे, लोभ दस असत उभे वचन मन बारहे कहे ।। सत अनुभव वच मन औदारीक तेरे मिश्र कारमान चारि गूणस्याने सदह ।।८०॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरणी आदि कर्म बादल के दूर हो जाने से केवल ज्ञान रूपी सूर्य का प्रकाश प्रगट होता है। ॥चार गती में ५७ आश्रव ॥ वैक्रियक दोयबिना नर पचपन द्वार, आहारक दोयबिना त्रेपन त्रियंच है।। औदारीक दोय, दोय आहारक, पंड वेद पाँचवीना देवनी के बावन को संच है ।। आहारक दोय, दोय औदारिक, नरनारि, छहोवीना इक्यावन नर्क में प्रपंच है। चारौ गति माहि ऐसे आश्रवसरूप जानि नमौ सिद्ध भगवान जहा नाहि रंच है ॥८१॥ ॥चार गती में १२० बंध ।। औदारीक दोय, आहारक दोय, नर्क देवगति आयु अनुपूरवि दसौ बखानि है । विकलत्र सूभम साधारण अपर्याप्त सोलैवीन सतचार देव के प्रवानि है ।। एकेंद्रि थावर आताप तीन प्रकृति वीना नर्क एकसत एक, बंध जोग ठानि है । तीर्थकर आहारकवीना पशु सो सत्तर, नरके विसासौ सवनासो शीव थानि है ॥२॥ इकसौ सतरह, येक येकसौ, चौहत्तरि सत्तहरि माना । सतसठ, तेसठ, उनसठ, ठावरण, बाईस, सत्तरै दसमे थाना ।। ग्यारम बारम तेरम साता येक बंध नहि अंत निदाना । सब गुण स्थानक बंध प्रकृतो, इस निहचै आप अबंध पिछाना ॥३॥ ॥ उदय १२२ गुण ॥ इकसौ सतर, एकसौ ग्यारे, सो अरुचौसो, सत्तासीय ।। इक्यासी छहत्तरि, बहत्तरि, छयासठ, अरु साठ उदीय ॥ उनसठ, सत्तावन, बियालिस, प्रकृती बार उदय है जीय ॥ चौदे गुण स्थानक की रचना उदं भिन्न तूं सिद्ध सुकीय ॥४॥ ॥ उदीरणा॥ इकसौ सतर, इकसौ ग्यार, सोचौ सतासि जान । इक्यासी, तिहत्तरि, उनहत्तरि, तेसठि, सत्तावन, मान ॥ छप्पन, चौवन, उनतालिस, तेरमे अंत नहीं परवान ॥ यह उदीरणा चौदे थानक करै ज्ञानबल सो सुज्ञान ॥५॥ ॥१४८ सत्ता वर्णन ॥ पहले सो अठताल, दूजे में सो पैताल, तीजै माहि सो सैताल, चौथे अठतालसो॥ पांचे गून सो सैताल, छट्टै सातै आठ नौमें दशमें ग्यारमें उपशम है छीयालसो । आठे नौमे सो अठतीस, दशे इकसो दोय, बार में इकसोईक आगे पंद्रे टालसो॥ चौदे तेरमें पीचासी सत्तानाश अविनाशि नमोलोक घन उर्ध्व राजु है सैतालसो ॥६॥ [१८] Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहम्पी मन को ना भाग्म अनुभव पो मस्त से जोनी जा सपती है। ॥बंध जदा वर्णन ॥ देवगति आउ आनु पुरवि प्रकृति तीन वैफियक अंग आहारक अंग चार है ।। अजस ये आठी उंचं बंध नीचे उदं देय संज्वलन लोभ-वीना पंद्र को नोहार है ।। हाम रति भ गिलानि नर वेदनर आउ सुक्षम अपर्याप्त साधारण धार है । आताप मिथ्यातमे छब्बीस बंध उदै साथ नीचे बंध उंचे उदे छोयासि विचार है ॥७॥ विकालत्र सूक्ष्म साधारण अपर्यापत नरकगति आनुपूर्वी नरक आव है ।। मिथ्यामाहि लेश्यातीन बांध इकसोसतर नऊ वीना पीतक आठत्तरसी भाव है ।। एपेन्द्रिय थावर ओ आताप ईन तीन बिना पदम एकसी पांच बंध को उपाव है। पशुगति आठ आनुपूरवि उदोत वोना सुकल एकसौ एक बंध पुन्यचाव है ।। ॥ (१४) गुण स्थान मे आयुध । नरक आयु पहिले बंधे चौथे लेह, पशु आउ दूज, बंध, उदै पांचमें कहि ॥ नर आयु चोथे लग बंध उदै चादह लौ, सुरआउ सात बंद उदं चार में लहि ॥ नर पशु जीव नरक पशु नर आउ बंध, चोथेते आगे चढवेकि सक्ति न गहि ॥ चारो आउ तीज गुण थानकमे बंधे नाहि आउ नास भये सिद्ध तिनको वंदी साहि ॥८६॥ ॥ उपजम फेंगीत ॥ मिच्या मारग चार, तीन चउ पांच सात भनि । द्वितीय एक मिथ्यात तृतीय चौथे पहिलो भनि ।। अग्रत मारग पांच तीन दोय एक सातपन । पंचम पंचमु सात चार तिय दोय एक भन । छट्पट एक पंचम अधिक मात आठ नव दस सुनी ।। निय अघ उरघ चीये मरन ग्यार बार विन दो मुनी ॥६॥ मिश्र लोन संजोग तीनमें मरन न पावै । सात आठ नव दसम ग्यार मरि चौथे आवे ।। प्रथम चहूंगति जाय दुतिय विन नरकतीन गति ।। चौथे पूरव आय बंध ते चहुगति प्रापति ।। पंचम प्यारम मान गुण मने मुग्ग में औतार हैं। बंदो एक चौदम गण स्थानकानजी अजर अमर पद सिवपद लह ।।६१॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मध्यान से सब संताप मिट जाते है। ॥ सप्तभंग जिन वाणी ।। द्रव्य क्षेत्र काल भाव अपने चतुष्टय अस्ति, परके चतुष्टैसे न नास्ति दरव है। आपसे है परसे न येक समै अस्ति नास्ति, ज्यों के त्यों न कहै जाहि अव्व तव्व तच्छ है। अस्ति कहै नास्तिका अभाव अस्ति अव्व तब्व, नासक है, अस्ति नाहि नाश अव्व तव्व है। येकठे कहै न जाय अस्ति नास्ति अव्व तव्व, स्यादवादसेति सात भंग सधै सव्व है ॥१०१॥ ॥ आत्म महिमा ॥ जीव है अनंत एक जीवके अनंत गुण, एक गुण के असंख्य परदेश मानिये । एक परदेश में अनंत कर्म वर्गना है, एक वर्गना अनंत परमानु ठानिये ॥ अनूमें अनंत गुण, एक गुण में अनंत परजाय एकके अनंत भेद जानिये । तीन ते हूं ये अनंत तातै होहिंगे अनन्त सब जाने समै माहि देव सो बखानिये ॥१०२॥ नमहु नाम अरिहंत, थुनहु जिनबिव कलिलहर । परमौदारिक दिव्य बिबु निर्वाण अवनि पर ॥ . कही कल्यानक काल, भजहु केवल गुण ग्यायक । यह षटविधि निक्षेप महा मंगल वर दायक ॥ • मंगल दुभेद सब जायमल, मंगल सुख लहै । जोवरा यह आदि मध्य पर जत में मंगल राखो होयरा ॥१०३॥ चरचा मुखसौ भजे, सुनें नाहि प्राणी कानन । केई सुनिघर जाय नाहि भाकै फिरि आनन । तिनको लखि उपगार-सार यह शतक बनाई। पढत सुनय ह्र बुद्धि शुद्ध जिनवाणी माई ॥ इसमें अनेक सिद्धांतका कथन,मथन 'धानत' कहा। सब माही जीवको सारहै, जीव भाव हम सर्दहा ।।१०४॥ ॥ इति चर्चा शतक समाप्त ॥ [१९२] Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मल अगाह हृदय रूपी सरोवर में कषाय रूपी जलचर आत्म गुणों का नाश कर देते हैं। in मुनि दीक्षा विधि - ॥श्री वृहद् दीक्षा विधि लिख्यते॥ ॐ रणमो अरहंताणं । ॐ णमो जिणाणं। ॐ णमो सदणाणं। मंगलाणं । लोगुत्तमाणं । ॐ ह्रां ह्रीं ह्र ह्रीं ह्रः अ सि आ उ सा अर्हन्नमः ॥ ____ॐ णमो अरहंताणं। णमो सिद्धाणं । णमो आइरियाणं । णमो उन्वज्झायारणं । णमो लोए सव्वसाहूणं । ॐ परमहंसाय परमेष्टिने हंसोऽहं हं हां ही हूं हों हौं जिनाय नमः। ब्रह्मचारी, गृही, वानप्रस्थो, वा यथा विरक्त स्तथा जैनो दीक्षां गृण्हीयात । भावार्थ-आता दिक्षाघेणारा ब्रह्मचारी, किंवा गृहस्थ वा वानप्रस्थ असो त्याने विरक्त होऊन, वरलिहिलेला मंत्र पूर्ण म्हणून पुढे वर्णन केलेल्या क्रमानें जिन दीक्षाघेणें। दीक्षापूर्वदिने स्नानं संध्यादेवतार्चनं कृत्वा भोजन समये भाजन तिरस्कार विधि विघाय, आहारं गृहित्वा चैत्यालये आगच्छेत । ततः वृहत्प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापने सिद्ध योगि भक्ति पठित्वा गुरोः प्रणामं कुर्यात् । ___ भावार्थ-दीक्षेच्या पूर्व दिवशी स्नान संध्या व देवतार्चन करून जेवणास बसावे जेवणा करिता मांडलेले तार वाट्या, पेला गडवा वगैरे भांड्याकडे पाहून त्यावरील ममत्व साडून तिरस्कार करणे तें असें,-मूला आतां ही मांडी पुढे कशाकरिता पाहिजे ? मी सर्व परिग्रह सोडून दिगंबर होणार व कर पात्री आहार घेणार तर मग मला ह्या भांड्यांची काय जरूर आहे ? कांहींच नाही या प्रमाणे निर्ममत्वाने तिरस्कार करून भोजन करावे मजिन मंदिरांत येवून बृहत्प्रत्याख्यान प्रतिष्टापन काली (सर्व संग परित्याग करून दीक्षा धारण्याचा जो नियम त्याकाली) सिद्ध भक्ति व योगि भक्ति म्हणून, गुरु जवल येऊन प्रत्याख्यान पूर्वक उपवासाचा नियम घेऊन आचार्य भक्ति, शांति भक्ति व समाधि भक्ति म्हणून गुरूंस वंदावे अथ दीक्षादाने धातृदाने जनः गांतिक गणधर वलय पूजादिकं यथा शक्तिं कारयेत् । अथ-धाता तं स्नानादिकं कारयित्वा यथायोग्यालंकार युक्तं कृत्वा । महा महोत्सवेन चैत्यालयं समानयेत् । ततो गुरोरने संघस्याग्नेच दीक्षाय याचनां कृत्वा तदाज्ञया सौभाग्यवती स्त्री विहित पंचमंडल स्वस्तिकोपरिश्वेत वस्त्रं प्रछाद्य तत्र पूर्व दिशाभिमुखः [१३] Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान रूपी अग्नि से कर्म ईधन भस्म हो जाते हैं। पल्यंकासन कृत्वा असत गुरुश्व उत्तराभिमुखो भूत्वा संघाष्टकं संघ च परि पृच्छय लोचं कुर्यात् । ___ भावार्थ-गुरूस वंदना केल्यानंतर दुसरे दिवसों दीक्षा देताना जैन ब्राम्हणासउपाध्यायास दानदेतानां त्यादीक्षा पुरुषाच्या घरच्या मंडलीने शांतिक पूजा, गणघर वलयपूजा आदि करून यथा शक्तिर्ने पूजन करणे । नंतर कोणा एका उत्तम श्रावकाच्या घरी त्यादीक्षा पुरुषास कलश भांडून स्नान घालून, यथा योग्य वस्त्रालंकार करून मोठ्या उत्सवाने वाजत गाजत चैत्यालयात आणणें । मग त्यादीक्षा पुरुषाने देवगुरू व शास्त्र यांची पूजा करणे नंतर अत्यंत वैराग्य भावना भावून, सर्वा बरोबर क्षमा भाव धारून गुरु पूढे उभे राहणे । नंतर गुरू जवल व ऋषि, अज्जिका, श्रावक, श्राविका या चतुःसंघा जवल दीक्षेसाठी यांचना करावी । मगत्या सर्वाच्या आज्ञेनें सुवासिनों स्त्रियानी काढलेल्या पंच मंडल स्वस्तिक यंत्रावर एक शुभ वस्त्र घालून त्यावर पूर्वे कडे मुख करून पल्यंकासन घालून बसणें । नंतर गुरूने उत्तरे कडे तोंड करून ऋषि, यति, मुनि, अनगारादि आठ संघासव चतुःसंघास विचारून लोच करणें ॥ अथ बृहद् दीक्षायां लॉच क्रियायां पूर्वाचार्यानु क्रमेण सकल कर्म क्षयार्थ भाव पूजादेव वंदना स्तवसमेतं, श्रीमल्लघु सिद्ध भक्ति योगभक्ती कृत्वां, आदौ ॐ झ वं ह्यः पः ह. क्षी अहं सर्व शांति कुरु कुरु इवीय क्ष्वीयहं सः स्वाहा ॥ इति शान्ति मत्रेण गधोदकेन त्रिः परि सिच्य मस्तकं दक्षिण हस्तेण स्पृश्येत् ।। भावार्थ-अथ "बृहदीक्षायां" पासून "स्तव समेत" पर्यंत म्हणून लघु सिद्ध भक्ति तथा लघुयोगि भक्ति करणे "ॐ झं वं आदिकरून "स्वाहा" पर्यंत हा शान्ति मंत्र म्हणून मस्तकावर गंधोदक ३वेला घालणे । नंतर पुढील मंत्राने मस्तकास उजवा हात लावणे ॥ ___ॐ नमोहते भगवते नमः श्री शान्तिनाथाय सर्व शान्ति कराय सर्व विघ्न विनाशाय सर्व पर कृत क्षुद्रोपद्रव विनाशनाय ॐ ह्रां ह्री ह ह्रौं ह्रः असि आ उ सा 'देव दत्तस्य" सर्व शांति कुरु कुरु स्वाहा ॥ या मंत्राने मस्तकास हाताचा स्पर्श करावा।। ततो दध्यक्षत गोशर्करा भस्म दूर्वा कुरान् गधोदकादितान् मस्तकं लेपयेत् ॥ [१६४] Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय वासनामों का लोलुपी प्राणी नरक में जाता है। भावार्थ-त्यानंतर पुढील मंत्राने दही, अक्षत, सुगंध, चूर्ण, साखर, भस्म व पांढरी हरालो ह्या सर्वजिनसा गंधोदकांत कालबून मस्तकांस लेप करणे ॥ मंत्र-ॐ णमोभय वथो वढ्ढमाणस्स जस्स धम्म चक्कं जलंतं गच्छयि आयासं पायालं लोयाणं भूयाणं भूये वा रणे वा मरणे वा सव्व जीव संताणं मम अपराजिदो होदि अ सि आ उ सा स्वाहा ॥ इति मंत्रेण ॥ यामंत्राने वरसांगित लेल्या जिन सांचा लेप करणे ॥ निक्षिप्य मस्तक मध्ये चतुदिक्षु केशोत्पाटन मंत्रेण लुंचनं कुर्यात् । भावार्थ-मस्तकाच्या मध्यभागी व पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर ह्या चार भागी थोडे थोडे केश राखून बाकीचे सर्व केश पुढील मंत्राने उपडन टाकणे ॥ __मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह अ सि आ उ सा या मंत्राने केश उपडणे मग मध्य भागो राख लेल केश त्याच मंत्राने प्रथम उपडावे नंतर पूर्वादि क्रमाने चारि ठिकाणचे राख लेले केश उपडणे ॥ इति लुचनांते वृहत्सिद्धि भक्ति विधाय निष्टाप्यच वस्त्राभरण यज्ञोपवितादिकं परित्यजेत् ॥ ____ भावार्थ-या प्रमाणे केश उपडल्यावर दीक्षा पुरुषाने बृहत्सिद्ध भक्ति म्हणून निष्टापना करावी नंतर अंगावरील अलंकार, वस्त्र, यज्ञोपवीत व कडदोरा काढून टाकावेत ॥ ___ ततः शिरः प्रक्षालन शुद्धयनंतर काश्मीरादिमिश्रचंदनं ॐ ह्रीं अर्ह अ सि आ उ सा ह्रीं स्वाहा इत्यनेनाष्टोतर गत सित पुष्पं परिजाप्य मस्तक मनुलेप्य ॐ ऐं श्रीं क्ली अर्ह' इति पंच बीजाक्षराणि मस्तक मध्यादि पंच स्थानेषु लिखेत् . ___ भावार्थ-वस्त्रालंकार टाकल्यानंतर प्रासुक जलाने मस्तक स्वच्छ धुणे। मग काश्मिरादि सुंगंध मिश्रित चंदनाचा गंध तयार करणे । नंतर "ॐ ह्रीं अहं असि आ उ सा ह्रीं स्वाहा" या मंत्राने पांढरी सुगंध फुले घेऊन १०८ जापदेणे त्यानंतर मस्तकास तयार केलेल्या गंधाचा लेप करणे नंतर "ॐ ऐं श्रीं क्ली अर्ह" ही पांच बीजाक्षरें मस्तकाच्या मध्य भागों व पूर्वादि चार भागी लिहिणे ।। ततः सिद्ध चारित्र भक्तयाऽलोचनां कृत्वा, अष्टाविंशति मूल गुणान् पट त्रिंशदुत्तर [१५] Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान रूपी चन्द्रमा के उदय से ज्ञान रूपी समुद्र बढ़ता है। गुणान समारोप्य, बृहत्प्रतिक्रमण निष्टित करण वीर भक्ति चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति बृहदाचार्य चूलिकाचार्य भक्तिं कृत्वा जेष्ट ऋषिंचामिवंदयेत् ॥ ___ भावार्थ-बीजाक्षरे लिहिल्यानंतर सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति व आलोचना ह्या क्रिया करूण २८ मूलगुन व ३६ उत्तर गुण यांचे आरोपण करणे । नंतर बृहत्प्रति क्रमण, निष्टापन, वीर भक्ति, चतुर्विशति तीर्थकर भक्ति, बृहद् आचार्य चूलिका व आचार्य भक्ति ह्या सर्व क्रिया करून आपल्या जेष्ट गुरूस वंदन करणे ॥ __ततो वाम हस्ते तोद्धृत्य ॐ ह्रः भोंऽते वासिन् जन्म काय कुलादि जीवनि काय्यानि करान् संरक्षेति इदं पिच्छ बहँ दद्यात् । ___ भावार्थ त्यानंतर गुरूने "ॐ ह्रः भोंऽतेवासिन" आदिकरून "संरक्षेति" येथ पर्यत मंत्रम्हणून डाव्या हाताने शिष्यास जीव जंतु रक्षणासाठी पिच्छी उचलून देणें ॥ ___ ततः ॐ ह्रौं भोंऽते वासिन् ज्ञानावरणादि दुष्टाष्ट कर्म मल प्रक्षालनाय इंद्र शौचोपकरणं गृण्हन स्वाहा ॥ भावार्थ-त्यानंतर वरील मंत्र म्हणून गुरू ने ज्ञानावरणादि आठ कर्म मल धुवून टाकण्या करिता कमंडल देणें ॥ ततः ॐ ह्र भोंऽते वासिन् केवलज्ञान संप्राप्तायेति ज्ञानोपकरणं गृहण स्वाहा । भावार्थ-त्यानंतर सद्दश्चामंत्र उच्चारून गुरूने शिष्यांस केवलज्ञान प्राप्त होण्या साठी शास्त्र देणे॥ ॥ इति दीक्षा विधि ॥ . अथ उपाध्याय पद दान विधि सुमुहूर्त दाता गणधर वलयार्चन द्वादशांग श्रुतार्चनं च कारयेत ॥ ततः श्री खंडादिना छटाः दत्वा तंदुलोः स्वस्तिकं कृत्वा तदुपरि पट्टकं संस्थाप्य ! तत्र पूर्वाभि मुख तमुपाध्याय पद योग्यं मुनिमासायत् ॥ अथ उपाध्याय पद स्थापन क्रियायां पूर्वा चार्येत्यादि उच्चार्य सिद्ध, श्रुत भक्तिः पठेत् ॥ तत आवाहनादि मंत्रानुच्चार्य शिरसि लवंग पुष्पाक्षतानि क्षिपेत् ॥ तद्यथा ___ ॐ ह्रौं णमो उवमायाणं ॥ उपाध्याय परमेष्टिन् ऽत्र एहि एहि संवौषट् आह्वाहनं ॥ ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं उपाध्याय परमेष्टिन् तिष्ट तिष्ट ठ ठ स्थापनं ।। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म मान रूपी मल से जन्म के पाप धुल जाते हैं। ॐ ह्री णमो उवज्झायाणं उपाध्याय परमेष्टिन् सन्निहितो भव भव वषट् संनिधी करणं ॥ ततश्वं ॐ ह्रौ णमो उवज्झायाणं उपाध्याय परमेष्टिने नमः ॥ इमं मंत्र समुच्चार्य सुगन्धिता चंदनेन शिरसि अमिसि ययेत् । तत शांति, समाधि भक्तिः पठेत् । ततः स उपाध्याय गुरु भक्ति दत्वा गुरुं प्रणम्य दात्रे आशिषं दद्यादिति ।। ___समाप्तम्श्री आचार्यपद स्थापना विधि सुमूहूर्त दाता शांतिकं गणधर वलयार्चनं रत्नत्रयार्चनं च यथा शक्ति कारयेत् । ततः श्री खंडादिना छटाः दत्त्वातंदुलोः स्वस्तिकं कृत्वा । तदुपरि चतुष्क पटं संस्थाप्य तत्र पूर्वाभिमुखं तमाचार्य पदयोग्य मुनिमासादयत । अथाचार्य पद प्रतिष्ठापन क्रियायामित्यादि उच्चार्य सिद्धाचार्य भक्ति पठेत् । ततः ॐ है परम सुरभि द्रव्य सन्दर्भ परिमल गर्भ तीर्था बु संपूर्ण सुवर्ण कलश पंचक तोयेन परिषेचयामीति स्वाहा ॥ इति पठित्वा कलश पंचकतोयेन पादौ परिचयेत ॥ ततः पंडिताचार्य निर्वेद सौष्ट वेत्यादि महर्षिस्तवनं पठेत् ।। पादौ समंतात्परा मृश्य गुणा रोपणं कुर्यात् । ॐ ह्र णमो आयरियाणं आचार्य परमेष्टिन् ऽत्र एहि एहि संबौषट् आवाहनं ॥ ॐ ह्रणमो आयरियाणं आचार्य परमेष्टिन्त्र तिष्ट तिष्ट ठ ठ स्थापनं ॥ ॐ हणमो आयरियाणं आचार्य परमेष्टिन् सन्निहितो भव भव वषट् सनिधीकरणं ॥ इति आवाहनादिकं कृत्वा । ततश्व ॐ ह्र णमो आयरियाणं धर्माचार्याधिपतये नमः । अनेन महेंदुना चंदनेन पादवोस्तिलकं दद्यात् ।। ततः शांति समाधि भक्ति कृत्वा गुरू भक्तया गुरुं प्रणभ्यो पविशति ॥ ततः उपासकास्तस्य पादयोरष्ट तयोमिष्टिं कुर्वति ॥ यतयश्च गुरू भक्तिं दत्वा प्रणमति । सदात्रे अन्येभ्य उपासकेन्य अशिकं दद्यात् ।। ॥ इति नाचार्य पद दान विधि ।। 50 [१९७] Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्म-ध्यान से विकल्प रूपी सर्प मर जाता है। अथ श्रीगौतम स्वामी स्तवन । कारण्य. मदीदहत्प्ररतया योवीभरत्केवलं। भव्यानां भव तीव्रताप . मखिलं योदीदलत दुःसहं । श्रुद्धानंत चतुष्टयं शिवपथं योची कथत्प्राणीनां । सोस्मान् रक्षतु गौतमोगुणनिधिः कारुण्य पूर्णाशयः ॥१॥ पुण्यामिह पावनं यदि भवानु धर्तु मीशोस्तिचेत् । किंते देवदयालु ताऽपमता सामर्थ्यतायाः फलं ॥ किं तु द्वषति प्रकर्ष जनिता त्या पादधो गामिने । हस्तालंबन मंत्र महामसकृद्दत्ते तदा तत्फलं ॥२॥ वाचस्त्ववहण जल्पते सुरगुरो नलि श्रुताब्धे प्रभो। तत्रास्माकम जानतां मतिलवं कावाकथा कथ्यते ॥ घृष्टत्वेन तथापिते भगवतः प्रारम्यते यः स्तवः । सत्वा प्राप्यमनोघि नोतु कलिकामामस्यवा कोकिलः ॥३॥ दुःप्राप्या भवकोटि जात विषम क्लेषस्तयोभिः परोः। मुक्तिर्गोतम सार सौख्य वसतिः स्वात्पोत्थ चिद्बोधिनी ॥ दातुतामपि भाविता त्वयिविभो भक्तिश्चशक्नोति चेत् । संपत्कास्ति परानया भुवितयासं दीयते देहिनां ॥४॥ एकोनर्तत्रिकामाश्रु गहतविबला भ्रांत चेताः शबर्या । अन्यो भोग्यांगनानां कुच कलशतटी लोकने व्यप्रमूर्ति ।। दृष्ट्वा शंभोःसुयोषाप्रगलितसिकताप्रातरेताःप्रजासृट् । सर्वे संसार बीजं कथमपि भगवन्नवतेयांति साम्यं ॥५॥ ॐ ह्रीं इवी मुच्यते श्री तदनुच अरहं, लप्यतेस्या उसांते। पठ्यते प्रातिचक्र, फटि तिच सवि चक्राय वर्णायवाच्यौ। शौं शौं स्वाहातयुक्तो, सकल सुखकरो मंत्र राजोयमुच्चै । रे कांतेतेन भव्यः, स्मरतिगण भूतस्तस्य सर्वार्थसिद्धिः ॥६॥ [१९८ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्म ज्ञान स्पो जल से जन्म जन्म के पाप धुल जाते हैं। www अनेन मंत्रेण जाप्य क्रियते ॥ अनुच द्वितीये नापि ॥ ॐकारागंणमो युक् तदनुच अरहता णमोकार युक्त । वाच्यं पश्वाज्जिाणाणां, रणम इति सहितं ।। ह्रां ह्रीं यं हूच वर्णाः ग्राह्याः ह्रौ ह्रः इतीमौ, पुनरपि असिआ। अग्रतो वाउ सौ द्वौ, पठ्यते घाति चक्र , फटि तिच स विचक्राय होमांत युक्त ॥७॥ ताव दुःखं जनानां, भयमतुलमलं, रोग शोकौच तावन् । दुर्भिक्ष्यं दीनता वा, भरकमघ भरः सर्व चिता दरिद्र । हत्या कृत्या च भूता,ग्रहविषरिपवः शाकिनी डाकिनी वा। तावद्वधेत देहे, गणधर गणिनो, नामयावन्नचित्ते ॥८॥ दुःखं सौख्यति मित्रति प्रतिदिनं शत्रुषत्स्वर्णति । शोकोप्युद्धावति सजत्यसिलता रोगः पुन भॊगति ॥ बन्हि।रति सार्थति प्रति पथं दस्युहरि छिति । आस्ते कि भुवने शुभं तव पदौ मर्तु : शुभंनो भवेत् ॥६॥ सिद्धांतोप्यखिलो न ते गुणवतः पारंमहिम्नोगत । स्तत्र ज्ञानलवेप्य शुद्धमतयः केहंत मूढावयं ॥ यः कूपं तरितु न तुछ पयसं जानाति होनो जन । स्तस्यानः सदुदत्वतः कथमहो वार्तापिरम्या भवेत् ॥१०॥ स्वर्भूपाताल लोके, सकल बलयुतो, मोह एवास्तिराजा। यस्मातेन प्रयुक्त, भ्रमति जगदिदं, सर्व कार्येष्ट धोनं ॥ नीरागास्ता त्वयासौ सकल परिजनो घाति तस्तदनादि । ज्ञात्वा चित्ते प्रभुत्वा मिति तवपुरतो विश्वमासीद्धिनम् ॥११॥ मुक्तिस्थान जुष्टे प्रकृष्ट वचसे प्राणि प्रदत्तायुषे । निई तात्मरुपे परिगमुषे स्वात्मोत्य सत्ते॥ जसे भव्य प्राणि पुरुषे प्रसिद्ध विदुषे ज्योतिमयागत्वेष । कीर्ति व्याप्त दिशेतमः सुमनसे धर्मामत प्रावृषे ॥१२॥ [१९] Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार रूपी अग्नि के ताप को शान्त करने के लिये मात्मानुभव रूपी समुद्र में अवगाहन करो। त्वंधेय स्त्वंच देवस्त्वमसि गुरु तमस्तुछ बुद्ध ममायं । इत्यालापः सुभक्तयां भवंति जन गुरो सर्व तत्वैक रूपे ॥ महात्म्यं तेप्य जल्पन् सकलमिह विभो सौख्य हेतोरिवाब्धे । संस्पर्शः क्षीरभानो भवतिमल हरः पाथं वृदस्य मार्गे ॥१३॥ शुद्ध ज्ञान चारित्र दर्शन मयं केचित्कदाचिक्रता । मन्यतेन निज प्रदोष वशतः किंतहि मान्योभवेः ।। मूर्छायाश्रित देहिताय दमनः सस्यावढ्दो जनः । किं वा नाद्रि यते सुचंपक तरू स्त्यत्तोपि मुंगवः ॥१४॥ सनथोपि सदाबुधोत्तम जन निग्रंथको गीयते । भूदेवोपि च कृष्ण वर्त्म विमुखो नग्नोपि भूतिप्रदः ।। सद्रत्नत्रय मंडितोपि विगलद्भूणोप्य मानो महान् । त्वद्वृत्तं वतयोगिना मपिहू दिव्या मोहतामानयेत् ॥१५॥ चिंताधेनु सुरद्र मौदिवगतं मणिक्यं च नौषधे । निःशक्तित्व मुपाश्रितं रविकज दूरे प्रदेशे स्थितं । त्वन्नाम्नि प्रसभं प्रकुर्वति मनो भीष्टं च रोग क्षयं । उद्योतं च जगत्रये बुधनुते व्यर्थस्य काप्रार्थना ॥१६॥ सद्धृत्तः कमलालयो हरिगतिः शुभंकलः कामदः । सारंग स्थिति रुन्नतः शिवपदः सत्तारकाधीश्वरः॥ दोषोद्ध त तमोपहो बुधमनः स्नेहः समुद्राश्रयः । लोकेचंद्र इव प्रमोद जनकः श्री गौतमो गो जनिः ॥१७॥ अज्ञानाघत कर्मलग्न मसक धर्माच्युतं सौख्यदम् । वित्ताशा हतमान संमनसिज व्यामोहनिद्राश्रितं ॥ कैवल्यामल मार्ग दृष्टि विमुखं यावच्पमाने क्षुते । तावदुर्गतिरात्म विद्धगवता कार्यः प्रयत्नो महान् ॥१५॥ नक्षत्रेशः सदोषो, जड तनु भवनः षंडवृत्तः कलंकी। सूर्योप्या तापकारी वर तपसि सदा स्वल्प भावः सकुष्टः ॥ रामो भ्रांतो वने गे कनक मृग तृषा सागरोऽगस्ति दुष्यः । सर्वेनायाति साम्यं तव गुण वलयतेः स्व स्व दौरे समेताः ॥१६॥ [२००] Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निविकल्पता रुपी माता के पिना आत्म-ध्यान रूपी पुत्र को उत्पत्ति नहीं होती। wwwwwwwammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwww लीला हंसति कोकिलो मृगमदः, कर्पूरति श्रीपतिः । गौरिकांत कौतलश्च सरति स्वर्भानु रंभो जति ॥ सर्पःशेष तिदंत्ति नामपिगणः स्वर्नाथ मातंगति । त्वत्कीर्तेः परिघदनाद परित्न सद्गंगामतरंगात्विषः ॥२०॥ सधर्मीयसि मानिनीयसि महोभोगोयसि । श्रीयसि संतानीयसि मंदरीयसि सदामानीयसि ।। श्रीयसि नीरोगीयसि मंगलीयसि लसदानीयसी । हाङ्कतं चच्चेतो विकल स्वभाव चपल श्री गौतचितय ॥२१॥ भव्याना मिहवसु पूजित पदस्त्वं सर्व सौख्य प्रदः । किंतुस्त्वांतक जे स्मृतोपि भगवन् बोधार्य मोबोधिते ॥ उग ग्रीष्म रुतावगाहनमलं पद्माकरस्यामलं । ___ अगत्यं स्तदुयाति काच्चपवनश्चेता पविछित्तये ॥२२॥ प्राप्ता कर्मवशात्सुदुर्लभतया विद्यामयासद्गुरो। स्त्वं कारुण्यमयः श्रितागि शिवदश्चेत्स्कृय सेनोतया ॥ सावार्ण वत चित्तमान जननील वरं संनूर्वाकुल वृधयेत्समभवन्नाशाय चेत्कंततः ॥२३॥ स्तुत्वा त्वा सकलाथि कल्पतरु भनोप्रार्थये वॉछया । त्वं तस्याः स्वयमेव दातृनिपुणः किं प्रार्थनायाः फलं ॥ विब दर्श यतोति निर्मलतरात्किदर्पणो प्रार्थना । कुर्वन मूढतया नयाति विदुषां प्राप्ते सवै लक्ष्यतां ॥२४॥ भास्वत् क्वाति कलानिधिः समभवद्द गं वरीये मते । चंच्चहकरः सभाति चतुरः श्रीमत्प्रभाचंद्रमाः॥ तत्प? जनिवाद वदतिलकः श्री वादि चंद्रो गुरु । स्तेनायंष्पर चिस्तवो गणभृतः श्री गौतम स्वामिनः ।।२५।। नेत्र वेद षडब्जांके वर्षे मासि शुचा विदं स्तोत्र । व्यरी रचत्सूरिघनी घेवादि चंद्रभाः ॥२६॥ ॥ति श्री वादिचंद्र भूरि विरचितं श्री गौतमस्वामि स्तवन समाप्त ॥ [२०१] Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व विकल्प जालों को छोड़कर विषय प्यास को बुझाने के लिये आत्म-ध्यान रूपी अमृत रस का पान करो। CC करुणाष्टकं 40 त्रिभुवन गुरो जिनेश्वरं, परमानंदैक कारणं कुरुष्व । मयिं किंकरेत्र करुणां तथा यथा जायते मुक्तिः ॥१॥ निदिन्नोहं नितरा मर्हन्, बहु दुःखया भवस्थित्याँ । अपुनर्भवाय भवहर, कुरु करुणामत्र मय दीने ॥२॥ उद्धर मां पतितमतो विषमाद्भव कूपतः कृपा कृत्वा । अर्हन्नलमुद्धरणे त्वमसीति पुनः पुनर्वच्मि ॥३॥ त्वं कारुणिकः स्वामी त्वमेव शरणं जिनेश तेनाहं । मोहरिपुदलितमानः पूत्कारं तव पुरः कुर्वे ॥४॥ गाम पतेरपि करुणा परेण केनाप्युपद्रुते पुंसि । जगतां प्रभोन किंतव जिनमयि खलु कर्मभिः प्रहते ॥५॥ अपहरं ममजन्म दयां कृत्वेत्येकत्व वचसि वक्तव्ये । तेनाति दग्ध इतिमे देव वभूव प्रलापित्वं ॥६॥ तव जिन चरणाब्जयुगं करुणामृत संगशीतलं यावत् । संसारातप तप्तः करोमि हदि तावदेव सुखी ॥७॥ जगदेकशरणं भगवन्न सम श्रीपद्म नंदित गुणौघ । किं बहुना कुरु करुणामत्र जने शरण मापन्ने ॥८॥ ॥ इति.॥ * उत्कृष्ट श्रावक के घरको तज मुनिवन को जाकर, गुरु-समीप व्रत धारणकर । * तपते हैं भिक्षाशन करते, खंड वस्त्र धारी होकर ॥ उत्तम श्रावक का पद यह है, जो मनुष्य इसको गहते । र है उन्हें श्रेष्टजन क्षुल्लक ऐलक, भाग्यवान् श्रावक कहते ॥ [२०२] Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म ध्यान से बटकर कोई सुखकारी नहीं है। आत्म संवोधन ॐ नमः सिद्धेभ्यः नत्वा वीर जिनेन्द्र मिंद्र महितं भव्यात्मनां संहितं । प्राणि त्राण तनुत्र भूतमतुलं संसार बाधापहं ॥ कुर्वेहं प्रथिमाननिर्मलगुण ग्रामाभिराम सुमं । ग्रंथं भव्य मनोहरं भवहरं नाम्नात्म संवोधनं ॥१॥ रेवात्र मुधैव दैवगतिनां लब्धं, नरत्वं त्वया। संसारे भ्रमता सदासुखमये नित्ये चतुर्योनिषु ।। सम्यग्दर्शन बोध वृत्त विकलं मामुंचय-इ.ल्लभं । तन्नष्टं पुनरिप्टमंगमहता कष्टेननो लभ्यते ॥२॥ रेपापिष्टं निघृष्ट दुष्ट कुमते प्राणिन् कृपा वजितात् । किं कि वा विधुरं भवेत्र भवता नाप्तं महद्द सह ॥ मत्वा त्वं मनसोति भीति सहितः सर्वागिनां सर्वदा । वा चांगेन सुचेतसा मृदुतया शिघ्रण कुर्याः कृपां ॥३॥ रे रे निष्ठुर निष्टुरं शुभहरं यत् प्राणि पीडाकरं। निद्य दुर्वचनं च तथ्यविकलं मां ब्रूहिवाचा शुभं ॥ प्राणिन् दुर्गति दीपकं गतमते त्वं केनचित्हेतुना । यस्मादत्र महीतले गुणगणागारहि भस्मी भवेत् ॥४॥ कृत्याकृत्य विचार च चाज्जित मते मोहात्परेषांधन । हर्तुचितसि चेत सोतिसुतरं दृष्ट्वा द्रुतं हुर्मते ॥ अत्र वापि भयं न भूपर चितं ते मुत्रनो दुनते । नीचोच्चादि विवेक भावरहितं त्वं मन्यसे कि स्थिरं ॥५॥ [:०३] Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आत्म ध्यान से बढकर कोई तप नहीं है। रे सत्कर्म विमुक्त जीवरभसा मागाः सुखं मानसे । दृष्ट्वा स्त्रीजन संहतिं हतमते तच्चापदां वा पदं ।। यस्याः संगममात्रतोपि महिमातिख्याति कीादयो । गर्छति प्रसभ ततोन महता कार्या हितत्संगतिः ॥६॥ कल्पांतोद्गतवात संहतिहतो वाद्धिर्वरंगाहितो। व्याल व्याध भुजंग भीषण वनं सं सेवितं वावरं । सर्वाप्लोष करोखतोज्वलशिखो वन्हिर्वरं चाश्रितो । रे जीवोद्धत बुद्धिमान्नहिवरं सीमंतिनी संगमः ॥७॥ स्त्रीणांकाय कुटीर के निजरिपो रे नास्ति किंचिच्छुभं । दुर्गधा शुचिसप्त धातु कलिते हीचर्मणाछादिने ॥ विण्मूत्रादिभृते विमूढ विमते निदा पदे पापदे । कि मोहंमनसा प्रयासि भ्रमतः पापिष्ट लज्यागतां ॥८॥ रे लज्जा होन दोन प्रतिहतं निपुण व्यस्तसन्मार्ग वृद्ध। सिद्धेः सौख्याभिलाषं व्यसनगतमतेयाचितो योमहद्भिः॥ हित्वातं कामिनी नामतिरत कुमते संगम यां वांछसि । त्वंमन्ये जीवात्मशत्रो कथमपि विधि ना वंचितोसीतिनूनं ॥६॥ तत्केतुर्नहि मूढ जीव नृपतीरुष्टो पिदुष्टोपिदुष्टो । द्विपोन व्याघ्रः क्षुधया द्विपारि रतुलोनोपन्नगः पावक ॥ नक्ष्वेडो नयमो नशत्रुरपरो रामारते दुर्मते । पद्द खं वितनोति वाक्षण कृतो रे कामिनी संगमः ॥१०॥ धर्मध्वंस्तयते तनोति विधुरं पापंचिनोतित्वरं। कामवद्ध यते विहंति सुमति कीर्त्यादिकं नाशयेत् ॥ लज्जांहंति कुबुद्धिमत्र कुरुतेरागं धुनीतेशमं । कि कि जीवन संगमोपि कुरुते स्त्री स्त्रीकृतश्चाशुभं ॥११॥ रे रे संवर युक्ति मुक्ति विमते चित्तेन ते भासते । दुर्वार्ता हत नीर क्रूर सहशा सोमंतिनी चंचला ।। [२०४] Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्म-ध्यान के सिवाय कोई मोल मार्ग नहीं है। सौख्यं यत्करणोद्भवं च तरलं मत्तांगना पांगव । देह बुबुद संनिभं जलमुचः श्रीरिंद्र जालोपमा ॥१२॥ कि जानासि न जीव देहमशुचीनो गेहमालोकना। कृध्यरोगजरादिभिः प्रतिदिनं गछव्यवस्थातरं ॥ विण्मूत्रादि विसंकुलं शुचितरं किमन्यसे ह मते । ' युक्तायुक्त विमुक्तरिक्तमपटो सारैः सुगंधादिभिः ॥१३॥ रे जानासि न जीव.संसृति सुखं दुःखाश्रितं दुर्मते । प्रत्यक्षकिमुनेक्षसेपि भुवनं मुग्धेद्र जालोपमं ॥ किं कर्णेन शृणोषि मूढ विरसंस्त्रोसंगम निदितं । यस्मादत्र पुरातपो बनबरा नष्टागरिष्टा नराः ॥१४॥ ज्ञानाम्यासं विधस्त्वत्यज किलविषयं सद्गुरु त्वं भजात्मन् । माया लिप्ता श्रयालं बुधजन पदवी निई यत्वं जहाहि ॥ संतोषं संविधे हिव्यसन विमुखता मेहि मुंव कोपं । चित्ते चेदस्ति जीवा प्रविमल विमलो मुक्ति सौख्याभिलाषः ॥१५॥ रे जीवाशप्रमोदं गुणवति करुणां प्राणिवर्गेषु शत्रौ । मध्यस्थत्वं च मैत्रीमय ववतिभवतो भीतिमक्षार्थ रोधं ॥ क्रोधादित्याग मात्मन् निनवचसिरॅति मोक्ष सौख्याभिलाषं । भव्यानुष्टान निष्टच्युतनिखिल मलं जैन धर्म कुरुष्वं ॥१६॥ बोधे बुद्धि निधेहि प्रमद गिरिकुलं भिद्विमुंच प्रकोपं । तत्वं चित्ते विधेहि व्यसनगतमते काम वृक्षं लुनीहि ॥ धर्मेध्यानं कुरुष्व प्रशमदमयमानेहिरे जीव तूर्णा । त्वंमानुष्यं पुनीहि प्रचरण विरते पाप पंकं धुनीहि ॥१७॥ संसारे सार जालेक्षण रुचि चपले यासिरे जीवमाशं । तारुण्याद्रेक रंम्यामतिमदसहितां भामिनी वीक्ष्यमोहात् ।। कुर्वाण स्तत्प्रसंगं विगलित सुमते मूढ भावने तस्मा। त्वस्याः संसर्ग तोषि प्रविरमयदिते सौख्य संघेस्ति घांछा ॥१८॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-ध्यान के विना चेतन स्वरूप की प्राप्ति नहीं । रे जीवत्वं कुरष्व व्रतचरणः पुण्यपात्रं पवित्रं । नेत्रं स्वकीयं जिन चरण युगालोकनात् संगमात्र। सीमंतिन्याः प्रयासि प्रशमगतमते हीयदि प्रीतियोगा। त्तहित्वं यासिनाशं गत घृण भुवने सत्वरं रेहत्मातात्मन् ॥१६॥ यद्वद्रागं करोषि स्मरशर निहतः कामिनीनां शरीरे । तद्वत्त्वंजीव धर्मेजिनवरगदितेभाव शुद्धया विद्ध्याः ।। तस्मात् किंकि नयासि प्रगतभवजरा मृत्यु दोषं सुखोघं । नोचे दःखौघमात्मन् भवभय जनक यासिरे नीच बुद्धि । २०॥ हित्वाभोगोपभोगान् स्थिरविशद धियामानसं जैन वाक्ये । हेयाहेयादिवस्तु प्रगट निपुणे धर्म बुद्धयाविदध्याः ॥ सर्वसंगविमुच प्रचलमसुखदं ध्वेस्त सद्धयान कार्य । तावद्रे जीवमूढ व्यपगत विपदं नित्यं सौखं प्रयासि ॥२१॥ संसारे सौख्य हेतु तुद मदन रिपुं मई यत्वं प्रलोभं। तत्त्वत्यक्त प्रणीते परिहर जरजनक भ्रातृभार्यादिमोहं । चारित्रं यत्पवित्रं शशिरुचिविशदं दर्शनज्ञान युक्त । तच्चित्ते संनिहिं प्रतिहत सुमते जीव जैन प्रणीतं ॥२२॥ यः कोपं कुरुतेनिमित्त रहितोलं सज्जनं निदति । स्तौतिस्वं किलभाषते च वितथं वाक्यंसदानिष्ट्र ॥ सर्वोढग विचक्षणेद्विरशन शश्वद्दया वज्जितो। रतमाभज जीव जीव मेचक मतिं कृष्णाहि वदुर्जनं ॥२३॥ जायंते चतुरंग मागजघटारमा रमा रम्यता। विक्षताः सुभ कीर्ति कांति महिमो दारत्व सौर्यादयः॥ लभ्यते जिन चक्रवति बल भृद्भोगेंद्र भोगायत । स्तं धर्म कुरु मुग्ध बहुनाकि साध्य मुक्ते नवा ॥२४॥ काव्यविशतिभिश्चतुभिरधिकररम्यै श्रु सल्लक्षण । ग्रंथ स्वात्मनि बोधनं भवपथ भ्रांति श्रमछेदनं ।। विक्षातो भुवनादि कोत्ति मुनियः संवेगिनामग्रणी । त शिष्यो भविबोध भूषण मुनिश्चक्रे ति- संवेगिनः ॥२५॥ इति भ० श्रीभुवन कोत्ति शिष्य ज्ञानभूषण विरचित आत्म सबोधनं समाप्तम् ।। [२०६] Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन भव सागर से तिरने के लिये खेवटिया के समान है। यति भावनाष्टकम् REMEMEMEMEENEMEMEMEENERY आदाय गत मात्म तत्व ममलं ज्ञात्वाथ गत्वावनं । निःशेषा मपिमोह कर्म जनितां हित्वा विकल्पावलो ॥ ये तिष्टंति मनोमरुच्चिद चले कत्व प्रमोदंगता। निः कंपागिरि वज्जयंतिमुनय स्ते सर्व संगोशिताः ॥१॥ चेतो वृत्ति निरोधनेन करण ग्रामं विधायो द्वसंत । संहत्यगतागतं चमरुतो धैर्य समाश्रित्यच ॥ पर्यकेनमया शिवाय विधिवत्सून्यैक भूभृद्दरी। मध्यस्थेन कदाचिदपित दृशास्थातव्यमंतर्मुखं ॥२॥ धूलो धूसरितं विमुक्त वसनं पर्यकमुद्रागतं । शांतं निर्वचनं निमीलित दृशं तत्त्वोपलंभेसति ।। उत्कीर्ण दृष दीवमांवन भुवि प्रांतो मृगाणां गणः । पश्यत्पुद्गल विश्मयो यवि तदा माहग जनः पुण्यवान ॥३॥ वासः शून्यमठे क्वचिन्निवसनं नित्यंककुपमडल । संतोषोधन मुन्नतं प्रियतमा शांतिस्तपोवर्तनं । मंत्री सर्व शरीरिभिः सहसदा तत्त्वक चितासुखं । चेवास्तेन किमस्ति मे समवतः कार्य न किंचित्परः ॥४॥ लब्धाजन्म कुले शुचौर्वर वपुर्ववश्रितं पुण्यतो। वैराग्यं चकरोतियः शुचितयो लोकेसएकः कृती ॥ ते नवोशित गौरवेन यदिवाध्यानामृतं पीयते । प्रासादे कलशस्तदा मणिमयेहैमः समारोपितः ॥५॥ ग्रीष्मे भूपर मस्तकाश्रित शिलां मूलंतरोः प्रावृषि। प्रोद्भूते शशिरे चतुःपथ पदं प्राप्तास्थिति कुर्वते ॥ येतेषां यमिनां यथोक्त तपसां ध्यान प्रशांतात्मनां । मार्गे संचरतो मम प्रशमिनः कालः कवायास्यति ॥६॥ [२०७] Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीप तत्व का भद्धान करना सम्पग्दर्शन है। भेदज्ञान विशेष संहतमनो वृत्तिः समाधिपरो। जायेताद्भुत धाम धन्याशमिनां केषांचिद त्राचलः ॥ धन मूर्ति न पतत्यपि त्रिभुवनेवह्निः प्रदीप्ते पिवा । येषां नोविकृतिर्मनागपि भवेत्प्राणेषु नश्यत्स्वपि ॥७॥ अंतस्त त्वमुपाधिज्जित महंत्याहार वाचापरं । ज्योतिर्यैः कलितसृतंच यतिभिस्ते संतुनः शांतयो।। येषांतत्सदनं तदेवशयन तत्संपदं सत्सुखं । तवृत्तिस्तदपि प्रियं स्तदखिलं श्रेष्टार्थ संसाधनं ॥८॥ पापारि क्षयकारि दातृ नृपति स्वर्गापवर्गश्रियं । श्रीमत्पंकज नंदिभि विरचितं चिच्चेतना नंदिभिः ।। भक्त्यायो यति भावादाष्टकमिदं भव्यास्त्रि संध्यापठे। कि कि सिध्यति वांछितन भुवने तस्यात्रपुण्यात्मनः ॥६॥ ॥ इति यति भावनाष्टक समाप्तमिति ॥ ॥ॐ नमो जिनाय ॥ - अहिंसा * तीन योग औ' तीन करण से, त्रस जीवों का वध तजना। - कहा अहिसाणुव्रत जाता, इसको नित पालन करना ।। 99 इसी अहिसाणुव्रत के है, कहलाते पञ्चातीचार । छेदन भेदन भोज्यनिवारण, पीड़न बहुत लादना भार ॥ 0 इसी अणुव्रत के पालन से, जाति पांति का था चॉडाल। * तो भी सब प्रकार सुख पाया, कीर्तिमान् होकर यमपाल ॥ नहीं पालने से इस व्रत के, हिसारत हो सेठानी। HD हुई धनश्री ऐसी जिसकी, दुर्गति नहिं जाती जानी ॥ Sha 鄉灣鄉霧灣聽聽聽聽聽聽 繼戀戀戀戀戀戀戀 [२०] Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष महल में पढ़ने के लिये सम्यग्दर्शन सीढ़ी है। wwwwwwwwwwwww HIVAYAVAAVAT __सर्वज्ञ स्तवनम् -श्री जयानन्द सूरि विरचितं देवाः प्रभो! यं विधिनात्म शुद्धयं । भक्त्याः सुमेरोः शिखरेऽभ्यर्षिचन ॥ संस्तूयसे त्वं स मया समोद । मुन्मील्यते ज्ञानदृशा यथामे ॥१॥ ध्यानानु कंपाधृतयः प्रधानो। ल्लासिस्थिराः ज्ञान सुखक्षमं च ।। सुनाथ ! संतित्वयि सिद्धि सौधा । धिरूढ ! कर्मोज्झित ! विश्वरुच्य ! ॥२॥ संसार भीतं जगदीश ! दीनं । मां रक्ष रक्षाक्षम ! रक्षणीयम् ॥ प्रौढ प्रसादं कुरु सौम्य दृष्टया । विलोकयस्वीयवचश्च देहि ॥३॥ नतेन्द्र ! विद्रावितदोष ! दत्त । दाना दरिद्रा अपि बीत बौःस्थ्या॥ त्वया कृता भूरिधना अनंत । ज्ञान ! द्विषान् सूक्षम! मंक्षु मासान् ॥४॥ द्विवै मुक्तिमना द्विपाद्या । स्तव त्रीपूजां विवधत् त्रिसंध्यम् ॥ कल्याणकानां जिन ! पंचपर्वी । माराध्य भव्यः क्षिपतेऽष्टकर्म ॥५॥ साम्येन पश्यस्त्रिजगद्विवेकी । श्रयन प्रभो ! पंच समित्युपैति ॥ अपाम्य सप्तधिसिद्धि मध्ये । सिद्ध जवेनोप भवादुपेशम् ॥६॥ भवेच्छु भायोप भवद्यथेष्टं । श्रये सनाथोऽस्मि नमोऽस्तु दोषाः ॥ दूरे प्रभावश्च गुरुः सुखं मे। विश्वाय॑ ! धी श्रीकृदुपद्विपादे ॥७॥ मुक्त्वा भवं सौख्यमवाप्तुमंगी। धीमांस्त्यजन मोहमघस्य हता। योमुच्य मानस्तमसा शिवीयेत् । त्वत्सेविता काम्यतु सोऽत्र नेतः ! ॥८॥ क्षेमेषु वृक्षत्सु घनाय मानो । हितः पितेवामृत वदुरापः॥ मम प्रभो ! भव्यतरं स्वभृत्यो । भावं जयानंदमय ! प्रदेयाः ॥६॥ इति जयानंद सूरि विरचितं विभक्त्युक्ति समास कियत्प्रत्ययोदाहरण रूपं श्री सर्वज्ञस्तवनं ॥ [२०] Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पष्टि संसार के पदार्थों में ममत्व नहीं करता। fro-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-1 । शलाकानिक्षेपण निष्काशन विवरणं lo-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0अर्हतं तत्पुराणं जिनमुनि चरणान् देवता क्षेत्रपालं । छायासूनोनिशायामभिषवनविधः पूजयित्वा जलायः॥ जातां हेम्नः शलाका कुशकुसुममयीं कन्यया दापयित्वा। तत्प्रातः पूजयित्वा पुनरथ शकुनं वीक्ष्यते तत्पुराणं-॥१॥ अत्युग्नशुभकार्यार्थ शनिवारो न याति चेत् । अन्यस्मिन्वासरे सौम्ये पुराणं प्राचयेत्सुधीः ॥२॥ दुर्वचः श्रवणे चैव दुनिमित्तावलोकने । क्षुत्ते प्रदीपनिर्वाणे पुराणं नार्चयेत्ततः ॥३॥ अष्टाब्दावां दशाब्दामजनितरजसं कन्यका वा नवोढा । मभ्यंगस्नान भूषां मलयजवसनालंकृतां पूजयित्वा ॥ मंत्रेवागदेवतायास्त्रिगुणित नवकं मंत्रयित्वा शलाकां । तद्दोा दापयित्वा तदनुच दलयोः कार्यमालोच्य मध्ये ॥४॥ कन्या न लभते यन्त्र न प्रौढा लभते यदा । - शलाका श्रावकः शुद्धः पुराणे प्रक्षिपेत्तदा ॥५॥ प्राक्पत्रे पूर्वपंक्तौ वा पद्ये पूर्वा क्षराणि च । सप्त हित्वा पठेच्छलोकमिति केषांमतं मतं ॥६॥ प्राक्पत्रसंपुटस्यांत पंक्तौ श्लोकाक्षराणि च । सप्त हित्वा पठेच्छलोकं पुराणं दोष वज्जितं ॥७॥ यः पूर्वाद्ध विसर्गवानपि तथा लिट्संयुतः सर्वथा । वैराग्यास्तुति रोगशोकमरणश्वनादिदोषान्वितः॥ पूर्वाधतगतो भवालि सहितस्त्यक्त्वान्य जन्माश्रयो। मानोनः प्रतिषेधवान्न शकुने श्लोकः प्रशस्तो भवेत् ॥८॥ [२१०] Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणी का मरण पुराने कपडे बदलने के समान है। रिक्तपत्रमपि जीर्णमक्षरं शीर्णपत्रमपि कूटलेखनं । सुप्रशस्तमपि पद्यमीदृशं ह्यामनंति न तु नीतिवेदिनः ॥६॥ पारावार पुरर्तुशैल सलिल क्रीडा कुमारोदयो। धानाल्हादविवाह भोगविजय श्रीचन्द्रसूर्योदयः । मंत्रालोचन नायकाभ्युदय युकपट्टाभिषेकोत्सवाः । शास्त्रावर्णनया पुराणशकुने पुण्यानुबंधोदयः ॥१०॥ धर्मो राजा तथा शाखा प्रजा चेति चतुविधा। जेष्ठ शुक्लस्य पंचम्यां शलाका दृश्यते बुधः ॥११॥ धर्मः श्वेत. १. राजा रक्तः २. शाखा हरिता ३. प्रजा पीता ४. ॥ मंत्रः॥ ॐ रों को श्री ह्रीं क्लीं ब्लें झाँ श्री श्री सरस्वति मरालवाहने वीणापुस्तकमालापन मंडित चतुर्भुजे मौक्तिक हारावलिराजितोरोज सरोज कुड्मल युगले वद वद वाग्वादिनि सर्वजन संशयापहारिणि श्रीमद्भारति देवि ! तुभ्यं नमोस्तु । ॥ इति श्री सरस्वती मत्रः ॥ इति शलाका वर्णनं संपूर्ण समाप्तं प्रभावना जैसे होवे वैसे भाई, दूर हटा जग का अज्ञान । भूल कर प्रकाश करदे विनाश तम, फैला दे शुचि सच्चा ज्ञान । तन मन धन सर्वस्व भले ही, तेरा इसमें लग जावे । वज्रकुमार मुनीन्द्र सदृश, तू तब प्रभावना कर पावे ॥ सम्यग्दर्शन सुखकारी है, भव सन्तति इससे मिटती। अङ्गहीन यदि हो इसमें तो, शक्ति नहीं इतनी रहती ॥ र विष की व्यथा मिटा दे ऐसी, शक्ति मंत्र में है प्रियवर । हे अक्षर मात्रा हीन हुए से, मंत्र नही रहता सुखकर ॥ [२११] Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज आत्मा में निःशंक व निर्मल होके ठहरना यही निःशंकित है। योगसारः श्री योगीन्द्र चन्द्राचार्य कृतः निर्मलध्याने परिस्थाय, कर्मकलंक दग्ध्वा । आत्मा लब्धोयेन परः तं परमात्मानं नत्वा ॥१॥ घाति चतुष्कस्य कृतविलयोऽनन्त चतुष्टय प्रतिष्ठितः । तं जिनेन्द्र प्रणम्य करोमि काव्यं सुष्ठु ॥२॥ संसारस्य भयभीतानां मोक्षस्य लालसितानां । आत्मसम्बोधनार्थ दोहकान् एकमनसा ॥३॥ कालोऽनादिः अनादि वो भवसागरोऽपि अनन्तः । मिथ्यादर्शनमोहिनः नापि सुखं दुःखमेव प्राप्तः ॥४॥ यदि विभ्यति चतुर्गतिगमनात् ततः परभावंत्यज । आत्मानं ध्याय निर्मलं येन शिवसुखं लभसे ॥५॥ त्रिप्रकारं आत्मानं मन्यस्व परभन्तो बहिरात्मानम् । परंध्याय अन्तः सहितं वाह्यं त्यज निन्तिम् ॥६॥ मिथ्यादर्शन मोहितः परमात्मनं न मनुते । स बहिरात्मा जिनभरिणतः पुनः संसारे भ्रमति ॥७॥ यः परिजानाति आत्मानं परं यः परभावं त्यजति । स पंडित आत्मानं मनुते स संसारं मुञ्चति ।'८॥ निर्मलो निष्कलः शुद्धः जिनः कृष्णः बुद्धः शिवः शान्तः । स परमात्मा जिनभणितः य जानोहि निर्धान्तम् ॥६॥ देहादयो ये परे कथिताःतान आत्मानं मनुते । स बहिरात्मा जिनभरिणतः पुनः संसारे भ्रमति ॥१०॥ [२१२] Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अतिन्द्रिय आनन्द में मग्न रहना ही निकांक्षिस अंग है। देहादयोये परे कथिताः ते आत्मां न भवन्ति । इति ज्ञात्वा जीव ! त्वं आत्मना आत्मानं मन्यस्व ॥११॥ आत्माना आत्मानं यदि मन्यसे ततः निर्वाणं लभसे। परं आत्मनं यदि मनुषे त्वंतहि संसारं भ्रमसि ॥१२॥ इच्छा रहितस्तपः करोषि आत्मना आत्मानं मनुषे । ततो लघु प्राप्नोसि परमति पुनः संसारे नायासि ॥१३॥ परिणामै बन्धोऽपि कथितः मोक्षोपि तैरेव विजानीहि । इति ज्ञात्वा जीव ! त्वं तान् भावान परिजानीहि ॥१४॥ अथ पुनरात्मानं न मनुषे पुण्यमपि करोषि अशेषम् । तथापि न प्राप्नोषि सिद्ध सुखं पुनः संसारे भ्रमसि ॥१५॥ आत्मदर्शनं एक परं अन्यत् न किंचिदपि विजानीहि । मोक्षस्य कारणं योगिन् ! निश्चयेनैतत् जानीहि ॥१६॥ मार्गणागुण स्थानानि कथितानि व्यवहारनयेन अपि दृष्टि । निश्चयनयेन आत्मानं मन्यस्वयेन प्राप्नोषि परमेष्ठिनं ॥१७॥ गृहव्यापारे परिस्थिताः हेयमहेयं मन्यते । अनुदिनं ध्यायन्ति देवं जिनं लघु निर्वाणं लभन्ते ॥१८॥ जिनं स्मर जिनं चिन्तय जिनं ध्यायस्व सुमनसा । तं ध्यायमानः परमपदं लभते एक क्षणेन ॥१६॥ शुद्धात्मनि च जिनवरे भेदं माकिमपि विजानीहि । मोक्षस्य करणं योगिन्! निश्चयेन एतत् विजानीहि ॥२०॥ यो जिनः तं आत्मानं मन्यस्व एष सिद्धान्तस्य सारः। इति ज्ञात्वा योगिन् ! त्यज मायाचारम् ॥२१॥ यः परमात्मा स एव अहं योऽहं स परमात्मा । इतिज्ञात्वा योगिन् अन्यन्मा कार्षीः विकल्पम् ॥२२॥ शुद्ध प्रदेशः पूरितः लोकाकाश प्रमाणः । तं आत्मानं अनुदिनं मन्यस्व प्राप्नोषि लघुनिर्वाणं ॥२३॥ निश्चयेन लोकप्रमाणं मन्यस्व व्यवहारेण स्वशरीरस्य । इमं आत्मस्वभावं मन्यस्व लघु प्राप्नोषि भवतीरम् ॥२४॥ [२१] 54 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मस्वरूप को मग्नता में साम्यभाव का अवलम्बन करना हो नियिचिकित्सा अंग है। चतुरशीतिलक्षे भ्रमितः कालमनाधनन्तं । परं सम्यक्त्वं न लब्धं जीव! एतज्जानीहि निन्तिम् ॥२५॥ शुद्धः सचेतनः बुद्धः जिनः केवलज्ञान स्वभावः । तं आत्मानं अनुदिनं मन्यस्व य दीच्छसि शिवलाभं ॥२६॥ यावन्न भावयसि जीव! त्वं निर्मलात्म स्वभावम् । तावन्न लभसे शिवगमनं यत्र भाति तत्र याहि ॥२७॥ यस्त्रिलोकस्य ध्येयो जिनः स आत्मा निजः उक्तः । निश्चयनयेन एवं भणितः एतज्जानीहि निर्धान्तम् ॥२८॥ बततपः संयममूलगुणैः मूढर्मोक्षो निरुक्तः । यावन्न जानाति एक परं शुद्ध स्वभाव पवित्रं ॥२९॥ यो निर्मलं आत्मानं मनुते व्रतसंयम संयुक्तम् । सलघु प्राप्नोति सिद्ध सुखं इति जिननायरक्तम् ॥३०॥ ततपः संयम शीलानि जीव! एतानि सर्वाणि व्यर्थानि । यावन्न जानाति एकं परं शुद्ध स्वभाव पवित्रम् ॥३१॥ पुण्येन प्राप्नोति स्वर्ग जीवः पापेन नरक निवासम् । । द्वयं त्यक्त्वा आत्मानं मनुते तेन लभ्यते शिववासः ॥३२॥ बत तपः संयमशीलानि जीव ! एतानि सर्वाणि व्यवहारेण । मोक्षस्य कारणं एकं मन्यस्व यः त्रिलोकस्य सारः ।।३३।। आत्माना आत्मानं यो मनुते यः परभावं त्यजति । स प्राप्नोति शिवपुरगमनं जिनवर एवं भगति ॥३४॥ षद्रव्याणि यानि जिनकथितानि नव पदार्थाः ये तत्वानि । व्यवहारेण जिनोक्तानि तानी जानीहि प्रयत्नेन ॥३॥ सर्वान् अचेतनान् जानीहि जीवं एक सचेतनं सारम् । यं ज्ञात्वा परममुनिः लघु प्राप्नोति भवपारम् ॥३६॥ यंः निर्मलं आत्मानं मनुते त्यक्त्वा सर्वव्यवहारम् । जिन स्वामी एवं भणति लघु प्राप्नोति भवपारम् ॥३७॥ [२४] Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो आत्मा के स्वरूप में मूढता रहित है, यथार्थ आत्मबोष सहित है वही अमूढ दृष्टि है। ... .. .... .. .. सोरठा जीवाजीवयोर्भे यो जानाति तेन ज्ञातं । मोक्षस्यकारणं एष भणति योगिन्!योगिना भरिणतः ॥३८॥ ॥चौपाई॥ केषु समाधि करोमि कान् । आर्चयामि वैरमवैरं कृत्वा कान् वंचयामि ॥ ......"। यत्र यत्र पश्यामि तत्र आत्मा ॥३६॥ ॥ दोहा ॥ तावत्कुतीर्थेषु परिभ्रमति धूर्तत्वं तावत्करोति । गुरोः प्रसादः यावन्न देहमेवं देवं मनुते ॥४०॥ तीर्थानि देवालयः देवोनापि एवं श्रुतकेवलिनोक्तम् । देहदेवालयो देवो जिनः एवं जानीहि निन्तिम् ॥४१॥ देहदेवालये देवो जिनः देवालये नास्ति ? हास्यं मुखस्योपरि भवतीह सिद्धभिक्षांनमति ॥४२॥ मूढ!देवालये देवोनापि नापि शिलायां लेपे चित्रे। देहदेवालये देवो जिनः तं बुध्यस्व समचेतसि ॥४३॥ तीर्थे देवालये देवो जिनः सर्वोऽपि कश्चित् भवति । देह देवालये यो मनुते स बुधः कोऽपि भवेत् ॥४४॥ यदि जरामरण करालितः तहि जिनधर्म कुरु । धर्म रसायनं पिबत्वं येन अजरामरो भव ॥४५॥ धर्मो न पठनेन भवेत् धर्मो न पुस्तक दर्शने ।। धर्मो न मठप्रदेशे धर्मो न कूर्चलंचने ॥४६॥ राग द्वेषौ द्वौ परिहरति य आत्मनि निवसति । स धर्मो जिनोक्तः यः पंचमति ददाति ॥४७॥ आयुर्गलति न मनो गलति नाप्याशागलति । मोहः स्फुरति नापि आत्महितः एवं संसारं भमति ॥४८॥ यथामनो विषयेषु रमते तथा यदि आत्मानं मनुते । योगी भणति रे योगिन् ! लघु निर्वाणं लभते ॥४६॥ [२१५] Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मिक गुणों को वृद्धि करना उपवहण अंग है। ......"1 यथा जर्जर नरकगृहं तथा बुध्यस्व शरीरम् । आत्मानं भावय निर्मलं लघु प्राप्नोषि भवतीरम् ॥५०॥ घांधे पतितं सकल जगत् नापि आत्मानं मनुते । तेन कारणेनेमे जीवाः स्फुटं न हिःनिर्वाणं लभन्ते ॥५१॥ शास्त्रं पठन्ति तेऽपि जडाः आत्मानं येन जानन्ति । तेन कारणेनेमे जोवाः स्फुटं नहि निर्वाणं लभन्ते ॥५२॥ मनः इन्द्रियः वि. राग प्रसारं निवारय सहजं उत्पद्यते सः ॥५३॥ पुद्गलोऽन्यः अन्यो जीवः अन्यः सर्वव्यवहारः। त्यज पुद्गलं ग्रहाण जोवं लघु प्राप्नोषि भवपारम् ॥५४॥ ये नापि मन्यन्ते जीवं स्फुटं ये नापि जीवं मन्यन्ते । ते जिननाथेन उक्ता न संसारं मुञ्चन्ति ॥५५॥ रत्नं दीपः दिनकरः दधि दुग्धं घृतं पाषाणं । सुवर्ण रौप्यं स्फटिकं अग्निः नव दृष्टान्तान् जानीहि ? ॥५६॥ देहादिकं यः परं मनुते यथा शून्याकाशं । स लघु प्राप्नोति ब्रह्म परं केवलं करोति प्रकाशम् ॥५७॥ पथा शुद्ध आकाशं जीव ! तथा आत्मा उक्तः । आकाशमपि जडं जानीहि जीव! आत्मानं चैतन्यवन्तं ॥५८।। नासानेण अभ्यन्तरे यः पश्यति अशरीरं । व्याघुटय जन्म न सम्भवति पिबति न जननीक्षारम् ॥५६॥ अशरीरोऽपि सशरोरो मुनिः इदं शरीरं जडं जानीहि । मिथ्यामोहं परित्यज"......" ........." ॥६॥ आत्मना आत्मानं मन्वानस्य किन्नेह फलं भवति । केवलज्ञानं विरिणमति शाश्वतं सुखं लभते ॥६१॥' ये परभावं त्यक्त्वा मुनयः आत्मनात्मानं मन्वते । केवलज्ञानस्वरूपं लब्ध्वा ते संसारं मुञ्चति ॥६२॥ धन्यास्ते भाग्यवन्तः बुधा ये परभावं त्यजन्ति । लोकालोक प्रकाशकरं आत्मानं विमलं जानन्ति ॥६॥ [२१६] Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने चित्त को अपने में स्थिर करना स्थितिकरण अंग है। mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm सागारोऽप्य नगारोऽपिय आत्मनि वसति । स प्राप्नोति लघु सिद्धसुखं जिनवर एवं भणति ॥४॥ विरला जानन्ति तत्वं बुधाः विरलाः शृण्वन्ति तत्वम् । विरला घ्यायन्ति तत्वं जीव! विरला धारयन्ति तत्वम् ॥६॥ अयं परिजनः न महान् पुनः अयं सुख दुःखस्य हेतुः । एवं चिन्तयन् किं करोति लघु संसारस्य छेदम् ॥६६॥ इन्द्रफरणीन्द्रनरेन्द्रा अपि जीवस्य शरणं न भवन्ति । अशरणं ज्ञात्वा मुनिधवला आत्मनात्मानं मचते ॥६॥ एक उत्पद्यते मियते एकः दुःख सुखं भुंक्त एकः । नरकं याति एकः जीव ! तथा निर्वाणं एकः ॥६॥ एक: यदि जायसे तर्हि परभावं त्यज । आत्मनं ध्यायस्व ज्ञानमयं लघु शिवसुखं लभस्व ॥६६॥ यः पापमपि तत्पापं मनुते सर्वः कोऽपि मनुते । यः पुण्यमपि पापं भणति स बुधः कोऽपि भवेत् ॥७०॥ यथा लोहमयं निगलं तथा सुवर्णमयं जानीहि । ये शुभं अशुभं परित्यजन्ति ते भवन्ति हि ज्ञानिनः ॥७१॥ यावत् मनोनिग्रंन्थः जीव ! तावत्त्वं निम्रन्थः । यावत्त्वं निग्रन्थः जीव ! ततः लभसे शिवपथं ॥७२॥ यथा बटमध्ये बीजं स्फुटं बीजे बटमपि जानीहि । तथा देहे देवं मन्यस्व यः त्रिलोके प्रधानः ॥७३॥ यो जिनः सोऽहं सोऽप्यहं एतत् भावय निर्भान्तम् । मोक्षस्य कारणं योगिन्! अन्यो न तंत्रः न मंत्रः ॥७४॥ द्वित्रि चतुः पंच द्वि नव सप्त षट् पंच-। चतुर्गुण सहितं यः मनुते एतल्लक्षणं यस्मिन् ॥७॥ 55 [२१७] Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानन्द में भ्रमरवत् आसक्त है वही वात्सल्य अंग है। द्वौ त्यक्त्वा द्विगुणसहितः य आत्मनि वसति । जिन स्वामी एवं भणति लघु निर्वाणं लभते ॥७६॥ त्रिरहितः त्रिगुणसहितः य आत्मनि वसति । स शाश्वतसुख भाजनं अपि जिनवरः एवं भणति ॥७७॥ चतुः कषाय संज्ञारहितः चतुर्गुण सहितः उक्तः । तं आत्मानं मनुस्व जोव ! त्वं येन परः भवसि पवित्रः ॥७॥ द्विपंच रहितं जानीहि द्विपंच संयुक्त । द्विपंचभिः यो गुणः सहितः स आत्मा निज उक्तः ॥७६॥ आत्मानं दर्शनं ज्ञानं मन्यस्व, आत्मानं चरणं जानीहि । आत्मा संयमः शीलं तपः आत्मा प्रत्याख्यानम् ॥८॥ यः परिजानाति आत्मानं परं स परित्यजति नितिं । तत्संज्ञानं मनुस्वत्वं केवलज्ञानिना उक्तम् ॥१॥ दर्शनं येन पश्यति बोधः आत्मानं विमलं मनुते । पुनः पुनः आत्मानं भावयति तत् चारित्रं पवित्रम् ॥२॥ रत्नत्रय संयुक्तो जीवः उत्तमतीर्थ पवित्रम् । मोक्षस्य कारणं योगिन ! अन्यो न तन्त्रः न मंत्रः । ८३॥ यत्र आत्मा तत्र सकलगुणाः केवलिन एवं भणंति । तेन कारणेन इमे जीवाः स्फुटं आत्मानं विमलं जानन्ति ॥४॥ एकाको इन्द्रिय रहितः मनोवाक्कायत्रिशुद्धः । 'आत्माना आत्मानं मनुस्वत्वं लघु प्राप्नोसि शिवसिद्धम् ॥५॥ यदि बद्ध मुक्त मण्यसे तहि बघ्नासि निर्धान्तम् । सहज स्वरूपे यदि रमसे तर्हि प्राप्नोसि शिवं शान्तम् ॥१६॥ सम्यग्दृष्टि जीवस्य दुर्गतिगमनं न भवति। । यदि यात्वपि तहि दोषो नापि पूर्वकृत्यं क्षपयति ॥७॥ [२१] Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मीक प्रभाव के विकास में दत्तचित्त है यही प्रभावना अंग है। आत्म स्वरूपे यो रमते त्यक्त्वा सर्वव्यवहारम् । सम्यग्दृष्टिः भवति लघु प्राप्नोति भवपारम् ॥१८॥ अजरोमरो गुणगणनिलयः यत्र आत्मा स्थिरः तिष्ठति । स कर्माणि नैव वध्नाति संचितपूर्वाणि विलीयते ॥६॥ यः सम्यक्त्व प्रधानः बुधः स त्रैलोक्ये प्रधानः । केवल ज्ञानमपि स लभते, शाश्वत सुखनिधानं ॥६॥ यथा सलिलेन न लिप्यते कमलिनीपत्रं कदापि । तथा कर्मणा न लिप्यते यदि रमते आत्मस्वभावे ॥१॥ यः समसुखनिलीनः बुधः पुनः पुनः आत्मानं मनुते । कर्मक्षयं कृत्वा सोऽपि स्फुट लघु निर्वाणं लभते ॥६२॥ पुरुषाकार प्रमाणं जीव आत्मानं इमं पवित्रं । पश्यति गुण निर्मलं निर्मल तेजसा स्फुरन्तं ॥६॥ यं आत्मानं शुद्ध अपि मनुते अशुचिशरीर विभिन्न । स जानाति शास्त्रं सकलं शाश्वतसुखलोनः ॥६॥ यः नापि जानाति आत्मानं परं नापि परभावं त्यजति । स जानन शास्त्राणि सकलानि न हि शिवसुखं लभते ॥६५॥ वनितं सकल विकल्पः परमसमाधि लभन्ते। यत् विदन्ति सानन्दं स्फुटं तत् शिवसुखं भरणन्ति ॥६६॥ यः पिंडस्थं पदस्थं बुधः रूपस्थमपि जिनोक्तम् । रूपातीतं मन्यते लघु येन परः भवति पवित्रः ॥६॥ सर्वे जीवाः ज्ञानमया यः समभावं मनुते । तत् सामायिक जानीहि स्फुटं जिनवर एवं भणति ॥६॥ राग द्वेषौ द्वौ परिहत्य यः समभावं मनुते । तत्सामायिक जानीहि स्फुटं केवली एवं भणति ॥६६॥ [२१६] Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन वचन में शंका नहीं करना निःशंकति अंग है। हिंसादीनां परिहारं कृत्वा यः आत्मानं स्थापयति । तद्वितीयं चारित्रं मनुस्व यत्पंचमति नयति ॥१०॥ मिथ्यात्वादिकं यः परित्यज्य सम्यग्दर्शन शुद्धिर्म । तत्परिहार विशुद्ध मनुस्व लघु प्राप्नोसि शिवशुद्धिम् ॥१०॥ सूक्ष्मस्य लोभस्य यः विलयः सूक्ष्मः भवेत्परिणामः । तत्सूक्ष्म चारित्रं मनुस्व तत् शाश्वत सुखधाम ॥१०२॥ अर्हन्तमपि तं सिद्ध स्फुटं तं आचार्य जानीहि । तं उपाध्यायं तमेव मुनि निश्चयेन आत्मानं जानीहि ॥१०॥ स शिवः शंकरः विष्णुः स रुद्रः अपि स बुद्धः । स जिनः ईश्वरः ब्रह्मा स अनंतः स्फुट सिद्धः ॥१०४॥ एतल्लक्षणलक्षितः यः परः निष्कलो देवः । देहस्य मध्ये स वसति तस्मिन् नान्यभेदः ॥१०॥ ये सिद्धा ये सेत्स्यन्ति ये सिध्यन्ति जिनोक्तं । आत्मदर्शनेन तेऽपि स्फुटं एतत् जानीहि निन्तिम् ॥१०॥ संसारस्य भयभीतानां योगिचंद्र मुनिना । आत्मसंबोधनाय कृतानि दोहकानि एकमनसा ॥१०७॥ ॥ इति श्री योगिचंद्रकृतो योगसारः समाप्तं ॥ जो ना जाने जीव क्या जो न कहै है जीव । सो नास्तिक भव भ्रमेंगे जिनवर कहत सदीव ॥ रत्नदीप रवि दूध दधि घृत पत्थर अरु हेम । रजत स्फटिक अग्नि नव उदाहरण जिय एम ॥ देह आत्मा भिन्न इम ज्यों सुवर्ण आकाश । पावै केवलज्ञान जिय तब निज करे प्रकाश ॥ यथा व्यौम निर्लेप शुचि त्यों शुचि आत्म प्रदेश । परजड़ अम्बर आत्मा चेतन है परमेश ॥ घाण दृष्टि अन्तर लखे देह रहित जो जीव । फिर न जन्म घर पय पिये शिवथल रहै सदीव ॥ [२२०] Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी भोगों को वांक्षा नहीं करना नि.कालित अंग है। * सिद्धान्त सारः के (श्री जिनेन्द्राचार्य प्रणीतः) PAKC AKARACHAR MERIKA MAHA जीव गुण स्थान संज्ञा पर्याप्ति प्रमाण मार्गणा नवोनान् । सिद्धान्तसारमिदानी भणामि सिद्धान् नमस्कृत्य ॥१॥ भावार्थ-चतुर्दश जोव समास, चतुर्दश गुणस्थान, चार संज्ञा, षट् पर्याप्ति, दश द्रव्य प्राण, १४ मार्गणा, नवशेषः का वर्णन, सिद्ध परमात्मा को नमस्कार कर इस सिद्धान्त सार ग्रन्थ को कहते हैं ॥१॥ सिद्धानां सिद्धगतिः दर्शनं ज्ञानं च केवलं क्षायिक। सम्यक्त्वमनाहारकं शेषाः संसारिणि जीवे ॥२॥ भावार्थ-सिद्ध परमात्मा के (१) सिद्ध गतिः (२) दंसणः (३) ज्ञानः (४) क्षायिक सम्यक्त्व (५) अनाहारकत्वः यह पाँच मार्गणा है शेष नव संसारी जीवों में सर्वत्र देखो। जीवगुणान् तथा योगान् सप्रत्ययान मार्गणासु उपयोगान् । जीवगुणेष्वपि योगान् उपयोगान् प्रत्ययान वक्ष्ये ॥३॥ भावार्थ-सर्व ग्रन्थ में १४ मार्गणा में १४ जीव समासों का १४ गुण स्थानों में वर्णन है-ति आदि १४ मार्गणा में १५ योग का ५७ आश्रवों का १२ उपयोगों को तथा १४ गुण स्थानों में १५ उपयोगों का तथा जीव समासादि में सर्व प्रत्यय उपयोगों का वर्णन करते हैं। त्रिगतिषु संज्ञियुगलं चतुर्दशतिर्यक्षु द्वौ विकलेषु । एकपंचाक्षेऽपि च चत्वारः पृथिवीपंचके चत्वारः॥४॥ भावार्थ-नरक १ मनुष्य १ देवगति १ ये तीनो में पंचेन्द्रि संज्ञि १ पर्याप्त २ [२२१] 56 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे के दोषों को प्रगट न करना उपगृहन है। अपर्याप्त २ जीव समास होते हैं । तिर्यच गती में १४ जीव समास हैं। वे ऐसे-उक्तं वादरसूक्ष्मैकेन्द्रिय, द्वित्रिचतुरिन्द्रिया संज्ञिसंज्ञिनश्च । पर्याप्तापर्याप्ता एवं ते चतुर्दश जीवाः ॥१॥ दो-तीन-चार-इन्द्रिय में दो पर्याप्त अपर्याप्त समास हैं-एक-पंच-इन्द्रियों में चार हैं वे ऐसे एकेन्द्रि में सूक्ष्म १ वादर १ पर्याप्त १ अपर्याप्त १ पंचेन्द्रि में संज्ञि १ असंज्ञि १ पर्याप्त १ अपर्याप्त १ है। एकेन्द्रि-पृश्चि १ अप १ तेज १ वायु १ वनस्पति १ पाँचों में चार प्रकार हैं । मार्गणा उक्तंच-गाथा गई-इंदिये चकाए जोगे वेए कसायणाणे य । . संजमदंसण लेस्साभविया सम्मत्तसण्णिआहारे ॥१॥ दश त्रसकाये संज्ञी सत्यमनआदिषु सप्तयोगेषु । द्वीन्द्रियादिपूर्णाः पंचाष्टमे सप्त औराले ॥५॥ भावार्थ-त्रसकाय में दश जीव समास हैं वे ऐसे द्वि-त्रि-चतु-पचेन्द्रि चारों पर्याप्त अपर्याप्त करै ८ पंचेन्द्रि संज्ञि असंज्ञि २ कुल १० । सत्य मनोयोग, असत्य, उभय, अनुभय, सत्य वचन योग, असत्य, उभय, सात योगों में एक संज्ञि तथा एक पर्याप्तक होते हैं । अनुभय वचन योग में-द्वि-त्रि-चतु-पंचेन्द्रि-संजि-पर्याप्त-असंज्ञि ५ है। औदा रिक शरीर में सात जीव समास हैं-एकेन्द्रि सूक्ष्म वादर पर्याप्त २ विकलत्रय ३ पंचेन्द्रि संज्ञि-असंज्ञि पर्याप्तः-७ मिश्र अपूर्णसप्त एकसंज्ञी विगूर्विकादि चतुषु च । कार्मणे अष्टौ स्त्रीपुंसोः पंचाक्षगतचत्वारः ॥६॥ भावार्थ-औदारिक मिश्रकाय योग में एकेन्द्रि से पंचेन्द्रि सं० असं० तक अपर्याप्त ७ केवलिसमुद्धाते संज्ञि पर्याप्ते १ ऐसे आठ हैं। वैक्रियक काय योगात एक संज्ञी पर्याप्त १ वैक्रियिक मिश्रयोगे पंचेन्द्रि संज्ञि अपर्याप्त १ आहारक काय योगे-पंचेन्द्रिसंज्ञि [२२२] Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेय उपादेय का विचार करना अमूढ दृष्टि अंग है। पर्याप्त १ आहारक मिश्र काय योग में-पंचेन्द्रि संज्ञि अपर्याप्त १ जीव समास हैं । औदारिक मिश्र काय योग में जो आठ होते है वे ही-कार्माण काय योग में आठ ८ जोव समास हैं। पुरुष वेद में-तथा स्त्री वेद मे-चार-चार-पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्त १ अपर्याप्त १ असंज्ञि पर्याप्त १ असंज्ञि अपर्याप्त १ऐसे है। पंढे क्रोधे माने मायालोभयोः च कुमति कुश्रुतयोः च । चतुर्दश एकोविभंगे मति श्रुतावधिषु संज्ञिद्विकं ॥७॥ भावार्थ-नपुंसक वेद मे चौवह जीव समास हैं । क्रोध में, मान में, माया में, लोभ में चौदह जीव समास हैं । कुमति-कुश्रुत में चौदह जीव समास है । कुअवधि में-विभंग में-एकः पंचेन्द्रिय संज्ञि पर्याप्तक । सुमति-श्रुतिः अवधिज्ञान मे पंचेन्द्रि सज्ञि पर्याप्त १ अपर्याप्त १ ऐसे दो जीव समास होते है। मनः केवलयोः संज्ञी पूर्णः सामायिकादिषट्सु तथा चः। चतुर्दश असंयमे पुनः लोचनावलोकने षट्कम् ॥८॥ भावार्थ-मनपर्यय केवलज्ञान में-पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्त १ एक-एक जीव समास है। देश संयमे,-सामायिक-च्छेदोपस्थापना-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-पथाख्यात पटसंयम में प्रत्येकी-संक्षिपर्याप्त एक । असंयम सातवे में चौदा जीव समास होते हैं। चक्षुर्दर्शने षट्कं-चतुइन्द्रियपर्याप्त १ अपर्याप्त १=पंचेन्द्रिय संक्षिपर्याप्त १ अपर्याप्त १=पंचेन्द्रि असंज्ञि पर्याप्त १ अपर्याप्त १=ऐसे छह जीव समास हैं। चतुर्दश अचक्षुरालोके द्वौ एकोऽवधिकेवलालोके। कृष्णादित्रिके चतुर्दश तेजआदिषु संज्ञिद्रिकं च ॥६॥ भावार्थ-अचक्षु दर्शने चौदा जीव समास हैं। अवधि दर्शन में-पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्त १ अपर्याप्त १-दो है। केवल दर्शन में-पंचेन्द्रिसंज्ञि पर्याप्त १ समास है। कृष्ण-नील-कपोत-तीन अशुभ लेश्या में-चौदा जीव समास हैं। पीत-पद्मशुक्ल तीन शुभ लेश्या में प्रत्येकी-पंचेन्द्रिसंज्ञि पर्याप्त १ अपर्याप्त १ दो हैं । [२२३] Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनधर्म से ग्लानि नहीं करना निर्जुगुप्सा है । चतुर्दश भव्याभव्ययोः द्वौ एकः क्षायिकादित्रिषु मिश्र। अपूर्णाः सप्त पूर्णः संज्ञी एकः चतुर्दश च द्वयोः क्रमेण ॥१०॥ भावार्थ-भव्य जीव में-अभव्य जीव में चौदह जीव ससास हैं। क्षायिक-उपशमवेदक सम्यक्त्व में पंचेन्द्रि संझि पर्याप्त १ अपर्याप्त १ ऐसे दो हैं। मिश्र सम्यक्त्व में-पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्त १ होता है। मिश्र में जन्म मरण नहिं करके अपर्याप्त का अभाव जानो । सासादनसम्यक्त्व में-एकेन्द्रि-द्वि-त्रि-चतु-पंचेन्द्रि-संज्ञि-असंजि-सर्व अप प्ति ऐसे ७ तथा-पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्त एक-कुल ८ जानो। मिथ्यात्व सम्यक्त्व मेंएकेन्द्रियादि चौदह जीव समास होते हैं । संज्ञयसंज्ञिनोः द्वौ च आहारानहारकयोः विज्ञयाः। जीवसमासाश्चतुर्दश अष्टावेवजिनः निर्दिष्टाः ॥११॥ भावार्थ-संज्ञीजीव में-पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्त १ अपर्याप्त १ दो है। असंज्ञि जीव मैं-पर्याप्त-अपर्याप्त दो हैं । आहारक में चौदह जीव समास है। अनाहारक में आठ हैं वे ऐसे-एकेन्द्रि-द्वि-त्रि-चतु-पंचेन्द्रि-संज्ञि-असंज्ञि सातो अपर्याप्त-एकः संज्ञि पंचे न्द्रिपयाप्तक ८ आठ है । क्वचिदविग्रहगति अपेक्षा-क्वचित केवलिसमुद्घात अपेक्षा से उक्तंच-विग्रहगतिमापन्नाः समुद्धातकेवल्ययोगिजिनाः ।। सिद्धाश्चानाहारकाः शेषाः आहारका जीवः ॥१॥ ॥ इति चतुर्दशमार्गणासुजीवसमासाश्चतुर्दश संक्षेपेण कथिताः ।। अथ मार्गणामु गुणस्थाननिरूपणार्थ नारकतिर्यनरामरगतिषु चतुःपंच चतुर्दश चत्वारि । एकद्वित्रिचतुरक्षेषु च मिथ्यात्वं द्वितीयं चोपपादे ॥१२॥ भावार्थ-नरक-तियंच-मनुष्य-देव-चारो गति में क्रम से चार-पांच-चौदह-चार-गुण स्थान यथा संभव होते हैं । एकेन्द्रि में-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रि में-एक मिथ्यात्व गुण स्थान होता है। एकेन्द्रि से चतु इन्द्रि तक उत्पत्तिकाल में अपर्याप्त समय में सासादन गुण स्थान होता है कथंचित । [२२४] Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मार्ग से च्युत होते हुये को स्थिर करना स्थितिकरण अंग है। चतुर्दश पंचाक्षत्रसयोः धरादित्रिषु द्ध एकं तेजः पवनयोः। सत्यानुभययोः त्रयोदश मनो वचनयोः द्वादशान्येषु ॥१३॥ भावार्थ-पंचेन्द्रिय के चौदाहि गुणस्थान होय हैं । इति इन्द्रिय मार्गणा ॥ त्रसकाय के मिथ्यात्वादि चौदाहि गुणस्थान होय हैं । पृथ्वी-अप-वनस्पति कायों के मिथ्यात्व, सासादन दो गुण स्थान होते हैं । तेज-पवन कायों के एक मिथ्यात्व गुण स्थान होता है। इति कायमार्गणा ॥ सत्यानुभयमनयोग में-मिथ्यात्वादि तेरह गुण स्थान होते हैं। सत्य १ अनुभय १ वचनों में-तेरह तक हैं । असत्यमनयोगे-उभयमनयोगे-असत्य वचनउभय वचन योग-चारों में प्रत्येक को मिथ्यात्वादि क्षोण कषाय पर्यन्त बारह गुण स्थान होते हैं। औदारिके च त्रयोदश मिश्र कार्मणे च मिश्र त्रिकयोगिनः। वैर्विकद्विके चतुः त्रिंक प्रमत्तमाहारकद्विके च ॥१४॥ भावार्थ-औदारिक काय योग में मिथ्यात्वादि तेरह गुण स्थान होते है। औदारिक मिश्रकाय योग मे-कार्माणकाय योग में-मिथ्यात्व १ सासादन १ अविरति १ संयोग केवलि १ ऐसे चार प्रत्येक में जानो। उक्तंच-'मिश्रे क्षीणे संयोगे च मरणं नास्ति देहिनाम्' इति वचनात । वैक्रियकाय योग में-पहिले चार गुण स्थान होते है, वैक्रियकमिश्रकाय योग में- मिथ्यात्व, सासादन, अविरति १ ऐसे तोन गुण स्थान होते है। आहारककाय योग में, आहारकमिश्रकाय योग में-एक छट्टा गुरण स्थान होता है । इति योग मार्गरणा ॥ वेदत्रिके क्रोधत्रिके नवगुणस्थानानि दशकं तथा लोभे । अज्ञानत्रिके द्वी मतित्रिके चतुर्थादिनव चैव ॥१५॥ भावार्थ-वेद तीनों में-स्त्री-पु०-न०-में पहिले से नव गुण स्थान होते है । इति वेद मार्गणा ॥ क्रोध, मान, माया तीनों कषाय नववे गुण स्थान पर्यंत होते है, लोभ कषाय दश गुण स्थान पर्यंत होते हैं । इति कषाय मार्गणा पूर्ण । कुमति कुश्रुत, कुअवधिज्ञान, मिथ्यात्व सासादन दोनों गुण स्थानों में होते हैं। सुमति, सुश्रुत, सुअवधिज्ञान अविरत चौथे से बारहवें क्षीणकषाय तक नव गुण स्थानों में होते हैं। [२५] 57 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मात्माओं के साथ गौषत्सवत् प्रम. करमा वात्सल्य अंग है। सप्त मनः' पर्यये केवलज्ञाने योगिद्विकं प्रमत्तादीनि । ॥ चत्वारि सामायिकयुगले प्रमत्तयुगलं च परिहारे ॥१६॥ • भावार्थ-मनपर्यय ज्ञान छट्टे से बारहवे तक सात गुण स्थान में होता है। केवलज्ञान-तेरा, चौदा ऐसे दो गुण स्थान में होता है । इति ज्ञान मार्गणा ॥ सामायिक च्छेदोपस्थापन, छ8 से नववे तक चार गुण स्थान में होते हैं। परिहारविशुद्धिसंयम , सातवें दो गुण स्थान मे होता है। सूक्ष्मे सूक्ष्म अन्तिम चत्वारि भवन्ति यथाख्याते। चरिता चरिते एकं पंचमकं असंयमे चत्वारि ॥१७॥ भावार्थ-सूक्ष्मसाम्पराय संयम एकदशवे गुण स्थान में होता है । यथाख्यात संयम ग्यारह से चौदा चारों गुण स्थानों में होता है । देश संयम, पाँचवें गुण स्थान में होता है । असंयम सातवां पहिले से चौथे चार गुण स्थानों में होता है ।। इति संयम मार्गणा पूर्ण ॥ द्वादश चक्षुर्द्विके नव अवधौ द्वे केवलालोके । कृष्णादित्रिके चत्वारि तेजः पद्मयोः सप्तगुणाः॥१८॥ भावार्थ-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन दोनों पहिले से बारहवें तक बारह गुण स्थानों में होते हैं । अवधि दर्शन चौथे बारहवें तक नव गुण स्थानों में होता है। केवलदर्शनतेरह, चौदह दो गुण स्थानों में होता है । इति दर्शन मार्गणा ॥ कृष्ण, नील, कापोत तीन लेश्या पहिले चार गुण स्थानों में होती हैं। पीत, पद्म, दोनों लेश्या प्रमतेपर्यन्त सातो गुण स्थानों में होती है। सितलेश्यायां त्रयोदश भव्ये सर्वाणि अभव्ये मिथ्यात्वं । एकादश चत्वारि अष्टौ क्षायिक त्रये तथान्येषु निजैकम् ॥१६॥ भावार्थ-शुक्ल लेश्या तेरह गुण स्थानों में होती है, ॥ इति लेश्या मार्गणा ॥ भव्य जीव के चौदाहि गुण स्थान होते हैं। अभव्य जीव के पहिला एकहि गुण स्थान होता है । ॥ इति भव्य मार्गणा ॥ क्षायिक सम्यक्त्व, चौथे से चौदह तक ग्यारह गुण २ि२६] Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजादि से जिनधर्म की प्रभावना करना प्रभावना अंग है। स्थान हैं । वेदक सम्यक्त्व चौथे से सातवें तक चार गुण स्थान होते हैं, उपशमसम्यक्त्व चौथे से ग्यारवा तक आठ गुण स्थान में रहता है, मिथ्या सम्यक्त्व पहिले एक में, सासादन सम्यक्त्व दूसरे एक में, मिश्र सम्यक्त्व तीसरे एक गुण स्थान में होता है, ॥ इति सम्यक्त्व मार्गणा ॥ संज्ञयसंज्ञिषु द्वादश प्रथमादित्रयोदश पंचगुणाः क्रमशः । आहारकानाहरके एतेषु इति मागणस्थानेषु गुणाः ॥२०॥ भावार्थ-संज्ञि जीव प्रथम से बारहवे गुण स्थान तक है। असंज्ञि जीव के पहिले दो गुण स्थान होते हैं। इति संज्ञि मार्गणा ॥ आहारक प्रथम से तेरहवें गुण स्थान तक होते हैं-संयोग केवली के समुद्धात अपेक्षा से है। अनाहारक-मिथ्यात्व, सासादन, अविरति, संयोग केवली, अयोग केवली, ये पांच गुण स्थान में-पहिला, दूसरा, चौथा, इनमें विग्रह गति अपेक्षा, तेरावा, समुद्धात अपेक्षा, चौदा में स्वभासे हैं । इस प्रकार मार्गण स्थान में गुण स्थानों का वर्णन पूर्ण हुआ ॥ इति १४ मार्गणा में १४ गुण स्थान वर्णन ॥ अथ १४ मार्गणा में १५ योग वर्णन आहारकौदारिकद्विकैः हीना भवन्ति नारकसुरेषु । आहारक वैक्रियिकद्विकयोगेन एकादश तिरश्चि ॥२॥ भावार्थ-नरक गती में, देवगती में- योग मनोयोग चारों, बचन योग चारों, वैकियककाय योग १ वैक्रियक मिश्र १ कार्मणकाय योग, ग्यारा होते हैं। तिर्यंच गती मेंमनोयोग ४ वचन योग ४ औदारिक १ औदारिक मिश्र १ कार्माणकाय योग १ कुल ग्यारा होते हैं। वैगूर्विकद्विक रहिता मनुजे त्रयोदश एकाक्षकायेषु । पंचसु औदारिकद्विकं कार्मणं त्रयो विकलेषु ॥२२॥ भावार्थ-मनुष्य गती में वैक्रियक १ मिश्र १ दो छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं ॥ इति गति मार्गणा । पाँचो एकेन्द्रि-पृथ्वी १ अप १ तेज १ वायु १ वनस्पति १ में तीन औदारिक १ मिश्र १ कार्माणकाय योग १ होते हैं। विकलत्रय में आगे बताते है। [२२७] Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन जीव का परम हितकारी है। अनुभय वचनेन युताः चत्वारःपंचाचे तु पंचदश योगाः। त्रसकाये विज्ञयाः पंचदश योगेषु निजैकः ॥२३॥ भावार्थ-विकल त्रय के औदारिक १ मिश्र १ कार्माण १ अनुभय वचन योग १ ऐसे चार योग प्रत्येक दो इन्द्रि-तीन इन्द्रि-चार इन्द्रि जीवों के होते है। पंचेन्द्रिय के-पंद्रह योग होते हैं नाना जोव अपेक्षा से । त्रसकाय में सामान्य से पंद्रह योग होते हैं, इन्द्रिप मार्गरणा, काय मार्गणा दो हुए, पंद्रह योगों में अपने-अपने योग होते है । ॥ इति योग मार्गणा ॥ आहारकद्विक रहिताः त्रयोदश स्त्री नपुंसकयोः पुसि। क्रोध चतुष्के सर्वे अज्ञानद्रिके त्रयोदश भवन्ति ॥२४॥ भावार्थ-स्त्री वेद में-नपुंसक वेद में-आहारक तथा आहारक मिश्र ये दो छोड़ शेष तेरह योग होते हैं पुरुष वेद में सर्व पंद्रह योग हैं ॥ इति वेद मार्गणा ॥ क्रोधमान-माया-लोभ-चारों कषायों में पंद्रह योग हैं ॥ इति कषाय मार्गणा ॥ कुमति-कुश्रुतिअज्ञान में-आहारक दोनों छोड़ तेरह योग होते हैं । मिश्रद्विकाहारद्विक कार्मणविहीना भवन्ति विभंगे। दश सर्वे ज्ञानत्रिके मनः पर्यये प्रथमनवयोगाः ॥२५॥ भावार्थ-कुअवधि-विभंग ज्ञान में औदारिक मिश्र १ वेक्रियक मिश्र १ आहारक २ नो, कार्माण १ ये ५ रहित शेष दश योग होते हैं। सुमति-श्रुति-अवधि तीनों शानों में पंद्रह योग हैं, मनःपर्यय ज्ञान में आठौ मन वचन और एक औदारिक काय योग कुल नव होते हैं। औदारिकः तन्मिश्रः कार्मणं सत्यानुभयानां च । मनोवचनानां चतुष्कं केवलज्ञाने सप्त एकादशकं ॥२६॥ भावार्थ-केवलज्ञान में औदारिक १ मिश्र १ सत्य मन १ सत्य वचन १ अनुभय मन १ अनुभय वचन १ कार्माण १ सब सात योग होते हैं, समुद्धात अपेक्षा से। [२२८] Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार रोग नाश करने के लिये सम्यग्दर्शन परमौषधि है। उक्तंच दंडद्विके औदारिकं कपाट युगले च प्रतरसंवरणे । मिश्रौदारिकं भणितं शेषत्रिके जानीहिकार्मण ॥ ॥ इति ज्ञान मार्गरणा ॥ कार्मणद्वि वैक्रियिक मिश्रौदारिकोनाः प्रथमयम युगले । परिहारद्रिके नवकं देशयमे चैव यथाख्याते ॥२७॥ भावार्थ-सामायिक १ च्छेदोस्थापना १ दोनों संयम में - आठ-मन वचन योग ८ औदारिक १ आहारक व मिथ २ दोनों मिले ग्यारह योग हैं, परिहार विशुद्धि १सूक्ष्मसाम्पराय १ दोनों में-आठ मन वचन योग, एक औदारिक काय योग ऐसे नौ होते हैं । अगे वैक्रियिक द्विकाहरकद्विकोना एकादश असंयमे योगाः । त्रयोदश आहारक द्विकरहिताः चक्षुषि मिश्रोनाः ॥२८॥ भावार्थ-यथाख्यात चारित्र में-मन वचन ८ आठ, औदारिक १ मिश्र १ कार्मण १ ये ग्यारह होते हैं। असंयम में-आहारक २ दोनो छोड़ शेष तेरह हैं । ॥ इति संयम मार्गणा ॥ द्वादश अचक्षुरवध्योः सर्वे सप्तैव केवलालोके । कृष्णादित्रिके त्रयोदश पंचदश तेज-आदिक चतुष्के ॥२६॥ भावार्थ-चक्षु दर्शन में बारह, वैक्रियक मिश्र १ औदारिक मिश्र १ कार्मण १ ये तीन रहित है । अचक्षु दर्शन में अवधि दर्शन में सर्व पंद्रह योग है। केवल दर्शन मेंज्ञान के अनुसार सात हैं ॥ इति दर्शन मार्गणा ॥ कृष्ण-नोल-कापोत-तीनों लेश्या मेंआहारक दोन खेरिज तेरह होते हैं। पीत-पद्म-शुक्ल में भव्य में-सर्व पंद्रह योग होते हैं। त्रयोदशाभव्ये सर्वे क्षायिकयुग्मे खलु उपशमे सम्यक्त्वे । सासादन मिथ्यात्वयोः त्रयोदश अत्रिमिश्राहारकर्मणा ॥३०॥ भावार्थ-अभव्य जीव में आहारक दो के सिवाय तेरह योग हैं, ॥ इति लेश्या (२२९] Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारित रूपी दु:स को नाश करने के लिये सम्यग्दर्शन महानिधि है। मार्गणा-भव्य मार्गरणा ॥ क्षायिक-वेदक सम्यक्त्व दोनों में पंद्रह योग हैं, उपशममिथ्यात्व-सासादन में आहारक दोनों छोड़ तेरह योग हैं। मिश्र दश सज्ञिनि सर्वे चत्वारोऽसंज्ञिनियोगाः। गतकार्माणा आहारके अनाहारके कार्मण एकः ॥३१॥ भावार्थ-मिश्र सम्यक्त्व में दस योग हैं-आठ मन वचन योग, औदारिक १ वैक्रियिककाय योग ये है ॥ इति सम्यक्त्व मार्गणा ॥ संज्ञी जीव में सर्व योग होते हैं, असंज्ञि में औदारिक १ मिश्र १ कार्मण १ अनुभय वचन योग १ ये चार हैं ॥ इति • संज्ञि मार्गणा ॥ आहारक जीव के कारण छोड़ चौदह योग है, अनाहारक में विग्रह गति में एक कार्मणकाय योग होता है ॥ इति आहारक मार्गणा ।। ॥ इति मार्गणासु–पचदशयोगाः समाप्ताः ।। अथ चतुर्दशमार्गणा में द्वादग उपयोग:नव नव द्वादश नव गति चतुष्के त्रय एक द्वित्र्यक्षे । चतुरक्षेउपयोगाश्चत्वारो द्वादश भवन्ति पंचाचे ॥३२॥ भावार्थ-नरक गती में ६ नौ उपयोग कुज्ञान ३ सुज्ञान ३ चक्षु-अचक्षु-अवधि-३ दर्शन होते हैं, तिर्यच गती में इसी प्रकार ६ है, मनुष्य गती में पूर्वोक्त ६ तथा-मनपर्यय ज्ञान १ केवल ज्ञान १ केवल दर्शन १ कुल बारह उपयोग होते हैं। देव गती में नरक मति अनुसार ६ हैं ॥ इति गति मार्गणा ॥ एकेन्द्रि, द्वइन्द्र, तीन इन्द्रो मेंकुमति १ कुश्रुत १ अचक्षु दर्शन १ ये तीन हैं । चतुः इन्द्रि जीव में-कुमति-कुश्रुत ज्ञान २ अचा-चक्षु दर्शन २ मिल चार होते हैं। पंचेन्द्रि मनुष्य अपेक्षा बारह होते हैं ।। इति इन्द्रिय मार्गणा ॥ कुमतिः कुश्रुतं अचक्षुः त्रयोऽपि भ्वप्तेजो वायुवनस्पतिषु । द्वादश त्रसेषु मनोवचनसत्यानुभयेषु द्वादशापि ॥३३॥ भावार्थ-स्थावर पंचकायों में प्रत्येकको-कुमति १ कुश्रुत १ अचक्षु दर्शन १ तीन हैं। त्रसकाय में बारह उपयोग होते हैं ॥ इति काय मार्गणा ॥ सत्य वचन योग १ [२३०] Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापाधव को रोकने के लिये सम्यग्दर्शन पहरेदार है। अनुभय बचन १ सत्य मन योग १ अनुभयमन १ चारों योगों में बारह उपयोग होते हैं। दशकेवलद्विकं वर्जयित्वा योग चतुष्के द्वादश औदारिके। केवलद्विक मनापर्ययहीना नव भवन्ति वैक्रियिके ॥३४॥ भावार्थ-असत्य मन योग में १ उभयमन योग में १ असत्य वचन योग १ उभय वचन योग में १ चारों में केवल ज्ञान १ दर्शन १ दो रहित दश उपयोग होते है । औदारिक काय योग मे बारह है, वैक्रियिककाय योग में केवल ज्ञान १ दर्शन.१ मनपर्यय ज्ञान १ ये तीन रहित ६ नौ होते हैं। चक्षुर्विभंगोनाः सप्तमिश्र आहारकयुग्मे प्रथमं । दर्शनत्रिकांज्ञानत्रिक कार्मणे औदारिक मिश्र च ॥३५॥ भावार्थ-वैक्रियिक मिश्रकाय योग में-कुमति-कुश्रुत-सुमति-श्रुत-सुअवधि ज्ञान, पाँच अचक्षुदर्शन-अवधि दर्शन २ मिल सात होते है, आहारक-मिश्र-दो में-सुमति, श्रुति, अवधि, चक्षु-अचक्षु-अवधि दर्शन-ये छह उपयोग होते हैं । विभंगचक्षुर्दर्शन मनः पर्ययहीना नव वधू पंडयोः । मनः केवलद्विकहीना नव दश पुसि कषायेषु ॥३६॥ भावार्थ-कार्माणाकाययोगे-औदारिक मिश्रकाय योग में-विभंग ज्ञान, चक्षुदर्शन मनः पर्यय ज्ञान रहित शेष नौ उपयोग होते हैं ॥ इति योग मार्गणा ॥ स्त्री वेदनपुंसक वेद में-मनः पर्यय ज्ञान-केवल ज्ञान-केवल दर्शन ये तीन छोड़ शेष नौ होते हैं। पुरुष वेद में केवल ज्ञान, केवल दर्शन दो सिवाय दश होते हैं ।। इति वेद मार्गणा॥ क्रोध मान माया लोभ में केवल ज्ञान दर्शन दो विना दस होते है ॥ इति कषाय मार्गणा॥ अज्ञानत्रिके तान्येव त्रीणि चक्षुर्युग्मं पंच सप्त चतुषु । चत्वारि त्रीणि ज्ञानानि दर्शनानि पंचमज्ञानेऽन्तिमौ द्वौ ॥३७॥ भावार्थ-तीनों कुज्ञानों में-कुमति-कुश्रुति-विभंग ज्ञान-चक्षु अचक्षु दर्शन ये पाँच [२३१] Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ही ज्ञान और चरित्र का बीज है। होते हैं-मति, श्रुति, अवधि, मनपर्यय इन चार ज्ञानों में चार ज्ञान, तीन दर्शन ऐसे सात उपयोग होते हैं । केवल ज्ञान में केवल ज्ञान दर्शन दो उपयोग है ।। इति ज्ञान मार्गणा ॥ सामायिक युग्मे तथा सूक्ष्मे सप्त षडपि तुरीयज्ञानोनाः। परिहारे देशयतौ षट् भणिता असंयमे नवेति ॥३८॥ भावार्थ-सामायिक, च्छेदोपस्थापना, सूक्ष्मसाम्परायमें मति-श्रुति-अवधि-मन पर्यय ज्ञान चार चक्षु-अचक्ष-अवधिदर्शन तीन ये सात हैं। परिहार विशुद्धि में मतिज्ञा नादि तीन, चक्षु दर्शनादि तीन, ये छह उपयोग हैं। देश संयम में उपरोक्त छः हैं । असंयम में कुज्ञान तीन, सुमति आदि के तीन, चक्षु आदि दर्शन तीन, ऐसे नउ उपयोग होते हैं । पंचज्ञानानि दर्शन चतुष्कं यथा ख्याते चक्षुर्दर्शनयुग्मेषु । गत केवलद्विकं दर्शनगतज्ञानोक्ता हि अवधिद्विके ॥३६॥ भावार्थ-यथा ख्यात संयम में-मति ज्ञानादि पांच ज्ञान-चक्षु आदि चार दर्शन ये नव उपयोग होते हैं । इति संयममार्गणा । चक्षु-अचक्षु दो दर्शन में केवल ज्ञानदर्शन-दोनों छोड बाकी दश उपयोग होते हैं। अवधि दर्शन में-मति ज्ञानादि चार ज्ञान-चक्षु दर्शनादि तीन दर्शन ये सात उपयोग हैं। केवल दर्शन में केवल ज्ञान-केवल दर्शनोपयोम ये दो होते हैं । इति दर्शन मार्गणा ॥ मनः पर्यय केवलद्विक हीनोपयोगा भवन्ति कृष्णत्रिके। नव दशते जोयुगले भव्येऽपि च द्वादश शुक्लाया ॥४०॥ भावार्थ-कृष्ण-नील-कापोत-तीनों लेश्या में-मनपर्यय-केवलज्ञान-केवल दर्शन ये तीन छोड़ वाकी के नउ उपयोग होते हैं, पीत-पद्म-दो लेश्या में केवल ज्ञान दर्शन दो छोड शेष दश होते हैं, शुक्ल लेश्या में-बारह उपयोग होते हैं । इति लेश्या मार्गणा ॥ भव्य जीव में बारह उपयोग होते हैं। पंच अशुभा अभव्ये क्षायिकत्रिके च नव सप्त षडेव । मिश्रामि सासने मिथ्यात्वं षट् पंच पंचकं च ॥४१॥ [२३२] Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन पाप वृक्ष को काटने के लिये कुठार है। भावार्थ-अभव्य जीव में-कुमति-कुश्रुति-कुअवधि-चक्षु-अचक्षु दर्शन ये पाँच अशुभ उपयोग होते है । इति भव्य मार्गणा ॥ क्षायिक सम्यक्त्व में तीन कुज्ञान छोड़ नव है, वेदक सम्यक् में-कुज्ञान तीन-केवलज्ञान-दर्शन दोन मिल पांच खेरीज सात उपयोग है, उपशम सम्यक्त्व में-सुमति आदि तीन ज्ञान-चक्षु आदि तीन दर्शन ये छह उपयोग है। मिश्र सम्यक्त्व में-मिश्र आदि के तीन ज्ञान कुसुमिश्र-चक्षु-अचक्षु-अवधि दर्शन तीन ये सर्व छह होते हैं। सासादन सम्यक्त्व में कुज्ञान तीन-चक्षु-अचक्ष दर्शन दो सब पांच उपयोग हैं। मिथ्यात्व सम्यक्त्व में सासादनऽनुसार पांच होते है। इति सम्यक्त्व मार्गणा ॥ दश संज्ञिनि असंजिनि चत्वारः प्रथमे आहारके च द्वादशकं । मनश्चक्षुर्विभंगोना नव अनाहारे च उपयोगाः ॥४२॥ __ भावार्थ-संज्ञी जीव में-केवल ज्ञान दर्शन दो छोड़ शेष दस उपयोग होते है, असंज्ञि जोव में-कुर्मात-कुश्रुति-दोन ज्ञान-चक्षु-अचक्षु दर्शन दो ये चार होते है । इति संज्ञिमार्गणा ॥ अहारक जीव के बारह उपयोग होते है, अनाहरक जीव में-मनपर्यय ज्ञान-चक्षु-दर्शन-विभग ज्ञान ये तोन छोड नउ उपयोग होते है । इति आहार मार्गणा ॥ ॥ इति चतुर्दश मार्गणासु द्वादशः उपयोगः पूर्णः ।। अथ-चौदह जीव समास में पंद्रहायोग वर्णन.नवसु चतुष्के एकस्मिन् योगा एको द्वौ भवन्ति द्वादश । तद्भवगतिषु एते भवान्तर्गतिषु कार्मणं ॥४३॥ सप्तसु पूर्णेषु भवेत् औदारिकं मिश्रकं अपूर्णेषु । एकैकयोगः द्वि हीनाः जीव समासेषु ते ज्ञेयाः॥४४॥ भावार्थ-एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त में-एक औदारिक मिश्र काय योग-एके-सूक्ष्म पर्याप्त में औदारिक काय योग एक-एके-बादर अपर्याप्त में औदारिक मिश्र १-एक वादर पर्याप्त में औदारिक काय १. द्वि इन्द्रिय अपर्याप्त में-औ०मिश्र १ द्विइन्द्रिय पर्याप्त में औदारिक काय १ अनुभय वचन १ ये दो हैं। बिइन्द्रि अपर्याप्त में-औ० मिश्र १-त्रिइन्द्रिपर्याप्त में औदारिकाय १ अनुभय वचन १ ऐसे दोन। चौइन्द्रि 59 [२३३] Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन संसार समुद्र से पार करने के लिए निच्छिद्र पोत है। अपर्याप्त में-औ०-मिश्र १ चौ इन्द्रि पर्याप्त में-औदारिक काय १ अनुभय वचन १ ये दो हैं । पंचेन्द्रि असंज्ञि अपर्याप्त में-औ०-मिश्र १ पंचे-असंज्ञि पर्याप्त में-औदारिक काय १ अनुभय वचन १ ये दो होते हैं। पंचेन्द्रि संज्ञि अपर्याप्त में-औदारिक मिश्र १ पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्त में-आठौ मन, वचन, योग, तथा औदारिक काय १ वैक्रियक काय १ आहारक काय १ आहारक मिश्र १ ये बारह होते हैं। कार्मारण काय योग अन्य भव में गमन के समय विग्रह गती में होता है । सातो जीव समास में पर्याप्त अपर्याप्त वर्णन ॥ इति योग वर्णनः ॥ अथ चतुर्दश जीव समासे उपयोगः ।।। कुमतिद्विको अचक्षुः त्रयः दशसु द्विके चत्वारो भवन्ति । चक्षुयुताः संज्ञयपर्याप्ते पर्याप्तेसप्तदश जीवेषु उपयोगाः ॥१५॥ भावार्थ-एकेन्द्रि सूक्ष्म अपर्याप्त १ पर्याप्त १ ए० बादर अपर्याप्त १ पर्याप्त १ दोइन्द्रि अपर्याप्त १ पर्याप्त १ त्री इन्द्रि अपर्याप्त १ पर्याप्त १ चौइन्द्रि अपर्याप्त १ पंचेन्द्रि असंज्ञि अपर्याप्त १ इन दस जीवों में-तीन उपयोग हैं वे यह-कुमति-कुश्रुतिअचक्षु । चार इन्द्रि पर्याप्त १ पंचेन्द्रि असंज्ञि पर्याप्त १ इन दोनों में-कुमति-कुश्रुतिअचा-चक्षु-चार उपयोग हैं। पंचेन्द्रि संज्ञि अपर्याप्त में सातवें यह=कुमति १ कुश्रुत १ सुमति १ श्रुत १ अवधिज्ञान १ चक्षु १ अवधि दर्शन १ ऐसे है। पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्त में दश-केवल ज्ञान दर्शन छोड़ के शेष। जीव समास में यथा योग्य बारह उपयोग वर्णन पूर्ण । ॥ चौदह गुण स्थान योग-वर्णन ॥ मिथ्यात्वद्विके अयते तथा त्रयोदश मिश्रेप्रमत्तकेयोगाः। दशैकादश सप्तसु नव सप्त सयोगे अयोगिनि च ॥४६॥ भावार्थ-मिथ्यात्व-सासादन-अविरत-तीनों में तेरह योग आहारक दोनों छोड़ कर होते हैं। तीसरे मिश्र में-आठ मन वचन योग औदारिक काय १ वैक्रियक काय [२३४] Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यादर्शन रूपी विष से दूषित ज्ञान और चारित्र प्रशंसनीय नहीं है । Mw योग १ ये दश हैं। प्रमत्त में-ग्यारह वे यह आठ मन वचन-औदारिक १ आहारक दोनों देशविरत-अप्रमत्त-अपूर्वकरण-अनिवृत्तकरणकसूक्ष्म साम्पराय-उपशान्तकषाय-क्षीण ११ १२ कषाय इन सात गुण स्थानों में-आठ मन वचन योग-एक औदारिक काय योग ये नौ होते हैं। संयोग केदलि में-सत्य-अनुभयमन २ सत्य-अनुभय वचन २ औदारिक-मिश्र २ कार्मण १ ऐसे सात हैं । अयोगि गुण स्थान में योग नहीं ॥ इति ॥ १४ चौदह गुण स्थानों मे-बारह उपयोग वर्णनःप्रथमद्विके पंच पंचकं मिश्रा मि ततो द्विके षट्कं । सप्तोपयोगाः सप्तसु द्वौ योग्य योगिगुणस्थाने ॥४७॥ भावार्थ-मिथ्यात्व-सासादन में-कुमति-कुश्रुत-विभंग-चक्षु-अचक्षु ये पाँच उपयोग है। तीसरे मिश्र में-मति-श्रुति-अवधि मिश्र ज्ञान ३ चक्षु अचक्षु अवधि दर्शन मिश्र ३ ये छह हैं । चौथे-पाँचवें में तीन पहिले सुज्ञान-तीन पहिले दर्शन ये छह है । छट्टे से बारहवे तक सात गुण स्थानों में -चार पहिले सुज्ञान-तीन पहिले दर्शन ये सात होते तेरह-चौदह दो स्थानों में केवल-ज्ञान-केवल दर्शन ये दो होते है । ॥ इति समासे उपयोगाः॥ अथ चतुर्दश मार्गणा में-सप्त पंचाश प्रत्ययाः कथ्यन्तेमिथ्यात्वमविरतयस्तथाकषाया योगाश्च प्रत्ययभेदाः । पंच द्वादश बन्धहेतवः पंचविंशतिः पंचदश भवन्ति ॥४८॥ भावार्थ मिथ्यात्वपंचकं मिथ्यात्योदयेन मिथ्यात्वं अश्रद्धानं चत्वार्थानां । एकान्तं विपरीतं विनयं संशयितम ज्ञानमिति ॥१॥ अविरतः द्वादशः पर्विन्द्रियेपु अविरतिः पट्जीवे तथा चविरतिश्चैव।। इन्द्रिय प्राणासयमा द्वादश भवन्तीत्ति निर्दीष्टं ॥२॥ २३५] Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्दृष्टि के हृदय में समता स्पो लक्ष्मी निवास करती है। तथा कषाय पंचविस अनन्तानुबंधि-अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलन-क्रोध ४ मान ४ माया ४ लोभ ४ हास्य-रति-अरति-शोक-भय-जुगुप्सा-स्त्री-पुरुप-नपुंसक-नी इति । योग पंद्रह-मन वचन औदारिक ७ काय योग इति ॥ ये आत्रव कर्म बन्ध के कारण होते है। आहारौदारिकद्विकस्त्रीपुहिना नरके एकपंचाशत । आहारक वैक्रियिकतिकोनाः त्रिपंचाशन तिरश्चि ॥६॥ भावार्थ-नरक गति में-आहारक २ ओदारिक २ स्त्री-पुं-बेद २-ये छह छोड़ कर इक्यावन आश्रव है। तिर्यव गति में-आहारक २ वैक्रियक दो २ यं चार छोड़ बाको के ओपन होते हैं। पंचपचाशत् वैक्रियिकतिकोना मनुजेषु भवन्ति । द्विपंचाशत् षंढाहारौदारिकविकहींनाः सुरगत्याम् ॥१०॥ भावार्थ-मनुष्य गति में वैक्रियक दो रहित पचपन प्रत्यय होते हैं। देव गति मेंनपुंसक वेद-आहारक दो-औदारिक दो-ये पाँच छोड़ बावन प्रत्यय होते है ।। इति गति मार्गणा ॥ मनोरसन चतुष्कस्त्रीपुरुषा हारक क्रियिकयुगः । एकाचे मनोवागष्टयोगैहींना अष्टात्रिंशत् ॥५१॥ भावार्थ-एकेन्द्रि जीव के ३६ प्रत्यय है-शेष मन १ रसनादि ४ स्त्री-पुरुष वेद २ आहारक २ वैक्रियक २ सत्यादि मन वचन ८ ये कंदर १६ उन्नीस नहीं होते। एते च अन्तभाषारसनायुक्ता प्राण चक्षुः संयुक्ताः । चत्वारिंशत् एकद्विचत्वारिंशत् क्रमेण विकलेषु विज्ञयाः ॥५२॥ भावार्थ-द्वि-त्रि-चतुः इन्द्रियों-एकेन्द्रि के कहे ३६ तथा अनुभय वचन-रसना २ ज्यादा ४० द्वि० के० । एक घ्राण ज्यादा ४१ त्रिइन्द्रि के । एक चक्षु ज्यादा ४२ चार इन्द्रि के प्रत्यय हैं। [२३६] Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन, फर्म हमी इंधन को जलाने के लिए अग्नि के समान है। पंचेन्द्रिये त्रसे तथा सर्वे एकाक्षोक्ता अष्टात्रिंशत् । स्थावरपंचके गणिता गणनाथैः प्रत्यया नियमात् ॥५॥ भावार्थ-पंचेन्द्रि नाना जीवों के अपेक्षा सर्व प्रत्यय होते हैं। इति इन्द्रिय मार्गणा ॥ तथा त्रसकाय में नाना जीव अपेक्षा से सत्तावन आश्रव होते हैं । स्थावर पाँचों एकेन्द्रि के ३८ प्रत्यय हैं इस प्रकार गणधर भगवान ने कहा है ॥ इति काय मार्गणा ॥ आहारकद्विकं हृत्वा अन्येषु योगेषु निजं निजं घृत्वा । योगं ते त्रिचत्वारिंशत् ज्ञातव्या अन्ययोगोनाः ॥५४॥ भावार्थ-आहारक दोनों छोड़ शेष तेरह योगों में अपने-अपने योगों को लेकर ४३ आश्रव होते हैं । वे ऐसे पाँच मि० ५ अविरती १२ कषाय २५ एक काय १ है। संज्वलना अषण्डस्त्रियो भवन्ति तथा नोकषायनिजयोगाः। द्वादश आहारकयुगे आहारकोभयपरिहीनाः ॥५५॥ भावार्थ-आहारक काय-आहारक मिश्रकाय में संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभहास्य-रति-अरति-शोक-भय-जुगुप्सा-पुरुष वेद-स्वकाय योग-ऐसे बारह होते हैं ॥ इति योग मार्गणा में आश्रवः ॥ स्त्रीनपुसकवेदे सर्वे पुरुषे च क्रोध प्रभृतिषु । निजरहितेतर द्वादश कपायहीना हि पंच चत्वारिंशत् ॥५६॥ भावार्थ-स्त्री वेद में आहारक दोय अन्य दो वेद ४ रहित ५३-नपुंसक वेद में आहारक दोय अन्य दो वेद-४ रहित ५३ पुरुष वेद में अन्य दो वेद रहित ५५ आश्रव होते हैं । क्रोध-मान-माया-लोभ में अपने कषाय सहित अन्य तीन चौकड़ी के बारह कषाय रहित ४५ आश्रव होते हैं । इति कषाय मार्गणा ॥ कुमतिद्विके पंचपंचाशत् आहारकद्विकोनाकर्ममिश्रोना। द्वापंचाशत् विभंगे मिथ्यात्वान पंच चतुहींनाः ॥५७॥ (२३७] Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी के अभ्यास से आत्म हित का ज्ञान होता है। भावार्थ-कुमति ज्ञान में-कुथुत ज्ञान में-आहारक दो छोड़ कर शेष पचपन आश्रव होते हैं । कुअवधि ज्ञान में आहारक दो-औदारिक मिश्र-वैक्रियक मिश्र-कार्मण ये पांच छोड़ शेष बावन आश्रव होते हैं। ज्ञानत्रिके अष्टचत्वारिंशत् अषण्ढस्त्रीनोकषाया मनः पर्यये । विंशतिः चतुः संज्वलना नवादियोगा सप्तान्तिमे ॥५॥ भावार्थ-सुमति-सुश्रुत-अवधि ज्ञान में-मिथ्यात्व पांच-अनंतानुबंधी चार-ये नौ कम होके शेष ४८ अड़तालीस आश्रव होते हैं । मनः पर्यय ज्ञान में-पु. वेद छह नो कराय-संज्वलन ४ आठ मन वचन योम-औदारिक-कुल बीस आश्रव हैं। केवल ज्ञान में सात-सत्य-अनुभय-मन २ वचन २ औदारिक १ मिश्र १ कार्मण १ ये सात आश्रय हैं। ॥ इति ज्ञान मार्गणाश्रवः ।। वैगृर्विकद्विकौदारिकमिश कार्मणोना एकादशयोगाः। संज्वलननोकषायाः चतुर्विंशतिः प्रथमयमयुग्मे ॥५६॥ भावार्थ-सामायिक-च्छेदोपस्थापन संयममे मन वचन योग आठ औदारिक १ आहारक २ संज्वलन ४ हास्यादि नो कषाय ६-येकंदर २४ होते हैं। परिहारे आहारकद्विकरहितास्ते भवन्ति द्वाविंशतिः । संज्वलनलोभ आदिमनवयोगा दश भवन्ति सूक्ष्मे च ॥६॥ भावार्थ-परिहार विशुद्धि संयम में-आठ मन वचन योग-औदारिक काय १ संज्वलन कषाय ४ नो कषाय ६ ये वाईस आश्रव हैं । सूक्ष्म साम्पराय में-मन वचन ८ औदारिक १ संज्वलन लोभ १ ये दश प्रत्यय हैं। औदारिकमिश्रकार्मणसंयुता लोभहीना यथाख्याते । नवयोगा नोकषाया अष्टान्तकषाया देशयमे ॥६१॥ भावार्थ-यथाख्यात समय में अष्ट मन वचन योग ८ औदारिक १ मिश्र १ कार्मण १ ये ग्यारह होते हैं। [२३८ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन रूपी मदोन्नत हाथी के लिये शान हो अंकुश है। त्रसासंयमाहीना अयमाः सर्वे सप्तत्रिंशत् संयसविहीने । आहारक युगोनाः पंचपंचाशत् सर्वे च चक्षुयुगे ॥६२॥ भावार्थ-देश संयम में मन वचन ८ औदारिक काय १ हस्यादि नो कषाय ६ प्रत्याख्यान ४ संज्वलन ४ त्रस-छोड़-ग्यारह अविरति ११ ये सब ३७ प्रत्यय है। असंयम में-आहारक दोनों छोड़ शेष सर्व ५५ होते हैं। इति संयम मार्गणा में आश्रवः ।। चक्षु-अचक्षु दोनों में नाना जीवों के अपेक्षा ५७ आश्रव.है । अवधौ अष्ट चत्वारिंशत् ज्ञान त्रिकोक्ता हि केवलालोके । सप्त गतद्विकाहारकाः पंचपंचाशत् भवन्ति कृष्णत्रिके ॥६॥ भावार्थ-अवधि दर्शन में-अनन्तानुबंधी ४-मिथ्यात्व ५ ये नौ छोड़ शेष ४८ प्रत्यय है। केवल दर्शन में-सत्य मन-अनुभय मन-सत्य वचन-अनुभय वचन-औदारिक १ मिश्र १ कार्मण योग १ ये सात होते है। इति दर्शन मार्गरणा मैं आश्रवः । कृष्णकापोत-नील तीनों अशुभ लेश्या में आहारक दोनों छोड़ शेष पचपन प्रत्यय है। तेजआदित्रिके भव्ये सर्वे अनाहारकयुग्मका अभव्ये । पंचपंचाशत्ते मिथ्यात्वानोनाः षट्चत्वारिंशत् उपशमे ॥६॥ भावार्थ-पीत-पद्म-शुक्ल तीन लेश्या में तथा भव्य जीव में-सर्व ५७ आश्रव नाना जीव अपेक्षा से होते है । अभव्य जीव में-आहारक दोनों छोड़ शेष पचपन प्रत्यय है । इति लेश्या भव्य मार्गणा में आश्रवः। उपशम सम्यक्त्व में-बारह अविरति १२ कषाय २१ अनन्तानुबंधी रहित-१३ योग-आहारक रो छोड़ ऐसे ४६ होते हैं। आहारकयुगयुक्ताः क्षायिकद्रिके चतेऽपिअष्टचत्वारिंशत् । मिश्र त्रिचत्वारिंशत् ते त्रिमिश्राहारकद्विकोनाः ॥६५॥ द्वितीये मिथ्यात्वपंचकोनाः पंचाशत् मिथ्यात्वे च भवन्ति । पंचपंचाशत् आहरकयुगवियुक्ताःप्रत्ययाः सकलाः संक्षिनि ॥६६॥ [२३९] Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग बताने के लिए सम्यग्यान दीपक है । भावार्थ-क्षायिक-वेदक दोनों सम्यक्त्व. में-अविरति १२ कषाय २१ अनन्तानुबंध रहित-योग १५ येकंदर ४८ होते हैं। मिश्रसम्यक्त्वे-अविरत १२ कषाय पूर्वोक्ति २१ योग १० मन वचन ८ औदारिक-वैक्रियककाय २ ऐसे ४३ होते हैं। सासादन में-पांच मिथ्यात्व-आहारक दोनों ये सात कम करके शेष ५० होते हैं। मिथ्या सम्यक्त्व में आहारक दो छोड़ सर्व ५७ होते है ॥ इति सम्यक्त्व मार्गणा में आश्रवः ॥ संज्ञि जीव में सर्व ५७ नाना जीव अपेक्षा होते है। कार्मणौदारिक विकासत्यमृषोनयोगमनोहीनाः। पंचचत्वाररिंशदसंज्ञिनि संकलाआहारकेअकार्णमकाः॥६॥ भावार्थ-असंज्ञि जीव में ४५ प्रत्यय होते हैं वे ऐसे-पांच मिथ्यात्व ५ मन रहित ११ अविरति २५ कषाय-कार्मणः औदारिक योग २ असत्य वचन-अनुभय वचन २ ये सर्व ४५ हैं । इति संज्ञि मार्गणा-प्रत्ययाः। आहारक जीव के कार्मण काय योग छोड़ सर्व ५६ होते हैं। त्रिचत्वारिंशदनाहारके कर्मेतरजोगहीनका भवन्ति ॥ तीर्थ प्रभुणा गणिता इति मार्गणाप्रत्यया भणिताः ॥८॥ भावार्थ-अनाहार के जीव में-मिथ्यात्व ५ अविरतः १२ कषाय २५ कार्मण काय योग १ ये सब ४३ प्रत्यय हैं। इस प्रकार तीर्थकर भगवान ने तथा गणधरादि आचार्यों ने वर्णन किया है ॥ इति ॥ अथ चतुर्दश जीव समासेषु सप्तपंचाशत्प्रत्ययाः कथ्यन्तेएकद्वित्रिचतुरक्षेषु च संज्ञिषु भाषिता येते । अष्टात्रिंशदादयः संकला-पंच चत्वारिंशत् काममिश्रोनाः ॥६६॥ सप्तसु पूर्णेषु भवेत् औदारिकं मिश्रकं अपूर्णेषु । एकैकयोगविहीना जीवसमासेषु ते ज्ञयाः ॥७॥ भावार्थ-एकेन्द्रि सूक्ष्म अपर्याप्त के-मिथ्यात्व ५ षटकाय विराधना ६ स्पर्श इन्द्रि [२४०] Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्राभ्यास से मनरूपो बंदर वश हो जाता है। अविरत १ स्त्री-पुरुष दो वेद छोड़ बाकी २३ कषाय-औदारिफ मिश्र-कार्मण २ योग सब ३७ आश्रव हैं। एकेन्द्रि सूक्ष्म पर्याप्त के-मि० ५ अवि० ७ कषाय २३ औदारिक काय योग १ सर्व ३६ आश्रव हैं। एकेन्द्रि बादर अपर्याप्त के मिश्र ५ अविरत ७ कषाय २३ औदारिक मिश्र १ कार्मण १ ये सब ३७ होते है। एकेन्द्रि बादर पर्याप्त के-मिश्र ५ अविरति ७ कषाय २३ औदारिक १ सर्व ३६ आश्रव है। द्विइन्द्रि अपर्याप्त के-मिश्र ५ षटकाय विराधना स्पर्श रसना अविरती ८ कषाय २३ औदारिक मिश्रफार्मण २ योग सर्व ३८ हैं। द्विइन्द्रि पर्याप्त के-मी० ५ अ०८ क० २३ औ०१ अनुभय भाषा १ ये सर्व ३८ है। त्रिइन्द्रि अपर्याप्त जीव के दो इन्द्रि से एक प्रान अविरति अधिक ३६ है। त्रिइन्द्रि पर्याप्त के दो इन्द्रि पर्याप्त से १ अधिक घ्राण अविरती सर्व ३६ हैं। चौइन्द्रि अपर्याप्त के तीन इन्द्रि अ० एक चक्षु अविरति अधिक सर्व ४० हैं । चौइन्द्रि पर्याप्त के तीन इन्द्रि पर्याप्त से एक चक्षु अविरति अधिक ४० हैं । पंचेन्द्रि असंज्ञि अपर्याप्त के-मिश्र ५ मन रहित अविरति ११ कषाय २५ औदारिक मिश्र १ कार्म १ ये ४३ है। पंचेन्द्रि असंज्ञि पर्याप्त के मिश्र ५ अविरति ११ कषाय २५ औदारिक १ अनुभय वचन १ ये सब ४३ हैं । पंचेन्द्रि संज्ञि अपर्याप्त केमिश्र ५ अविरति ११ कषाय २५ औदारिक मिश्र १ वैक्रियक मिश्र १ कार्म १ सर्व ४४ प्रत्यय है । पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्ते जीव समासे--मिश्र ५ अविरति १२ कषाय २५ मिश्र कार्मण २ छोड़ १३ योग कुल ५५ आश्रव होते हैं । ॥इति जीव समास आश्रवः॥ अथ चतुर्दश गुण स्थानेषु-प्रत्यया कथ्यन्तेमिथ्यात्वे चतुः प्रत्ययो वन्धः सासनद्रिके त्रिप्रत्ययः । ते विरतियुता अविरत देश गुणे उपरिमद्धिकं च ॥७१॥ द्वौ ततः पंचसु त्रिषु ज्ञातव्यो योगप्रत्यय एकः । सामान्य प्रत्यया इतिः अष्टानां भवन्ति कर्मणां ॥७२॥ भावार्थ-मिथ्यात्व गुण स्थान में-मिश्र अविरति कषाय योग चारों प्रकार के आश्रव से बन्ध होता है । सासादण-मिश्र गुरण अविरति कषाय योग तीनों प्रकार के 61 [२४] Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पग्दर्शन रूपी पवन से प्रेरित सम्यक् ज्ञान रूपी अग्नि पाप ईधन को जला देती है। आश्रव हैं। अविरति-देशविरति-दो गुण स्थान में-अविरति कषाय-योग-तीनों आश्रय हैं। प्रमत्तादि सूक्षम सांम्पराय तक पांच गुण स्थानों में कषाय योग दो आश्रव हैं। ग्यारह-बारह-तेरहवे-गुणस्थान में-१ योगाश्रव है । आगे विशेष वर्णन करते हैप्रथमगुणेपंचपंचाशत् द्वितीये पंचाशत् च कार्मणानोनाः। मिश्रौदारिकवैकियिक मिश्रोनाः त्रिचत्वारिंशन्मिथ ॥७३॥ भावार्थ-पहिले गुण स्थान में-आहारक दोनों छोड़ शेष ५५ आश्रव है । सासावन में-पांच मिथ्यात्व रहित ५० आश्रव है । मिश्र में--पचास में-कार्मण १ अनतानु ४ औदारिक मिश्र १ वैक्रियक मिश्र १ ऐसे ज्यादा घटा देने से-४३ आभव हैं। भवन्ति षट्चत्वारिंशत् खलु अयते कार्मणमिश्रद्विकयुक्ताः। द्वितीय कषायनसायम द्विमिश्रवैक्रियिक कार्मणोनाः ॥७॥ भावार्थ-चतुर्थ गुण स्थानों में तीसरे के ४३ और कार्मण १ औदारिक मिश्र १ वैऋयिक मिश्र १ तीन लेकर ४६ आश्रव है। पांचवें में ३७ प्रत्यय है वे--कषाय १७ अविरति ११ योग ६ सर्व ३७ हैं। सप्तत्रिंशद्देशे तथा चतुर्विंशति प्रत्ययाः प्रमत्ते च ॥ आहारकद्विको एकादशविरतिचतुः प्रत्यन्ययूनाः ॥७॥ भावार्थ-प्रमत्त में-कषाय स० ४ नो कषाय ६ मन वचन ८ औदारिक १ आहारक २ ये सर्व २४ हैं। आहारकद्विकोना द्विषु द्वाविंशतिः हास्यषटकेन षंढस्त्री। पुंक्रोधादिविहीनाः क्रमेण नवमं दशमं जानीहि ॥७६॥ भावार्थ-अप्रमत्त-अपूर्व करण इन दो गुण स्थानों में-संज्वलन ४ नो कषाय ६ मन बचन योग ८ औदारिक १ ये सर्व २२ हैं। अनिवृतिकरण में-संज्वलन ४ वेद [२४२] Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पक ज्ञान अंधकार को दूर करने के लिए सूर्य के समान है। नोकषाय ३ मन वचन योग ८ औदारिक १ सर्व १६ है। १० वें गुरण स्थान में-सं० लोभ १ मन वचन ८ औदारिक १ ये सर्व १० होते है। दश सूक्ष्मेऽपि च द्वयोः नव सप्त सयोगे प्रत्यया भवन्ति । प्रत्ययहीनमन्यूनं अचोगिस्थानं सदा वन्दे ॥७॥ भावार्थ-ग्यारहवें-बारहवें दो गुण स्थानों में-मन वचन योग ८ औदारिक १ ये सर्व ६ आश्रव है। १३ संयोगि में सत्य अनभयमन २ वचन २ औदारिक मिश्र २ कार्म १ ये सर्व ७ होते है । अयोगी १४ वे गुण स्थान में सर्व अभाव है। ऐसे परमात्मा को सतत हम वन्दते है। ॥ इति गुण स्थानम आश्रवः ॥ प्रवचनप्रमाणलक्षणच्छन्दोऽलङ्कार रहित हृदयेन । जिनचन्द्रेण प्रोक्तं इदं आगमभक्तियुक्तेन ॥७॥ भावार्थ-यह सिद्धांतसार शास्त्रं-जिनचन्द्र-सिद्धान्त ग्रन्थ वेदिने-प्रवचन-प्रमान लक्षणच्छन्द अलंकारादि छोड़ हृदय से आगम की भक्ति से इसे युक्ति से लिखा है। सिद्धान्तसारं वरसूत्रगेहाः, शोधयन्तु साधवो मदमोहत्यक्ता ॥ पूरयन्तु हीनं जिननाथभक्ताः विरागचित्ताः शिवमार्गयुक्ताः ॥७॥ भावार्थ-भो साधुगण इस ग्रन्थ की अशुद्धियादि को शुद्धि कर लेवो या भूल रही हो सो पूर्ति कर लेवो मैने जिनागम की भक्ति से मद मोह छोड़ कर विराग भाव से सम्यग्दर्शनादि मोक्ष मार्ग की अभिलाषा से यह लिखा है । ॥ इति सिद्धान्तसार पूर्ण ॥ [२४] Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी का अभ्यास मोक्ष रूपी लक्ष्मी को दूती है। IS कर्म बन्धादि यंत्र: गुण० संख्या गुण० नाम बंध सं० बध बंध सं० संख्या सख्या पछ. उदय व्यु० -amaANJABE प्रथम मिथ्यात्व ११७ १६ ११७ ५ १४८ ० उपशम सत्ता सत्ता व्यु० १४५ ० २५ ० ० १११६ १०० १४७ ० १७ १४८ १ १ १४७ द्वितीय सासादन १०१ तृतीय सम्यग्मिश्र __७४ चतुर्थ अविरत स० ७७ पंचम देश विरत० ६७ षष्ठ प्रमत्त संयत० ६३ सप्तम अप्रमत्त संय० ५६ अष्टम अपूर्व करण० ५८ नवम अनिवृत्तिक० २२ दशम सूक्ष्मसाम्पराय १७ एकादश उपशान्त कषाय १ द्वादश क्षीण कषाय १ प्रयोदश संयोग केवली १ चतुर्दश अयोग केवली . • non cFn 6 . in नवम १६ ६० १४६ ०क्षपक १४६ ४-१० ६ १४२ . ६ १४२ ० ३६ १ १४२ ० १ २ १४२ - १६ १०१ १६ । ३० ८५ ० १२ ८५ ८५ ० १ . ५७ ४२ १२ eardi [२४४] Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी के अभ्यास से चारित्र को शहि होती है। गणित-ज्योतिष (गणित विषय संज्ञादि प्रकार) संख्यामान १ के २१ भेद है। जघन्य १ मध्यम २ १. संख्यात उत्कृष्ट ३ س س له २. परितासंख्यात३. युक्तासंख्यात४. असंख्यातासंख्यात५. परीतान्त६. युक्तानन्त७. अनंताननंत २ سه سه س (अक्षय अनंत) ن ये गणतिसरसोसे ४६ अंक प्रमाण विरलन कर गुणे परितऽसंख्या। भावार्थ:-जहां द्रव्य का परिमाण कहे वहाँ पदार्थ । क्षेत्रका प्रमाण कहे वहां उतने प्रदेश । जहाँकाल का परिमारण कहे वहां समय । जहां भाव का प्रमाण कहे वहाँ उतने अविभाग-प्रतिच्छेद जानने चाहिये ये उपमा मान से जाने जाते हैं। अभव्य जीवरासी-जघन्ययुक्तानन्त समान है ।। ज० युक्तऽसंख्य समय का = आवली संख्यातका = मुहर्त३०का = रात्रदिन ३० का= मास २ का: ऋतु ३ का = अपन २ का १ वर्ष [२४५] Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जन्म का सार संयम है। WWWWWW उपमामान २ के ८ भेद है १. पल्य - ३ भेद हैं - (१ व्यवहारपल्य २ उद्धारपल्य ३ अद्धापल्य) : १० कोx ___ कोडिसे = (सागर) २. सागर - ३ भेद हैं- (१ व्यवहार' सागर २ उद्धारसागर ३ अद्धामागर) ३. सूच्यंगुल-का वर्ग प्रतर ४. प्रतरांगुल ५. घनांगुल (सूच्यकाघन) का विरलन करगुण = ६. जगच्छणो का सातवां भाग राजू = का वर्ग 3 ७. जगत्प्रतर ८. लोक (जगच्छ णी का घन) परमाणु - अनंत का-स्कंध (अवसन्नासन्न ८ का = सन्नासन्न ८ का = तृटरेणु कासरेण ८ का : रथरेणु ८ का : उ० भो० वा०८का -मं० भो०वा. ८ का = ज० भो० वा० ८ का = क० भू-वालग्न ८ को = लीख ८ को = सरसू ८ का - जौ ८ का = अंगुल (उत्सेधांगुल : शरीर नगर मन्दिर) से x ५०० का प्रमाणांगुल (से-महापर्वत-नदी, द्वोप, समुद्र)-भरत ऐरावत के मनुष्यों के अपने काल में : आत्मांगुल (झारी कलश धनुषादि) ६ अंगुल का = पाद २ का = विलस्त २ का = हाथ ४ का = धनुष २००० का = कोश ४ का = योजन ५००का = महायोजन १ का-खोल-तथा १ व्यास का खंडागोल = भो० केसान ४५ अंक प्रमाण को १०० वर्ष से १ निकाल कर पूर्ण करणे का काल को = व्यवहारपल्य काल के असंख्यात कोटी वर्ष के समय से गुणेउद्धारपल्य (के समयों को २५ को० को० गुणे - द्वीप समुद्र संख्या) को असंख्यात वर्ष के समय से गुणे = अद्धापल्य के = अर्द्धच्छेद विरलन करगुरणे %D सूच्यंगुल का वर्ग प्रतर । [२४६) Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयानक फाम की दाह ज्ञानोपयोग से शांत हो जाती है। wrimom नक्षत्र विचार नक्षत्रे घ्र व (स्थिर)- उत्तरा फाल्गुनी उत्तराषाढा, उत्तरा - स्थिरं बीजगेहशान्त्या भाद्रपद्रा, रोहिणी व रविवार रामादि सिद्धयति ।। क्रूर (उग्र) – पूर्वा फाल्गुनी, मघा, पूर्वाषाढा, पूर्वा - घाताग्नि शाठ्यानि भाद्रपदा, भरणी व मंगलवार विप शस्त्रादि सिद्धयति चर (चंचल)- श्रवण, धनिष्टा, शततारका पुनर्वसु, - गजादिकारोहो वाटिका स्वाती व चन्द्रवार गमनादिकम् ॥ लघु (निप्र) - अश्विनी, पुष्ज, हस्त, अभिजित व, - त० पण्यरतिज्ञानं भूपागुरुवार शिल्प कलादिकम् ॥ मृदु (मैत्र) - मृग, चित्रा अनुराधा. रेवती व - गीताम्बर क्रीडा मित्र शुक्रवार - कार्य विभूपणम् ।। मिश्र(साधारण)कृतिका, विशाखा व बुधवार • तत्राग्निकार्य मिश्रं च वृपोत्सर्गादि सिद्धयति ।। हे वुधवारचे ।। दारुण (तीक्ष्ण) आर्द्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा, मूल व -अभिचार घातोग्रभेदाः शनिवार पशुदमादिकम् ॥ शुभतिथि - १/२/३/५/७/१०/१२/१३ शुभवार - चन्द्रवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार शुभनक्षत्रे - स्थिर, लघु, मृदु, चर, शुभयोग - नामनुल्य-फन जाणावे शुभकरण - वव, वालव, कौलव, नैतील, Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय रूपी मृगको बांधने के लिए सम्यज्ञान हो दृढ फांसी है। दिन शुद्धि पहाड़े-कृष्णा १३ ते शुक्ल १ पर्यन्त, ४ तिथी, संक्रान्ति दिवस, व्यतिपात, वैद्य ति, करिदिन, रवि, मंगल, शनि, हेवार, क्षय बृद्धि तिथि, भद्रा करण परिघाचे पूर्वार्ध, ग्रहण नक्षत्र ही वर्ण्य करावीन । तिथि तिथि तिथि तिथि तिथि शुक्ल कृष्ण नंदा १ भद्रा २ जया ३ रिक्ता ४ पूर्णा ५ अशुभ शुभ ६ ७ ८ १० मध्यम मध्यम ११ १२ १३ १४ १५ शुभ अशुभ शुभकाम पौष्टिक युद्व सा० घातक० यात्राशु० निम्नलिखित लग्ने तिथि में वर्जनीय है१. नंदा - वृष ८ सिंह ५ तुला ७ मकर १० २. भद्रा - मीन ३ धनु ३. जया - कन्या ६ मनी १२ ४. रिक्ता-मे० १ कर्क २ ५. पूर्णा - कुम्भ ११ वृषभ २ अथ दीक्षा नक्षत्राणां फलानिअश्विन्या दीक्षित आचार्यो भवति, पंच पुरुषाणां दीक्षा दायको । मिष्टान्न भोक्ता अपमृत्यु द्वयं बिना चतुश्चत्वारिंशद्वर्षारिण जीवति ।। १ ।। भरणी नक्षत्रे दीक्षितोऽशनादितपः कारकाः गुरु घातकः व्रतमण्टो । भूत्वा पुनर्गत्तं स्वीकृत्य द्वाषष्टी वर्षाणि जीवति ॥ २॥ कृतिकायां आचार्यः पंच पुरुषाणां दीक्षा दायकः । नष्ट व्रतवान् षण्णवति वर्षाणि जीवति ॥३॥ रोहिण्यां दीक्षितः मृष्टान्न भोक्ता विदेश परिभ्रमणशील अपमृत्युद्वयेन । वंचितः बतभ्रष्टो भत्वा पश्चादवतं स्वीकृत्य सस्वति वर्षाणि जीवति ॥ ४ ॥ मृगशिरे दीक्षितः आचार्यों द्वाविंशति पुरुषाणां दीक्षादायकः । समस्त संघ आधारो भूत्वा सत्पति वर्षाणि जीवति ॥ ५॥ [२४८] Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा को रोकने के लिये सम्यग्दर्शन पहरेदार है। wwromrammmmmmmmmmmmm आर्द्रायां दीक्षितो जितेंद्रियः द्वाषष्टि वर्षाणि जीवति ॥ ६ ॥ पुनवमी दीक्षिप्तः पंचवर्षानंतरं तपश्चुतो भूत्वा पुनर्वतं स्वीकृत्य । तिसृणांमायिकाणां दीक्षा दायकः सप्तति वर्षाणि जीवति ।। ७ ॥ पुष्य नक्षत्रे तपः कृत्वा आचार्यः पंचपुरुषाणां । दीक्षा दायकः मेधावी विशति वर्षाणि जीवति ॥ ८ ॥ अश्लेषांया दीक्षितो विदेशगामी दुःखितः गुरु विनितः । चार द्वय तपश्चुतो भूत्वाषष्टि वर्षानंतर सर्प दंष्टोमीयते ॥ ९ ॥ मघायां दीक्षितः प्रशस्ताचारवान् विनीतः षष्ठावति वर्षाणि जीवति ॥१०॥ पूर्वायाँ दीक्षितः पंचदश पुरुषाणां दीक्षा दायक. । व्रत भ्रष्टो भूत्वा पुनः स्वीकृत्य नवति वर्षाणि जीवति ॥११॥ उत्तरायां दीक्षितः आचार्यः अशीति वर्षाणि जीवति ॥१२॥ हस्तायां दीक्षितः आचार्यः पंचस्त्रीणां पंचपुरुषाणां । दीक्षागुरुः शत वर्षाणि जीवति ॥१३॥ चित्रायां दीक्षितः आशीति वर्षाणि जीवति ॥१४॥ स्वाती दीक्षितः पष्टि दर्षाणि जीवति ॥१५॥ विशाखायां दीक्षितः पंचदश दिने तपश्चुतः आशीति वर्षाणि जीवति ।।१६।। अनुराधायां दीक्षितः आचार्य सप्तति पुरुषाणां, दीक्षागुरुः नवतिवर्षाणि जीवति ॥१७॥ जेप्टायां दीक्षितः एकांगी उग्रतपस्वी षट्पंचाशद्वर्षाणि जीवति ॥१८॥ मूले दीक्षितो मृष्टान्न भोक्ता अपमृत्युत्रयच्युतो नवति वर्षाणि जीवति ॥१६॥ पूर्वाषाढायो दीक्षितः उपसर्ग त्रय सहिष्णुः तपश्चुत्वा । पुनः स्वीकृत्य अशोति वर्षाणि जीवति ॥२०॥ उत्तराषाढा दीक्षितः तपश्चनः अतिरोगोद्भवः अपमृत्युतो भूत्वारत्री। न्यपुरष पंचकच दीयित्वाषष्टि वर्षाणि जीवति ॥२१॥ श्रवरण दीक्षितः द्वादश पुरुषारणां दीमागुरुः मृष्टान्नभोक्ता विशत्युत्तरगत वर्षाणि जीवति ।।२२।। धनिप्टायां दीक्षितः आचार्य अशीति वर्षाणि जीवति ।।२३।। शततारे दीक्षितः पंच पंच पुरुषस्य गुरुः नवति वर्षाणि जीवति ॥२४॥ [२४ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन हो ज्ञान और चरित्र का वोन है। पूर्वाभाद्रपदे दीक्षितः द्वादश पुरुषाणां दीक्षागुरुः अशीति वर्षाणि जीवति ॥२५॥ उत्तराभाद्रपदे दीक्षितः मृष्टान्न भोजी द्वादश पुरुषाणांमार्यकाणां चगुरुः अशीति वर्षाणि जीवति ।।२६।। रेवत्यां दीक्षितो मृष्टान्न भोजो आचार्यो भूत्वा विशति वर्षाणि जीवति ॥२७॥ इति० प्रदेश प्रचयात्कायाः द्रवणाद् द्रव्य नामकाः ॥ परिच्छेवत्व तस्तेर्थाः । तत्त्वं वस्तुस्वरूपतः ॥१॥ काय १ द्रव्य २ अर्थ ३ तत्व ४ अथातः संप्रवक्ष्यामिगृह बिवस्य लक्षणं ।। एकाँगुलं भवेत् श्रेष्टं द्वयंगुलं धन नाशनं ॥१॥ व्यंगुले जायते वृद्धिः पोडास्याच्च तुरंगुले ॥ पंचागुले तुवृद्धिः स्यादुट्ट गन षडंगुले ॥ २ ॥ सप्तागुले गवां वृयते वृद्धिः हानिरष्टांगुलेमता ॥ नवांगुले पुत्रवृद्धिर्द्धन नाशोदशां गुले ॥३॥ एकादशांगुलं विवं सर्व कामार्थ साधनं । एतत्प्रमाण माख्यात मतऊदवन कारयेत् ॥ ४ ॥ ॥ इति गृह विव विचारः॥ अथ तिव दोषा: आसने वाहने चैव परिवार तथा युधि ॥ नखाभरण वस्त्रेषु वांगदोषो न जायते ।।१।। नाशा मुखे तथा नेत्रे हृदये नाभिमंडले ॥ स्थानेषु व्यजितामेषु प्रतिमां नैव पूजयेत॥२॥ ॥इति ।। केशलोच नक्षत्राणि कृत्तिका सुविशाखा सुमघा सुभरणीषुच एतेश्चतुभिर्नक्षत्रोचकर्मन कारयेत् । ॥ इति ॥ केशलोंच करण्याम योग्यवार-सोमवार, बुधवार, शुक्रवार । [२५०] Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम्पा मान मोक्ष रपी सम्मो के निपाम के लिए पमत के समान है। ब्रह्मचर्य व्रत देण्यास योग्य नक्षत्राणि-पूर्वा भाद्रपदा, मूला धनिण्टा, विशाखाश्रवण । अब दीक्षा नक्षत्राणि मृगशिर, आरद्रा, पुष्य, मघा, उत्तरा, हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्टा, श्रवण, धनिष्टा, शततारा, पूर्वाभाद्रपदा, व रेवतो ही नक्षत्रे शुभ होत । बीयाना दीक्षा . अश्विनी पूर्वाफाल्गुणि, हस्त, स्वाति, अनुराधा, मूला उत्तराषाढा, श्रवण, शतामिपा, उत्तराभाद्रपदा ए दश नक्षत्र ग्राह्य। भरणी, कृतिका पुष्य अश्लेषा, आद्रा, पुनर्वसु, नक्षत्राणि अग्राह्य। लग्न-उदय में घडी-पल मंपः वृषभः मिथुन ४-२७ ५-१० कार्कः ५-३१ ५-१८ राशि-नाम चु चे चो ला लि लु ले लो । इ उ ए ओ व वि वु वे वो। क कि कु घ ड छ के को इ। हि हु हे हो ड डि डु डे डो। म मि भु मे मो ट टि टु टे। टोप पि पू प ण ठ पे पो। र रि रु रे रो त ति तु ते। तो न नि नु ने नो या यि यु। ये यो भ भि भ धा फा भा भे। भोज जि जु जे खम्बु खो गि जो खि ख ग । गु गे गो स सि मु मे मो द। दिदृश मा दे दां च त्रि। तुला वृश्चिक ५-१८ ५-३१ मारः ५-१० ४-७ मानः १२५१ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् ज्ञान कामरूपी सर्प को कोलने के लिए मंत्र के समान है। करण तिथि में २ फल-१ किंतुघ्न, २ वव, ३ वालव, ४ कौलव, ५ तेतील, ६ गरज, ७ वाणिज्य, ८ विष्ट ६ शकुनि, १० चतुष्पाद, ११ नाग। योगों के नाम | रवि० | चद्र० । मंग० | बुध० | गुरु० शुक्र० । शनि० फल | - श. सिद्ध. आनद, कालंदं. धूम्न. प्रजाप. सौम्य. ध्वाक्ष म. भ. कृ. रो. मृ. आ. म. आ. पु. पु. आ. म. पू. उ. मृत्यु. असुख. आ. ह. म. चि. पू. स्वा. उ. पि. ह. अ. चि. जे. स्वा. म. वि पू. अ. जे. मू. पू. उ. अ. श्र.. ध. उ. अ. श्र. ध । श. पू. biberor or a true to सौभाग्य. महासी. धनक्षय. सीमा. ध्वज. श्रीवत्स. सौख्य. बज. क्षय. मुद्वर श्रीनाश. छत्र. E Ethnid E नत्र 4 4 44..4244.4.4.4.4 2424N boj bi राजस. पुष्टि अ. मृ. मानस. पद्य लवक ANANA.4.444444444444 सौभाग्य. धनलाभ धननाश उत्पात bébi m प्राणनाश. मत्य मृत्यु. काण. सिद्धि. शुभ. Ft 4 4 4 e d AA 4.0.4 244.4.4.4.4 2924NNA अमृत मुसल. गदाख्य . 24.45an.42444 क्लेश कार्य सि कल्याण. राजस धन नाश. अविद्या. कुल वृद्धि महा कप्ट. कार्यसिद्धि मातग 4 राक्षस. घर. आ. ह. BBC bi bilo to स्थिर. वर्धमान. boor गृहारभ. .42 पुष्य. उ. वि. घ. लग्न २५२१ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x १० ११० राग्यफ शान मान रपी हायो को वश में करने के लिए मिह को समान है। योग-१ विकुंभ २ प्रीति ३ आयु० ४ सौभाग्य ५ शोभन ६ अतिगंड ७ सुकर्मा ८ ति ६ शूल १० गंड ११ वृद्धि १२ ध्रव १३ व्याघात १४ हर्षण १५ वज्र १६ सिद्धि १७ व्यतिपात १८ वारियान १६ परिघ २० शिव २१ सिद्ध २२ साध्य २३ शुभ २४ शक्ल २५ ब्रह्मा २६ ऐन्द्र २७ वधृति फल नामानुरूप-प्रथम घड़ी अशुभोवी छोड़ना । ___मोजि० मृग, रेवति, श्रवण, घनिष्ठा, हस्त, स्वाती, चित्रा, पुष्य, अश्विनी, पुनर्वसु० करं। दिशाशूल ले जावे वामे, राहु योगिनी पूठ । सन्मुख लेवे चन्द्रमा, ल्यावे लक्ष्मी लूट ॥ "ईशान्य".."चन्द्र.."मेष-सिह-पूर्व......."धन..."अग्नि.... : १७ - १५ १४ ३०/८ योगिनी. १/ ३/११ : ..........."शनिवार""""शुक्र".." काल----राहु "चन्द्र"""""""शनि" : ......"उत्तर........."मीन......" ...."कर्क...."श्चि २/१० 'वृषभ..."कन्या..."दक्षिण....."मकर' ४/१३ २१ दिशा शूल sical ___Manty बुध"मंगल ............. । .............. ............ ba26/ ........ ....... ...... .... . .... ...................... ...bahie...... ......Bedy..................... गद्ध पूज्य रवि-54/१०११ १/२/५/७/६ गुर-२५७/६/११ १/३/६/१० चन्द्र-१ /५/८/७/६/१०/११ १२ ... अशुद्ध ४/८/१२ ४/८/१२ ४८ १२५३] Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान आपथारूपी मेघो को उठाने के लिये पवन के समान हैं। WMWAM दिन का चौघड़िया घड़ी | रवि० । चन्द्र । मंगल | बुध गुरु | शुक्र, शनि - - - शुभ काल रोग उद्वेग ३॥ | उद्वेग | अमृत चल लाभ अमृत लाभ अमृत काल रोग शुभ रोग चल लाभ | अमृत | काल FEEEEEEEE लाभ शुभ चल उद्वेग FEEEEEEE काल शुभ चल काल लाभ रोग रोग लाभ उद्वेग काल लाभ | शुभ । शुभ उद्वेग | अमृत | रोग चल रात्रि का चौघड़िया घड़ी रवि | सोम शनि ३१॥ अमृत रोग ३ काल लाभ ॥ लाभ उद्वेग | शुभ | अमृत गल रोग । लाभ काल उद्वेग काल उद्वेग चल | रोग ३॥ अमृत । लाभ शुभ उद्वेग अमृत शुभ चल उदग | अमृत । रोग काल लाभ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् ज्ञान समस्त तत्वों को प्रकाश करने के लिए दीपक के समान है। ॐ श्री समाधि मरण (पं० सूरजचन्द्र जी कृत) -:नरेन्द्र छन्दःबन्दो श्री अर्हन्त परम गुरु, जो सबको सुखदाई। इस जग में दुःख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई ॥ अब मैं अरज करूं नित तुमसे, कर समाधि उर माहीं। अन्त समय में यह वर मांगे, सो दीजे जगराई ॥१॥ भव भव में तन धार नये मैं, भव भव शुभ संग पायो । भव भव में नृप ऋद्धि लई मैं, मात पिता सुत थायो॥ भव भव में तन पुरुष तनो धर, नारीहूं तन लीनो। भव भव में मैं भयो नपुंसक, आतमगुण नहिं चीनो ॥२॥ भव भव में सुर पदवी पाई, ताके सुख अति भोगे। भव भव में गति नरकतनी धर, दुख पायो विधयोगे ।। भव भव में तियंच योनि धर, पायो दुख अति भारी। भव भव में साधर्मी जनको, संग मिलो हितकारी ॥३॥ भव भव में जिन पूजन कीनी, दान सुपात्रहिं दोनो। भव भव में मैं समवसरण में, देखो जिन गुण भीनो ॥ एती वस्तु मिली भव भव में, सम्यक् गुण नहिं पायो । ना समाधियुत मरण करा मैं, ताते जग भरमायो ॥४॥ काल अनादि भयो जग भ्रमते, सदा कुमरहिं कीनो। एक बारहूँ सम्यकयुत मैं, निज आतम नहिं चीनो ॥ जो निज परको ज्ञान होय तो, मरण समय दुखकाई । देह विनाशी मैं निजभाशी, जोति स्वरूप सदाई ॥५॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी की शुद्धि सभ्य वचनों से होती है। विषय कषायन में बश होकर, देह आफ्नो जान्यो। कर मिथ्यासरघान हिये बिच, आतम नाहिं पिछान्यो । यों कलेश हिय धार मरण कर, चारों गति भरमायो। सम्यक दर्शन ज्ञान चरन ये, हिरदे में नहिं लायो ॥६॥ अब या अरज करूं प्रभु सुनिये, मरण समय यह मांगो। रोग जनित पीड़ा मत होऊ, अरु कषाय मत जागो॥ ये मुझ मरण समय दुखदाता, इन हर साता कीजे । ___जो समाधि युत मरण होय मुझ, अरु मिथ्या मद छीजे ॥७॥ यह तन सात कुधात मई है, देखत ही घिन आवै । चर्म लपेटी ऊपर सोहै, भीतर विष्टा पावै ।। अति दुगंध अपावन सों यह. मूरख प्रीति बढ़ावै । देह विनाशी जिय अविनाशी, नित्य स्वरूप कहावे ॥८॥ यह तन जीर्ण कुटोसम, आतम! यात प्रीति न कोजे । नूतन महल मिल जब भाई, तब यामें क्या छोजे ॥ मृत्यु होन से हानि कौन है, याको भय मत लावो । समता से जो देह तजोगे, तो शुभ तन तुम पायो ॥६॥ मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, इस अवसर के माहीं। जीरण तन से देत नयो यह, या सम साह नाहीं॥ या सेती इस मृत्य समय पर, उत्सव अति ही कीजै। क्लेष भाव को त्याग सयाने, समता भाव धरीजै ॥१०॥ जो तुम पूरव पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई। मृत्यु मित्र बिन कौन दिखावे, स्वर्ग संपदा भाई ॥ रागद्वेष को छोड़ सयाने, सात व्यसन दुखदाई। अन्त समय में समता धारो, परभव पन्थ सहाई ॥११॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान से मन शुद्ध होता है। कर्म महा दुठ बैरी मेरो, तासेती दुख पावे । तन पिंजरे में बंध कियो मोहि, यासों कौन छुड़ावे ॥ भूख तृषा दुख आदि अनेकन, इस ही तन में गाढ़े। मृत्युराज अब आप दया कर, तन पिंजर सों काढ़े ॥१२॥ नाना वस्त्राभूषण मैने, इस तम को पहिराये । गंध सुगंधित अतर लगाये, षट रस असन कराये ॥ रात दिना मैं दास होयकर, सेव करी तन केरो। सो तन मेरे काम न आयो, भूल रह्यो निधि मेरी ॥१३॥ मृत्युराय को शरण पाय तन, नूतन ऐसो पाऊं। जामें सम्यक् रतन तीन लहि, आठो कर्म खपाऊ॥ देखो तन सम और कृतघ्नी, नाहि सु या जगमाहीं । मृत्यु समय में ये ही परिजन, सबही हैं दुखदाई ॥१४॥ यह सब मोह बढ़ावन हारे, जिय को दुर्गति दाता । इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुख साता । मृत्यु कल्प द्रुम पाय सयाने, मांगो इच्छा जेती। समता घर कर मृत्यु करो तो, पावो संपति तेती ॥१५॥ चौ आराधन सहित प्राण तज, तो ये पदवी पावो । हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्ग मुकति में जावो ॥ मृत्यु-कल्प-द्रम सम नहि दाता, तीनों लोक मंझारे । ताको पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे ॥१६॥ इस तन में क्या राचे जियरा, दिन-दिन जीरण हो है। तेज कांति बल नित्य घटत है, या सम अथिर सु को है । पाँचों इन्द्री शिथिल भई अब, स्वास शुद्ध नहिं आवै । तापर भी ममता नहिं छोड़े, समता उर नहि लावै ॥१७॥ (२५७] 65 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु सेवा से काम की शुद्धि होती है। मृत्युराज उपकारी जिय को, तन सों तोहि छुड़ावे । नातर या तन बंदीग्रह में, परयो परचो बिललावे ।। पुदगल के परमाणू मिलके, पिंडरूप तन भासी। याही मूरत मैं अमूरतो, ज्ञान जोति गुण खासी ॥१८॥ रोग शोक आदिक जो वेदन, ते सब पुदगल लारे। मैं तो चेतन व्याधि विना नित, हैं सो भाव हमारे ॥ या तन सों इस क्षेत्र सम्बन्धी, कारण आन बन्यो है। खान पान दे याको पोष्यो, अब समभाव ठन्यो है ॥१०॥ मिथ्या दर्शन आत्म ज्ञान विन, यह तन अपनो जानो। इन्द्री भोग गिने सुख मैंने, आपो नाहिं पिछानो ।। तन विनशन ते नाश जानि निज, यह अयान दुखदाई । कुटुम आदि को अपनो जानो, भूल अनादी छाई ॥२०॥ अब निज भेद यथारथ समझो, मैं हूँ ज्योति स्वरूपी । उपजे विनशे सो यह पुदगल, जानो याको रूपी ॥ इष्टऽनिष्ट जेते सुख दुख हैं, सो सब पुदगल सागे । ____ मैं जब अपनो रूप विचारो, तब वे सब दुख भागे ॥२१॥ बिन समता तनऽनन्त घरे मैं, तिनमें ये दुख पायो। शस्त्रघात तेऽनन्त बार मर, नाना योनि भ्रमायो । बारऽनन्त हो अग्निमाहि जर, मूवो सुमति न लायो। ', सिंह व्याघा अहिनन्त बार मुझ, नाना दुःख दिखायो ॥२२॥ बिन समाधि ये दुःख लहै मैं, अब उर समता आई। मृत्युराज को भय नहिं मानो, देव तन सुखदाई ।। यातें जब लग मृत्यु न आवे, तब लग जप तप कीजै । जप तप बिन इस जग के माहीं, कोई भी ना सीजै ॥२३॥ [२५८] Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरंग की शुद्धि बिना वाहरी त्याग निष्फल है । स्वर्ग संपदा तप से पावै, तप से कर्म नशावै । तप हो से शिवकामिनिपति ह, यासे तप चितलावे ॥ अब मैं जानी समता बिन मुझ, कोऊ नाहिं सहाई । मात पिता सुत बान्धव तिरिया, ये सब हैं दुखदाई ॥२४॥ मृत्यु समय में मोह करें ये, तातें आरत हो है। आरत ते गति नीची पावे, यों लख मोह तज्यो है ॥ और परिग्रह जेते जग में, तिनसे प्रीति न कीजे । परभव में ये संग न चालें, नाहक आरत कोजे ॥२५॥ जे जे वस्तु लखत हैं ते पर, तिनसे नेह निवारो। परगति में ये साथ न चालें, ऐसो भाव विचारो॥ जो पर भव में संग चलें तुझ, तिनसे प्रीति सु कीजे । पंच पाप तज समता धारो, दान चार विधि दीजे ॥२६॥ दश लक्षण मव धर्म घरो उर, अनुकम्पा चित लावो। षोडश कारण नित्य चिन्तवो, द्वादश भावन भावो । चारो परवी प्रोषध कोजे, अशन रात को त्यागो। समता धर दुरभाव निवारो, संयम सों अनुरागो ॥२७॥ अन्त समय में ये शुभ भावहि, होवें आनि सहाई । स्वर्ग मोक्ष फल तोहि दिखावे, ऋद्धि देय अधिकाई । खोटे भाव सकल जिय त्यागो, उरमें समता लाके । जा सेती गति चार दूर कर, बसो मोक्षपुर जाके ॥२८॥ मन थिरता करके तुम चितो, चौ आराधन भाई। येही तोकों सुख की दाता, और हितू कोउ नाई ॥ आगे बहु मुनिराज भये हैं, तिन गहि थिरता भारी। बहु उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उर धारी ॥२६॥ [२५] Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच पापों का त्याग करना बहिरंग चारित्र है। तिनमें कछ इक नाम कहूं मैं, सो सुन जिय ! चित लाके । भाव सहित अनुमोदे तासों, दुर्गति होय न ताके ॥ अरु समता निज उरमें आवै, भाव अधीरज जावै । यो निश दिन जो उन मुनिवर को, ध्यान हिये विचलावे ॥३०॥ धन्य धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसे धीरज धारी। एक श्यालनी जुगबच्चाजुत, पांव भख्यो दुखकारी ॥ यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चितधारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥३१॥ धन्य धन्य जु सुकौशल स्वामी, व्याघी ने तन खायो। तो भी श्रीमुनि नेक डिगे नहिं, आतम सों हित लायो। यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी। __तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥३२॥ देखो गज मुनि के सिर ऊपर, विप्र अगिनि बहु बारी। शीस जले जिम लकड़ी तिनको, तौ भी नाहि चिगारी ।। यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥३३॥ सनत कुमार मुनी के तन में, कुष्ट वेदना व्यापी। छिन्न भिन्न तन तासों हूवो, तब चिन्तो गुण आपी॥ यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥३४॥ श्रेणिकसुत गंगा में डुब्यो, तब जिननाम चितारयो। घर सल्लेखना परिग्रह छोड्यो, शुद्ध भाव उर धारयो । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥३॥ [२६०] Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त विकल्प जाल को छोड़ कर अपने आत्मा में स्थिर होना अतरंग चारित्र है। समतभद्र मुनिवर के तन में, क्षुधा वेदना आई। ता दुख में मुनि नेक न डिगियो, चिन्त्यो निज गुण भाई ॥ यह उपसर्ग सहो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥३६॥ ललित घटादिक तीस दोय मुनि, कौशांबी तट जानो । नद्दी में मुनि बहकर मूवे, सो दुख उन नहिं मानो ॥ यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी। तौ तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥३७॥ धर्म घोष मुनि चंपा नगरी, बाह्य ध्यान परि ठाढ़ो। एक मास को कर मर्यादा, तृषा दःख सह गाढ़ो ॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। ___तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥३॥ श्रीदत मुनि को पूर्व जन्म को, बैरी देव सु आके। विक्रिय कर दुख शीत तनो सो, सह्यो साध मन लाके ॥ यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥३६॥ वृषभसेन मुनि उष्ण शिला पर, ध्यान धरयो मन लाई। सूर्यघाम अरु उष्ण पवन की, वेदन सहि अधिकाई ॥ यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥४०॥ अभय घोष मुनि काकंदीपुर, महा वेदना पाई। वैरी चंडने सब तन छेद्यो, दुःख दोनों अधिकाई ॥ यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥४१॥ [२६१] Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोनों चारित्र की प्राप्ति से मुक्ति का लाभ होता है। विद्य तचर ने बहु दुख पायो, तौ भी धीर न त्यागी। शुभ भावन सों प्राण तजे निज, धन्य और बड़भागी ॥ यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चितधारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥४२॥ पुत्र चिलाती नामा मुनि को, बैरी ने तन घातो। मोटे-मोटे कीट पड़े तन, तापर निज गुण रातो॥ यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥४३॥ दण्डक नामा मुनि की देही, बाणन कर अरि भेदी। तापर नेक डिगे नहिं वे मुनि, कर्म महा रिपु छेदी ॥ यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥४४॥ अभिनंदन मुनि आदि पाँचस, घानी पेलि जु मारे । तो भी श्री मुनि समता धारी, पूरव कर्म विचारे ।। यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी। __ तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥४५॥ चाणक मुनि गौ घर के मांही, मूंद अगिनि परिजाल्यो । श्री गुरु उर समभाव धार के, अपनो रूप सम्हाल्यो॥ यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥४६॥ सात शतक मुनिवर दुख पायो, हथिनापुर में जानो। बलि ब्राह्मण कृत घोर उपद्रव, सो मनिवर नहिं मानो ॥ यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चित धारी। । ___ तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥४७॥ लोहमयी आभूषण गढके, ताते कर पहराये। ___ पांचों पाण्डव मुनि के तन में, तो भी नाहिं चिगाये ।। [२६] Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्यवादियों का मुख नगर के जल निकलने वाली नाली के समान हैं। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता आराधन चित धारी। . तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥४८॥ और अनेक भये इस जग में, समता रस के स्वादी । वे ही हमको हैं सुखदाता, हरहैं देव प्रमादी ॥ सम्यक दर्शन ज्ञान चरण तप ये, आराधन चारों। ___ येही मोकों सुख के दाता, इन्हें सदा उर धारों ॥४९॥ यों समाधि उरमांही लावो, अपनो हित जो चाहो। तज ममता अरु आठों मद को, ज्योति स्वरूपी ध्यावो । जो कोई नित करत पयानो, ग्रामांतर के काजै । ___ सो भी शकुन विचारे नोके, शुभ के कारण साजै ॥५०॥ मात पितादिक सर्व कुटुम सो, नीके शकुन बनावें। हलदी धनियां पुंगी अक्षत, दूध दही फल लावें ॥ एक ग्राम के कारण एते कर शुभाशुभ सारे । ___ जब परगति को करत पयानो, तब नहिं सोचौ प्यारे ॥५१॥ सर्व कुटुम जव रोवन लागे, तोहि रुलावे सारे। ये अपशकुन करें सुन तोकं, तू यों क्यों न विचारे॥ अब परगति के चालत विरियाँ, धर्म ध्यान उर आनो। चारों आराधन आराधो, मोह तनो दुख हानो ॥५२॥ होय निःशल्य तजो सब दुविधा, आतम राम सुध्यायो । जब परगति को करहु पयानो, परम तत्व उर लावो ॥ मोह-जाल को काट पियारे! अपनो रूप विचारो। मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, यों उर निश्चय धारो ॥५३॥ मृत्यु महोत्सव पाठ को, पढ़ो सुनो बुधिवान । सरधा घर नित सुख लहो, सूरचन्द्र शिवथान ॥५४॥ पंच उभय नव एक नभ, सम्बत सो सुखदाय । आश्विन श्यामा सप्तमी, कह्यो पाठ मन लाय ॥५५॥. ॥ इति समाधि मरण ॥ [२३] Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त गुणो को नाशक स्त्रियाभिलाषा है। w ww w समाधि मरण ? (कवि द्यानतराय कृत) गौतम स्वामी बन्दों नानी मरण समाधि भला है । मैं कब पाऊं निश दिन ध्याऊं गाऊं वचन कला है । देव धरम गुरु प्रीति महा दृढ़ सप्त व्यसन नहीं जाने । त्यागि बाईस अभक्ष संयमी बारह व्रत नित ठाने ॥१॥ चवकी उखरी चूलि बुहारी पानी त्रस न विराधे । बनिज करै पर-द्रव्य हरै नहि, छहों करम इमि साधै । पूजा शास्त्र गुरुन की सेवा, संयम तप चहुं दानी । पर उपकारी अल्प अहारी, सामायिक विधि ज्ञानो ॥२॥ जाप जपै तिहं योग धरै दृढ़ तन की ममता टार। अन्त समय वैराग्य सम्हारै ध्यान समाधि विचार । आग लगै अरु नाव डुवै जब धर्म विधन जब आवै । चार प्रकार आहार त्यागि के मंत्र सु मनमें ध्यावै ॥३॥ रोग असाध्य जहाँ बहु देखे कारण और निहारे । बात बड़ी है जो बनि आवै भार भवन को डार ॥ जो न बने तो घर में रह करि सबसों होय निराला। मात पिता सुत त्रिय को सोंपै निज परिग्रह अहि काला ॥४॥ कछु चैत्यालय कछु श्रावक जन कछ दुखिया धन देई । क्षमा क्षमा सबही सों कहिके मनकी शल्य हनेई ॥ शत्रुन सों मिल निजकर जोरै मैं बहु करी है बुराई । तुमसे प्रीतम को दुख दीने ते सब बकसो भाई ॥५॥ [२६४] Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त गुणो का पोषक ब्रह्मचर्य है। M m धन धरती जो मुख सों मांगे सो सब दे संतोष । छहों काय के प्राणी ऊपर, करुणा भाव विशेष ॥ ऊंच नीच घर बैठ जगह इक, कुछ भोजन कुछ पय ले। दूधाधारी क्रम-क्रम तजि के, छाछ अहार पहेल ॥६॥ छाछ त्यागि के पानी राखे, पानी तजि संथारा।। भूमि मांहि थिर आसन मांडे, साधर्मी ढिंग प्यारा ॥ जब तुम जानो यह न जप है, तब जिनवाणी पढ़िये । यों कहि मोन लियो सन्यासो, पंच परम पद गहिये ॥७॥ चौ आराधन मन में ध्याव, बारह भावन भाव । दश लक्षण मन धर्म विचार, रत्नत्रय मन ल्यावै ॥ पैतिस सोलह षटपन चारों, दुइ इक वरन विचारे। ___ काया तेरी दुःख की ढेरी, ज्ञानमई तू सारे ॥६॥ अजर अमर निज गुण सों पूरे, परमानन्द सुभाव । आनन्द कन्द चिदानन्द साहब, तीन जगतपति ध्यावे ॥ क्षुधा तुषादिक होइ परीषह, सहै भाव सम राखे । अतीचार पांचो सब त्याग, ज्ञान सुधारस चाखै ॥९॥ हाड मांस सब सूखि जाय जब धरम लोन तन त्यागे। अद्भुत पुण्य उपाय सुरग में, सेज उठ ज्यों जाग । तह ते आवै शिवपद पावै, विलसे सुक्ख अनन्तो । 'द्यानत' यह गति होय हमारी, जैन धरम जयवन्तो ॥१०॥ ordiku 61 [२६५ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फामी मानव के हृदय में हेयोपादेय का विचार नहीं रहना। wwwwwwwwwww" श्री वजनाभि चक्रवर्ती की HWA वैराग्य भावना बीज राखि फल भोगवे,ज्यों किसान जगमाहिं । त्यों चक्री सुख में मगन, धर्म विसार नाहि ।। चाल-योगीरासा इस विधि राज्य करै नरनायक भोगे पुण्य विशाला । सुख सागर में मग्न निरन्तर जात न जानो काला ।। एक दिवस शुभ कर्म संयोगे क्षेमंकर मुनि बन्दे । देखे श्रीगुरु के पद पङ्कज लोचन अलि आनन्दे ॥१॥ तीन प्रदक्षिणा दे शिरनायो कर पूजा स्तुनि कोनी। साधु समीप विनय कर बैठो चरणों में दृष्टि दोनी ॥ गुरु उपदेशो धर्म शिरोमरिण सुन राजा वैरागो। राज्यरमा बनितादिक जो रस सो सब नीरस लागो ॥२॥ मुनि सूरज कथनी किरणावलि लगत भर्म बुद्धि भागी। भव तन भोग स्वरूप विचारो परम धर्म अनुरागी ।। या संसार महावन भीतर भर्मत छोर न आवे । जन्मन मरन जरा यों दाहे जीव महा दुख पावे ॥३॥ कबहूं कि जाय नर्क पद भुंजे छेदन भेदन भारी। कबहूं कि पशु पर्याय धरे तहाँ बध बन्धन भयकारी ।। सुरगति में परि सम्पत्ति देखे राग उदय दुख होई । मानुष योनि अनेक विपति मय सर्व सुखी नहिं कोई ॥४॥ कोई इष्ट वियोगी बिलखे कोई अनिष्ट संयोगी। कोई दीन दरिद्री दोखे कोई तन का रोगी ।। किस हो घर कलिहारी नारी के बैरी सम भाई। किनही के दुख बाहर दीखे किसही उर दुचिताई ॥५॥ [२६६] Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर के नव द्वारो से निरन्तर दुगंधी बहती रहती है। कोई पुत्र बिना नित झूरे होय मरै तव रौवै। खोटी सन्तति सो दुख उपजे क्यों प्राणी सुख सोवै ।। पुण्य उदय जिनके तिनके भी नाहिं सदा सुख साता। यह जगबास यथारथ दोखे सबही हैं दुखदाता ।।६।। जो संसार विर्षे सुख होता, तीर्थकर क्यों त्यागे। काहे को शिवसाधन करते. संजमसों अनुरागै ॥ देह अपावन अथिर घिनावन, यामैं सार न कोई। सागर के जलसों शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई ॥७॥ सात कुधातु भरी मल मूरत चर्म लपेटी सोहै। अंतर देखत या सम जगमें अवर अपावन को है ॥ नवमल द्वार स्त्रवै निशिवासर, नाम लिये घिन आवै। व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तहं कौन सुधी सुख पावै ॥८॥ पोषत तो दुख दोष कर अति, सोषत सुख उपजावै । दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढावै ॥ राचन योग्य स्वरूप न याको विरचन जोग सही है। यह तन पाय महातप कीजै यामैं सार यही है ।।९।। भोग बुरे भवरोग बढ़ावे, बरी हैं जग जीके । बेरस होंय विपाक समय अति, सेवत लागें नीके ॥ बज्र अगिन विष से विषधर से, ये अधिक दुखदाई। धर्म रतन के चोर चपल अति, दुर्गतिपंथ सहाई ॥१०॥ मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन मानें ॥ ज्यों ज्यों भोग संजोग मनोहर, मन वांछित जन पावै । तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंके, लहर जहर की आवै ॥११॥ [२६७] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घृणास्पद शरीर का ममत्य छोउफर आत्महित करना चाहिये । मैं चक्रीपद पाय निरंतर भोगे भोग घनेरे । तो भी तनिक भये ना पूरण भोग मनोरथ मेरे । राज समाज महा अघ कारण बैर बढ़ावन हारा । वैश्या सम लक्ष्मी अति चंचल याका कौन पत्यारा ॥१२॥ मोह महा रिपु बैर विचारो जग जिय संकट डारे । घर काराग्रह वनिता बेड़ी परिजन है रखवारे ।। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण तप ये जिय के हितकारी । ये ही सार असार और सव यह चक्री चित धारी ॥१३॥ छोड़े चौदह रत्न नवोनिधि और छोडे सङ्ग साथी। कोड़ि अठारह घोड़े छोड़े चौरासी लख हाथी ॥ इत्यादिक सम्पति बहु तेरी जोरण तृणवत त्यागी। नीति विचार नियोगी सुत को राज्य दियो बड़ भागी ॥१४॥ होइ निशल्य अनेक नृपति संग भूषण वसन उतारे । श्री गुरु चरण धरी जिन मुद्रा पंच महानत धारे । धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम धनि यह धीरजधारी। ऐसो सम्पति छोड़ बस बन तिनपद धोक हमारी ॥१५॥ दोहा परिग्रह पोट उतार सव, लीनो चारित पंथ । निज स्वभाव में थिर भये वज्रनाभि निन्य ॥ ॥ इति समाप्त ॥ [२८] Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतीन शरीर के संसर्ग से उत्तमोत्तम पवार्य भी मलीन हो जाते हैं। के बारह भावना & भूवरदास कृती (१) अनित्य- दोहा- राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ॥१॥ (२) अशरण- दल बन देई देवता, मात पिता परिवार । मरती विरियां जीव को, कोई न राखनहार ॥२॥ (३) संसार- दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहीं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥३॥ (४) एकत्व आप अकेला अवतरै, मर अकेला होय । यूं कबहूं इस जीव का, साथी सगा न कोय ॥४॥ (५) अन्यत्व- जहाँ देह अपनी नहीं, तहां न अपना कोय । घर सम्पति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ॥५॥ (६) अशुचि- दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़ पीजरा देह । भीतर या सम जगत में, अवर नहीं घिनगेह ॥६॥ (७) आश्रव- सोरठा- मोहनींद के जोर, जगवासी घूमें सदा । कर्मचोर चहुं ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ॥७॥ (८) संवर- सतगुरु देय जगाय, मोह नींद जब उपशमै । तब कछ बनहिं उपाय, कर्मचोर आवत रुकें ॥८॥ ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोधे भ्रम छोर । या विधि बिन निकसे नहीं, बैठे पूरब चोर ॥६॥ पंच महावत संचरण, समिति पंच परकार । प्रवल पंच इंद्री-विजय, धार निर्जरा सार ॥१०॥ (१०) लोक- चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामें जीव अनादिसे, भरमत हैं बिन ज्ञान ॥११॥ (११) बोध दुर्लभ- धनकनकंचन राजसुख, सबहिं सुलभ कर जान । दुर्लभ है संसार में, एक यथारथ ज्ञान ॥१२॥ (१२) धर्म भावना- याचे सुरतरु देय सुख, चितत चिता रैन । बिन यांचे विन चितये, धर्म सकल सुख देन ॥१३॥ 68 [२६]. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायाग्नि से प्रज्वलित विषयाभिलाषा से व्याकुलित- मन से अशुभ कर्मों का संचय होता है। अथ निर्वाणकाण्ड भाषा ॥दोहा॥ • वीतराग बंदौं सदा, भाव सहित सिर नाय । कहूं काण्ड निर्वाण की भाषा सुगम बनाय ॥१॥ ॥ चौपाई॥ अष्टापद आदीश्वर स्वामि । वासुपूज्य चंपापुरि नामि ।। नेमिनाथ स्वामी गिरनार । बदौं भाव भगति उर धार ॥२॥ घरम तीर्थंकर चरम शरीर । पावापुर स्वामी महावीर ॥ शिखरसमेद जिनेसुर बोस । भाव सहित बॅदौ निशदोस ॥३॥ घरदतराय रु ईद मुनिद । सायरदत्त आदि गुण वृन्द । नगरतारवर मुनि उठकोडि । बंदौ भाव सहित कर जोड़ि ॥४॥ श्री गिरनार शिखर विख्यात । कोड़ि बहत्तर अरु सौ सात ।। संबु प्रदुम्न कुमर हूँ भाय । अनिरुध आदि नमूं तसु पाय ॥५॥ रामचंद्र के सुत है वीर । लाड नरिंद आदि गुण धीर ॥ पांच कोड़ि मुनि मुक्ति मझार । पावागिरि बंदी निरधार ॥६॥ पांडव तीन द्रविड राजान । आठ कोड़ि मुनि मुकति पयान ॥ श्री शत्रुजय गिरि के सोस । भाव सहित बंदी निशदीस ॥७॥ जे बलभद्र मुकति में गये । आठ कोड़ि मुनि औरहु भये ।। श्री गजपंथ शिखर सुविशाल । तिनके चरण नमूं तिहुं काल ॥८॥ राम हणू सुग्रीव सुडोल । गव गवाख्य नील महानील । कोड़ि निन्याणव मुक्ति पयान । तुंगीगिरि बंदौं धरि ध्यान ॥६॥ नंग अनंग कुमार सुजान । पाँच कोड़ि अरु अर्घ प्रमान ॥ मुक्ति गये सोनागिरि शीश । ते बंदी विभवनपति ईस ॥१०॥ । [२०] Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमी जनों के शुभ फर्मास्रव होता है। रावण के सुत आदिकुमार । मुक्ति गये रेवातट सार । कोटि पंच अरु लाख पचास । ते बंदौं धरि परम हुलास ॥११॥ रेवा नदी सिद्धवर कूट । पश्चिम दिशा देह जहँ छूट ॥ हूँ चक्रो दश काम कुमार । ऊठ कोड़ि बंदौं भव पार ॥१२॥ घड़वानी बड़नयर सुचंग । दक्षिण दिशि गिरि चूल उतंग ॥ इंद्रजीत अरु कुंभ जु कर्ण । ते बंदी भवसागर तर्ण ॥१३॥ सुवरण भद्र आदि मुनि चार । पावागिरिवर-शिखर-मंझार ॥ चेलना नदो तीर के पास । मुक्ति गये बंर्दो नित तास ॥१४॥ फलहोड़ी बड़गाम अनूप । पश्चिम दिशा द्रोणगिरि रूप ॥ गुरु दत्तादि मुनीसुर जहाँ । मुक्ति गये बंदौ नित तहाँ ॥१५॥ बाल महावाल मुनि दोय । नाग कुमार मिले त्रय होय ॥ श्री अष्टापद मुक्ति मंझार । ते बंदी नित सुरत संभार ॥१६॥ अचलापुर को दिश ईसान । तहाँ मेढ़गिरि नाम प्रधान ॥ साढ़े तीन कोड़ि मुनिराय । तिनके चरण नमू चितलाय ॥१७॥ वंसस्थल वन के लिंग होय । पश्चिम दिशा कुंथुगिरि सोय ॥ फुलभूषण दिशिभूषण नाम । तिनके चरणन करूं प्रणाम ॥१८॥ जशरथ राजा के सुत कहे । देश कलिंग पाँचसौ लहे ॥ कोटि शिला गुरु कोटि प्रमान । बंदन करूं जोर जुगपान ॥१६॥ समवसरण श्री पार्श्वजिनंद । रेसिंदी गिरि नयनानंद ॥ वरदत्तादि पंच ऋषिराज । ते बंदी नित धरम जिहाज ॥२०॥ तीन लोक के तीरथ जहाँ । नित प्रति वंदन कोज तहाँ । मन वच काय सहित सिर नाय । वंदन करहिं भविक गुण गाय ॥२१॥ संवत सतरहसी इकताल । आश्विन सुदिदशमी सुविशाल ॥ 'भैया' वंदन करहिं त्रिकाल । जय निरिणकाण्ड गुणमाल ॥२२ । [२०१] Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAMAYANAYI असंयम रूपी विष को संयम रूपी अमृत से दूर करना चाहिये । WMAMAMAAVAAMANAMAMINAVANAVAMAVANTI बाईस परीषह WWWWWWWWWWW क्षुधा तृषा हिम उष्ण दशमंशक दुःख भारी। निरावरण तन अरति खेद उपजावत नारी।। चयों आसन शयन दुष्टवायस वध-बंधन । याचें नहीं अलाभ रोग तृण स्पर्श निबन्धन ॥ मलजनित मान सम्मान वशप्रज्ञा और अज्ञानकर। दर्शन मलिन बाईस सब साधु परीषह जान नर ।। दोहा * सूत्र पाठ अनुसार ये, कहे परीषह नाम । इनके दुःख जे मुनि सह, तिन प्रति सदा प्रणाम । १ क्षुधा परीपह अनशन उनोदर तप पोषत है, पक्ष मास दिन बीत गये हैं। जो नहीं बने योग्य भिक्षा विधि सूख अंग सब शिथिल भये है। तब तहां दुःसह भूख की वेदन सहित साधु नहीं नेक नये हैं। तिनके चरण कमल प्रति प्रतिदिन हाथ जोड़ हम शीश नये है ।। २. तृषा परीषह पराधीन मुनिवर की भिक्षा पर घर लेय कहें कछु नाहीं । प्रकृति विरुद्ध पारणाभुंजत बढ़त प्यास की त्रास तहाँ हो ।। प्रीषम काल पित्त अति कोपे लोचन दोय फिरें जब जाहों। नोर न चहैं सहैं ऐसे मुनि जयवन्तों वर्तो जग माहीं ॥ ३. शीत परीषह शीतकाल सबही जन कम्पै खड़े जहां वन वृक्ष डहे हैं। संझा वायु चले वर्षा ऋतु वर्षत बादल झूम रहे हैं। तहाँ धीर तटिनी तट चौपट ताल पाल पर कर्म रहे हैं। सह सम्हाल शीत की बाधा ते मुनि तारण तरण कहे हैं। ४. उष्ण परीषह भूख.प्यास पीड़े उर मन्तर प्रज्वले आंत देह सब बागे। [२२] Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम या स्वरप अमृत के समुद्र में अवगाहन करने वाले विरले ही होते हैं । अग्नि म्वरूप धप ग्रीषम की ताती वार ज्ञालसो लागे । तप पहाड़ ताप तन उपजे कोप पित्त दाह ज्वर जागे । इत्यादिक गर्मों की वाधा सहै साधु धीरज नहि त्यागे । ५. दशमशक परीपह वंश मशक माखी तनु कार्ट पीड़ें वन पक्षी बहुतेरे । उसे व्याल विषहारे बिच्छू लगै खजूरे आन घनेरे ॥ सिंघ स्याल शुण्डाल सतावें रीछ रोज दुख देय घनेरे । ऐसे कष्ट सहै समभावन ते मुनिराज हरो अघ मेरे । ६. नग्न परीपह अन्तर विषय वासना वर्ते बाहिर लोक लाज भय भारी। ताते परम दिगम्बर मुद्रा घर नहिं सकै दोन संसारी ॥ ऐसी दुर्द्धर नग्न परीषह जीतें साधु शील व्रत धारी। निर्विकार बालकवत् निर्भय तिनके पायन धोक हमारी ।। ७. अरति परीपह देश काल को कारण लहिके होत अचन अनेक प्रकारें। तब तहां खिन्न होयें जगवासी कलवलाय थिरतापन छारे । ऐसी अरति परीषह उपजत तहाँ धीर धीरज उर धारें। ऐसे साधुन को उर अन्तर वसौ निरन्तर नाम हमारे ॥ ८. स्त्री परीपह जे प्रधान केहरि को पकड़ें पन्नग पकड़ पान से चम्पत । जिनकी तनक देख भी बोको कोटिन सूर दोनता जम्पत ॥ ऐसे पुरुष पहाड़ उठावन प्रलय पवन त्रिय वेद पयम्पत । घन्य-धन्य ते साधु साहसी मन सुमेरु जिनको नहिं कम्पत ।। ६. च- परोपह चार हाप परिमाण निरख पथ चलत दृष्टि इत उत नहिं तानें। कोमल पांव कठिन परती पर घरत धीर बाधा नहिं माने । नाग तुरङ्ग पालकी चढ़ते ते सर्वादि याद नहिं आने । यों मुनिराज सह चर्या दुख तब दृढ़ फर्म कुलाचल भाने । 69 [२७३] Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानिलावाओं से रहित निर्विकल्प होकर जीव कर्मों की निनंरा करता है। १०. आसन परीपह गुफा मसान शैल तरु कोटर निवसें जहाँ शुद्ध भू हेरें। परिमित काल रहें निश्चल तन बार-बार आसन नहिं फेरें । मानुष देव अचेतन पशु कृत बैठे विपत आन जब घेरे। ठौर न तजे भजै थिरतापद ते गुरु सदा बसौ उर मेरे ॥ ११. शयन परीपह ने महान् सोने के महलन सुन्दर सेज सोय सुख जोवें। ते अब अचल अङ्ग एकासन कोमल कठिन भूमि पर सोवें। पाहन खण्ड कठोर कांकड़ी गड़त कोर कायर नहिं होवें । ऐसी शयन परीषह जीते ते मुनि कर्म कालिमा घोवें। १२ आक्रोश परीपह जगत जीवयावन्त चराचर सबके हित सबको सुखदानो। तिन्हें देख दुर्वचन कहैं शठ पाखण्डो ठग यह अभिनानी ।। मारो याहि पकड़ पापी को तपसी भेष चोर है छानो। ऐसे कुवचन वाण की वेला क्षमा ढाल औढें मुनि ज्ञानी ॥ १३. बध बन्धन परोषह। निरपराध निर्वर महामुनि तिनको दुष्ट लोग मिल मारें। कोई बँच खम्भ से बांध कोई पावक में परजाः ।। तहां कोप नहिं करें कदाचित पूरब कर्म विपाक विचारें। समरथ होय सहैं बध बन्धन ते गुरु सदा सहाय हमारें। १४. याचना परीषह घोर वीर तप करत तपोधन भये क्षीण सूखी गलबांही। अस्थि चाम अवशेष रहो तन नसां जाल झलके जिस मांहीं । भौषधि असन पान इत्यादिक प्रारण जाउ पर जांचत नांहों। दुर्द्धर अयाचीक प्रत धारै करहिं न मलिन धर्म परछांहीं ॥ १५. अलाभ परीषह एक बार भोजन की बिरियां मौन साध बस्ती में आवें । जो नहिं बने योग भिक्षा विधि तो महन्त मन खेद न लावे ।। ऐसे भ्रमत बहुत दिन बीतें तब तप वृद्धि भावना भावें। यो अलाभ की कठिन परीषह सहें साधु सोही शिव पावे ॥ [२४] Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मग विषय कपायों को जीतना नर पर्याय फा फल है। १६. रोग परीपह बात पित्त कफ श्रोणित चारों ये जब घटें बढ़े तन माहीं । रोग सयोग शोक जब उपजत जगत जीव कायर हो जाहीं॥ ऐसी व्याधि वेदना दारुण सहै सूर उपचार न चाहीं । आतमलीन विरक्त देह से जैन यती निज नेम निवाहीं॥ १७ तृण स्पर्ण परीषह सूखे तृण और तीक्षण कांटे कठिन कांकरी पाय विदार। रज उड़े आन पर लोचन में तोर फांस तनु पोर पिथारै ।। तापर पर सहाय नहिं वांछत अपने करसों काढ़ न डारें। यो तृरण परस परीषह विजयी ते गुरु भव भव शरण हमारे ॥ १८ मल परीपह यावज्जीवन जल न्हौन तजो नित नग्न रूप बन थान खड़े हैं। चले पसेव धूप की विरियां उड़त धूल सब अंग भरे है । मलिन देह को देख महा मुनि मलिन भाव उर नाहि करे हैं । यो मल जनित परीषह जीत तिनहिं पाय हम सीस धरे हैं । १६ सत्कार तिरस्कार परीपह से महान विद्या निधि विजयी चिर तपसी गुण अतुल भरे हैं । तिनकी विनय वचन सों अथवा उठ प्रणाम जन नाहिं करे हैं । तो मुनि तहां खेद नहिं मानें उर मलीनता भाव हरे हैं । ऐसे परम साधु के अहनिशि हाथ जोड़ हम पांय परे हैं। २०. प्रज्ञा परीपह सकं छन्द व्याकरण कलानिधि आगम अलंकार पढ़ जाने । जाको सुमति देख परवादी विलखे होंय लाख उर आने ॥ जसे सुनत नाद केहरि को बन गयन्द भाजत भय भाने । ऐसो महाबुद्धि के भाजन ये मुनीश मद रञ्च न ठानें ।। २१. अज्ञान परीपह। सावधान वर्ते निशि वासर संयम शूर परम वैरागी। पालत गुप्ति गये दीरघ दिन सकल संङ्ग ममता पर त्यागी ॥ अवधि ज्ञान अथवा मन पर्यय केवल ऋद्धि न आजहूं जागी। यो विकल्प नहि करें तपोधन सो अज्ञान विजयी बड़ भागी ।। [२७५] Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशा की नीर से जकड़ा हुआ प्राणी निराफुल नहीं होता। २२. अदर्शन परीषह .. मैं चिरकाल घोर तप कोनों अजहूं ऋद्धि अतिशय नहिं जागे । तप बल सिद्ध होय सब सुनियत सो कछु बात झूठ सी लागे॥ यों कदापि चित में नहि दिन्तत समकित शुद्ध शान्तिरस पागे । सोई साध अदर्शन विजयो ताके दर्शन से अघ भागे ॥ किस कर्म के उदय से कौनसी परीषह होती है। शानावरणी से वोय प्रज्ञा अज्ञान होय एक महामोहते अदर्शन बखानिये । अन्तराय कर्म सेती उपजे अलाभ दुःख सप्त चारित्र मोहनी केवल जानिये । नग्न निषध्यानारीमान सन्मान गारियावना अरति सब ग्यारह ठोक ठानिये। एकादश बाकीरही वेदनी उदय से कहीं बाईस परीषह उदय ऐसे उरआनिये । आडिल्ल छन्द एक बार इन माहिं एक मुनि के कहो। सब उन्नीस उत्कृष्ट उदय आदें सहो ।। आसन शयन विहार दोइ इन माहिं को। शीत उष्ण में एक तीन ये नाहि की ॥ -इति बाईस परीषह समाप्त सिद्ध स्वरूप अविनाशी अविकार परमरस धाम हो । समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो। शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत है। जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत है ॥ ध्यान अग्निकरि कर्म कलंक सबही दहे ॥ नित्य निरंजन देवस्वरूपी हो रहे ॥ मायक के आकार ममत्व निवार के । सो परमातम सिद्ध नमू शिर नायके ॥ अविचल ज्ञान प्रकाशते गुण अनन्त की खान । ध्यान धरत शिव पाइये परम सिद्ध भगवान ॥१॥ ॥ इति शुभ भवतु ॥ श्री १०८ आचार्य शान्ति सागराय नमः कृत्वामया चन्द्रसागरं आयेण सम्पूर्ण करिस्यामि २४५५ भाद्रपदमासे कृष्णा ३ । [२६] Page #381 -------------------------------------------------------------------------- _