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________________ फोष नरक रूपी गड्ढे में गिराने वाला है। ___इस कर्तव्य निर्देश का भी यही अर्थ है कि वह गृहस्य या त्यागी इन कार्यों के निमित्त से ही अपने-अपने पद मे सफलता प्राप्त करता है। मुक्त जीव भी निमित्त से शून्य नहीं है । जब कर्मो को सर्वथा क्षय करके मुक्ति को यह जीव जाता है तब वह ऊर्ध्वगमन का स्वभाव होने पर भी लोकाग्र भाग तक ही जाता है। वहा से आगे नही जाता है। इसका कारण आचार्य उमा स्वामी ने यह बताया कि "धर्मास्तिकायाभायात्" क्योंकि उसमे आगे गतिपरिणत जीव पुद्गलो को गमन करने मे सहकारी (निमित्त) धर्म द्रव्य नहीं है । अत वह मुक्त जीव आगे गमन नही करता है। प्रश्न-वह तो मुक्त जीव परमात्मा बन गया, सर्व शक्तिमान् है, उसे धर्म द्रव्य क्यों कर रोक सकता है ? उत्तर-सर्व शक्तिमान् का यह अर्थ नहीं है कि वह वस्तुस्वरूप को हो बदल देवे, उस हालत में वह जीव अजीव हो सकता है, अजव जीव हो मकता है, वह आग को ठण्डी कर सकेगा, पानी का स्वभाव गरम हो जायगा । यह सर्व शक्तिमान् का अर्थ नहीं है। द्रव्य के स्वभाव व शक्ति को अपने-अपने स्थान में स्वीकार करना ही चाहिए। अत धर्मास्तिकाय के अभाव में वह जीव आगे गमन नही करता है, यह निश्चित है। तीर्थकर, केवली श्रुन केवलो के पादमूल में कुछ समय रहने पर ही क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति क्यो होती है ? क्याकि उपादान तो उस जीव मे पहिले से ही विद्यमान है। वह निमित्त है। मुक्ति प्राप्त करने के लिए उत्तम महनन व उत्तम सस्थान की आवश्यकता क्यो है ? उत्तम कुल मे (क्षत्रियो में) तीर्थकर क्यो पैदा होते है ? मुक्ति के साधक सयम को त्रिवर्णोत्थ गृहस्थ ही क्यो धारण करते है ? विरक्ति होने के वाद वाह्य वस्तुओ का त्याग क्यो करना चाहिए? दिगम्बर अवस्था को धारण करना क्यो आवश्यक है ? परिणामो मे निर्मम वृत्ति को धारण करना पर्याप्त है । परन्तु दिगम्बर रूप को धारण किये विना किसी भी अवस्था मे मुक्ति नही हो सकती है। ऐसे एक नही. अनेक प्रमाणो को उपस्थित कर सकते है जिनके विना वह कार्य होही नही सकता है । इससे कार्य की उत्पत्ति मे उपादान जिस प्रकार आवश्यक है निमित्त भी उसमें सहकारिता के लिए आवश्यक है। ___ मोक्ष के लिए यह जीव नाना प्रकार का पुरुपार्थ करता है। सवेग को भावना, निर्वेद का प्रयोग, वस्त्र त्याग, विधि पूर्वक दीक्षा ग्रहण, महाव्रतो का पालन, समितियो का धारण, इन्द्रियो का निरोध, षडावश्यक क्रियाओ का अनुष्ठान, एक भुक्ति, भक्तिपाठ, अचेलक्य, केशलोच आदि क्रियाओ को क्यो पालन करना चाहिये ? यदि इनसे हमारी भलाई व बुराई का कोई सम्बन्ध नही है तो इनके आचरण की क्या आवश्यकता है ? मालूम होता है आत्मा के भवितव्य का सम्बन्ध इन सदाचरणो से है, ये सदाचरण आत्मोद्धार में निमित्त पडते है । इससे आत्म विशुद्धि होती है।
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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