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जन्म जरा और मृत्यु रूपी त्रिपुरा को नाश करने के लिए संयम हो महादेय है। पर मान स्तम्भ तैयार है उसकी मिती फाल्गुन सुदी १२ वि०स०२००१ है । महाराज श्री की उपस्थिति में पचकल्याण प्रतिष्ठा करना है। महाराज श्री ने मजूर कर लिया। सनावद में साथगण रुग्ण हो गये । रुग्णावस्था मे सिद्धवरकूट होकर खरगौन, पावागिर ऊन पहले यहा पर श्री १०८ मुनिराज हेमसागर जी क्ष० बोध सागर जी मलेरिया बुखार से पीडित होकर गमाधि हो गई उनकी समाधी कर वडवानी के रास्ते में ही महाराज श्री भी ज्वर से पीडित हो गये किन्तु ज्वर को परवाह न कर वडवानी पहुच गये। समाधि मरण
वहा पचकल्याणक मानस्तम्भ प्रतिष्ठा शान्ति रूप से निर्विघ्न हो गई । फागुन शुक्ला १२ को महाराज श्री ने अन्न जन का त्याग कर समावी ली और आप की परिचर्या व० वैद्य वासुदेव पिलुआ (एटा) निवासो व श्री १०५ क्ष ० इन्दुमती जी क्ष.० मानस्थभामती जी ने और भी भव्य श्रावको ने णमोकार मत्र द्वारा सुना कर वैयावृत्ति की और वि० स० २० १ फागुन शुक्ला १५ को इस नश्वर पार्थिव शरीर को छोडकर स्वर्गवासी हो गये। यानी समाधि हो गई । भारत में सब जगह शोक छा गया। और एक महान आत्मा का वियोग असह्य हो मया। आपके शिष्य___आचार्य महावीरकीति जी को पीसन गांव में ब्रह्मचारी सप्तम प्रतिमा के वन दिये थे। श्री १०५ क्ष० इन्दुमती जी ने श्री १०८ आचार्य वीर सागर जी से आर्यिका व्रत लेकर सर्व जगह विहार कर बड़ी प्रभावना के साथ २ कलकत्ता चातुर्मास कर इस वर्ष गोहाटी चातुर्मास किया था। आपके सघस्थ आर्यिका विदुपी रत्न सुपार्शमती जी विद्यामती जी सुप्रभामती जी है।
क्ष० धर्म सागर जी, श्री आचार्य वीर सागर जी से मुनि दीक्षा लेकर आप आचार्य धर्म सागर जी के नाम से प्रख्यात है इस वर्ष चातुर्मास सहारनपुर में है। आप महा शाति स्वाभावी है।
क्षु० मानस्थभामती जी ने भी आचार्य वीर सागर जी से आर्यिका दीक्षा लेकर नागौर मे समाधी की। भक्तिपूर्ण श्रद्धाञ्जलि
मुझे भी शूद्र जल का त्याग जपयुर मे कराया था और भी व्रत दिये थे। उन्ही की कृपा से मैं इस पद पर पहुंचा हूं और उनके चरणारविंद मे भक्ति महित श्रद्धाजनी अर्पण करता हूं और भावना करता हूं कि उन्ही के समान व्रताचरण पालता हुआ धैर्यशाली बनू ।
--आ. विमल सागर