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________________ देह का स्नेह मात्म स्वभाव का विधातक है। मा चिट्ठह मा जंपह मा चितह किंवि जेण होइ थिरो॥ अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ॥५६॥ गाथार्थः हे ज्ञानी जनो! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो अर्थात् काय के व्यापार को मत करो। कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो। जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में तल्लीन स्थिर होवे, क्योंकि जो आत्मा में तल्लीन होना है वही परम ध्यान है ॥५६॥ तवसुदवदवं चेदा, झाणरह धुरंधरो हवे जम्हा ॥ तह्मा तत्तियणिरदा, तल्लद्धीए सदा होह ॥५७॥ गाथार्थः-क्योंकि तप, श्रुत और अत का धारक जो आत्मा है वही ध्यान रूपी रथ की धुरा को धारण करने वाला होता है , इस कारण हे भव्य जनो ! तुम उस ध्यान की प्राप्ति के अर्थ निरन्तर तप, श्रुत और बत इन तीनों में तत्पर होवो ॥५७॥ . दन्वसंगहमिणं मुणिणाहा, दोससंचयचुदा सदपुण्णा ॥ सोधयंतु तणुसुत्तधरेण, गेमिचंदमुणिणा भरिणयं जं ॥५॥ गाथार्थः-अल्प झान के धारक मुझ (नमिचन्द्र मुनी) ने जो यह द्रव्य संग्रह कहा है इसको दोषों रहित और ज्ञान से परिपूर्ण ऐसे आचार्य शुद्ध करै ॥५॥ इति श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्ति देव विनिर्मिती बृहद् द्रव्य सग्रहः समाप्तः [१८]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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