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________________ प्रथमावस्था में ही ऐसा काम करो जिससे बुढ़ापे में सुख हो । stio stw चार सुरग में मन को विकलप, आगे सहजशोल निरधार । अहमिन्द्र सब महा सुखी हैं, वंदौ सिद्ध मुखी अविकार ॥४८॥ ॥स्वर्ग नरक मे गमणागमण वर्णन ।। साततै नीकले पशु छट्टनरवत नाहि, पांच महावत, चौथेसेति मोक्षोत्तर है । तीजै दूज पहिले ते आय जीनराय होय, भुवनत्रक सुर्ग दोय येकेन्द्रि धार है ।। द्वादशम स्वर्ग ताई पंचेद्रि पशु होय उपर को आयो येक नर को औतार है। दक्षिणेद्र सोधर्मराणि, लोकपाल, लौकांतीक सर्वार्थ सिद्धि मोक्षलहै नमस्कार है ॥४६॥ ॥कर्म प्रकृति वर्णन-स्तुति ॥ । वंदो नेमिजिनंद चंद सबको सुखदाई । बल नारायण वंदि मुकुट मणि शोभा पाई ॥ ध्यंतर इंद्र बत्तीस भुवन चालीसूं आवै । रवि शशिचक्रो सिंह स्वर्ग चौबीसौ ध्याय । सब देवनि के सिरदेव जिन सुगुरुनि के गुरुराय हो । हजो दयाल मम हाल पै गुण अनंत समुदाय हो ॥५०॥ इंद फणिद पूजि, नमि भगति बढावै । बल नारायण बंदि मुकुट मणि शोभा पावै ॥ बिन जाने जगवन भमै, जानिछिन सुर्ग बसावे। ध्यान आन रिधवान अमर पद आप कहावै ॥ सब देवनि के सिरदेव जिन, सुगुरुनिके गुरुराय हो । हूजौ दयाल मम हाल पै, गुण अनन्त समुदाय ही ॥५१॥ एक समै माहि एक समै परबद्ध बंध, एक समै एक समै परबद्ध झरे है। वर्गना जघन्य में अभव्य सो अनन्त गणि, उत्किष्ट सिद्ध को अनंत भाग धरे है। जैसे एक गास खाय सात धात होय जाय, तैसे एक सात कर्म रूप अनुसरे है । यौन लहै मोक्ष कोई जाके उर ग्यान होई, एक समै बहु खोई, सोई सीव वर है ॥५२॥ देव पै परयो है पट रूप को न ज्ञान होय, जैसे दरबान भूप देखनौ निवारे है। सहेत लपेटि असिधार सूख दुःख कारा, मदिराज्यों जीवनीको मोहनि विधारे है । काठमें दीयो है पाव कर थोतिको सुभाव, चित्रकार नाना नाम चित्र को समारे है ।। चकी ऊंच नीच कर, भूप दीयो मना कर, येहि आठ कर्म हरै सोहि हमें तारे है ॥५३॥ [१२]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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