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________________ गुरु-संगति रूपी अमृत के झरने में विवेक लक्ष्मी निवास करती है। अशुद्ध द्रव्य पर्यायाथिक नय "ससारी जीव क्षण भर सुखी है" इस प्रकार विवेचन करना अशुद्ध द्रव्य पर्यायार्थिक नय है क्योकि यह नय सुख रूप अर्थ पर्याय को गौण रूप से और अशुद्ध द्रव्य ससारी जीव को प्रधान रूप से ग्रहण करता है। सुख और ससारी जीव में कथन भेद अवश्य है परन्तु वास्तविक भेद नही है जो एकातवादी सर्वथा द्रव्य पर्याय मे भेद मानते है इस लिये उनका नयाभास है। शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय आत्मा सिद्ध स्वरूप है ऐसा ग्रहण करने वाला नय शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है क्योकि आत्मा शुद्ध द्रव्य है और सिद्धावस्था शुद्ध व्यजन पर्याय है। इसमे यह नय मुख्य और गौण से दोनो का विषय करता है जो प्रात्मा और सिद्ध पर्याय को सर्वथा भिन्न मानता है वह नैगमाभास है। अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय अशुद्ध द्रव्य और अशुद्ध व्यजन पर्याय को गौणता और मुख्यता से ग्रहण करता है वह अशुद्ध द्रव्य व्यजन पर्याय नैगम नय है। जैसे ससारी आत्मा अशुद्ध द्रव्य है और नर-नारकादि अशद्ध व्यजन पर्याय है। जो नर नारकादि पर्याय से आत्मा को सर्वथा भिन्न मानता है वह नेगमाभास है। "नेक गमो नैगम" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो दो धर्मों में या दो मियो मे से या धर्म धर्मो मे से विवक्षा के अनुसार केवल एक को नही जानता उसे सज्जन पुरुष नैगम नय कहते है। नैगम शब्द की एक व्युत्पत्ति के अनुसार तो ऊपर उसका लक्षण बतलाया था यहां उसकी दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ किया है जो दो धर्मों में से या दो धर्मियो में से या दो धर्म धर्मियों में से केवल एक को न जानकर गौणता और मुख्यता की विवक्षा से दोनो को जानता है वह नैगम नय है । अकलक देव ने अष्टशती में लिखा है कि दो मूल नयों ( अर्थात् पर्यायार्थिक और द्रव्याथिक ) की शुद्धि और अशद्धि की अपेक्षा से नंगमादि की उत्पत्ति होती है । उसको व्याख्या करते हुये स्वामी विद्यानन्दी ने अष्ट सहस्त्री मे लिखा है कि-मूलनय द्रव्यार्थिक की शुद्धि से सग्रह नय निष्पन्न होता है क्योकि वह समस्त उपाधियो से रहित शुद्ध सन्मात्र को विषय करता है और सम्यक एकत्व रूप से सबका सग्रह करता है। उसी को अशुद्धि से व्यवहार नय निष्पन्न होता है, क्यो कि वह सग्रह नय के द्वारा गृहीत अर्यों का विधि पूर्वक भेद प्रभेद करके उनको ग्रहण करता है जैसे वह सत् द्रव्य रूप है या गुणरूप है । इसी तरह नैगम भी अशुद्धि से निष्पन्न होता है क्योंकि वह सोपाधि वस्तु को विपय करता है । उस नैगम नय की प्रवृति तीन प्रकार से होती है-द्रव्य में, पर्याय में और द्रव्य पर्याय मे।
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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