SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उन्नति की जड़ नम्रता है। जोवादी - सद्दहणं, सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु । दुरभिणिवेशविमुक्कं, गाणं सम्म खु होदि सदि जहि ॥४१॥ - गाथार्थः- जीव आदि पदार्थो का जो श्रद्धान करना है वह सम्यक्त्व है और वह सम्यक्त्व आत्मा का स्वरूप है । और इस सम्यक्त्व के होने पर संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय इन तीनों दुरभिनिवेशों से रहित होकर सम्यग्ज्ञान कहलाता है ॥४१॥ संसयविमोहविन्भय - विवज्जियं अप्पपरसरूस्स । गहणं सम्भणाणं, सायार - मणेयभेयं तु ॥४२॥ गाथा भावार्थ :- आत्म स्वरूप और पर पदार्थ के स्वरूप का जो संशय, विमोह (अनध्यवसाय) और विभ्रम (विपर्यय) रूप कुज्ञान से रहित जानना है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है यह आकार (विकल्प) सहित है और अनेक भेदों का धारक है ॥४२॥ जं सामण्णं गहणं, भावाणे णेव कटुमायारं । अविसेसिदूण अट्ठ, दंसणमिवि भण्णए समए ॥४३॥ गाथार्थः- यह शुक्ल है, यह कृष्ण है इत्यादि रूप से पदार्थो को भिन्न-२ न करके और विकल्प को न करके जो पदार्थों का सामान्य से अर्थात सत्तावलोकन रूप से ग्रहण करना है उसको परमागम में दर्शन कहा गया है ॥४३॥ दंसणपुव्वं गाणं, छदमत्थाणं ण दोणि उवउग्गा। जुगवं जला केवलि-णाहे जुगवं तु ते दोवि ॥४४॥ गाथार्थः-छमस्थ जीवों के दर्शन पूर्वक ज्ञान होता है, क्योंकि छमस्थों के ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग एक समय में नहीं होते। तथा जो केवली भगवान हैं उनके दर्शन और ज्ञान एक ही समय में दोनों उपयोग होते है ॥४४॥ असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वदसमिदिगुत्तिरूवं, ववहारणयादु जिणभणियं ॥४॥ गाथार्थ:- जो अशुभ (बुरे) कार्य से दूर होना और शुभ कार्य में प्रवृत्त होना अर्थात लगना है उसको चारित्र जानना चाहिये । श्री जिनेन्द्र देव ने व्यवहार नय से उस चारित्र को ५ गत ५ समिति और ३ गुप्ति स्वरूप कहा है ॥४५॥ [१४५]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy