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________________ जिसको दृष्टि स्वयं अंधकार को नाश करने वाली है उसे वीपक की क्या आवश्यकता है। बहिरभंतर किरियारोहो भवकारणपणासटुं॥ गाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारित्तं ॥४६॥ गाथार्थः- ज्ञानी जीव के जो संसार के कारणों को नष्ट करने के लिये बाह्य और अन्तरङ्ग क्रियाओं का निरोध है, वह श्री जिनेन्द्र से कहा हुआ उत्कृष्ट सम्यकचारित्र है ॥४६॥ दुविहं पि मुक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुरणी णियमा ॥ तह्मा पयत्तचित्ता जूयं शाणं समन्भसह ॥४७॥ गाथार्थः- मुनि ध्यान के करने से जो नियम से निश्चय और व्यवहार इन दोनों स्वरूप मोक्ष मार्ग को पाता है। इस कारण से हे भव्यो ! तुम चित्त को एकाग्र करके ध्यान का अभ्यास करो॥४७॥ मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्टणिअट्ठसु ॥ थिर मिच्छहि जह चित्तं विचित्त झाणप्प सिद्धोए ॥४८॥ गाथार्थः- हे भव्यजनो ! यदि तुम नाना प्रकार के ध्यान अथवा विकल्प रहित ध्यान की सिद्धिके लिये चित्त को स्थिर करना चाहते हो इष्ट तथा अनिष्ट रूप जो इन्द्रियों के विषय है उनमें राग द्वेष और मोह को मत करो ॥४॥ पण तीस सोल छप्पण चउद्गमेगं च जवह ज्झाएह ।। परमेट्ठि वाचयाणं अण्णं च गुरूवएसेण ॥४६॥ गाथार्थः- पंच परमेष्टियों को कहने वाले जो पैतीस, सोलह, छह, पांच, चार, दो और एक अक्षररूप मन्त्रपद है उनका जाप्य करो और ध्यान करो इनके सिवाय अन्य जो मन्त्रपद है उनको भी गुरू उपदेशानुसार जपो और ध्यावो ॥४६॥ णटचदुघाइ कम्मो दंसरण सुहणाण वीरियम इओ ।। सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचितिज्जो ॥५०॥ गाथार्थः-चार घातिया कर्मों का नष्ट करनेवाला, अनंत दर्शन, सुख, ज्ञान और वीर्य का धारक, उत्तम देह में विराजमान और शुद्ध ऐसा जो आत्मा है वह अरहंत है उसका ध्यान करना चाहिये ।।५।। [१४६]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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