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________________ अनादि काल से लगी हुई कर्मरूपी कालिमा अति कठिनता से त्याज्य है। मित्रता का प्रयोजन जाता रहा है,ऐसे धन हीन मनुष्य को छोड़ देते है । जिसके पास धन है, उसके मित्र है, बान्वव है, लोक में वही पुरुष है । पण्डित है । और जब मनुष्य धन रहित हो जाता है, तब उसका न कोई मित्र रहता है और न भाई । और वही अगर जन-धन सहित हो जाता है तो लोग उसके आत्मीय बन जाते है । हे राजन् यह मनुष्य लोक विचित्र है । इसमे मेरे जैसे लोगो को तो कोई जानता ही नही है अथवा आपकी बात जाने दीजिये। आप, जैसे लोग जिनकी वदना करते है, वे साधु भी मूर्ख पुरुषों से अपमान प्राप्त करते है । मुझ मन्द भाग्य ने उस समय आपकी आतिथ्य क्रिया क्यो नही की यह विचार कर आज भी मेरा मन सन्ताप को प्राप्त हुआ है । आपके अतिशय सुन्दर रूप को देखकर मनुष्य ही अत्यन्त आश्चर्य को प्राप्त नही होता है। वरन पृथ्वी पर ऐसा कोई नही है जो आपके प्रति अत्यन्त आश्चर्य को प्राप्त नही हुआ हो । इस प्रकार कहकर वह कपिल ब्राह्मण शोकाकुल होकर रोने लगा । तब राम ने शुभ वचनो से सान्त्वना दी और सीता ने उसकी स्त्री सुशर्मा को समझाया । राम की आज्ञा से किंकरो ने भार्या सहित कपिल श्रावक को सुवर्ण घटो में रखे हुये जल से प्रीति पूर्वक स्नान कराया, उत्कृष्ट भोजन करवाया और वस्त्र तथा रत्नो से उसे अलकृत किया । वह बहुत भारी धन लेकर अपने घर वापिस गया । यद्यपि वह ब्राह्मण लोगों को आश्चर्य में डालने वाले तथा सब प्रकार के उपकरणो से युक्त भोगोपभोग पदार्थों को प्राप्त हुआ था। तो भी वह राम के सम्मान रूपी वाणो से बिद्ध था, गुण रूपी महासर्पो से डसा गया था तथा सेवा सुश्रूषा के कारण उसकी आत्मा दब रही थी । इसलिये वह सन्तोष को प्राप्त नही होता था । राम ने तिरस्कार के बदले उसका सत्कार किया था । अपने अनेक-गुणो से उसे वशीभूत किया था। वास्तव मे पुरुष वही है जो अनुपकारी के प्रति पुरुषोत्तम राम के समान उपकार करते हैं जिन्होने दुर्वचनो के द्वारा तिरस्कार करने वाले को सुवर्ण कलशो के पवित्र जल से अभिषेक कराकर अमूल्य वस्त्राभूषण भेट किये। [४३]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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