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________________ सांसारिक भोगो में शहद की मक्खी के समान नहीं फंसना चाहिये। एवं छन्भेयमिदं, जीवाजीवप्पभेददो दव्वं ॥ उत्तं कालविजुत्तं, णादव्वा पञ्च अत्थिकाया दु ॥२३॥ गाथा भावार्थः-इस प्रकार एक जीव द्रव्य और पांच अजीव द्रव्य ऐसे छह प्रकार के द्रव्य का निरूपण किया। इन छहों द्रव्यों में से एक काल के बिना शेष पांच अस्तिकाय जानने चाहिये ॥२३॥ संति जदो तेणेदे, अथिति भणंति जिणवरा जमा ॥ काया"इव बहुदेसा, तह्मा काया य अस्थिकाया य ॥२४॥ ' पूर्वोक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश ये पांचों द्रव्य विद्यमान हैं, इसलिये जिनेश्वर इनको 'अस्ति' (है) ऐसा कहते हैं और ये काय के समान बहु प्रदेशों को धारण करते हैं इसलिये इनको 'काय' कहते हैं। अस्ति तथा काय दोनों को मिलाने से ये पांचों 'अस्तिकाय' होते है ॥२४॥ हति असंखा, जीवे, धम्माधम्मे अणंत आयासे ॥ - मुत्ते तिविहि पदेसा, कालस्सेगो ण तेण सो काओ ॥२५॥ गाथार्थः-जीव, धर्म तथा अधर्म द्रव्य में असंख्यात प्रदेश है और आकाश में अनन्त है । मूर्त (पुद्गल) में संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेश हैं और काल के एक ही प्रदेश है, इसलिये काल काय नहीं है ॥२५॥ एयपदेसो वि अण, णाणाखंघप्पदेसदो होदि ॥ ___ बहुदेसो उवयारा, तेण य काओ भणंति सन्वण्हु ॥२६॥ गाथार्थः-एक प्रदेश का धारक भी परमाणु अनेक स्कन्ध रूप बहुत प्रदेशों से बहु प्रदेशी होता है इस कारण सर्वज्ञ देव उपचार से पुद्गल परमाणु को काय कहते हैं ॥२६॥ जावदियं आयासं, अविभागी पुग्गलाणु उदृद्धं ॥ तं खु पदेसं जाणे, सव्वाणुटाण दाण रिहं ॥२७॥ गाथार्थः-जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणु से रोका जाता है, उसको सब परिमाणुओं को स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो ॥२७॥ प्रयमऽधिकार समाप्त ॥१॥ परिणामि-ज-व-मुत्तं, सपदे एय-खेत्त-किरिया य ।। णिच्चं कारण-कत्ता, सव्वगदमिदरहि यप वेसे ॥१॥ दुणिय एवं एयं, पंच-त्तिय एय दुण्णि चउरो य । पंच य एवं एयं, एदेसं एय उत्तरं णेयं ॥२॥युग्मम्।। [१४१] 36
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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