________________
वही मामब सर्वोत्कृष्ट है जिसका हृदय सदाचार की सुगन्धि से सुवासित है।
गाथा भावार्थः-गति (गमण में) परिण जो पुद्गल और जीव हैं उनके गमन में धर्म द्रव्य सहकारी है, जैसे मत्स्यों के गमन में जल सहकारी है और नहीं गमन करते हुये पुद्गल और जीवों को वह धर्म द्रव्य कदापि गमन नहीं कराता है ॥१७॥
ठाण जुदाण अधम्मो पुग्गल जीवाण ठाण सहयारी ॥
छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई ॥१८॥ __ गाथा भावार्थः-स्थिति सहित जो पुद्गल और जीव हैं उनको स्थिति में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है जैसे पथिकों (बटोहियों) की स्थिति में छाया सहकारी है और गमन करते हुये जीव तथा पुद्गलों को वह अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता है ॥१८॥
अवगा सदारण जोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं ॥
जेण्हं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥१६॥ गाथार्थ:-जो जीव आदि द्रव्यों को अवकाश देने वाला है उसको श्री जिनेन्द्र करके कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो । वह लोकाकाश और अलोकाकाश इन भेदों से दो प्रकार का है ॥१९॥
धम्माऽधम्मा कालो पुग्गल जीवा य संति जावदिये ।।
आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्ति ॥२०॥ गाथार्थः-धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव ये पांचों द्रव्य जितने आकाश में हैं वह तो लोकाकाश है और उस लोकाकाश के आगे अलोकाकाश है ॥२०॥ ___दव परिवट्ट रूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो ।
परिणामा दी लक्खो वट्टण लक्खो य परमट्ठो ॥२१॥ गाथार्थः-जो द्रव्यों के परिवर्तन रूप, परिणाम रूप देखा जाता है वह तो व्यवहार काल है और वर्त्तना लक्षण का धारक जो काल है वह निश्चय काल है ॥२१॥
लोयायास पदेसे इक्किक्के जे ठियाहु इक्किक्का ।।
रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंख दव्वाणि ॥२२॥ गाथार्थः-जो लोकाकाश के एक एक प्रदेश में रत्नों की राशि के समान परस्पर भिन्न होकर एक एक स्थित है वे कालाणु है और असंख्यात द्रव्य है ॥२२॥ [१४०]