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________________ बुद्धि कर्मानुसार होती है। को क्रमिक धारा का नाम ही नय है । जैन दर्शन का अकाट्य सूत्र है जिसमें वक्ता के अभिप्रायः दृष्टिभेद को ही नय कहा गया है, 'ज्ञातुरामे प्रायोनय ।' अथवा "वस्त्वेक देश सग्राही नयः" यह सूत्र भी इसी अभिप्राय को प्रकट करता है। वस्तु के एक अश का कथन करने पर अनेक अश वक्तव्य से अवशिष्ट रह जाते है, उनके न कहने पर वस्तु स्वरूप का पूरा विवेचन नही हो पाता है। जैनाचार्यों ने अनेकान्त युक्त वस्तु की पूर्ण परीक्षा प्रमाण और नय दोनो के ही आधीन मानी है । "अनेकान्त प्रमाण नय साधन" ऐसी आचार्य समन्त भद्र को उक्ति है इनमें 'सकलादेशः प्रमाणाधोनः विकलादेश. नयाधीनः वस्तु स्वरूप को सम्पूर्ण दृष्टि या रूप से विचार करना प्रमाण के अधीन है और विकला देश (एक दृष्टि) नय के अधीन है। उदाहरणार्य 'रसोई शब्द से वाच्य एक ऐसा स्थान है जहा भोजन को अनेक सामग्री तैयार की जाती है। व्यवहार में रसोई का अर्थ मकान विशेष से होता है। परन्तु जब एक व्यक्ति अतिथि को निवेदन करता है कि पधारिये 'रसोई तैयार है भोजन कीजिये। तब अतिथि प्रमाण रूप में विश्वस्त होता है कि उसे भोजन सामग्री का उपभोगकर उदर पूर्ति करना है। न कि रसोई (मकान) का। किन्तु रसोई स्वय अनेक भोजन सामग्री का संग्रह स्थान है। वहा की एक एक वस्तु अलग २ होते हुए भी स्वय का निजी अस्तित्व रखती है। और वह रसोई शब्द में गभित हो जाती है। यह अलग २ दृष्टि नय का रूप लेती है। रमोई सभी सामग्री का जिस प्रकार सग्रह है। उसी प्रकार प्रमाण भी अनेक नयो का संग्रह है। दोनो परस्पर सापेक्ष है, अतएव आचार्यों ने स्पष्ट कर दिया है कि ____ 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु सार्थकृत ।' अर्थात निरपेक्ष नय मिथ्या है और वे ही सापेक्ष होकर वस्तु स्वरूप की सिद्धि करने वाले होते है। फल यह हुआ कि अनेक नयों से सापेक्ष कथन की गई वस्तु प्ररूपणा ही प्रमाण सिद्धि कही जा सकती है एक नयाधीन नही। इसमें यह भी पुष्ट होता है कि न तो प्रमाण ही वस्तु स्वरूप का स्वतन्त्र साधक है और न केवल नय । दोनो का समन्वय ही सत्य निर्णय हो सकता है। _ 'अर्पितानर्पितसिद्धः' इस सूत्र द्वारा नय व्यवस्था को भली प्रकार हृदयगम किया जा सकता है। एक दृष्टि अर्पित (मुख्य) और दूसरी दृष्टि अनर्पित (गौण) से वस्तु तत्व को सिद्धि होती है। जिसे प्रधानता देनी है उस पर प्रधानता का दृष्टि कोण होना चाहिये। उस समय वही प्रमुख है परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नही होना चाहिए कि दूसरी गौण दृष्टि है ही नहीं वह अवश्य है किन्तु उसका कथन गौण है । जिस प्रकार आमका फल अनेक गुणों से युक्त स्वाद है। आम के भक्षण करने वाले से पूछा गया कि यह कैसा है ? (क्योकि खाने वाले की दृष्टि केवल उस आम के स्वाद पर ही है) वह उत्तर देता है कि आममीठा है। उसे उसके रग आकार, वजन आदि से कोई प्रयोजन नही है। प्रश्नकर्ता और उत्तर प्राप्त कर्ता दोनो ही सतुष्ट है। परन्तु क्या यह पूर्णतः सही है। विचारक सोचता है कि आम का पूर्ण रूप तो सामने आया ही नहीं। अभी अनेक विशेषताएं अव्यक्त बनी हुई है। तभी वह उन पर दृष्टि डालता है और सन्देह में पड़कर कहता है कि मेरे वचन की सामर्थ्य आम के सभी गुणो और रूपो को एक साथ [१६]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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