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________________ विद्या अभ्यासानुसार बढ़ती है। wwwmmmmmmm अनेकान्त -श्री धर्मालंकार पं० हेमचन्द्र जी जैन शास्त्री एम. ए. अजमेरपरमागमस्य जीवं निषिद्ध जाव्यन्ध सिन्धुरभिधानम् । सकल नय विलसिताना, विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ -'अमृत चन्द्राचार्य ' विश्ववंद्य महावीर के सुप्रसिद्ध तीन सिद्धान्तों का नामकरण वर्णमाला के प्रारम्भ अक्षर अकार से होता है १- अहिंसा २- अनेकान्त ३- अपरिग्रह ये तीनों ही सिद्धान्त अपनी महत्ता के लिये विश्व में प्रसिद्ध है। और इनकी उपयोगिता मानव जीवन मे अपरिहार्य है। तीनों का मूल उद्देश्य विश्वैक्य, विचार सामन्जस्य, और सुख सम्प्राप्ति है। अहिंसा जहां सम्पूर्ण चराचर में एकता का सद्भाव पैदा करती है, वहां अनेकान्त समस्त विचारो में सद्भावनात्मक सामञ्जस्य का सृजन करता है। जीवन के प्रत्येक क्षण में अपरिग्रह भाव ही सुख और शान्ति का जनक है । सम्पूर्ण जीवों के प्रति अहिसात्मकभाव, सर्वजन विचार सहिष्णता एवं सग्रहवृत्ति के अभाव से केवल व्यक्तिगत जीवन ही परिपूर्ण नही होता किन्तु समष्टिगत जीवन को पूर्ति को भी यही प्रमुख आधार शिलाएं है। ___भारत एक विचारणा शील देश है । यहां की प्राकृतिक रमणीय स्थली में प्राणिमात्र अपने अपने योग्य भोग्य सामग्री सरलता से प्राप्त कर लेता था। राजा और प्रजा के मघर सम्बन्ध थे। राजा प्रजा का पुत्रवत् पालन करता था और उसकी कर्त्तव्य निष्ठा उसके प्रजाजन की खुशियाली पर ही आंको जाती थी। प्रकृति उन्हे भरपूर देती थी और वे सन्तोष वत्ति से प्रकृति का दोहन कर अपनी सीमित अभिलाषाएं तृप्त कर लेते थे। विचारक दल प्रकृति को गोद में पर्वतगुफा, वन प्रदेश, नदी के कुल, आश्रम आदि शान्त वातावरण युक्त स्थलो में इसी प्रकृति के विभिन्न रूपों का चिन्तन करता था। इन चिन्तको के विभिन्न विचार ही दर्शनों की उत्पत्ति की पृष्ठभूमि थे। जिस जिस तत्व वेत्ता ने जिस जिस दृष्टि से वस्तु को जिस २ रूप में देखा, उनके विचारो का एकीकरण ही भिन्न २ दर्शनों की उत्पत्ति का कारण बना। और परम्परा सिद्ध यही विचारधाराए मतों का रूप ले बठी। षट दर्शनों में यही अपेक्षाकृत दृष्टि आज भी अनेक ग्रन्थो में भरी उपलब्ध होती है। : . दृष्टिभेद नयों का जनक होता है। एक दृष्टि अनेक गुणों का अथवा दृष्टिकोणों का किसी भी मूल्य पर कथन करने की सामर्थ्य नही रखती अतः यह आवश्यक हो जाता है कि विचारक वस्तु के गुणों को क्रमशः जानने या कथन करने का प्रयत्न करे। यदि वह सभी गुणों को एक साथ कहने का प्रक्रम करेगा तो यह उसका कार्य वचन को अशक्तता के कारण कभी भी पार नही पड़ सकता है। उसे अपनी वचन धारा क्रम से ही प्रयुक्त करनी होगी। इस वचन [१८]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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