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________________ लक्ष्मी पुण्यानुसार प्राप्त होती है। जो शिष्य व्यवहार और निश्चय के द्वारा तत्व को जान कर माध्यस्थ होता है वही शिष्य देशना का निर्दोष फल प्राप्त करता है। यदि तू जिन मत में प्रवेश करना चाहता है तो निश्चय व्यवहार दोनो को ही मत छोड । यदि व्यवहार को छोडता है तो तीर्थ का नाश करता है और निश्चय छोड़ता है तो तीर्थ फल का नाश करता है। क्योकि जीवो का अनादि अज्ञान मुख्य कथन और उपचार कथन नय के द्वारा ही दूर हो सकता है। मुख्य कथन निश्चय नय के आश्रित है क्योकि निश्चय नय स्वाश्रित है अर्थात् द्रव्य के अस्तित्व मे जो भाव रहते है उस द्रव्य मे उन्ही भावो का स्थापन करना, अणुमात्र भी अन्य को की कल्पना नहीं करना स्वाश्रित है-इसको ही मुख्य कथन कहते है। इस नय के ज्ञान से शरीरादि परद्रव्य में एकत्व श्रद्धानुरूप अज्ञान भावना का अभाव होकर भेद विज्ञान उत्पन्न होता है तथा समस्त पर द्रव्यो से भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप का अनुभव होता है। पराश्रित कयन को व्यवहार कहते है। इस नय का विषय है किंचित मात्र कारण पाकर अन्य द्रव्य के भावो का अन्य द्रव्य में आरोपित करना । अर्थात् यह नयसयोगी और आगन्तुक भावो का वर्णन करता है। इसलिये यह नय पराश्रित है। पराश्रित कथन को गौण या उपचार कहते है । इस नय के जानने से शरीर आदि के साथ सम्बन्ध रूप ससार दशा का ज्ञान होता है, तथा संसार का ज्ञान होने से संसार का कारण आस्रव बंध का त्याग कर मुक्ति के कारण सवर और निर्जरा में प्रवृति करता है । अज्ञानी जन इसको जाने बिना ही शुद्धोपयोगी होना चाहता है अतः वह व्यवहार को छोड़ देता है और पापाचरण में पड़कर नरकादि में दुःख उठाता है । इसलिये व्यवहार नय के कयन को जानना भी परमावश्यक है। सिद्धान्त मे तथा अध्यात्म में प्रवेश करने के लिये नय ज्ञान बहुत आवश्यक है क्योकि दोनों नय दो आँखे है और दोनो आखों से देखने पर ही सर्वावलोकन होता है । एक आख के देखने से देश का ही अवलोकन होता है जो नय दृष्टि से विहीन है उन्हे वस्तु के स्वरूप का अवबोध नही होता और वस्तु के यथार्थ स्वरूप जाने बिना सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है इसलिये व्यवहार और निश्चय दोनो को जानना चाहिये । जितना अपने विषय को जानने के लिये निश्चय नय उपयोगी है उतना ही व्यवहार नय अपने विषय को जानने के लिये उपयोगी है। अपने-अपने विषय में दोनों ही समान है एक भी हीनाधिक नही है, जो एक-एक नय के विषय को लेकर विवाद करते है अथवा एक को असत्य वा हेय बताकर अवहेलना करते है वह मिथ्या दृष्टि है। वस्तु के स्वरूप से अनभिज्ञ है। यदि एक नय के आश्रित ही वस्तु का स्वरूप होता तो आचार्यों ने दोनों नयों का विषय क्यों कहा है इसलिये सविकल्प अवस्था में दोनों ही उपयोगी है और निर्विकल्प अवस्था में दोनों ही हेय है ऐसा जान कर एकान्तवाद के हठ को छोड़कर ऐसा स्याद्वाद को ग्रहण करना चाहिये। [१७]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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