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________________ पवित्र विचार मानव के मन को उज्ज्वल करते हैं । कहने की नहीं है। वस्तु का पूर्ण स्वरूप एक साथ वक्तव्य नही हो सकता। उसे तो क्रमश. हो जाना जा सकता है। क्रमशः जानने पर भी वह उतना ही वक्तव्य बना रहेगा जितना उसे जानने की इच्छा बलवती होगी। निर्णय यह हुआ कि किसी वस्तु के अनेक गुणों या धर्मों को जानने की प्रक्रिया ही अनेकान्त है। वस्तु स्वयं अनेक - अन्त (वर्म) युक्त है और उसका प्ररूपण करने वाले वचन भी अनेक । इसलिए जैन आचार्यों की यह उक्ति पूर्णत: खरी उतरती है कि जाव दिया ताव दिया चेव होत्तिगया। नय वाद के अनेक प्रयोग करने पर भी जब तक उन्हे परस्पर सापेक्ष नही किया जाता है तव तक वस्तु सिद्धि अधूरी है, अपूर्ण है, एकांगी है, वह प्रमाणित नहीं है। उक्त अनेकान्तात्मक वस्तु स्वरूप की कथन शैली का नाम ही स्याद्वाद है। दर्शन के क्षेत्र में अनेकवाद सदा से ही प्रचलित है। परमात्मवाद, जडवाद, नित्यवाद, क्षारिणकवाद, कर्मवाद, भौतिकवाद, अध्यात्मवाद आदि के ऊपर भारतीय धार्मिको ने (दार्शनिकों) अनेकानेक महान तात्विक न थो का प्रणयन किया है जिसमें खण्डन मण्डनात्मक शैली को प्रमुखता है। परन्तु वस्तु स्वरूप को सर्वागीण निदोंप कथन करने वाना स्याद्वाद ही है जिसमें विरोधी धर्मों और दृष्टियों को भी समादर दिया गया है। इसी प्रणाली में दृष्टि भेदाश्रित सप्तभंगी का कथन है । जब किसी वस्तु के कयन को विधि रूप कयन करने का लक्ष्य है तो स्वरूप चतुष्टय से उसे 'अस्ति' कहा जाता है। और उसी को निपेच रूप कयन करने का लक्ष्य है तो परचतुष्टय से नास्ति' कहा जायगा । इस प्रकार अस्ति और नास्ति दो भाग हुए । स्यात (कयचित्) शब्द अन्य विरोधी दृष्टियो को समादर देता रहता है। इसी प्रकार जब विधि और निषेध दोनों को युगवत् कयन करने का उद्देश्य रहा तो वचना सामर्थ्य के कारण वह अवक्तव्य हो गया ये तीसरा स्वतन्त्र भग हुआ। १ स्यादस्ति २ स्यान्नास्ति ३ स्यादवक्तव्य इन मुख्य अगो को क्रमणः एवं युगपत् प्रयोग करने से ४ स्यादस्ति नास्ति ५ स्यादस्यवक्तव्य ६ स्यान्नास्त्यवक्तव्य ७ म्यादस्ति नास्त्यवक्तव्य भगो की सृष्टि होती है। यह सप्तभंगी नय प्रणाली नय सप्तभंगी और प्रमाण सप्तभंगी के कथन से भी प्रयोग में लाई जा सकती है। उक्त सप्तभंगी जैन दर्शन का प्राण है। इसी के कारण से ही नित्यानित्य, एकानेक, भेदाभेद, स्वभाव-विभाव, अस्तिनास्ति अनेक गुणो का सामजस्य न्याय एव सिद्धान्त ग्रन्थो में पाया जाता है जो जैनधर्म की गरिमा का ही परिचायक नहीं है परन्तु विचार सामञ्जस्य एवं समन्वय का मूल कारण है। जैन दर्शन में परस्पर विरोधी अनेक धर्म एकानेक धर्मात्मक वस्तु में सदा प्राप्त हो सकते है। इसमें दुराग्रह को कोई स्थान नही है । अत: जिज्ञासुओ को अनेकान्त प्ररूपणा में सहिष्णता और सामञ्जस्य को प्रमुखता देना चाहिये, नही तो एकान्तवाद का दुराग्रह ज्यों का त्यों बना रहेगा। जो वस्तु स्वरूप विचारणा में महान बाधक है। दुराग्रह का मूल कारण प्रायः स्वमत व्यामोह हुआ करता है । सहिष्णुता विचार-वैमनस्य को दूर करती है । व्यवहार में स्पष्ट देखा जाता है कि एकांगी दृष्टिकोण वाले अपनी ही बात [२०]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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