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________________ आत्मा के अंतरंग को रत्नत्रय के द्वारा ही सजाया जाता है। अनेक बडे-बड़े उदारधी श्रीमन्त लोग महाराज को भक्तिवश दर्शनार्थ गजस्थान, मालवा, बगाल आदि दूर-दूर प्रदेशो मे आते थे। महाराज श्री चाहते तो उनके नाम स्थापित ओपधालय को अपने भक्तों से प्रेरणा कर हजारों की निधि सहज में प्राप्त कर सकते थे। लेकिन पूज्य महाराज श्री ने कभी भी किसी को औपधालय के लिए प्रेरणा नहीं की। इसी प्रकार पूज्य महाराज श्री नं कभी भी कही किसी को कोई गस्था को निर्माण करने को नही कहा । वे अपनी अयाचक वृत्ति में कोई दाग लगनं नहीं देना चाहते थे। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, निरन्तर ध्यानाध्ययन और तपस्या की आत्म माधना के सिवाय किगी लोकेपणा की चाहकी दाह से वे सदैव अलिप्त रहते थे । लोकानुरजन नही आत्मानुरजन को उन्हें चाह थी। जीवन की यही एकमात्र साध थी। जिसके लिए वे ममर्षण बत्ति गे रहते थे। आत्मा के लिए जो-जो श्रेपस होता था वही उनके लिए प्रयम था। भगवान कुन्दकुन्दाचार्य के शब्दो में 'आदहिदं कादव' का पूज्य महाराज श्री के जीवन में प्रयम ग्यान था। उसके बाद वे परहित में अपना समय देते थे। रत्नत्रय की मूर्तिमंत प्रतिमा वास्तव मे मुनिराज श्री चन्द्र सागर जी को देयकर रत्नत्रय को मूनिमत प्रतिमा को देखने का हृदय को सतोप मिलता था। महाराजश्री का जीवन हिमालग की तरह उनुग सागर की तरह गभीर, चन्द्रमा की तरह शीतल, तपस्या में सूर्य की तरह प्रखर, स्फटिक को तरह अत्यन्त निर्दोप, आकाश की तरह अंतर्वाय खली किताब, महावतों के पालन में वज़ की तरह कठोर, मेरु सदृश अडिग एवं गगा की तरह अत्यंन निर्मल था। वे साधुओ मे महा साधु, तपस्वियो मे कठोर तपस्वी, योगियों में आत्मलीन योगी, महाव्रतियो मे निरपेक्ष महाव्रती और मुनियों में अत्यन्त निर्मोह मुनि थे। वास्तव में ऐसे ही निर्मल निस्पृह और स्थितिप्रज्ञ साधुओ से ही धर्म की शोभा है। विश्व के प्राणी ऐसे ही सत्साधुओं के दर्शन, समागम और सेवा से अपने जीवन को धन्य बना पाने है। पूज्य तरण-तारण महा मुनिराज श्री चन्द्र सागर जी महाराज अपने दीक्षा गुरु परमपूज्य श्री १०८ आचार्य शान्ति सागर जी की शिप्य परम्परा में और आज के साधु जीवन मे न केवल ज्येष्ठता मे थोष्ठ थे वरन थोष्ठता में भी श्रेष्ठ थे। उनके पावन पद विहार से धरा धन्य हो गई । सच्चा आध्यात्म जगमगा उठा और आत्महितपियों को आत्म पथ पर चलने के लिए प्रकाश स्तम्भ मिल गया । वास्तव में वे लोग महा भाग्यशाली है कि जिन्हे ऐसे लोकोत्तर असाधारण महा तपस्वी सच्चे आगमनिष्ठ साधु के दर्शन का सुयोग मिला हम इस स्मृतिग्रन्थ के प्रकाशन के सुअवसर पर उस महा साधु आध्यात्म योगी तपस्वी के पावन चरणो में श्रद्धावनत होकर नम्र अभिवादन कर भाव पूर्वक अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पण करते हुए अपने को पुण्यशाली अनुभव करते है। १६]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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