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________________ आत्मा का सच्चा श्रृङ्गार त्याग है। वह स्वयं तो अनन्त संसार चक्र के गर्त में तो फसेगा हो, पर्वत की तरह अनन्त प्राणियों को भी अकल्याण का कारण बनेगा । अतः नया साहित्य लिखना यह बुद्धि का विलास और लोोगगा का व्यामोह है जिसके वश होकर साधु भी अपने महाव्रत से भ्रष्ट हो जाता है। नारिय प्रििद्ध के लिए उसे परमुखापेक्षी वनकर याचकत्व की अधम वृत्ति स्वीकार करनी पड़ती है। मुनि चद्रसागर जी सदैव निरालव और स्वाधीनता से रहते थे। अपने बिहार और चर्यादि की व्यवस्था के लिए वे कभी किसी को कहते नहीं थे। न मन से भी किसी ने शिमो व्यवस्था की अपेक्षा रखते थे। उनके साथ में कोई आडम्बर नही होता था, न पुस्तकों और शास्त्रो का अबार रखते थे एवं न अपने लिए कभी किसी प्रकार की सुविधा, वैयावृत्ति आदि के लिए कहते थे। प्रदर्शन वृत्ति से सदैव दूर रहते थे। श्री चद्रसागर जी शरीर से केवल वाह्यतः ही अपरिग्रही नही थे अतरग मे भी वे पूर्ण निर्मोही थे। तभी तो ज्वर को तीव्र वेदना के होते हुए भी उन्होने अपने सत्य महाव्रत की रक्षा के लिए बड़वानी प्रतिष्ठा पर, समय पर पहुच कर समाधि मरण पूर्वक प्राणोत्सर्ग किया। को से कडी धूप में घटो खडे रहकर ध्यान करते थे। हिंस्रश्वापदी आदि की परवाह न कर पहाडो और निर्जन वनो में जाकर निर्भयता से सामायिक करते थे । निरन्तर उपवासादिको के द्वारा शरीर कृश करते थे। अनेक रसो का त्याग करके आहार लेते थे और कडे ने कडा निगम (व्रत परिसख्यान) लेकर आहार के लिए निकलते थे। अनेक दिनो तक भी नियमानुसार आहार न मिलने पर भी कभी खेद खिन्न नहीं होते थे और न अपने ध्यानाध्ययन में कोई शिथिलता आने देते थे। एक दफा उनका नणवां (राजस्थान) में चातुर्मास योग था । एक रोज आहार में गेह की बाटी कड़ी होने से उनसे खाई नही गई और उन्होंने वह ग्रास छोडकर अन्तराय करलो। श्रावकों ने समझा कि महाराज श्री के गेहूं का त्याग होने से उन्होने अन्तराय करलो। फिर क्या था उस रोज से रोज आहार में मक्के की रोटी और मक्के का आटा बनने लगा। करीब दो माह तक यह क्रम चलते रहा । लेकिन महाराज श्री ने कभी भी अपने अन्तराय के सही कारण का गौप्यस्फोट किसी के भी पास प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी नही किया। एक रोज कर्मोदय से नांद गांव के श्रावको ने आकर चौक लगाया । गाव के लोगो ने उनको नेह का पदार्थ चौके में बनाने को मना करने पर भी उन्होने गेहूं की रोटियां बनाई । भाग्य में उस रोज आहार भी उनके यहां निरन्तराय हुआ। लोगों ने यह अपवाद लगाया कि आज महाराज ने उनके गांव के श्रावक का चौका होने में गेहूं की रोटी आहार में नेली। तब कही उम रोज महाराज श्री ने अपने धर्मोपदेश के बाद अंतराय की सही स्थिति का निर्देश कर लोगों का गम दूर किया । ऐसी थी शरीर से निर्मोह और नि:स्पृह वृत्ति श्री चन्द्रसागर जी की। नाद गांव में महाराज श्री की स्मृति में अनेक वर्ष पूर्व श्रावको ने श्री मुनि चन्द्र सागर दिगम्बर जैन धर्मार्थ औषधालय की स्थापना की थी। कर्म, धर्म, संयोग ने महाराज श्री की ठा न होते हुए भी संघ के एक साथ मुनि हेम सागर जी के प्रचानक अधिक बीमार हो जाने के कारण नांद गांव (उनकी जन्म-ममि) मे ही महाराज श्री को वर्षा योग करना पटा। बहर में
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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