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________________ गुणी जनों को संगति से कायरता नष्ट होती है। व्यवहार नय संग्रह नयाक्षिप्ताना मानां विधि पूर्वक भवहरणं भेदनं व्यवहारः । व्यवहार परतन्त्रो व्यवहार नयः । सग्रह नयके द्वारा ग्रहण किये हुये पदार्थों का विधिपूर्वक भेद करना व्यवहार नय है । जैसे परसग्रह सब सत् है, ऐसा ग्रहण करता है व्यवहार नय उसके भेदों को ग्रहण करता है वह सत् द्रव्य और पर्याय रूप है । जैसे अपर संग्रह नय सब द्रव्यों का द्रव्य रूप से और सर्वपर्यायों का पर्याय रूप से संग्रह करता है। व्यवहार नय उसका विभाग करता है । व्यवहार नय वहां तक भेद करता है जब तक भेदों की सभावना है। काल्पनिक द्रव्य पर्याय के विभाग को मानने वाला नय व्यवहाराभास है । यह तीनो नय द्रव्याथिक है । क्योकि इन तीनों ही नयों का विशेष पर्याय न होने के कारण इन तीनों नयों के विषय में सामान्य और विशेष काल का अभाव है। इन नयों में काल को विवक्षा नही है। जिसमें काल कृत भेद है वह पर्यायार्थिक नग है और जिसमें काल कृत भेद नहीं है वह द्रव्याथिक नय है। ऋजुसूत्र नय से लेकर एवंभूत नय तक पूर्ण पूर्ण नय सामान्य रूप से उत्तरोत्तर नय विशेष रूप से वर्तमान कालव” पर्याय को विषय करते है। पर्यायाथिक नय के अर्थ नय और व्यंजन नय को अपेक्षा दो भेद है। लिग संख्या कारक पुरुष और उपग्रह के भेद से अभेद रूप वर्तमान समयवर्ती वस्तु का ग्राहक अर्थ नय है, और शब्द भेद से वस्तु के भेद को ग्रहण करने वाला व्यजन नय है। ऋजुसूत्र नय ऋजुसूत्र अर्थ नय है । ऋजुप्रंगुणं सूत्रयति सूचयति इति ऋजुसूत्र नयः । ऋजु-सरल' अर्थात् वर्तमान समयवर्ती पर्याय मात्र को ग्रहण करता है वा सूचित करता है वह ऋजुसूत्र नय है । यह नय केवल प्रधान रूप से क्षरण क्षण में ध्वस होने वालो पर्याय को वस्तु रूप से विषय करता है क्योकि भूत पर्याय तो नष्ट हो चुको है और भविष्य पर्याये अभी उत्पन्न नही हुई है इसलिये इनसे व्यवहार नही चलता है अतः यह नय त्रिकालीन द्रव्य को विवक्षा न करके केवल वर्त-- मान पर्याय का ही विषय करता है इस नय को दृष्टि में समस्त पदार्थ क्षण-क्षण में उत्पन्न ध्वंस शील हैं जो नय बाह्य ओर अतरग द्रव्यों का सर्वथा निराकरण करता है । उसे ऋजुसूत्र नयाभास समझना चाहिये । क्यों कि अन्वयी द्रव्य का सनथा निषेध करने पर कार्य कारणपना ग्राह्य ग्राहक पना और वाच्य वाचक पना नही बन सकता है ऐसी दशा में अपने इष्ट तत्त्व का साधन और पर पक्ष का दूषण कैसे बन सकेगा। तथा लोक व्यवहार सत्य और परमार्थ सत्य भी सिद्ध नही हो सकता है और सामानाधिकरण्य विशेष विशेष्य भाव साध्य साधन भाव आवाराधेय भाव सयोग, वियोग क्रिया कारक स्थिति सादृश्य विसदृशता स्वसंतान और पर सन्तान की स्थिति समुदाय मरण बन्ध मोक्ष पाप पुण्य के फल को व्यवस्था नहीं बन सकती। बौद्ध मत सनथा एकान्त क्षणिक वादी है इसलिये मिथ्या दृष्टि है । और सर्मथा कूटस्थ नित्य मान लेने पर भी पदार्थ में अर्थ क्रिया नही होती इसलिये एक नय कार्यकारी नहीं है। इस ऋजुसूत्र नय को ही अर्थ नय कहते है। वस्तुनः स्वरूप स्वधर्म भेदेन भिदोऽर्थनयः वस्तु के स्वरूप का स्वधर्म के भेद से भेद करने वाला अर्थ नय है। अभेद को वा अभेद रूपेण सर्व वस्तु [१०]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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