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________________ सम्यक् धतधारी गुरुओ को संगति रूपी चंद्रोदय से प्रज्ञा रूपी समुद्र बृद्धिगत होता है सद पतानति क्रान्त स्व स्वभाव मिदं जगत सत्ता रूपतया सर्व संगहन संग्रहो मतः। यह जगत सद् रूपता का उलघन करने वाला नहीं है इस प्रकार सत् रूप से सबका सग्रह करने वाला सग्रह नय है। स्वजात्याविरोधे नैक त्व मुपनीय पर्यायानाक्रांत भेरान विशेषेण समस्त संग्रहणात् संग्रहः । स०सि०९-३३ अपनी जाति का विरोध न करके पर्यायो से आक्रात भेदो को एकत्व रूप से ग्रहण करता है उसको सग्रह नय कहते है। स्वजात्य विरोघे नैकत्वोपनयात् समस्त ग्रहणं संग्रहः । ता० रा. वा० १-३३-४८ एकत्वेन विशेषाणां ग्रहणं सग्रहो मतः । सजातेर विरोधेन दृष्टेष्टाभ्यां कथंचन । प्रत्यक्ष और अनुमान से अपनी जाति का विरोध न करते हुए समस्त विशेषों (भेदों) को एक साथ ग्रहण करने वाला संग्रहनय कहलाता है। पर्याय को छोडकर द्रव्य नहीं और द्रव्य को छोड़कर पर्याय नहीं है। द्रव्य पर्याय का एक ही द्रव्य क्षेत्र काल भाव है इसलिये द्रव्य ही तत्त्व है। इसप्रकार द्रव्य और पर्याय का भेद न करके अभेद रूप से ग्रहण करना सग्रह नय का विषय है। जैसे सत् कहने से सत्ता सम्बन्ध के योग्य द्रव्य-गुण कर्म आदि समस्त सद्व्यक्तियो का ग्रहण हो जाता है तथा द्रव्य कहने से सभी द्रव्यो का ग्रहण हो जाता है। सग्रह शब्द दो अक्षरो के मेल से बना है उनमें से सम का अर्थ है एकीभाव या सम्यकत्व समीचीनपना ग्रह का अर्थ है ग्रहण करना, दोनो को मिलाने से सग्रह शब्द बनता है अर्थात् समीचीन एकत्वरूप से ग्रहण करना अर्थात् समस्त भेद प्रभेदों की जो जो जाति है उसके अनुसार उनमे एकत्व के ग्रहण करने वाले नय को सग्रह नय कहते है। जैसे सत् कहने पर सत्ता के आधार भत सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है और द्रव्य कहने पर जीव अजीव उनके भेद प्रभेदों का सग्रह होता है। जैसे घट कहने पर समस्त घटों का सग्रह होता है। सग्रह नय के दो भेद है परसग्रह और अपरसग्रह । पर संग्रह नय का विषय सत्ता मात्र शुद्ध द्रव्य है। यह नय सत्ता के सम्पूर्ण भेद-प्रभेदों में सदा उदासीन रहता है अर्थात् यह नय न तो उनका निषेध करता है और न उनको विधि ही करता है। जो नय सम्पूर्ण विशेषों का निराकरण करके केवल सत्ता द्वैत को मानता है वह परसग्रहा-भास है। अपर संग्रह नयः-पर सग्रह नत्र के द्वारा ग्रहीत वस्तु के विशेष अंशों का ग्रहण करने वाला अपर संग्रह नय है। जैसे सत् के भेद द्रव्य और पर्याय है अतः सम्पूर्ण द्रव्यों में व्याप्त द्रव्यत्व तथा सम्पूर्ण पर्यायों में व्याप्त पर्यायत्व का ग्रहण करना अपर संग्रह नय का विषय है। यह मय अवान्तर भेदों का एकत्व रूप से संग्रह करता है किन्तु प्रतिपक्षी भेदों का निराकरण नही करता है। [[]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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