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________________ दुराचार से आत्मा का पतन होता है। ऐसे आठ प्रकार का ज्ञान है। इनमें कुअवधि, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल ये चार प्रत्यक्ष हैं और शेष चार परोक्ष हैं ॥५॥ अट्ठ चदु णाण सण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं । ववहारा सुद्धणया सुद्ध पुण दंसणंणाणं ॥६॥ गाथार्थ-आठ प्रकार के ज्ञान और चार प्रकार के दर्शन का जो धारक है वह जीव है। यह व्यवहार नय से सामान्य जीव का लक्षण है और शुद्ध नय से शुद्ध जो ज्ञान, दर्शन है वह जीव का लक्षण कहा गया है ॥६॥ वण्ण रस पंच गधा, दो फासा अट्र णिच्छया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो, ववहारा मुत्ति बंधादो ॥७॥ निश्चय से जीव में पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध और आठ स्पर्श नहीं है इसलिये जीव अमूर्त है और बंध से व्यवहार की अपेक्षा करके जीव मूर्त है ॥७॥ पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। चेदणकम्माणादा, शुद्धणया मुद्ध भावाणं ॥८॥ गाथार्थ:--आतमा व्यवहार से पुद्गल कर्म आदि का कर्ता है, निश्चय से चेतन कर्म का कर्ता है। और शुद्ध नय से शुद्ध भावों का कर्ता है ॥८॥ ववहारा सुहदुक्खं, पुग्गलकम्मप्फलं प जेदि । आदा णिच्छयणयदो, चेदणभावं खु आदस्स ॥६॥ गाथार्थ---आत्मा व्यवहार से सुख दुःखरूप पुद्गल कर्मों का भोगता है और निश्चय नय से आत्मा चेतन स्वभाव को भोगता है ॥६॥ अणु गुरु देह पमाणो, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा।। असमुहदो ववहारा, णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥१०॥ गाथा भावार्थ-व्यवहार नय से समुद्घात अवस्था के बिना यह जीव संकोच तथा विस्तार में छोटे और बड़े शरीर के प्रमाण रहता है और निश्चय नय से जीव असंख्यात प्रदेशों का धारक है ॥१०॥ पुढविजलतेयवाऊ, वणप्फदी विविहथावरेइंदी। विगतिगचदुपचक्खा, तसजीवा होंति संखादि ॥११॥ गाथा भावार्थ---पृथिवी, जल तेज, वायु और वनस्पति इन भेदों से नाना प्रकार के स्थावर जीव हैं और ये सब एक स्पर्शन इंद्रिय के ही धारक है, तथा शंख आदिक दो तीन, चार और पांच इन्द्रियों के धारक त्रस जीव होते है ॥११॥ [१३८]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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