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________________ ध्यान रूपी चन्द्रमा के उदय से ज्ञान रूपी समुद्र बढ़ता है। गुणान समारोप्य, बृहत्प्रतिक्रमण निष्टित करण वीर भक्ति चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति बृहदाचार्य चूलिकाचार्य भक्तिं कृत्वा जेष्ट ऋषिंचामिवंदयेत् ॥ ___ भावार्थ-बीजाक्षरे लिहिल्यानंतर सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति व आलोचना ह्या क्रिया करूण २८ मूलगुन व ३६ उत्तर गुण यांचे आरोपण करणे । नंतर बृहत्प्रति क्रमण, निष्टापन, वीर भक्ति, चतुर्विशति तीर्थकर भक्ति, बृहद् आचार्य चूलिका व आचार्य भक्ति ह्या सर्व क्रिया करून आपल्या जेष्ट गुरूस वंदन करणे ॥ __ततो वाम हस्ते तोद्धृत्य ॐ ह्रः भोंऽते वासिन् जन्म काय कुलादि जीवनि काय्यानि करान् संरक्षेति इदं पिच्छ बहँ दद्यात् । ___ भावार्थ त्यानंतर गुरूने "ॐ ह्रः भोंऽतेवासिन" आदिकरून "संरक्षेति" येथ पर्यत मंत्रम्हणून डाव्या हाताने शिष्यास जीव जंतु रक्षणासाठी पिच्छी उचलून देणें ॥ ___ ततः ॐ ह्रौं भोंऽते वासिन् ज्ञानावरणादि दुष्टाष्ट कर्म मल प्रक्षालनाय इंद्र शौचोपकरणं गृण्हन स्वाहा ॥ भावार्थ-त्यानंतर वरील मंत्र म्हणून गुरू ने ज्ञानावरणादि आठ कर्म मल धुवून टाकण्या करिता कमंडल देणें ॥ ततः ॐ ह्र भोंऽते वासिन् केवलज्ञान संप्राप्तायेति ज्ञानोपकरणं गृहण स्वाहा । भावार्थ-त्यानंतर सद्दश्चामंत्र उच्चारून गुरूने शिष्यांस केवलज्ञान प्राप्त होण्या साठी शास्त्र देणे॥ ॥ इति दीक्षा विधि ॥ . अथ उपाध्याय पद दान विधि सुमुहूर्त दाता गणधर वलयार्चन द्वादशांग श्रुतार्चनं च कारयेत ॥ ततः श्री खंडादिना छटाः दत्वा तंदुलोः स्वस्तिकं कृत्वा तदुपरि पट्टकं संस्थाप्य ! तत्र पूर्वाभि मुख तमुपाध्याय पद योग्यं मुनिमासायत् ॥ अथ उपाध्याय पद स्थापन क्रियायां पूर्वा चार्येत्यादि उच्चार्य सिद्ध, श्रुत भक्तिः पठेत् ॥ तत आवाहनादि मंत्रानुच्चार्य शिरसि लवंग पुष्पाक्षतानि क्षिपेत् ॥ तद्यथा ___ ॐ ह्रौं णमो उवमायाणं ॥ उपाध्याय परमेष्टिन् ऽत्र एहि एहि संवौषट् आह्वाहनं ॥ ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं उपाध्याय परमेष्टिन् तिष्ट तिष्ट ठ ठ स्थापनं ।।
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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