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________________ मनुष्य भव पाकर विषय वासनाओ पर विजय प्राप्त करना चाहिये । कर्माष्टक विनिर्मुक्तं मोक्ष लक्ष्मी निकेतनम् । सम्यक्त्वादि गुणोपेतं सिद्धचक्र नमाम्यहम् ॥११॥ आकृष्टि सुरसंपदांविदधते मुक्तिश्रियो वश्यतां । उच्चाट विपदां चतुर्गतिभुवॉविद्वषमात्मनसाम् ॥१२॥ स्तंभं दुर्गमनं प्रति प्रयततोमोहस्य सम्मोहनम् । पायात्पंच नमास्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता ॥१३॥ अनंतानन्त संसार संततिच्छेद कारणम्,जिनराज पदाम्भोज स्मरणं शरणं मम ॥१४॥ अन्यथा शरणं नास्तित्वमेव शरणंमम,तस्मात्कारुण्य भावेन रक्षरक्ष जिनेश्वर ॥१५॥ नहि त्राता नहि त्राता न हि त्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति ॥१६॥ जिने भक्तिजिने भक्तिजिने भक्ति दिने दिने । सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे ॥१७॥ याचेहं याचेहं जिन तव चरणारविन्दयोर्भक्तिम् । याचेहं याचेहं पुनरपि तामेव तामेव ॥१८॥ कायोत्सर्ग आलोचना इच्छामि भंते ! समाहि भत्ति काउस्सग्गो को तस्सालोचेउं । रयणत्तय परूव परमप्पज्झाणलक्खणं समाहिभत्तीये णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, वोहिलाहो, सुगईगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं । - इति समाधि भक्ति समाप्तम् - चतुः दिशि वन्दना प्राग्दिग्वी दिगन्तरि केवलि जिन सिद्ध साधु गण देवा । ये सर्वर्द्धि समृद्धा योगि शास्तांऽहं वन्दे ॥१॥ दक्षिण दिग्वी दिगन्तरि केवलि जिन सिद्ध साधु गणदेवा । ये सर्वर्द्धि समृद्धा योगि शास्तॉऽहं वन्दे ॥२॥ पश्चिम दिग्वी दिगन्तरि केवलि जिन सिद्ध साधु गण देवा । ये सर्वर्द्धि समृद्धा योगि शास्तांऽहं वन्दे ॥३॥ उत्तर दिग्वी दिगन्तरि केवलि जिन सिद्ध साधु गण देवा । ये सर्वद्धि समृद्धा योगि शास्ताऽहं वन्दे ॥४॥ [१]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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