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________________ रत्नत्रय रूपी हथोड़ी से ससार संतति का छेद करना चाहिये। जे मुनिराज कर इनि पाल सुरिद्धि समाजलये सिव थाये। काय नवाय नमूं चित लाय कहूं जय पाय लहूं मन भाये ॥४॥ भेव विज्ञान कला प्रगटै तब शुद्ध स्वभाव लहै अपनाही । राग द्वेष विमोह सबही गलि जाय इमै झुठ कर्म रुकाही ॥ उज्वल ज्ञान प्रकाश करै बहुतोष धरै परमातममाहो। यो मुनिराज भली विधि धारत केवल पाय सुखी शिव जाही ॥५॥ सम्यकवंत महंत सदा समभाव रहै दुख संकट आये। कर्म नवीन बंधे न तवे पर पूरव बंध झडे बिन भाये ॥ पूरण अंग सुदर्शन रूप धरै निति ज्ञान बड़े निज पाये। यो शिवमारग साधि निरंतर आनन्द रूप निजातम थाये ॥६॥ जो नर कोय पर रजमाहि सचिक्कण अंग लगे वह गाढे । त्यो मतिहीन जुराग विरोध लिये विचरे तव बंधन वाढ ॥ पाय समै उपदेश यथारथ राग विरोध तजे निज चाट। नाहिं बंधै तब कर्म समूह जु आप गहै परभावनि काट ॥७॥ ज्यों नर कोय परयो दृढ़ बंधन बंधस्वरूप लख दुखकारी। चित कर निति केम कट यह तौऊ छिदै नहिं नै कटिकारि ।। छेदनकू गहि आयुधधाय चलाय निशंक कर दुय धारि । यों बुध बुद्धि घसाय दुधाकरि फर्मरु आतम आप गहारी ॥ सर्वविशुद्धज्ञानरूप सदा चिदानन्द करता न भोगता न परद्रव्यभाव को। मूरत असूरत जे आनद्रव्य लोकमांहि तेभी ज्ञानरूपनाहिं न्यारेन अभावको ॥ यहै जानि ज्ञानी जीव आपकू भजै सदीव ज्ञानरूप सुखतूप आन न लगावको। कर्म कर्म फलरूप चेतनाकू दूरि टारी ज्ञानचेतना अभ्यास कर शुद्धधावको ॥६॥ दोहाः-समयसार अविकारका, वर्णन कर्ण सुनन्त । द्रव्यभाव नोकर्म तजि, आतम तत्त्व लखंत ॥१०॥ ॥ समाप्त ॥ [१७१]
SR No.010765
Book TitleChandrasagar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
PublisherMishrimal Bakliwal
Publication Year
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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